Suchi Shukla

Tragedy Drama Abstract

4.9  

Suchi Shukla

Tragedy Drama Abstract

कुछ सिमटा कुछ उभरा इश्क

कुछ सिमटा कुछ उभरा इश्क

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कुकर की दूसरी सीटी बज रही है और मेरे हाथों की रफ़्तार तेज हो गयी है ब्रश करते करते। आनन फानन में मुँह पर पानी के कुछ छींटे मारकर अपने ही दुपट्टे से पोंछकर किचन की ओर भागती मैं, अभी दस मिनट हैं बच्चों और इन्हें उठाने में ऐसा इशारा किया घड़ी ने मुझे। अरे लो – अपना परिचय तो कराना भूल ही गयी मैं। मैं इला– अर्थात इला सुशान्त वर्मा। उम्र यही कोई ३६-३७ वर्ष और पहचान १३ और ११ वर्ष के दो प्यारे बच्चों की माँ। हाँ हाँ समझती हूँ के पहले मैं पत्नी हुई फिर माँ पर जीवन की इस आपा धापी में पत्नी होना कुछ ख़ास महसूस ही नहीं हुआ। सभी के आशीर्वाद से विवाह हुआ मेरा एक कुलीन आकर्षक युवक से और सभी नव विवाहितों की तरह घूमने, फिल्म देखने भी जाते थे न हम ! पर साड़ी और ऊँची हील पहने मैं कभी इनके कदम से कदम नहीं मिला पाई और धीमा चलना शायद इन्हें आता ही न था। तीसरी सीटी ने वापस धरातल पर ला दिया मुझे। चाय चढ़ाकर कदम बढ़ चले सुशान्त को उठाने -पानी, टॉवेल और अख़बार रख कर चाय का बुलावा दे दिया उन्हें रोज़ की तरह। 

और ये सुलभ और अंशिता भी न ? रोज़ इतना परेशान करते हैं न उठने में-अभी बस निकल जाएगी तो सुशान्त को इन्हें स्कूल छोड़ने जाना पड़ेगा और सुबह सुबह ही मूड खराब हो जायेगा उनका। “ उठो बेटे चलो जल्दी करो “ “एक मिनट मम्मी बस एक मिनट “ अलसाया सा सुलभ बोला और सुर में सुर मिलाती अनमनी सी अंशिता भी “नहीं जाना स्कूल बस”। घड़ी की ओर घूरती मान मनुहार से दोनों को उठाया और भेजा तैयार होने। फटाफट सबका टिफिन पैक किया और लग गयी बेतरतीब से कमरों को सँवारने। काश जिंदगी भी ऐसे ही संवर जाती। न न ये मत सोचना की उदास हूँ मैं – या असंतुष्ट ? या हूँ? क्या पता ? बाहर से देखने पर तो सब ठीक ही लगता है पर भीतर रोज़ कुछ दरकता सा है – बेआवाज़। कहीं कुछ टूटता है फिर जुड़ जाता है – अपने आप। और फिर चल पड़ती है जिंदगी अपनी ही रफ़्तार से।

साढ़े सात बज गए हैं- सुबह का भूचाल शांत हो गया है इन सब के जाने से। आज सुशान्त को भी जल्दी जाना था किसी काम से – क्या पता क्या काम, शायद बताना भूल गए होंगे। हाथ में चाय का मग पकड़े मैं चल पड़ी अपनी तैयारी पर – बस बाई समय पर आकर सब काम कर दे तो सब संभला है। मुझे भी तो निकलना है कुछ देर में। लो आ गयी लक्ष्मी गुहार लगाती “ बीबीजी सर दर्द हो रहा है चाय पिला दो आज पहले “| समझ गयी आज फिर पति के क्रोध का निशाना बन कर आई है ये पर कुछ कह सुन कर भी तो कोई फायदा नहीं। हमारे समाज में बहुत कुछ बस घटता है -बिना कारण बिना किसी हल। अपने हाथ का मग उसे पकड़ाया, एक डिस्प्रिन दी और नहाने चल दी मैं। समय जैसे भाग रहा है – दिन महीने साल सब तो गुज़र गए !

आइने के सामने खड़ी होती हूँ तो दिखती है बालों में चमकती चांदी -समय ही नहीं मिल पा रहा पार्लर जाने का। अलमारी खोल कर बरबस ही हाथ आ गयी ये गुलाबी साड़ी – कम ही पहन पाती हूँ साड़ी आजकल। इतनी अफरा तफरी में बस किसी तरह तैयार होकर निकलना भी किसी युद्ध से कम नहीं। पर आज कुछ मिनट है मेरे पास – क्या अपने लिए ? तैयार होकर आज बाल क्लच में नहीं बांधे मैंने बल्कि एक ढीली सी छोटी करके छोड़ दी। और ये क्या ? ये चांदी का ब्रेसलेट – इसे तो जैसे भूल गयी थी मैं- आज इसे ही पहन लेती हूँ। फटाफट बिंदी सिन्दूर घड़ी पहन कर जब बाहर निकली तो लक्ष्मी बोल पड़ी “ आज क्या है बीबीजी – अच्छी लग रहीं हैं आप !” तब एहसास हुआ कि जिम्मेदारियों को निभाते निभाते खुद को कहीं भूल गयी हूँ मैं। आज अचानक दस मिनट खुद को दिए तो.... ? मुस्कुराकर वापस कमरे में गयी और लगायी गुलाबी लिपस्टिक और अपना पसंदीदा इत्र।

ये नहीं के रोज़ यहाँ से ट्रेन नहीं पकड़ती मैं – पर आज लोग कुछ अलग हैं क्या – वो गेट के पास वाला गार्ड कुछ मुस्कुराया क्या ? और अखबार बेचने वाले लड़के की आँखें कुछ चमकीली हैं क्या आज ? चलो छोड़ो। अपनी निर्धारित ट्रेन के रोज़ वाले कोच में चढ़ चुकी मैं और हलकी सी गर्दन हिलाकर कुछ लोगों का अभिवादन करती कुछ अलग हूँ मैं क्या आज ? तो फिर ये लोग अलग से क्यों लग रहें हैं मुझे आज ? क्या बदल गया है ? क्या मैं ? ये सामने वाली सीट पर बैठ कर हमेशा अपनी किताब में खोये रहने वाले ये सज्जन आज इतने चमत्कृत क्यों हैं ? इनकी आँखों में आज कुछ प्रशंसा का भाव है क्या ? एक मौन का संवाद रहा है हमारे दरमियान जाने क्यों ? नाम नहीं जानती मैं इनका – कभी पूछा ही नहीं – आवश्यकता ही नहीं थी कोई। पर ये बैठते रोज़ यहीं हैं। शायद किसी बैंक में काम करते है या किसी इन्वेस्टमेंट कंपनी में। जो किताबें ये पढ़ते रहते हैं न उन्हें देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है। आ गया मेरा स्टेशन और बढ़ चले कदम ऑफिस की ओर।  

समय पर हूँ मैं- असल में हमेशा ही रहती हूँ। पसंद ही नहीं देर से आना और किसी की कोई ऊँची नीची बात सुनना। अक्सर सुशांत कह उठते हैं कि क्यों इतनी जल्दी में रहती हो, अगली ट्रेन भी पकड़ो तो पहुँच जाओगी ? क्या बोलू उन्हें ? खैर लिफ्ट का बटन दबाया और अपनी फ्लोर पर पहुंचकर फिर चौंकी मैं क्योंकि भोलाजी बोले “ हैप्पी बर्थडे मैडमजी।“ ये भोलाजी कहने को तो चपरासी हैं हमारे यहाँ पर इनकी उम्र का लिहाज़ करके मैं इन्हें दादा या भोलाजी ही कहती हूँ। “अरे नहीं दादा आज कोई जन्मदिन नहीं है मेरा “ मेरे ऐसा कहते ही कुछ अविश्वास से देख दिया उन्होंने मुझे जैसे अपने मिठाई के पैसे बचाना चाहती हूँ मैं औरों की तरह। हँसकर अन्दर पहुँची तो सभी की नज़रों में एक “लक्ष्मी”, अरे मेरा मतलब एक “अच्छी लग रही हो” का भाव दिखा मुझे। रीता औए महक तो पीछे ही पड़ गयी के बता बात क्या है। लो अब तो ठीक से तैयार होकर आना भी गुनाह हो गया यहाँ ! पूरे दिन एक नसों में एक अलग ही स्फूर्ति रही आज- थकान और गर्मी कुछ कम है न आज? 

वापसी ट्रेन में फिर वही रोज़ का सा हाल। कोई संगीत सुनकर तो कोई मोबाइल में गेम खेलकर अपनी थकान मिटा रहा था और मैं रोज़ की तरह खिड़की से बाहर गुजरती हुई जिंदगी को देखती न जाने किस शून्य में खोयी हुई थी। तभी एक अपरिचित किन्तु भला सा स्पंदन हुआ जब कोई बोला “मुझे नहीं पहचानती हो न इला ?” मुड़कर देखा तो आश्चर्य करने की बारी मेरी थी। वही सज्जन मुझे संबोधित कर रहे थे जो मेरे रोज़ के मूक सहयात्री थे। मेरे विस्मय पर शालीनता से बोले वो “ मैं अश्विन ? कॉलेज में तुम्हारा सीनियर और रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों को संचालित करने में तुम्हारा सहभागी ?” जैसे अचानक अतीत का कोई झरोखा सा खुल गया और याद आ गया मुझे मेरा वो रूप जहाँ किताबें थी, लेखन था, साहित्यिक चर्चाएँ थीं, और समाज को सही दिशा देने के युवा इरादे थे। सहसा मेरे मुँह से निकला “ कितना बदल गए हो तुम – सॉरी आप ?” मेरा इशारा शायद उनकी फ्रेंच कट दाढ़ी, बड़े चश्मे और चांदी भरे बालों की तरफ था। पर जो नहीं बदली थी वो थी उनकी वो उन्मुक्त हंसी जो संभवतः मैं डेढ़ दशक बाद सुन रही थी और इतने दिनों के मूक सफ़र में कभी नहीं देखी थी। संकोच में सिमट सी गयी मैं। 

आज गुनगुनाते हुए घर में घुसी मैं और रोज़मर्रा के कामों में जुट गयी। समय की चक्की फिर अपनी सधी सधाई रफ़्तार से घूम रही थी। सबके सो जाने के बाद आज पुराने एल्बम लेकर बैठ गयी मैं। शादी की सभी रस्मों को फिर से जीती हुई मैं पापा मम्मी के उन शब्दों को गुन रही थी कि इतना अच्छा लड़का है- सामने से रिश्ता आया है और कोई मांग भी नहीं है उनकी। तू सबसे बड़ी है- एक जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी और शादी के बाद तेरे पढाई जारी रखने से भी ऐतराज़ नहीं है उन्हें। रिया, मेरी छोटी बहन तो जैसे दीवानी हो गयी सुशान्त की फोटो देख कर पर भाई के छोटे से माथे पर चिंता की लकीरें थी कि सब सही तो होगा न ? सगाई बड़ी सादगी से हुई और समय पंख लगा कर उड़ चला और लो विवाह भी हो गया देखते देखते। 

नए जीवन के नए सपने संजोती मैं कुछ विस्मित कुछ चमत्कृत बढ़ चली एक नई डगर पर, उनके साथ कदम से कदम मिलाने की चाह में। पर बहुत जल्दी सीख लिया कि साथ नहीं चल सकूंगी मैं क्योंकि हमारी चाल ही कुछ अलग है एक दुसरे से। क्षोभ, कुंठा और दर्द को हावी नहीं होने दिया अपने ऊपर मैंने और समझा जीवन का सार कि जो जैसा है, जितना है- अच्छा है। यही नियति है। इसी में गति है। पंख लगे समय की उड़ान में संग उड़ चली मैं दोनो बाहें फैलाये स्वागत करती सुलभ और अंशिता का। इस सबके बीच पढना जारी रखा और शिक्षा विभाग में नौकरी भी। बस जो पीछे छूट गया वो था -मेरा स्वयं – मेरे अंतर का वो व्यक्ति जो इला था – श्रीमति इला वर्मा नहीं। “ आज सोना नहीं है क्या” आँखें मलते सुशान्त ने पीछे से आकर पूछा। वर्त्तमान में प्रवेश करती उठ खड़ी हुई मैं। इन्हें पानी का गिलास दिया और उसके बचे हुए घूँट को अपने हलक में उतारते समय ठिठकी मैं – सभी पत्नियाँ ऐसी ही होती हैं न ? मैं कोई अलग थोड़ी न हूँ ! 

अब बहुत सी बातें होती हैं अश्विन के साथ – अतीत की, वर्त्तमान की और फिर से देश के भविष्य की। उसने भी अपने आदर्श समाज के सपने को अपने कुर्ते के साथ उतार कर जिम्मेदारियों की पैंट शर्ट पहन ली- यही जीवन है, यही संसार है। पर रोज़ के इस सफ़र में बहुत कुछ जीने लगे थे हम दोनों। अपने इला होने का फिर से एहसास करा रहा था वो मुझे और मैं इस सुखद एहसास में उसके साथ खुश थी। आने वाले तूफ़ान से पूरी तरह अनभिज्ञ। जब भी गुनगुनाती या मुस्कुराते हुए कुछ काम करती तो सहसा ही सुशान्त की नज़रें उठ जाती मेरी तरफ – एक विस्मय एक प्रश्नचिन्ह के साथ। और मैं सकपका जाती जैसे कोई चोरी पकड़ी गयी हो – बेमतलब ही उनको संदेह के सापों ने घेरना शुरू कर दिया था और मैं थी इस सब से नितांत अनजान। अब मेरे तैयार होते समय टीवी या अखबार में नहीं घिरते सुशांत बल्कि खामोश से देखा करते हैं। कभी कपड़ों कभी घड़ी तो कभी श्रृंगार पर बोल उठते हैं “ बड़े दिनों बाद पहना तुमने ये- कोई ख़ास बात ?” मैं हलकी सी गर्दन हिला कर नकार देती और वो बस देखते रहते न जाने कितने संशय दिल में लिए।

आज अचानक मुझे लेने मेरे स्टॉप पर आ गए सुशांत और मैं हक्की बक्की रह गयी क्यूंकि ऐसा तो कभी होता नहीं। मेरा विस्मय भी अजीब लगा उन्हें ? पर क्यों ? चलो छोड़ो, होगा कुछ। अपने नियत कामों से फारिग होकर जब शयन कक्ष में पहुंची तो जाग रहे थे वो। कुछ इधर उधर की बातें होती रहीं फिर अचानक ही बोल पड़े “ और तुम्हारे स्टाफ में सब वही लोग हैं या कोई नया आया ?” चौंक कर मैंने कहा ऐसा तो कोई ख़ास नहीं। पर जाने क्यूँ एक अजीब सी बेचैनी हुई मुझे – फिर अपने अन्दर की आशंका को दबा कर मैंने सोचा नहीं नहीं अब तो बदल गए हैं ये – समय के साथ परिपक्वता आ गयी है, अब थोड़ी न ? करवटें बदलते, सोते जागते सुबह हो गयी और रोज़ का रूटीन शुरू। इनके चले जाने के बाद कुछ बेचैन सी ही रही मैं – पर नकारात्मकता को त्यागने के अपने निश्चय पर वापस आते हुए तैयार होकर निकल पड़ी अपने काम पर।

आज अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा करते समय जाने कैसे कैसे विचार आ रहे थे – कुछ कसमसाहट सी महसूस हो रही थी। खैर चढ़ी अपने कोच में और रोज़ की तरह मुस्कुराकर अभिवादन किया लोगों का, अश्विन की गुड मॉर्निंग का जवाब देकर जैसे ही बैठी दिल जैसे निकल कर हलक में आ गया। एक अनजानी आशंका और पहचाने से दर्द ने दिल को घेर लिया। सामने से सुशांत आ रहे थे पर मैं जैसे कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे पा रही थी। बस मूक पत्थर हो गयी थी- इतने वर्षों बाद ? फिर से ? मेरी मनोस्थिति से अन्जान अश्विन ने रोज़ की तरह बातों का सिलसिला शुरू कर दिया था और लोगों को बीच से हटाते सुशांत मेरी ओर बढ़ रहे थे। “ तो ये हैं वो ?” कटाक्ष के साथ मेरे बगल में बैठ गए वो। आश्चर्य चकित अश्विन बोल पड़े “ माफ़ कीजियेगा किन्तु .....” पर उसके आगे वो नहीं सुशांत बोले, “जनाब अगर आपकी आज्ञा हो तो अपनी खुद की पत्नी से दो बात कर लूँ मैं ?” सकपकाकर चुप हो गए अश्विन बेहद विस्मित मेरी आँखों के पानी पर, जो पलकों पर ही ठहरा हुआ था। खुद को संभालकर दोनों को परिचय कराया मैंने, एकदम यंत्रवत- मशीनी रूप से। एक ब्रेक लगा- ट्रेन रुकी और उतर गए हम दोनों अपने घर जाने के लिए। 

इतना गहरा सन्नाटा किसी तूफ़ान का अंदेशा है ये जानती हूँ मैं और शायद किस तूफ़ान का ये भी। फिर भी रोम रोम से दुआ निकल रही थी कि नहीं ईश्वर नहीं- अब नहीं। बच्चों के सोने के बाद आज कितना डर रही हूँ मैं अपने ही कमरे में जाने से। ऐसा नहीं की जो होने वाला है वो पहली बार है पर फिर भी बड़े दिनों बाद है और शायद उस भाव को जीना- सहना भूल चुकी हूँ मैं। कुछ बेहद चुभते से शब्द बह रहे हैं मेरे आँसुओं में और मैं निर्दोष होते हुए भी एक अपराधी सी खड़ी हूँ कटघरे में। पता नहीं क्यूँ सुशांत इतना कड़वा बोलते हैं और इतने हलके हो जाते हैं अपनी ही पत्नी के प्रति ? शादी के बाद लगता था कि समय के साथ मुझे समझ जायेंगें और फिर ऐसा नहीं बोलेंगे पर ऐसा कुछ कभी हुआ नहीं। सब ठीक है हमारे बीच बस इनका विश्वास, इनका यकीं बेहद कमज़ोर है- अकारण। शब्द कुछ नहीं कर पाते ऐसे में और मेरे मौन को हमेशा मेरी स्वीकृति समझने का दंभ पाले हुए हैं ये आजतक। समझ नहीं आता की पुरुष इतनी आसानी से कैसे कुठाराघात कर देता है स्त्री के चरित्र पर- उसके सम्मान पर – उसकी आत्मा पर ?

अपने माता - पिता की अच्छी बेटी मैं, अपने भाई बहन के लिए उदाहरण मैं, अपनी तरुणाई में भी कभी किसी के प्रति आकर्षित नहीं हुई। अपने आदर्शों पर चलते हुए अचानक २१ वर्ष की अधकच्ची उम्र में सुशांत की हो गयी मैं, न सिर्फ तन से अपितु मन से भी। मन में उनके लिए रूमानी ख़्याल उठते थे पर जल्दी ही समझ गयी या समझा दी गयी के कितनी कमतर हूँ मैं हर तरह से। उनके बड़े कदमों और तेज़ चाल से कहीं पीछे छूटती चली गयी मैं एक इंसान के रूप में और रह गयी तो एक पत्नी जो बनती बिगड़ती रही उनके हिसाब से। नश्तर से चुभ जाते वो जब मुझे छत पर देख कर वो दूसरों की छतों पर जाने क्या ढूंढते ? या किसी से हंस कर फोन पर बात करते देख कुछ अजीब सा देखते और हद तो तब हो जाती जब कोई मिस्ड कॉल या ब्लेंक कॉल आ जाती ? जैसे मैंने ही कोई अपराध कर दिया हो। और इस सब के बीच सुलभ- अंशिता के आने से कुछ ठहराव आया था शायद – या मेरा खुद को भूल जाना ही ठहराव का कारण था ? और आज जब मैंने खुद को संवारा तो वही सर्पदंश फिर से ?  

आज तैयार नहीं हुयी मैं। अपना पुराना कॉटन का सूट निकाला, बेतरतीब बालों को क्लच में समेटा जैसे तैसे और बहती अश्रुधारा के बीच गुलाबी लिपस्टिक पीछे डाल दी अलमारी में। ताला लगाया घर पर, और अपने कुछ खुद हो पाने के इरादे पर, और नपे तुले क़दमों से चल पड़ी अपनी पहचानी डगर पर। सामने खड़े हैं सुशांत। देख रहें हैं मुझे जाते हुए -संवादहीन। एक शांति है उनकी आँखों में। और एक निश्चय मेरे ह्रदय में। चढ़ दी ट्रेन में। अभिवादन भी। अश्विन की नज़रें उठीं - मुझसे टकरायीं- चौंकी और एक सन्नाटा पसर गया हमारे बीच। नम हैं उनकी भी आँखें – लाचारी से – एक अजीब से अपराध बोध से जिसका उनसे कोई सम्बन्ध भी नहीं। और उनके इस अपराध बोध ने मेरे सीने के दर्द को और भी बढ़ा दिया। नज़रें फेर ली मैंने क्यूंकि अब कहना क्या और सुनना क्या। 

कितनी देर लगती है लबों के यूँ हिलने में, एक ऊँगली के उठने में और शब्दों के जहर होने में ? क्यूँ इतनी आसानी से पुरुष किसी स्त्री के चरित्र पर हमला कर देता है ? किसी भी स्त्री के लिए मूर्ख कहलाना उतना अपमानजनक नहीं जितना चरित्रहीन क्यूंकि चरित्र ही उसका गहना है और उसका सबसे कमज़ोर कोना जिस पर वो कोई आघात सह नहीं पाती। बिखर जाती है या विद्रोही किन्तु अवश्य ही स्वयं से जुदा हो जाती है। सदियों से पुरुष प्रधान समाज में औरतों के चरित्र पर अनर्गल कुठाराघात किये गए हैं और समाज मूक बधिर होकर बस तमाशा देखता रहता है। अरे जिसने सीता को नहीं छोड़ा वो इला को क्या छोड़ेगा ? और दोष तो स्त्री का भी है। क्यों सह जाती है वो ये सब ? कभी परिवार के नाम पर, कभी परम्परा के नाम पर तो कभी मूल्यों के नाम पर ? यही सब सोच रही थी इला के अचानक अश्विन बोले “कल से मैं इस कोच में नहीं आऊंगा या शायद इस ट्रेन में ही नहीं, यही उचित होगा शायद तुम्हारे लिए। अच्छा चलता हूँ अपना ध्यान रखना। ईश्वर सब ठीक करेगा।”

कुछ फिर दरका, कुछ टूटा और फिर टीस वही पुरानी।


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