Naresh Verma

Others

4.5  

Naresh Verma

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तर्पण

तर्पण

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जी हाँ ! यह संगीता-कुंज नाम का आशियाना मेरा ही है। अपनी सेवानिवृत्ति होने से चार वर्ष पूर्व मैंने इसे बनवाया था। यह चमत्कार कैसे संपन्न हो सका, मुझे नहीं मालूम। इसे मैं ईश्वर कृपा ही कहूँगा अन्यथा निखालिस आय वाले सरकारी मुलाजिम के लिए इस महंगाई में मकान बनवाना इतना सहज नहीं होता।

 कुछ सरकारी लोन लिया, कुछ फंड से रुपया निकाला और श्री गणेश का नाम लेके करा डाली नींव की खुदाई। तीन महीने बाद लिंटर पड़ गया। एक ढाँचे के रूप में मकान आकार ले चुका था। किंतु इसके बाद मकान की फ़िनिशिंग में कितने पापड़ बेलने पड़े, यह मैं मुक्त भोगी ही जानता हूँ। भागते-दौड़ते जूते के सोल घिस गए। धूप-बरसात में खड़े-खड़े सिर के रहे-सहे बाल झड़ गए और चंदिया नज़र आने लगी।

 जैसे भी हुआ पर यह सच था कि अपना स्वयं का आशियाना होने का सपना साकार हो गया था। पंडित से गृह प्रवेश का मुहूर्त निकलवाया गया। पत्नी की इच्छा थी कि गृह प्रवेश नाते-रिश्तेदारों एवं दोस्तों को आमंत्रित करके धूमधाम से संपन्न हो। किंतु मकान से राज मिस्रियों को विदा करते-करते जेब की हालत कितनी पतली हो गई थी, इसे सपनों की दुनिया में डोलती पत्नी को नहीं पता था। पास का रुपया तो कब का समाप्त हो चुका था, इसके अतिरिक्त दोस्तों-रिश्तेदारों का क़र्ज़ सिर पर और चढ़ गया था। मकान बनवाने में यह एक वाक्य कि -“ मकान कौन सा रोज़-रोज़ बनना है “ सदैव ही मकान को ओवर बजट बना देता है। उदाहरण स्वरूप जैसे फ़र्श बनवाने के दो विकल्प हैं- दाना पड़वाना या संगमरमर लगवाना। लोग सलाह देंगे कि अजी मकान कौन सा बार-बार बनना है, दिल कड़ा करके संगमरमर ही डलवा लीजिए। दिल तो कड़ा कर लिया पर जेब ढीली पड़ गई।

 इस तरह के बार-बार दिल कड़ा करने का परिणाम यह हुआ कि सादगी से चुपचाप गृह प्रवेश करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। पंडित जी से घर में हवन करवाया और कर लिया गृह प्रवेश। असन्तुष्ट पत्नी को यह आश्वासन भी दिया था ( वैसे ही आश्वासन जैसे शादी के बाद ३०-३५ वर्षों से देता आ रहा हूँ ) कि बाद में गृह प्रवेश का फ़ंक्शन कर लेंगे।


 यह सब अब बीते कल की बातें हैं। गृह प्रवेश की उस घटना को दस वर्ष से भी ज़्यादा समय व्यतीत हो चुका है। समय के इस अंतराल में बहुत कुछ घट चुका है। मैं स्वयं जीते-जागते मनुष्य से एक फ़ोटो मात्र बन के रह गया हूँ। ड्राईंग -रूम के एक कोने में फ़ोटो-फ़्रेम में क़ैद, मैं टंगा हुआ हूँ। मेरी तस्वीर पर पड़ा प्लास्टिक का हार समय की धूल-माटी से मटमैला पड़ गया है। ख़ाली पड़ी संपूर्ण कोठी सायं-सायं कर रही है। पिछले चार महीने से कोठी के मुख्य द्वार पर एक बड़ा सा ताला लटका हुआ है। अंदर स्थान-स्थान पर मकड़ी के जाले लग गए हैं। फ़र्श पर धूल की गर्द अटी पड़ी है। पिछले महीने सात दिनों तक लगातार वर्षा हुई थी। दीवार के रोशनदान से पानी घुस आया था, जिसने दीवार के डिस्टेंपर पर सीलन भरे डिज़ाइन बना दिए हैं।

  कितना मोह था मुझे अपनी इस कोठी से। ज़रा भी कहीं खरोंच आई नहीं कि मैं बैठ जाता था उसकी मरम्मत करने। एक बार घर में कुछ मेहमान आए थे। मेहमानों का तीन वर्ष का पुत्र कहीं से एक पेंसिल पा गया। बस फिर क्या था, उस बच्चे ने पेंसिल से ड्राईंग-रूम की दीवारों पर कर दी चित्रकारी। बच्चे के माँ-बाप अपने लाड़ले भावी पिकासो की कारगुज़ारियों से प्रफुल्लित हो रहे थे। और मेरा ह्रदय नये डिस्टेंपर की दशा देख अंदर ही अंदर फुँका जा रहा था। मेहमानों के जाने के बाद, मैं बैठ गया रेगमाल इत्यादि लेकर। पत्नी ने टोका भी कि कल आराम से मिटा लेना यह दाग। किंतु मैं कहाँ मानने वाला था, भुनभुनाता रहा और मिटाता रहा पेंसिल से पड़े दागों को। मैं इसे ईंट-गारे का मकान न मान घर-गृहस्थ मंदिर मानता था।

 ………किंतु काल के एक झटके से साँस की डोर टूटी और टूट गया यह मोह बंधन भी। कहते हैं कि जितनी साँसें लिखी हैं जीवन-एकाउंट में, उससे न एक कम और न एक ज़्यादा। कर लो जितनी मोह-माया करनी है। एक दिन तो बंधन टूटने ही हैं। सब कुछ यहीं रह जाने वाला है। तब तो नहीं पर अब समझ आ रहा है जब मेरा वजूद ही मिट गया।

 ३० जनवरी २०२०, उस दिन उठा तो शरीर में कमजोरी सी महसूस हो रही थी कुछ जी भी घबरा रहा था। पत्नी ने सांत्वना दी और कहा-“ कुछ नहीं है, बेड टी लो सब ठीक हो जायेगा। ” सुबह के नौ बजते-बजते सारा शरीर पसीने से नहा उठा। दिल बैठा सा जा रहा था। पत्नी ने पड़ौस के भल्ला जी को बुला लिया। भल्ला जी भले आदमी हैं, तुरंत अपनी गाड़ी से पास के डाक्टर अवस्थी के यहाँ ले गए। डाक्टर अवस्थी ने परीक्षण के बाद मेरी पत्नी से कहा कि आप ने अच्छा किया जो समय से यहाँ ले आईं। ब्लड-प्रेशर गिर गया है, शुगर-लेबल भी डाउन है। मुझे तुरंत एक नामी नर्सिंग होम में भर्ती करवा दिया गया।

 मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। कल तक तो मैं अच्छा-भला था और आज आई सी यू बेड पर हूँ। जो भी रहा हो, पर अपनी साँसों की गणना से अनभिज्ञ मैं डाक्टर नर्सों द्वारा दिए जा रहे रंग-विरंगे कैप्सूलों और इंजेक्शनों की बैसाखियों से जीवन पथ पर बने रहने के लिए संघर्षरत था।

 अवचेतन में यह भय भी था कि कहीं यह मृत्यु की खटखटाहट तो नहीं। किंतु इस विचार को मैंने झटके से दूर कर दिया। जीवन है तो मृत्यु भी सत्य है। यह सत्य सर्वविदित है। किंतु स्वयं की मृत्यु पर कोई विश्वास नहीं करता। मुझे भी भरोसा था कि मैं अभी नहीं मरूँगा।

  रात एक बजकर बीस मिनट पर शरीर के अंदर खून खींचने और छोड़ने वाले पंप ने एक झटका सा खाया और निष्क्रिय हो गया। मेरी साँसों का एकाउंट खलास हो चुका था। डाक्टर ने सौरी कहकर सफ़ेद चादर मेरे सिर तक खींच दी। मेरी पत्नी किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी समझ नहीं पा रही थी कि अचानक यह क्या हो गया। उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि चालिस वर्षों का जीवन साथी ऐसे फुर्र से उड़ जाएगा। मेरी पत्नी बॉलीवुड फ़िल्मों एवं टी वी सीरियलों की बेहद शौक़ीन रही है। उनमें होने वाली मृत्यु के अनेक सीन उसके मानस में अंकित थे, जहाँ मरने वाले की गर्दन अपनी अंतिम-बात कहने के बाद ही ढम्मऽऽ से एक ओर लुढ़कती थी। किंतु यहाँ वैसा कुछ नहीं हुआ। पलक झपकते ही उसका सिंदूर पुछ गया था।

  जनवरी महीने की कोहरे भरी उस ठंडी रात में पत्नी और मोहल्ले के चंद करीबी लोग ही वहाँ थे। मैं अब राजेन्द्र गुप्ता नहीं रह गया था, लोग मुझे बॉडी कह कर संबोधित कर रहे थे। बॉडी एंबुलेंस में रखी गई। संगीता कुंज में मेरे ड्राइंगरूम के ठंडे फ़र्श पर एक चादर के उपर मेरी बॉडी को रख दिया गया। मेरा शरीर मर गया था, किंतु मेरी मोह ग्रस्त आत्मा संगीता कुंज में उपस्थित सब देख सुन रही थी।

 मृत्यु पूर्व मैं सोचा करता था कि मेरी मृत्यु के बाद पत्नी रो-रो कर बेहाल हो जाएगी। किंतु पत्नी ने आश्चर्यजनक रूप से अपने को संयत किया हुआ था। वह मोबाइल से करीबी रिश्तेदारों को मेरे अवसान की सूचना दे रही थी। किंतु सबसे ख़ास अपने इकलौते पुत्र का लंदन में फ़ोन नहीं लग पा रहा था। हमारा पुत्र सुशांत लंदन में डाक्टर है। अंततः सुबह आठ बजे पत्नी सफल हो गई पुत्र से संपर्क साधने में। पत्नी ने रोते हुए घटना का ब्योरा दिया और दाह संस्कार तक आने को कहा।  

 इधर कई दिनों से देहरादून में ठंड एवं वर्षा के कारण घना कोहरा छाया था। दिल्ली में भी कोहरे के कारण रेल एवं हवाई यातायात प्रभावित हो रहा था। प्रातः के नौ बजे तक मोहल्ले में मेरी मृत्यु का समाचार प्रसारित हो गया था। बाहर बरामदे में दरी बिछा दी गई। गर्म कपड़ों में लिपटे मोहल्ले वाले मातम-पुर्सी के लिए आने लगे थे। किंतु आने वालों के चेहरे से मातम की अपेक्षा आश्चर्य एवं अचानक यह क्या हो गया कि अनुभूति ज़्यादा झलक रही थी। स्त्रियाँ अंदर पत्नी से संवेदना जतला रही थीं। पत्नी प्रत्येक स्त्री को रात हॉस्पिटल में ह्रदय गति रुकने की घटना का ब्योरा दे रही थी। साथ साथ साड़ी के पल्लू से आँख भी पोंछतीं जा रही थी। स्त्रियाँ प्रभु की इच्छा का हवाला देकर सांत्वना दे रही थीं।

 बाहर बरामदे में कथूरिया, शर्मा, वर्मा, खंडूरी, नेगी आदि मोहल्ले वालों की चर्चा वार्ता मैं सुन रहा था-“ कल तक तो अच्छे भले थे……हाँ जी मृत्यु पर किसका ज़ोर….ईश्वर की इच्छा के आगे किसकी चली है….बड़े ही ज़िंदादिल इंसान थे…मोहल्ले की होली-लोढ़ी में आगे बड़ कर सक्रिय रहते थे..आदि आदि।

 शरीर की नश्वरता, ईश्वर की सत्ता, समय काल की होनी अनहोनी जैसे विषयों पर गंभीर चिंतन चर्चा चल रही थी। कुछ लोग बाहर गली में खड़े बतिया रहे थे। उनमें से एक व्यक्ति बोला-“दो दिन पहले तो मैंने देखा कि गुप्ता जी सब्ज़ी वाले से सब्ज़ी ख़रीद कर ला रहे थे। मैंने पूछा गुप्ता जी क्या ख़रीद लाए। कहने लगे आज़ ताजी कमल-ककड़ी आई थी, वहीं लाया हूँ। ”

( मुझे कमल ककड़ी बहुत पसंद है किंतु अकाल मृत्यु ने इन्हें खाने का मुझे मौक़ा ही नहीं दिया)

इस पर दूसरा व्यक्ति बोला-“ जो भी हो गुप्ता जी थे बड़े हंसमुख और रसिक इंसान। ”

 पहला व्यक्ति-“ हंसमुख होना तो समझ आया किंतु यह रसिक होना पल्ले नहीं पड़ा। ”

 दूसरा व्यक्ति-(धीमे स्वर में )-“ अरे वही काम वाली जवान छोकरी चंदा जिस पर गुप्ता जी कुछ ज़्यादा ही मेहरबान होने लगे थे। बाद में जिसकी चोटी पकड़ गुप्तानी ने बाहर कर दिया था।

 पहला व्यक्ति-“ धीरे बोलो भाई, लोग आ जा रहे हैं।

 ( यह वार्तालाप सुनकर मुझे इतना क्रोध आया कि यदि जीवित होता तो इसका मुँह नोच लेता। )

 इसी बीच एक तीसरे व्यक्ति के आने से दोनों व्यक्ति चुप हो गए। तीसरा व्यक्ति जिसकी उम्र ७० के आसपास थी, सुरती मलते हुए बोला -“ देखो जी मौत से कौन बचा है ? कल तक गुप्ता जी भले-चंगे थे और आज उनका शरीर पड़ा है, पंछी उड़ गया। ”

 पहला व्यक्ति तीसरे की हाँ में हाँ मिलाते बोला- सच है अंकल जी, एक दिन जाना तो सबको है। ”

 तीसरा व्यक्ति- सुरती को होंठों में दबाते हुए बोला-“ किंतु यह भी सच है कि जैसी मौत गुप्ता जी की हुई ऐसी सज्जन पुरुषों की होती है। बस चंद घंटे अस्पताल में रहे और फटाफट चलते बने। वरना लोग महीनों खाट से लगे स्वयं भी कष्ट भोगते हैं और परिवार को भी रुलाते हैं। ”

 ( बुजुर्ग की बात सुनकर मेरी आत्मा जल-भुन गई। आज यदि इस बुड्ढे को ऐसी फटाफट आसान मौत का विकल्प दिया जाए तो क्या यह स्वीकार कर लेगा। )


  कुछ देर बाद पता चला कि लड़का लंदन से फ़्लाइट लेने का प्रयास कर रहा है किंतु कोहरे के कारण समय की अनिश्चितता है। मोहल्ले वाले इस समाचार से आश्वस्त हो गए कि आज तो कुछ होने से रहा। बरामदे और गली से भीड़ छँटने लगी थी। शाम होते होते घर नाते रिश्तेदारों से भर गया था। किंतु मेरा शरीर कमरे के फ़र्श पर तनहा पड़ा था। मेरे नाम का नाता शरीर से टूट गया था, अस्पताल में मुझे बॉडी कहा गया अब मुझे मिट्टी कह कर संबोधित किया जा रहा था। सब का लक्ष्य है कि शीघ्र से शीघ्र घर से मिट्टी को निकाला जाए।

 मृत्यु के प्रारंभिक शोक के दौर से उबर चुके रिश्तेदार दुनिया जहाँन कि चर्चा में व्यस्त थे कि अचानक लड़के के देहरादून पहुँचने के फ़ोन ने माहौल में स्फूर्ति का संचार कर दिया। आनन फ़ानन में मेरी अंतिम यात्रा का घास-फूस और बाँस का वाहन तैयार हो गया।

 घर के बाहर टैक्सी रुकी, पुत्र सुशांत और उसकी पत्नी सिर झुकाए धड़धड़ाते घर में घुस गए।

  पत्नी पुत्र से लिपट गई। अब तक रुलाई का रुका सैलाब फूट पड़ा था। श्रीमती गुप्ता की रुलाई में अब अन्य महिलाएँ भी सम्मिलित हों गईं। तब ही किसी बुजुर्ग की जाड़े में शीघ्र सूर्यास्त की चेतावनी ने इस रोने-धोने के दौर पर ब्रेक लगा दिया।

 “राम नाम सत्य है” के नारों के साथ मेरी अर्थी को शव-यात्रा वाहन में रख दिया गया। संगीता-कुंज, जिसके निर्माण में महीनों धूप बरसात में खड़ा रहा, उस से मेरा निष्कासन हो गया। किंतु निष्कासन तो शरीर भर का था, मेरी मोह ग्रस्त आत्मा तो अभी भी कोठी में भटक रही थी।

 मेरा वजूद मिट भी गया और नहीं भी मिटा। मृत्यु संबंधित चन्द रस्में और हैं जिनके शीघ्र समापन की मेरी पत्नी एवं पुत्र में वार्ता चल रही है। सुशांत की छुट्टियाँ सीमित हैं इस कारण वह चाहता है कि मृत्यु के बाद की रस्में फटाफट निबटाई जाएँ। पाश्चात्य वातावरण का प्रभाव उसे दक़ियानूसी परंपराओं को निभाने की स्वीकारोक्ति नहीं देता। रस्मों के पश्चात सुशांत माँ को भी इंग्लैंड ले जाना चाहता है। पत्नी एक क्षीण सा तर्क देती है कि कम से कम चालिस दिन उसे अपने दिवंगत पति के लिए इस घर में रहना चाहिए। किंतु परंपराओं का यह तर्क आधुनिकता की नई परिभाषा के आगे टिक नहीं पाता।

 सुशांत का निर्णय ही सर्वोपरि रहा। मृत्युपरांत की रस्मों को समयाभाव की सीमाओं के अंदर जैसे-तैसे निर्वाह कर दिया गया। मेरा फ़ोटो जो तेरहवीं के दिन रखा गया था, उसे ड्राइंग रूम की दीवार के कोने में लगा दिया गया। फ़ोटो स्वामी मर चुका है, इसका प्रतीक प्लास्टिक का हार फ़ोटो पर टांग दिया गया। मैं फ़ोटो में समाया टंगा रहा।


 संगीता कुंज वीरान हो गया। मैं हूँ भी और नहीं भी। पिछले चार महीने से कोठी के गेट पर ताला लटका हुआ है। बनवाते समय कुछ सपने थे कि इस कोठी के प्रांगण में कभी पौत्र पौत्रियों की तुतलाती बोलियाँ गूँजेंगी। किन्तु इसमें तो सन्नाटे की साँय-साँय के अतिरिक्त कुछ नहीं गूँज रहा।

 ऐसे ही समय व्यतीत हो रहा था…दिन..रात…महीने…कि एक दिन ऐसा लगा कि कोठी के गेट पर कुछ हलचल है। कार के गेट खुलने बंद होने की आवाज़, लोगों के बोल चाल की मिलाजुली आवाज़ें…ताले में चाबी लगने की खटखटाहट। चूँ ऽऽ…चूँ ऽऽ की आवाज़ के साथ मुख्य द्वार खुला। बाहर से अंदर आते प्रकाश में मैंने आश्चर्य से देखा कि पत्नी, पुत्र एवं पुत्र वधु अंदर प्रवेश कर रहे हैं। चार महीने बाद कोठी के अंधकार में बिजली का प्रकाश फैल गया। वीरान सी पड़ी कोठी पुनः आबाद हो गई।

 अगली सुबह पुत्र अपने मोबाइल से किसी से बात कर रहा था- “जी हाँ ! हम लोग कल ही पहुँचे हैं। ज़्यादा छुट्टियाँ नहीं हैं .. शीघ्र ही डील फ़ाइनल कर देनी है। हाँ हाँ ठीक है, मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ”

 मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कौन आने वाला है और कौन सी डील फ़ाइनल होनी है। मेरी उत्सुकता को ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। साय: चार बजे वह अपरिचित आदमी जिसे सुशांत, गिदबानी जी कह कर संबोधित कर रहा था, सोफ़े पर बैठ गया। गिदबानी की उम्र ५० के आसपास थी। सिल्क के कुर्ते में उसके साँवले चेहरे से दुनियादारी टपक रही थी। मोटी गर्दन पर लटकती सोने की चेन उसके वैभव को प्रगट कर रही थी। तब तक मेरी पत्नी चाय की ट्रे ले आई थी।

 वार्ता के अंशों से मुझे आभास हो गया कि गिदबानी एक ठेकेदार है और इस कोठी को ख़रीदने का इच्छुक है।

“ गिदबानी जी, हम सब तो अब इंग्लैंड में ही बस गये हैं….अब इस कोठी का हमारे लिए कोई उपयोग नहीं बचा है। और न ही हमारे पास इतना टाईम है कि इसके मोल-भाव के पचड़े में पड़ें। अत: आपसे जो पचास लाख में बात हुई थी, उसे हम फ़ाइनल करते हैं। ”- सुशांत ने अंतिम निर्णय देते हुए कहा।

 “ ठीक है जी… मैंने सब काग़ज़ात तैयार करवा लिए हैं। कल रजिस्ट्री ऑफिस में चलकर रजिस्ट्री पर दस्तख़त हो जाएँगें। ”- गिदबानी ने चाय की चुस्की लेते कहा।


  संगीता कुंज बिक चुका था। जो नहीं बिका, उसके निपटाने की प्रक्रिया चल रही थी। फ़र्नीचर, गद्दे, बर्तन आदि मोटा सामान आस-पड़ौस में ओने-पौने दामों में बेच दिया गया। मेरे कपड़े -जूते आदि का एक अलग पैक तैयार किया जा रहा था। इसे कोढ़ी खाने में दान किया जाना है। पत्नी मेरा वह सूट पैक कर रही थी जिसे सुशांत की शादी पर मैंने बड़े चाव से सिलवाया था। मुझे सूट के भाग्य पर तरस आ रहा था। कहाँ तो कल यह शादी की रौनक़ में इतरा रहा था और अब यह किसी कुष्ठ रोगी की काया पर टंगेगा।

 जिस गृहस्थी का सामान जुटाने में मेरा संपूर्ण जीवन निकल गया, उसे निपटाने में केवल दो दिन लगे। आज रात की फ़्लाइट से इन सब की वापसी है। टैक्सी आ गई है। बड़े-बड़े सूटकेस टैक्सी पर लादे जा रहे हैं। पुत्र और पत्नी अंतिम बार कोठी में यह देखने आते हैं कि कहीं कुछ छूटा तो नहीं…..नहीं कहीं कुछ नहीं छूटा सिर्फ़ कुछ यादों के। पत्नी भावुक हो आई है ….इस कोठी, इस मोहल्ले, इस शहर से अंतिम विदाई के क्षणों में। वह जाने लगती है….। …..मैं, जो कुछ बोल नहीं सकता किंतु मेरे अंदर कुछ घुट रहा है…. मैं उसे याद दिलाना चाहता हूँ कि तुम कुछ भूल रही हो… मेरा फ़ोटो जो ड्राइंग रूम के कोने में लगा है…. उसे तुम भूल रही हो। किंतु मेरी निशब्द आवाज़ उसके कानों तक नहीं पहुँचती। बाहर टैक्सी के इंजन की घरघराती आवाज़ दूर होती चली गई। नंगी सूनी दीवारों वाली वीरान कोठी में मेरा फ़ोटो अब भी अपने निष्कासन की प्रतीक्षा में टँगा है।

 पिछले जन्म के मेरे अपनों को गए हुए कितने दिन गुजरे, मुझे नहीं पता। ….और एक दिन फिर कोठी खुली, गिदबानी और मज़दूर से लगने वाले कुछ लोग अंदर आ गए। संभवतः कोठी की साफ़-सफ़ाई, रंगाई-पुताई का कार्य आरंभ हो रहा है। मज़दूर दीवारों की घिसाई कर रहे थे कि एक मज़दूर की नज़र मेरे फ़ोटो पर पड़ी। मेरा दिल धड़कने लगा।

 “ ठेकेदार जी, यह एक फ़ोटो टँगा है, इसका क्या करना है ?”-मज़दूर ने पूछा। ठेकेदार जो मुख्य कारीगर से चर्चा में व्यस्त था कहा -“ उतार कर कचरे में डाल दो। ” फिर अचानक कुछ सोच कर गिदबानी ने कहा-“ ठहरो ! यह शायद कोठी के मालिक की तस्वीर है। इंग्लैंड वाले लड़के से भले ही यह कोठी मैंने ख़रीदी हो किंतु असली मालिक तो यह फ़ोटो वाला व्यक्ति ही है। ”

 फ़ोटो उतारता मज़दूर असमंजस में पड़ गया।

 “ फ़ोटो अख़बार में पैक करके मेरी कार में रख दो। कल मुझे काम से हरिद्वार जाना है। ”-गिदबानी ने मज़दूर को आदेश देते कहा।

 

   अगले दिन गिदबानी की कार की पिछली सीट पर पड़ा मैं अपने भविष्य को लेकर असमंजस में हूँ। कार हरिद्वार के घाट पर रुकती है। गिदबानी कार से फ़ोटो उठाता है-“ झूले लाल जी, मुझे क्षमा करना और इसकी आत्मा को शांति प्रदान करना।

  गिदबानी श्रद्धा से फ़ोटो को गंगा की लहरों में समर्पित कर देता है……………


                        *****समाप्त*****      


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