Naresh Verma

Romance

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Naresh Verma

Romance

रूमाल

रूमाल

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आज रविवार है , पत्नी के नहीं होने से दिन ख़ाली-ख़ाली सा लग रहा है ।पत्नी अपनी बीमार माँ को देखने सागर गई हुई है।क्या करूँ ? फिर ख़्याल आया कि क्यों न आज अपने स्टडी-रूम की साफ़-सफ़ाई कर ली जाए ।बहुत सा पुराना कबाड़ जमा हो गया है ।संदर्भ खो चुके पुराने काग़ज़-पत्रों की साफ़-सफ़ाई चल ही रही थी कि वह पुराना लिफ़ाफ़ा, जो एक फ़ाइल में दबा पड़ा था, अचानक मेरे सामने आ गिरा ।लिफ़ाफ़े में था एक मुड़ा-तुड़ा सा रूमाल, जिसके कोने पर किन्हीं नौसिखिया हाथों द्वारा काढ़ा हुआ लाल गुलाब और गुलाब के नीचे गुलाबी धागों से कढ़ी दिल की आकृति ।समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है ।निर्जीव यह रूमाल इस फ़ाइल में दफ्न पड़ा था ,जिसने वर्षों पहले कभी मेरी रातों की नींद उड़ा रखी थी ।रुमाल मेरे हाथों में था , उसके गुलाब और दिल के बीच से एक मासूम भोला चेहरा उभर आया था ……………

   उस दिन मेरे बी.एस सी  प्रथम वर्ष का अंतिम पेपर था ,ऐसा लग रहा था जैसे बड़ा बोझ सिर से उतर गया हो।गर्मी की छुट्टियों के मस्ती भरे दिन प्रतीक्षा कर रहे थे ।उधर मैं परीक्षा में व्यस्त था तो माता जी मैके जाने की तैयारियों में व्यस्त थीं ।यह समय का वह काल था जब न तो किसी प्रकार का कोई गैजेट होता था और न ही यह चिपकाऊँ मोबाइल फ़ोन ।हर वर्ष की तरह हमारा सेट प्रोग्राम होता था कि इधर बच्चों की परीक्षा समाप्त उधर ननिहाल जाने की तैयारी शुरू ।

  जबलपुर से मात्र ५५ किलोमीटर दूर कटनी के पास सिमरिया गाँव में मेरी ननिहाल है। नाना जी का पुरानी चाल का आठ कमरों, खुले आँगन और लंबी-चौड़ी छत वाला मकान था। दो मामाओं के बच्चों और हम तीन भाई-वहनों के धमाचौकड़ी मचाने का सुविधा पूर्ण मकान। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि गाँव में ही नाना जी का बड़ा सा एक आम बगीचा था ।कहने को तो यह आम बगीचा था पर इसमें जामुन, अमरूद के अतिरिक्त जंगली झड़ बेरियों की झाड़ियाँ भी थीं।इनके खट्टे-मीठे बेरों के लिए अक्सर हम बच्चों में आपस में नोक-झोंक हो जाती थीं।यद्यपि मैं अब बच्चा नहीं था, पूरे अट्ठारह वर्ष का हो चुका था, पर नाना प्रवास का एक महीना पूरी मौज-मस्ती में गुजरता था ।

  दो मामाओं के पाँच बच्चों और हम तीन भाई-वहनों में मैं ही सबसे बड़ा था ।मेरे से छोटी बड़े मामा की लड़की लता

थी जो सत्रह साल की थी।मध्य प्रदेश की प्रचंड गर्मी में दोपहर बारह बजे के बाद घर से निकलना जोखिम भरा होता था अत: कमरों में ही ताश , कैरम ,लूडो का रोमांच सिर चढ़ता। सुबह-शाम आम बगीचा, दोपहर में कमरा और रात में छत पर पानी छिड़काव के बाद, तारे भरे आसमान के नीचे बिस्तरे बिछ जाते।

  उस दिन भी सब बच्चे आम बगीचे में हुड़दंग मचा रहे थे। उस दिन मेरी कज़िन लता के साथ उसकी सहेली मधु भी आम-बगीचे में आई थी ।तीन घर छोड़ मुंशी कालिका प्रसाद का घर था । मधु उन्हीं मुंशीजी की पुत्री और लता की हम-उम्र सहेली थी।मैं एक उपन्यास साथ ले गया था और बच्चों के शोर से दूर झड़-बेरी की झाड़ियों के पास बैठा पढ़ रहा था।

  लड़कियों को झाड़ियों में लगे यह खट्टे-मीठे बेर खूब भाते हैं ।उपन्यास पढ़ते हुए मैंने कनखियों से देखा कि मधु अकेली ही झाड़ियों से बेर तोड़ रही है ।वह कभी ऊँची डाल पकड़ने को कूद-कूद कर उछलती और कभी नीचे गिरा बेर उठाने को नीचे झुकती।उसकी इन जिमनास्टिक हरकतों को देख मेरी हंसी छूट गई थी। मेरी हंसी पर उसने मुंह बिचकाया तथा दूसरे ही पल उसने मुँह में बेर चूसा और गुठली मेरी तरफ़ उछाल दी।उसकी इस बचकानी हरकत का मैंने कोई बुरा नहीं माना।इसके उलट आज पहली बार मुझे अहसास हुआ कि चढ़ते यौवन की दहलीज़ पर खड़ी मधु में कोई चुंबक तो अवश्य है ।मैं उपन्यास पढ़ने का बहाना करता रहा और वह मुझे चिढ़ाने को अपनी हरकतें करती रही। मेरे से १०-११ गज दूर यह नाटक चल ही रहा था कि अचानक उसके ज़ोर से चीखने की आवाज़ आई। मुझे समझ नहीं आया कि अचानक की यह चीख कैसी ? मैंने तुरंत अपनी पुस्तक फेंकी और उसकी ओर लपक कर गया ।वह पैर को हाथ से पकड़े कराह रही थी ।एक बड़ा सा काँटा उसके पैर में चुभा था और वहाँ से कुछ खून की बूँदें रिस रहीं थीं।पहले तो मैं थोड़ा हिचकिचाया पर तत्पश्चात मैंने उसका पैर पकड़ा और खींच कर काँटा बाहर निकाल दिया ।उसने चीख मारते हुए मेरा कंधा पकड़ लिया।उसे दर्द तो हुआ पर अंततः काँटा निकल गया था, बस कुछ हल्का खून अवश्य था। मैंने जेब से रूमाल निकाला ओर उसे फाड़ कर उसके पैर में बाँध दिया।

  यह सारा घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घटा कि हमारे बीच की अपरिचय की दीवार को मिटा गया। अब उसकी आँखों में मेरे लिए आभार प्रगट हो रहा था ।मैंने पूछा-“ अब दर्द कैसा है , क्या तुम चल सकोगी ?” अब तक और सब बगीचे से जा चुके थे , बस हम दो ही रह गए थे ।

  उसने लड़खड़ाते हुए उठने का प्रयास किया , मैंने हाथ का सहारा दे उसके उठने में मदद की।तत्पश्चात्उ सने एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा और दूसरे से मेरा कंधा ।बगीचे के गेट तक आने पर अचानक उसे अहसास हुआ कि उसने किसी अनजान लड़के का हाथ पकड़ा हुआ है ।उसने शर्मा कर मेरा हाथ छोड़ दिया और लंगड़ाते हुई अपने घर की ओर चली गई ।


  बैशाख महीने के दिन तो खूब गर्मा रहे थे पर रात में खुली छत पर बहती ठंडी बयार जैसे लोरी सुना रही हो ।किंतु आज बहती शीतल बयार की यह मीठी लोरी भी मेरी आँखों में नींद नहीं ला पा रही थी। रह -रहकर उसके गोरे-गोरे नर्म पैरों की गर्माहट और थरथराहट मेरे हाथ महसूस कर रहे थे। एक नशा सा छा रहा था ।खुली आँखों के सपनों के बीच न जाने कब मैं नींद के सपनों में जा चुका था ।

सुबह जल्दी आँख खुल गई थी तो सैर के लिए आम बगीचे की ओर निकल गया। बगीचे में माली पेड़ों को पानी दे रहा था ।पेड़ों पर हरे-हरे कच्चे आम लटक रहे थे ।बेरों की झाड़ियाँ सुनी थीं। कल की घटना का स्मरण करके हँसी आ गई कि सामान्य से उस हादसे से मैं क्यों इतना बौरा गया कि रात में सपने बुनने लगा था ।मधु के काँटा लगा , तुमने निकाल दिया ।क़िस्सा ख़त्म ।पर दूसरा मन कहता कि जाते समय मधु ने उसे जिन नज़रों से देखा था तो वह भी क्या सामान्य नज़रें थी।मन से पुनः आवाज़ आई कि अब तुम नज़रों के एक्सपर्ट बनने का ढोंग छोड़ो और भूल जाओ इस घटना को ।

    मन ने समझाया और मैं समझ भी गया कि काँटा-निकासी घटना से रोमांस जोड़ना पागलपन के अतिरिक्त कुछ नहीं ।मन सहज हो गया था ।लौटते समय सरसों के खेतों में फैली पीले फूलों की चादर के बीच से होता हुआ घर आ गया।अगले दो दिन सामान्य से गुजरे पर यह आश्चर्य ज़रूर हुआ कि लता से मिलने रोज़ आने वाली मधु मिलने 

नहीं आई थी ।मस्तिष्क से मैंने भले ही उस दिन की घटना को भुला दिया था किंतु अवचेतन मन अब भी उसे देखने को आतुर था।

  जबलपुर से आते समय ,ख़ाली समय में पढ़ने के लिए मैं कुछ उपन्यास साथ ले आया था ।उस दिन छतपर की एकांत कोठरी में बैठा उपन्यास पढ़ रहा था कि कोठरी में अचानक मधु को आया देख चौंक गया।

  “ पढ़ाकू जी क्या पढ़ा जा रहा है ?”-घुसते  ही उसने मुस्कुराते हुए फ़िकरा दागा।

  “ मैं क्या पढ़ रहा हूँ इसे बतलाने से गाँव की लड़कियों को समझ नहीं आएगा ।”

  “अच्छा जी अब हम गाँव के गँवार हो गए। पता है मैं ग्यारहवीं पास करके इंटर में आ गई हूँ ।”-उसने इतराते हुए कहा।

  “अच्छा हुआ बतला दिया नहीं तो……..

  मेरा वाक्य पूरा होने से पूर्व उसने टोकते हुए कहा।-“ नहीं तो क्या… तुम्हें हम अंगूठा छाप लगते हैं ।”

  “ मैंने ऐसा तो नहीं कहा। मेरी नज़र में तो तुम सुंदर तितली हो जो फूलों से ज़्यादा बेरों पर मंडराती है ।”

  सुंदर तितली की उपमा से वह थोड़ा शर्माईं फिर बात बदलते बोली -“मुझे भी पढ़ने के लिए कोई अच्छा सा उपन्यास दे दीजिए न ।

  मैंने उसे धर्मवीर भारती जी का उपन्यास-गुनाहों के देवता देते हुए कहा-“ लो इसे ले जाओ इसमें तुम्हारी तरह की ही , सुंदर-भोली लड़की की प्रेम कहानी है ।”

  लाल हो आए चेहरे से उसने किताब पकड़ी और लेकर धप-धप सीढ़ियाँ उतरते भाग गई।


   उस शाम आकाश में काले बादल मंडरा रहे थे ।रह-रह कर गर्जना करती बिजली भी कौंध रही थी ।हमारी पार्टी जल्दी ही आम बगीचे से घर आ गई।घर आकर मैंने देखा कि लता और मधु दोनों सहेलियाँ आपस में सिर जुड़ाए किसी गहरी मंत्रणा में मशगूल थीं। मैं अपनी छत वाली कोठरी में आ गया ।घिरी बदली से छत पर अंधेरा सा घिर आया था। उसी समय सीढ़ियों की धप-धप से अहसास हुआ कि कोई ऊपर आ रहा है ।वह मधु थी ,उसके हाथ में मेरा दिया उपन्यास था ।

  “उपन्यास कैसा लगा? “-मैंने पूछा ।

  “ बहुत दुख भरी कहानी है, मैं तो पढ़ते हुए खूब रोई। क्या प्रेम करने वालों को चन्दर और सुधा की तरह ऐसे ही दर्द सहने पड़ते हैं ?”

   “प्रेम करके देखो, सब जान जाओगी ।”

   “ मैं सुधा की तरह जान देने वालियों जैसी नहीं हूँ । जाटनी हूँ मैं ,प्रेम में धोखा देने वाले की जान ले भी सकती हूँ ।समय आए तो सर भी कटा सकती हूँ ।…….चलो छोड़ो उपन्यास को। उस दिन मेरे पैर में बांधने को तुमने अपना रूमाल फाड़ दिया था ।आज कल ,दादी से कढ़ाई सीख रही हूँ , तो यह रूमाल तुम्हारे लिए काढ़ा है।”- उसने सीने में छुपाया रूमाल निकाला, मेरे हाथ में पकड़ाया और तुरंत ही सीढ़ियाँ लाँघती रफ़ूचक्कर हो गई ।

  रूमाल के कोने में लाल गुलाब कढ़ा था और उसके नीचे गुलाबी धागों से कढ़ा दिल था।मैं सोचने लगा कि गुलाब तो दोस्ती का प्रतीक है किंतु रूमाल में यह दिल क्यों ? मैं सोच ही रहा था कि उसी समय मेरीकज़िन लता उपर आ गई।लता ने रूमाल को नज़रअंदाज़ करते मुझ से कहा-“ भाई  ! यह न समझना कि मुझे कुछ पता नहीं ।मधु मुझ से कुछ नहीं छुपाती।पर याद रखना यह ख़तरनाक डगर है ।यह गाँव है……यहाँ जात-बिरादरी के नाम पर खून-ख़राबे हो जाते हैं ।मधु दिल की साफ़ है पर है बड़ी दबंग ।”

  लता से यह सब सुन कर मैं सन्न रह गया।पर दूसरे ही पल मैंने अपने बचाव में कहा-“ किंतु हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं चल रहा , जैसा तुम सोच रही हो ।”

  “ कुछ नहीं है तो ठीक है, पर फिर भी तुम्हें सावधान करना चाहती थी ।”-इतना कह कर लता चली गई।

मधु के दिल मैं क्या है , मैं नहीं जानता था ।किंतु मुझे उस दिन आश्चर्य अवश्य हुआ जब उसने मुझसे तीन बजे आम बगीचे में अकेले मिलने को कहा ।उसने कहा था कि वह मुझसे कुछ ख़ास कहना चाहती है ।

  मिलने वाले दिन ,जाऊँ या न जाऊँ के मंथन में अंततः मैंने लता की चेतावनी के संदर्भ में न जाने का निर्णय लिया।पर मेरे न जाने के निर्णय का ऐसा अंजाम होगा इसकी कल्पना मैंने नहीं की थी ।मेरे न जाने के निर्णय से उस पागल लड़की ने क्रोध में अपने पैर में इतने काँटे चुभाए कि अपना पैर लहूलुहान कर लिया।

  मुझे यह वाक़या अगले दिन लता ने बतलाया ।दिल में दबी आग से लपटें बाहर आने लगी थीं। आग को हवा दूँ या मुँह चुरा कर भाग जाऊँ ।अगले दिन पढ़ाई का बहाना करके मैं अपनी ननिहाल को अलविदा कह बस द्वारा जबलपुर भाग आया।मैंने भले ही स्वीकार न किया हो पर वास्तव में हमारे बीच का वह पहला प्यार दस्तक दे चुका था ।


   आज वही पुराना रूमाल, किसी के पहले प्यार की दास्तान का गवाह बना मेरे सामने पड़ा था ।अपने पहले प्रेम की  कायरता के प्रायश्चित स्वरूप मैंने स्कूटर उठाया और चल दिया जबलपुर के तिलबारा घाट की ओर …….नर्मदा का अथाह जल हिलोरें ले रहा है ।मैंने जेब से रूमाल निकाला….अंतिम बार लाल गुलाब और गुलाबी दिल को निहारा…. हौले से नर्मदा की लहरों में समर्पित कर दिया ।

   लहरों पर अठखेलियाँ करता लाल गुलाब सूरज की किरणों में कुछ पल को झिलमिलाया और फिर एक बड़ी सी लहर में समा गया…………।


                      ****समाप्त****                  


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