Naresh Verma

Tragedy

5.0  

Naresh Verma

Tragedy

रामदुलारी की तेरहवीं

रामदुलारी की तेरहवीं

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आकाश में काले बादल घुमड़ रहे थे ।किसी भी क्षण वर्षा हो सकती थी ।वर्षा की संभावना से मनुष्योंका समूह- “राम नाम सत्य है “ की गुहार लगाता जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता शमशान की ओर जा रहा था।


आकाश में बिजली कड़की और उसी क्षण पानी की बौछार का एक झोंका आया और अर्थी को सहलागया।वायु का वेग भी बढ़ गया था ।किंतु वायु की तेज़ी से बादलों का घनापन छँटने लगा था और इसी केसाथ बूँदें थम गई थी ।अचानक देवी प्रसाद को आभास हुआ कि जैसे अर्थी में कुछ हिला हो।अपने मनका भ्रम जानकर उसने अर्थी को दिए जा रहे अपने दाँये कन्धे को बाँये कन्धे से बदला ।चार कंधों कीसवारी पर रामदुलारी की अंतिम यात्रा का गंतव्य आ गया था ।एक मोड़ के बाद ही शमशान प्रवेश के बड़ेफाटक से लोगों का समूह अंदर प्रवेश कर गया।शवदाह गृह की दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-“ यहाँ तक लाने के लिए आपका धन्यवाद ,अब आगे की यात्रा हम स्वयं करेंगे ।”


 एक विशाल पीपल के वृक्ष के आगे बने सीमेंट के चबूतरे पर सावधानी से अर्थी रख दी गई ।लोगों के झुंड एवं शोर से पीपल की शाख़ों पर बैठे पक्षी अचानक फड़फड़ा कर उड़ गए ।कन्धे से उतरे भार से देवीप्रसाद ने राहत की साँस लेते हुए कन्धा सहलाया ही था कि अचानक माँ की अर्थी हिलने लगी।देवी प्रसादको लगा कि रात भर जागने से उसकी नींद से थकी आँखों को भ्रम हो रहा है ।किंतु देवी प्रसाद ने देखा किउसके बड़े भाई बद्री प्रसाद एवं पास खड़े लोगों की भय से विस्फारित आँखें भी वही देख रहीं हैं जो वहस्वयं देख रहा है ।माँ की अर्थी वास्तव में काँप रही थी ।अर्थी के पास खड़े लोग भय से पीछे हट गए थे ।पास खड़े लोगों में से कोई चिल्लाया….भूत ….भूत …भागो…भागो..।भीड़ में अफ़रातफ़री सी मच गई ।पीपल की शाख़ों पर बैठे कौवों की काँव-काँव का शोर बड़ गया था ।कमजोर कलेजे के लोग शमशानछोड़ भागने लगे ।


  इस अप्रत्याशित अनहोनी को देख रामदुलारी के दोनों पुत्र एवं घर के अन्य सदस्य भय एवं आशंका केवशीभूत चबूतरे से पीछे हट गए ।उसी क्षण अर्थी के कफ़न से दो हाथ बाहर निकले……और दूसरे ही पलमुर्दा अर्थी से उठ बैठा।माथे पर फैल आया रोली का लाल रंग, छितराए केशों के मध्य झुर्रियों भरे चेहरे परफटी-फटी आँखों से देखती रामदुलारी एक प्रेत सरीखी लग रही थी ।


 “बेटे ! मुझे यहाँ क्यों लाए हो ?”-मुर्दे के मुँह से निकली क्षीण ध्वनि ,वातावरण में किसी बम के धमाकेसे गूंज उठी । अप्रत्याशित घटना की उत्तेजना से उबरते हुए देवी प्रसाद आशंकित सा अर्थी के पास गयाऔर पूछा-“माँ तुम ठीक हो।”


 पथराई आँखों से चारों ओर देखती रामदुलारी ने पुनः पूछा-“ हाँ, मैं ठीक हूँ ।पर मुझे यहाँ क्यों लाए हो?”


घर की चौखट से चार कंधों पर सवार होकर निकली रामदुलारी अब रिक्शे की सवारी पर पुनः घर कीचौखट की ओर पुत्रों के साथ चल दी।रिक्शे के साथ चल रही लोगों की भीड़ देवी माँ के जयकारे लगा रही थी ।मुर्दा जी उठा का समाचार मोहल्ले में आग की तरह फैल गया ।रिक्शे के साथ चलते क़ाफ़िले को देखने घर के छज्जों पर ,खिड़कियों पर स्त्रियों एवं बच्चों का हुजूम उत्सुकता से ,रिक्शे पर सिर झुकाए बैठी रामदुलारी को देख रहा था ।ऐसा नजारा था जैसे रिक्शे पर रामदुलारी न होकर गणेश की प्रतिमा हो जिसे जल में सिराने भक्तों का जुलूस जा रहा हो।


देवी प्रसाद के पड़ौस में रहने वाले हकीम जी का लंगड़ा कर चलने वाला लड़का शिब्बू ,शमशान सेऐसे भागा जैसे उसकी डेढ़ टाँग न होकर तीन टाँगें हों ।किसी मैराथन दौड़ के धावक की तरह हाँफते-हाँफते वह देवी प्रसाद के घर की चौखट पर पहुँच गया।वैसे तो उस घर में उसका प्रवेश निषिद्ध था क्योंकि अक्सर वह छत की मुँडेर से देवी प्रसाद की सोलह वर्षीया लड़की निम्मो की ताँक-झाँक किया करता था।किंतु घर में घुसने का आज जैसा सुनहरा अवसर उसे फिर कहाँ मिलता।अम्मा के मरकर ज़िन्दा होने की धाँसू ख़बर का वह प्रथम संदेश-वाहक बनने का गौरव पाना चाहता था ।


 देवी प्रसाद की औरत ने जब शिब्बू को धड़धड़ाते घर में घुसते देखा तो लपककर दरवाज़े पर आई और तमतमाते हुए कहा-“ अरे…रे..यह क्या मिनुसपलटी के साँड़ की तरह घुसा आ रहा है ?”


 शिब्बू थोड़ा सा ठिठका ,फिर जैसे ही उसकी नज़र कमरे के बाहर खड़ी निम्मो पर पड़ी तो दूने उत्साह सेउसने कहा-“ आंटी, ऐसी ख़बर लाया हूँ कि सुनकर उछल पड़ोगी ।”


 सुनकर निम्मो भी उत्सुकता से चौखट तक आ गई।उसने आज चुन्नी भी नहीं डाली हुई थी ।क़मीज़ से उसका गदराया वदन झलक रहा था ।


 “अभी घर से मुर्दे की धूल भी नहीं छँटी और तू ख़बरची बन कर घुस आया ।”-देवी प्रसाद की औरत नेनिम्मो को घूरते हुए कहा ।


 “ वही तो…..शमशान घाट पर अम्मा कफ़न फाड़ कर उठ बैठीं।और अब रिक्शे पर बैठ कर घर आ रहीहैं ।”-शिब्बू ने कनखियों से निम्मो की क़मीज़ को तकते हुए कहा ।


 “क्या अनाप-शनाप बक रहा है ।”-देवी प्रसाद की पत्नी ने अविश्वास से कहा ।


 “विश्वास नहीं आता तो गली से आता देवी-मैया के जयकारे का शोर तो सुनाई दे रहा है ।यह अम्मा केजुलूस का शोर है ।”-शिब्बू ने ज़ोर देते हुए कहा ।


 देवी प्रसाद एवं बद्री प्रसाद की पत्नियाँ घर की ड्योढ़ी पर मरकर जीवित हुई सास के स्वागत में खड़ीमन में सोच रही थीं कि कैसे न कैसे तो बुढ़िया मरी और अब फिर से छाती में मूँग दलने वापस आ रही है ।


 मनुष्यों की भीड़ के साथ चलता रिक्शा घर की ड्योढ़ी पर आ लगा।इतनी भीड़ तो रामदुलारी जैसी अनाम बुढ़िया की शव-यात्रा में भी नहीं थी ,जितनी उसके जीवित होकर आने में हो गयी थी ।थकी सीरा मदुलारी की क्षीण काया पुत्रों की सहायता से रिक्शे से उतरी।देवी माँ के जयकारों के बीच लोगों की कौतूहल भरी नज़रों से अपने को बचाती , वह घर में प्रवेश कर गई।मर कर जीवित होने के अपराध बोधसे ग्रस्त, थकी सी रामदुलारी घर की चारपाई पर निढाल सी सो गई ( या फिर लोगों के प्रश्नों से बचने केप्रयास में सोने का नाटक कर रही थी)


 रामदुलारी तो सो गई किंतु मोहल्ला जाग उठा था ।एक उत्तेजना का वातावरण व्याप्त था ।यह एक ऐसा निम्न मध्यवर्गीय मोहल्ला था जिसकी पहचान यहाँ की कोलतार उघड़ी सड़कों पर आवारा घूमते पशुओंके बीच गिल्ली-डंडा या कंचे जैसे राष्ट्रीय खेल खेलते बच्चे थे।इस अनाम से मोहल्ले को रामदुलारी एपीसोड ने अचानक सुर्ख़ियों में ला दिया था ।सनसनी-खेज़ खबरों के भूखे टी॰वी॰ वाले और प्रेस वाले अपने-अपने कैमरे लटकाए इस मोहल्ले में सक्रिय हो उठे थे ।


 प्रसाद बंधुओं की पत्नियाँ (जो सास के जीवित होने से विक्षुब्ध थीं ) अपने को दूरदर्शन पर दिखलाए जाने की उत्तेजना से प्रेस-कैमरे के सामने काजल लिपस्टिक लगाए विस्तार से पुनर्जीवित गाथा का ब्योरादे रहीं थीं ।ईश्वर को सास के पुनर्जीवित होने के धन्यवाद के साथ इसे अपने पूर्वजन्मों का सुफल भी बता रही थीं।किन्तु रामदुलारी के प्रेस के समक्ष न आने के हठ के चलते उसके मर कर जीवित होने के अनुभवया उसके मन में क्या चल रहा है-इन सब से वंचित प्रेसवालों को रामदुलारी के विभिन्न कोणों से लिएफ़ोटो से संतोष करना पड़ा ।


कैसे-न-कैसे अफ़रा -तफ़री में वह दिन गुजरा ।अगले दिन , घर के सदस्यों एवं मोहल्ले के बड़े-बूढ़ों कीराय से जीवित हुए मुर्दे के सम्भावित दुष्प्रभाव की छाया के निवारण हेतु पंडित शिवचरण बुलवाए गए।पंडित शिवचरण ने आँखें मूँद कर आकाश की ओर देखते हुए कोई अस्पष्ट-सा मन्त्र बुदबुदाया ।तत्पश्चात् अपने थैले से कोई कर्म-कांड सम्बन्धित पोथा निकाल कर उसके पन्ने पलटे एवं मनन की मुद्रा में आ गए ।ऐसा लगता था जैसे कोर्ट में बैठा कोई न्यायाधीश सबूतों एवं गवाहों को सुनने के बाद किसी जटिल मुक़दमे का फ़ैसला सुनाने जा रहा हो।पंडित शिवचरण के जीवन में सम्भवतः यह प्रथम अवसर हीथा, जब मर कर जीवित हुए किसी जीव के कर्मकांड सम्बंधित अनुष्ठान का निर्णय उन्हें देना था ।


  शिवचरण जी ने कर्म-कांड ग्रंथ को श्रद्धा से अपने थैले में रखा तत्पश्चात् गंभीरता का मुखौटा ओढ़ते हुए देवीप्रसाद एवं बद्री प्रसाद को संबोधित करते हुए कहा-“ देखिये जजमान ! आपकी माँ की मृत्यु तोनिश्चित रूप से हो चुकी थी, किंतु ईश्वर कृपा से पूर्वजन्म कर्मफलों के कारण इसी शरीर में उन्हें नयाजीवन दिया गया है ।”


 कोने में खड़ी दोनों पत्नियाँ पंडित के ज्ञान-दर्शन को समझने की चेष्टा में अपने-अपने पतियों के समीप आ खड़ी हुई ।किंतु इन सब के भ्रमित चेहरों पर साफ़ लिखा था कि मृत्यु , पूर्व जन्म ,कर्म फल जैसी शब्दावली उनके लिए ऐसे ही अनजान थी जैसे गाँव की पाठशाला के मास्टर के लिए ट्विटर और फ़ेसबुक जैसी शब्दावली ।


 देवी प्रसाद ने अपने अज्ञान के क्षोभ को दबाते हुए झल्लाकर कहा-“ पंडित जी यह कर्मकांड और कर्मफल के ज्ञान को छोड़िए, हमें तो यह बतलाइये कि अब हमें करना क्या है ?”


 पंडित शिवचरण ने अपनी विद्वता के ज्ञान में फूलते हुए कहा-“ करना क्या है जजमान, अपनी मृत माँ की तेरहवीं कीजिए ।तत्पश्चात् अपनी पुनर्जीवित माँ का नया नामकरण संस्कार कीजिए ।” जजमान बन्धुओं के असमंजस को अनदेखा करते हुए शिवचरण ने अपनी बात चालू रखी -“ तेरहवीं में ग्यारह पंडितों को भोज करायें ।अपनी मृत माँ की आत्मा शांति हेतु उसकी पसंद के वस्त्र एवं वस्तुओं का श्रद्धा अनुसार दान-दक्षिणा करें।”


 दोनों बहुएँ पंडित जी द्वारा सुझाए गए इस ख़र्चीले तेरहवीं कर्म के औचित्य को पचा नहीं पा रहीं थीं ।अत: बड़ी बहू ने खीजते हुए कहा-“ पंडित जी , घर में जब कोई मरा ही नहीं, सास अन्दर चारपाई पर भलीचंगी लेटी है, तो काहे की तेरहवीं और काहे का भोज ?”


 अपने पंडिताई ज्ञान पर एक अनपढ़ स्त्री द्वारा लगाए प्रश्न के प्रहार से तिलमिलाए शिवचरण ने अपनेको संयत करते हुए (औरतों के मुँह न लगने की परम्परा का पालन करते हुए) बद्री प्रसाद से कहा-“ देखिये जजमान ,यदि आपकी माँ कीं मृत्यु हुई ही नहीं थी तो काहे को अर्थी सजाई और काहे को शमशान गए।आपकी माँ कीं मृत्यु तो अवश्य हुई है, किंतु उपर के दरबार में भी तो भूल-चूक हो सकती है ।उसी भूल-चूक के परिणाम स्वरूप लिए गए प्राण पुनः देह में प्रतिष्ठित कर दिए गए ।”


 अपने तर्क के प्रभाव को जजमानों के चेहरे पर लक्षित कर शिवचरण ने अंतिम हथियार का वार करतेहुए पुनः कहा-“ इस पर भी यदि आप घर पर हुई मृत्यु के दुष्प्रभाव निवारण हेतु कर्म-कांड नहीं संपन्न कराना चाहते तो आपकी इच्छा ।किंतु बच्चों पर एवं घर पर पड़ती अनिष्ट छाया के लिए आप स्वयंउत्तरदायी होंगे ।”


 पंडित जी की इस परोक्ष धमकी के आगे बहुएँ नतमस्तक अवश्य हो गई किंतु इस अनावश्यक ख़र्च कीखीज उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक आई थी ।माँ की तेरहवीं एवं नामकरण विधि-विधान से किये जायेंगे।इस निर्णय के साथ सभा विसर्जित हो गई ।पंडित शिवचरण सन्तुष्टि के भाव से अपनी पोथी-पुस्तकसमेट कर प्रस्थान कर गये ।


रामदुलारी को जब ज्ञात हुआ कि जीते-जी उसकी तेरहवीं मनायी जा रही है तो शर्म से उसका कलेजा फट पड़ने को हो आया।काश ! मौत उसके बस में होती तो वह उसे अभी गले लगा लेती।वैसे भी उठते-बैठते बहुओं के ताने सुनने से तो मर जाने में ही ज़्यादा सुकून मिलता।वह सोचनें लगी कि हे भगवान जीते जी इन आँखों से अपनी तेरहवीं देखने से तो अच्छा है कि मेरे प्राण ले लो।


ड्योढ़ी की छत पर से होते हुए सूरज की लालिमा का प्रकाश घर के दालान पर फैल गया था ।कोने केगमले में लगा तुलसी का पौधा पानी के अभाव में मुरझा गया है ।तुलसी को कौन पानी देता , जब पानीदेनेवाली स्वयं कोठरी में मुरझाई सी पड़ी है ।


 घर में उत्तेजना एवं सक्रियता का मिला-जुला वातावरण है ।घर के दालान पर दरी बिछा दी गई है ।दालान की दीवार से लगी चौकी पर रामदुलारी की ब्लैक एंड व्हाइट पुरानी फ़ोटो (जिसमें उसकी आयुबहुओं से कम लग रही है ) पर गेंदें की माला सुशोभित है ।फ़ोटो के सामने रखी थाली पर दिया जल रहाहै ।घर से लगी गली पर बनाई भट्टी पर हलवाई पूड़ियाँ तल रहा है ।घर के बच्चे उत्साह से उछल-कूद मचारहे हैं क्योंकि आज उन्हें पूड़ियाँ और मिठाई खाने को मिलेगी ।बच्चों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता किपूड़ियाँ छठी (बच्चे के जन्म) की हैं या तेरहवीं की।पीपल के पेड़ पर कौवों की काँव-काँव का शोर कुछज़्यादा ही है ।संभवत कौवों को आभास है कि मृत्यु—भोज में प्रथम हिस्सेदारी कौवों की होती है ।भोज केद्वितीय हिस्सेदार ग्यारह हट्टे-कट्टे चुटिया धारी ब्राह्मण अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं ।पंडित शिवचरणद्वारा थोपे गए तेरहवीं के नाटक से निर्लिप्त रामदुलारी ने लज्जा एवं क्षोभ से अपने आप को अपनी आठबाई आठ की कोठरी में बंद कर लिया है ।रामदुलारी कोठरी में बंद अवश्य है किंतु उसके सक्रिय कानआयोजन स्थल पर ही लगे हैं ।


 मंच सज गया है ।मंच-संचालक (पंडित शिवचरण )ने मंत्रोच्चारण से नाटक का आरंभ कर दिया है ।शब्द वातावरण में तैर रहे हैं …. दालान से होते हुए रामदुलारी की कोठरी तक।मंत्रोच्चारण की स्वर लहरीमें कहीं अतीत से गूंजे स्वर गडमड हो जाते हैं ।पचास कोस दूर बसे सोडा गाँव में रामदुलारी का मायका है।मायके के आँगन में लगा नीम का पेड़ कब पराया हो गया , कब वह शादी के सात फेरे ले मुंशी दीनानाथ के साथ इस आँगन में आ गई थी ….और आज इसी आँगन में जीते जी ………..


 उधर दालान में संपन्न होते यज्ञ से स्वाहाऽऽ…..स्वाहाऽऽ ..की ध्वनियाँ आ रही हैं।रामदुलारी को स्वाहा के स्वर कहीं नेपथ्य से आते प्रतीत हो रहे हैं ….घर में प्रथम पुत्र के नामकरण का यज्ञ था। रामदुलारी माँ बन गई थी । उसके आँचल में दुग्ध-पान करता नन्हा बद्री प्रसाद आ गया था ।उसने स्त्रीत्व की पूर्णता पाली थी ।…..और फिर आया देवी प्रसाद ।घर का यही आँगन दो बच्चों की किलकारियों से गुलज़ार होगया था ।


 उस दिन उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब उसने देखा कि मुंशी जी एक भूरी गाय की डोर थामें चले आ रहे हैं ।पति ने मुस्कुराते हुए कहा था- घर में एक माँ तो तुम हो ही , मैं एक और माँ ले आया हूँ ।आज रामदुलारीको सब एक-एक कर याद आ रहा है ।


 यादों का तारतम्य बाहर दालान से आती बर्तनों-प्लेट-प्यालियों की आवाज़ों से टूट जाता है।सम्भवतःब्राह्मण तेरहवीं का भोज कर रहे हैं ।वातावरण में आलू-पूरी की सुगंध फैल जाती है ….जीरे वाले आलू केसाथ अजवाइन मिली नमकीन पूरियाँ मुंशी दीनानाथ को भी बहुत पसंद थीं।….बाहर दालान में लोगों केचलने-फिरने के स्वर आ रहे हैं……दरवाज़े के बाहर से आती पदचाप से ही रामदुलारी पहचान जाती थीकि मुंशी जी आ रहे हैं ।ऐसे ही एक दिन जब उसे लगा था कि घर के दरवाज़े के बाहर से आती पति कीचिर-परिचित पदचाप आज और दिनों की अपेक्षा कुछ बदली सी है ।मुंशी जी की पदचाप में एकलड़खड़ाहट सी थी …..आते ही क्लान्त से खाट पर लेट गए और बोले-“ बद्री की माँ ,सीने में दर्द सा उठरहा है ।वह तुरंत रसोई से तेल की शीशी ले आई….वह सीने में तेल की मालिश करती रही…और मुंशीजी की आँखें मूँदती गयीं …..मुंशी जी का शरीर एक बारगी कँपकँपाया ..एक झटका सा लगा..औरउनके हाथ से तेल की कटोरी गिर गई…..और फिर सब सब शांत……..तेल मालिश उसके चालिसवर्षीय विवाहित जीवन में पति को दी गई उनकी अंतिम सेवा बन गई ।


 आँसू की गर्म बूँद आँख की कोर से निकल रामदुलारी के गालों पर ढलक जाती है ।कोठरी की दीवारें धुँधला सी जाती हैं ।दालान से आती आवाज़ों की ध्वनियाँ दूर कहीं खो जाती हैं ।आँखों में अक्स से तैर आते हैं……मुंशी जी खड़े मुस्करा रहे हैं….भूरी गाय ओसारे में खड़ी रँभा रही है…..एक माँ दूसरी माँ कोबुला रही है …मायके के आँगन वाला नीम का पेड़ उसे बुला रहा है ।…..फिर सब दृश्य एक दूसरे मेंगडमड हो जाते हैं…..मुंशी जी..भूरी गाय…नीम वाला आँगन…..नींद की खुमारी-सी छाती जा रहीहै…………….



 उधर दालान में पंडित शिवचरण का थैला दान-दक्षिणा के सामान से भर गया है ।जीवन की निस्सारताऔर अंत में सब कुछ यहीं रह जाता है, जैसे वाक्यों से तेरहवीं कर्म के बाद का पारंपरिक प्रवचन कर रहे हैं।मेरा-तेरा , लेना-देना , मोह-माया सब छलावा है ।श्रोता उबासियाँ लेते पंडित जी का प्रवचन सुन रहे हैं ।संसार तो एक छलावा है । बस एक ईश्वर ही सत्य है-के वाक्य से पंडित शिवचरण अपने प्रवचन कासमापन करते हैं ।


 “जजमान (बद्री प्रसाद को संबोधित करते हुए) आपकी माता जी का तेरहवीं कर्म तो संपन्न हुआ ।अबअपनी माता जी को नामकरण संस्कार हेतु बुलवाइए ।”-पंडित जी ने सन्तुष्टि पूर्ण मुद्रा में कहा।


 दोनों पुत्र और उनके पीछे उनकी पत्नियाँ रामदुलारी की कोठरी में प्रवेश करते हैं ।रामदुलारी खुली आँखों से सो रही है…..शान्त एवं निश्चल ।


 “ उठो माँ…..पंडित जी नामकरण के लिए बुला रहे हैं…….”

 वह उसे हिलाते हैं ।रामदुलारी का निस्पंद ठंडा शरीर एक तरफ़ को लुढ़क जाता है ।किंतु उसकी खुलीआँखें जैसे कहीं कुछ खोज-सी रही हैं…………



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