भूली-बिसरी वह वीरांगना
भूली-बिसरी वह वीरांगना
न्यायालय के आदेश की अवहेलना करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, जो न्याय व्यवस्था के सबसेबड़े पैरोकार थे। माना कि वह शासक थे, किंतु शासक को भी न्याय धर्म निभाना होता है। पर उनसे ऐसीआशा करना व्यर्थ था, क्योंकि वह क्रूर शासक और डरपोक सामंतवादी थे। अन्यथा कोर्ट से२४ मार्च कोनिर्धारित फाँसी-दंड को वह ग्यारह घंटे पहले ही जनमानस के भय से अंजाम न दे पाते।
२३ मार्च १९३१लाहौर में सुबह से ही आकाश धूल से भर गया था, दरख़्त ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे थे। तेज आँधी ने पूरे शहर को आग़ोश में ले लिया था। क्या प्रकृति का यह तांडव लाहौर सेंट्रल जेल में आनेवाले ज़लज़ले की आहट था। आहट का आग़ाज़ तो जेल परिसर में सुबह से ही चलती अवांछित सक्रियतासे हो रहा था। माहौल आशंकित सा था। आशंका को और बल मिला जब शाम चार बजे जेल वॉर्डन चरनसिंह ने सारे क़ैदियों को अपनी-अपनी कोठरियों में बंद हो जाने को कहा।
जेल का नाई बरकत जिसकी पहुँच जेल के चप्पे-चप्पे पर थी, उसे आज की अनहोनी का सुराग लगचुका था। उत्तेजित बरकत, कोठरियों में बंद क़ैदियों से, आज ही शाम भगत सिंह की फाँसी वाली ख़बरको फुसफुसा कर सांझा कर चुका था। सनसनीख़ेज़ ख़बर जेल में आग की तरह फैल चुकी थी।
जेल परिसर की उत्तेजना से निर्लिप्त समय अपनी चाल से खिसक रहा था। साँझ का धुँधलका घिरआया था। जेल के ठंडे फ़र्श पर साम्राज्यवादियों के बूटों की खटखट निस्तब्धता भंग कर रही थी। बूटों कीयह ध्वनियाँ, जेल कोठरियों के अंदर से गूंजती बन्दे मातरम् के नारों की आवाज़ों में खो गई थीं। कुछ क़ैदीग़ुस्से और हताशा में सींखचो से सिर टकरा रहे थे।
मनुष्य को सबसे अधिक मृत्यु डराती है। किंतु मृत्यु के समय की अनिश्चितता उनके भय को सतह परनहीं आने देती। किंतु यहाँ मृत्यु भी प्रत्यक्ष सामने थी और समय भी निश्चित था। पर देश के लिए क़ुर्बानहोने वाले यह सपूत चेहरे पर मुस्कान लिए मौत की वेदी की ओर बढ़ रहे थे। क़ुर्बानी जत्थे के मध्य में थेभगत सिंह तथा उनके दाँये राजगुरू और बाँये सुखदेव। साथ थे चीफ़ सुपरिटेन्डेन्ट जेल, मेजरपी॰डी॰चोपड़ा और डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट मोहम्मद अकबर ख़ान।
“दिल से न निकलेगी मरकर भी, वतन की उल्फ़त।
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू वतन की आयेगी।
मृत्यु को गले लगाने से पहले के यह आख़िरी जज़्बात थे, जो बेख़ौफ़ शहीदों के मुँह से निकले थे। डिप्टीसुपरिटेंडेंट मोहम्मद अकबर खान बमुश्किल अपने जज़्बात और आंसुओं को रोक पा रहे थे।
सात बजकर तीस मिनट पर फाँसी का फंदा कस दिया गया और सात बज कर तैंतीस मिनट पर शहीदीकी दास्तान, देश पर क़ुर्बानी की नज़ीर बन गई।
किंतु इसके बाद जो हुआ वह मानवीय संवेदनाओं से खिलवाड़ की शर्मनाक घटना का दस्तावेज है। निर्जीव शरीर, फाँसी स्थान से नीचे गिरा दिए गए। वहाँ से बाहर जाने को एक गंदी सी गैलरी का रास्ता था। इसी गंदी गैलरी से शहीदों के पार्थिव शरीरों को घसीटा गया। तत्पश्चात् शरीरों को निर्ममता के साथतीन बोरों में ठूँसा गया। बोरे बाहर खड़ी वैन में लाद दिए गए। रात के गहरे सन्नाटे में वैन तेज़ी से रफ़्तारलेती हुई, दो घंटे के बाद सतलुज नदी के किनारे आ लगी थी। आनन फ़ानन में गुप्त रूप से शरीरों काअंतिम संस्कार कर दिया गया।
किंतु रात के सन्नाटे में निपटाई गई क्रिया की आवाज़ों से पासके गाँव में भनक लग गई थी कि अवश्यनदी किनारे कुछ हुआ है। और इसी के साथ अगले दिन,भगत सिंह की फाँसी की ख़बर देश में आग कीतरह फैल गई।
इन जली चिताओं की तपिश से अंग्रेजों के प्रति नफ़रत की आग, देश में ही नहीं भड़की बल्कि न्यूयार्क केअख़बार-डेली वर्कर ने, ब्रिटिश की लेबर गवर्नमेंट द्वारा की गई इसे, अब तक की सबसे खूनी एवंअमानुषिक घटना करार दिया।
जनमानस दुखी था तो उधर क्रांतिकारियों के दिल में बदले की आग धधक रही थी। लाहौर से दूर,बंगाल के शहर कोमिल्ला (अब बंगला देश में) की १५ वर्षीय वह बालिका, बदले की इस आग से अछूती नहीं थी। नाम था उसका शांति घोष। पिता देवेन्द्र नाथ घोष कोमिल्ला कालेज में प्रोफ़ेसर थे और साथ ही राष्ट्रवादी भी। राष्ट्र भक्ति के प्रभाव से शांति बचपन से ही क्रान्तिकारियों के बारे में पढ़ती थी। १९३१ मेंफ़जुनिस्सा गर्ल्स स्कूल में पढ़ते हुए १५ साल की उम्र में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से,शांति युगांतर पार्टी में शामिल हो गई। यहाँ उसने क्रांतिकारी कार्यों के लिये आवश्यक प्रशिक्षण लिया। युगांतर एक क्रांतिकारी संगठन था, जो उस काल में ब्रिटिश अफ़सरों की हत्या कर ब्रिटिश राज में खलबली मचाने के लिए प्रसिद्ध था।
१९३१ दिसंबर माह का वह एक आम सा दिन था। पर युगांतर पार्टी के लिए ख़ास। लाहौर की हत्याओं का क़र्ज़ युगांतर पार्टी पर अभी शेष था। उसी क़र्ज़ अदायगी की आज फ़ाइनल मीटिंग है। लक्ष्य तय किया जा चुका था। कर्ता कौन होगा, इसी का निर्णय करना है। पार्टी का मानना था कि यदि इस मिशनके लिए कोई लड़की स्वयं को समर्पित करे तो लक्ष्य आसान होगा।
शांति घोष को मातृभूमि के लिए स्वयं को समर्पित करने का अवसर आ गया था। शांति ने इस मिशन के लिए स्वयं की सहर्ष स्वीकृति दे दी। इससे पहले युगांतर पार्टी में महिलाएँ पर्दे के पीछे रहकर ही क्रांतिकारियों की मदद किया करतीं थीं। यह पहली बार था कि कोई लड़की सामने से अंग्रेजों का मुक़ाबला करेगी। शांति घोष को नेताजी सुभाष चंद्र बोस का वह कथन याद था जिसमें उन्होंने कहा था कि - “ हे माताओं ! नारीत्व की रक्षा के लिए तुम हथियार उठाओ। ”
१४ दिसंबर १९३१ को शांति अपनी एक और सहयोगी सुनीति चौधरी के साथ ब्रिटिश अफ़सर और कोमिल्ला के ज़िला मजिस्ट्रेट चार्ल्स जैफ़री बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय में पहुँची। उन्होंने इस बात का बहाना किया कि वह तैराकी क्लब चलाने की अनुमति लेने आईं हैं। और जैसे ही मजिस्ट्रेट से उनका सामना हुआ, दोनों ने उन्हें कैंडी और चॉकलेट भेंट करी। मजिस्ट्रेट ने चॉकलेट खाकर कहा कि यह बहुतस्वादिष्ट है। इसके तुरंत बाद शांति ने अपनी शाल के नीचे से छिपी पिस्तौल तानकर कहा-“ अच्छा अब यह कैसी है मिस्टर मजिस्ट्रेट। ” और यह कहते हुए उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। आफिस मेंअफ़रातफ़री मच गई।
इस घटना ने पूरे देश को ही नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य को भी हिलाकर रख दिया। कम उम्र होने के कारण उन्हें फाँसी के स्थान पर काले पानी की सजा सुनाई गई। सात वर्ष बाद १९३९ को, राजनीतिक बंदी होने के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था।
किंतु क्या इससे ब्रिटिश सरकार द्वारा जलियाँवाला बाग़ जैसे अनगिनत हत्या कांडों का बदला पूरा हुआ ?
शांति घोष जैसी वीरांगना के कृत्य के लिए शत-शत नमन। वन्दे मातरम्।