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Apoorva Singh

Tragedy

4.6  

Apoorva Singh

Tragedy

दुल्हन हाट....!एक कुरूप प्रथा

दुल्हन हाट....!एक कुरूप प्रथा

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सुबह का समय और उस पर पक्षियों चहचहाना मुझे बेहद पसंद है।उस पर चलने वाली ठंडी ठंडी पुरवाई सब मिलकर मेरी सुबह को खूबसूरत बना देते हैं।आप सोच रहे होंगे मैं कौन..?मैं क्या कोई उच्चाधिकारी हूँ किसी जिले की जो खुद को इतनी महत्ता दे रही हूँ।तो बता देती हूँ मैं कि नही मैं कोई उच्चाधिकारी नही बस एक आम साधारण सी लड़की नाम है मेघा।

मेघ के समान श्यामल वर्ण!ये नाम ये पहचान दी है मेरी पालक अविवाहिता मां नीलिमा ने।नीलिमा मां!जिनके आसपास ही मेरी दुनिया है।उनका मेरे पास आना किसी रहनुमा से कम नही था।मुझे जब से उनका साथ मिला मेरी तो दुनिया ही बदल गयी थी।लोग कहते है जन्म देने वाले मां बाप से ज्यादा लाड़ प्यार हमे कोई नही दे सकता।बिल्कुल गलत कहते हैं।क्योंकि मैंने जो अनुभव किया है उसके आधार पर मैं कहती हूँ जरूरी नही रिश्ते सिर्फ खून के ही सच्चे हो।रिश्ते तो दिलो से निभते है फिर चाहे वो खून के हो या न हो कोई फर्क नही पड़ता।

नीलीमा मां आप अगर मुझे नही मिलती मेरा हाथ नही थामती मुझे सहारा नही देती तो आज मैं भी किसी रेड लाइट एरिया में लोगों के मनोरंजन का साधन बन खड़ी हो उनकी चुभने वाली नजरो और मन बेधने वाले शब्दो का शिकार हो रही होती।कितनी कठिन जिंदगी होती मेरी आपके बिना जिसके बारे में सोचकर ही मेरी रूह कांप जाती है।

एक दस साल की लड़की थी मैं जब मैंने जीवन में दुखो के रंग देखे।क्या उम्र थी मेरी मात्र दस वर्ष।और रंग श्याम।एक मजदूर परिवार की चार भाई बहनो में दूसरे नम्बर की लड़की।बड़ी बहन दिखने में अच्छी थी सुन्दर थी सो सबकी लाडली थी।और मैं श्यामल रंग की इसिलिये मां पापा मुझसे त्रस्त रहते।दो भाई भी थे मेरे जो अपना बचपना शान से जीते।जीजी मुझसे तीन साल बड़ी थी।उनसे छोटी एक और लड़की थी जो भगवान को प्यारी हो चुकी थी।इसीलिए मुझमे और जीजी में इतना अंतर हो गया।जब सूरज डूबने पर सारी दुनिया सो जाती थी तब मेरे मां पापा की बातें सन्नाटे को तोड़ती थी जो कभी कभी मेरे कानो में पड़ जाती थी।पापा अक्सर जीजी को बाजार दिखाने की बात किया करते थे।और मां उनकी बातो को टालते हुए कहती थी "अभी ज्यादा जल्दी है अभी बाजार दिखाओगे लड़की को तो मनचाही बात न बनेगी।लड़कियों की तो सुंदरता ही भावे है जमाने को और अपनी लड़की के तो उभार भी न ढंग से होये है और फिर महीने से शुरू हो जाये तो कछु बात बनै।" उनकी बातें बाल सुलभ मन को उस पल समझ नही आती थी।वो किस बारे में बात कर रहे हैं।कहां समझ थी इतनी कि बाजार दिखाने के नाम पर हमारे समाज का एक विशेष तबका मजबूरी में या रिवाज के नाम पर अपनी लड़कियों को दुल्हन वाले हाट में बेच देता है।जो या तो उन्हें ऐसे घर में पहुंचाते है जिन घर में चिरागो की रोशनी मौजूद नही हो या फिर उनसे खेल कर वेश्यावृति के कारोबार में धकेल देते है।लड़कियों के जन्म पर वहां उत्सव इसीलिए मनाये जाते है।ताकि उन्हें आगे आर्थिक लाभ हो सके।

एक दिन सुबह सुबह मां जीजी को खूब सजा सँवार रही थी।जीजी भी खूब मन से सज रही थी।लाल लाल लिपस्टिक,माथे पर बेंदी तो कानो में झुमके।हाथो में चूड़िया तो पैरो में पायल।दुल्हन की तरह श्रंगार किया था दीदी का।दीदी को इतना सजता सँवरता देख बाल मन भी ललचा गया।मां से सजने की जिद करने लगी।मां ने खिसिया कर गालो पर थप्पड़ जड़ दिया।फरमान सुनाते हुए कहने लगीं संजना सँवरना तो गोरी लड़कियों पर शोभा देता है तुझे सज सँवर कर तमाशा थोड़े ही बनाना है अपना।बाल सुलभ मन कहां मां की बातों का बुरा मानता है।सो मैंने भी नही माना फिर भी सज सँवर कर जीजी के साथ जाने की जिद करने लगी।वहीं पैर पटक कर बैठ गयी थी मैं और मां पापा को गुस्सा दिखाने लगी।बाजार देखने का मोह मन में जोर पकड़ रहा था।मेरे मोहल्ले पड़ोस की लड़कियां बाजार तो जाती दिखती थी लेकिन बाजार से वापस आती नही दिखती थी।मन सवालो से घिर जाता था मेरा।आखिर बाजार में ऐसा क्या था जो सब वहां सज सँवर कर जाती तो थी लेकिन कोई लौटती नही थी।कितनी ही रस्मे कराई जाती थी घर से निकलते समय।थापे देना जो समृद्धि का प्रतीक था तो वहीं अनाज की बारिश कराना जिससे उनके घर से जाने के बाद भी घर धन धान्य से परिपूर्ण रहे।द्वार पूजा गौ पूजा।और सबसे अंत में मुड़ कर न देखना।न जाने कितनी ही रस्मे निभा कर लड़की जाती थी।ठाठ से सवारी निकाली जाती और सड़क पर जाकर एक गाड़ी में लड़की अपने पिता के साथ बैठ जाती।फिर लौट कर चेहरे पर प्रसन्नता के भाव रखे उसके पिता ही लौटकर आते वो लड़की बाजार की गलियो में न जाने कहां गुम हो जाती।और मैं सोचा करती उसे रास्ता नजर नही आता या फिर कोई दूसरा रास्ता पकड़ कर दूसरे रस्ते पर चली जाती किसी गुमनाम मंजिल की तलाश में।क्या बाजार की रौनक इतनी लुभावनी होती है जो एक बार जाने के बाद वहां से निकलने का मन ही नही करता।मैं इन्ही जवाबो की तलाश में अपने बालमन को भटकाये रहती लेकिन कोई उचित जवाब नही मिलता जो मेरी बालमन की जिज्ञासा को शांत कर सके।अपने छोटे से घर के आंगन में पैर पटक कर बैठी हुई मैं जब चुप नही हुई तो पापा ये कहकर मुझे भी बाजार ले गये बड़ी बहन का मोह है शायद इसीलिये जिद कर रही है एक बार दिखा ही लाता हूँ इससे हमे भी ये पता चल जायेगा छोरी को आगे पालना भी है या नही।उस पल मासूम मन से ये बातें समझ नही आई थी क्यों कहा था मेरे खुद के पिता ने ऐसा।क्या सच में वो मेरे पिता थे या मोल लिया था मुझे।या फिर यूँ ही सड़क से उठा कर पाल लिया था।कहां मन इन सवालो में उलझता था।पापा की बात सुनकर ही मन खुशी से बावरा हो गया अब जीजी के साथ मैं भी हाट जाउंगी।अब मुझे पता चल जायेगा हाट में जाने वाली सजी सँवरी लडकियां क्यों वापस नही आती है।मैं भी थोड़ा बहुत लाली लिपस्टिक कर पापा और जीजी के साथ वहां से हाट के लिए निकली।रस्ते में जो भी जान पहचान का मिलता तो उन्हें मुस्कुराते हुए उत्साह उत्साह में दुआ सलाम करने लगती।हालचाल पूछ लेती।हालचाल पूछते हुए मेरी नजर गाड़ी के दूसरे छोर पर पास बैठी जीजी पर पड़ी जो डरी सहमी,घबराई सी सिमटी हुई बैठी हुई थी।उनको देखते ही मेरी सारी खुशी फुर्र हो गयी।मन में ख्याल आया अब इस फेहतिस्त में मेरी जीजी भी शामिल हो जायेगी।बाजार की उन गलियो में मेरी जीजी भी घूमने निकल जायेगी और फिर कभी लौटकर घर वापस नही आ पायेगी।सोच कर ही मन भर गया मेरा और मैं जीजी के गले लग गयी थी।जीजी भी मुझे पा रोने लगी थी।ये देख पापा चिल्लाते हुए कहने लगे ज्यादा आंसू न बहा नही तो सारा साज श्रृंगार बिगड़ जावेगा और फिर हाट में कौड़ियो के भाव ले जाना पड़ेगा तुझे।ऐसे में बिरादरी में हमारी नाक कट जायेगी।मुझ पर चिल्लाते हुए पापा ने मुझे जीजी से अलग होने के लिए कहा और मैं चुपचाप जाकर एक ओर बैठ गयी।कुछ देर बाद ही पापा ने गाड़ी रुकवाई।मैंने उत्सुकतावश नजर उठा कर देखा तो वो हाट बिल्कुल अलग जान पड़ा मुझे।वहां न ही कोई खिलौने की दुकान थी और न ही कोई मिट्टी के बर्तनों की सजावट भरी टपरी।न ही कोई कपड़े लित्ते दिखाई दे रहे थे और न ही कहीं आटा दार का ढेर दिखाई दे रहा था।उस हाट में बस एक ही बात नजर आ रही थी वहाँ मेरी जीजी की तरह और भी कुछ लड़कियां सजी सँवरि बनी ठनी खड़ी हुई थी।जिनके आसपास कुछ एक लोगों की भीड़ लगी थी।उनके साथ इक्का दुक्का महिलाये भी थी।जो लड़कियों को अपने साथ एक कपड़ो की चाहरदीवारी से बनी झोपड़ी में ले जाती और कुछ देर बाद वापस ले आती।फिर वो साथ आये व्यक्ति से इशारे से कुछ कहती थी और बनी ठनी लड़की के पिता की ओर एक सफेद लिफाफा बढ़ाती जिसे लेकर वो लड़की को उनके साथ भेज देते।ये कैसी रीत है क्या रिवाज है ये मुझे कुछ समझ नही आया।लेकिन बाल मन अपनी बचपन की हमराज जीजी से बिछड़ने के ख्याल से दुखी होने लगा था।कुछ ही देर में जीजी के साथ भी वही सब घटना घटने लगी जो मैं अब तक दूर से दूसरी लड़कियों के साथ घटता देख रही थी।मेरी जीजी को भी एक महिला के साथ उसी कपड़ो की चाहरदीवारी में जाना पड़ा।वहां जाकर क्या होता था मुझे नही पता था।जिज्ञासा हुई जानने की सो जीजी के पीछे मैं भी चली गयी।अंदर जाकर एक महिला को दूसरी महिला की अस्मिता का माप लगाते हुए पाया।सहम गया था बाल मन ये दृश्य देखते हुए।मैं तुरंत दौड़कर बाहर चली आई।सहम कर अपने पापा के पीछे खड़ी हो गयी इस उम्मीद से शायद पापा के पीछे मैं सुरक्षित रहूंगी।लेकिन गलतफहमी ही थी ये मेरी।मैं समाज के जिस तबके से थी वहां कोई भी रिश्ता सुरक्षित नही था।कुछ ही देर में जीजी चली आई।उनके चेहरो के भाव देख मैं उनके मन को समझने की कोशिश कर रही थी।इतना ही समझ आया मुझे जीजी को उस महिला का उनके साथ अंदर होना अच्छा नही लगा था।उस महिला के साथ जो व्यक्ति खड़ा था वो लगातार मेरी ओर ही देखे जा रहा था।उसका घूरना मुझे कतई अच्छा नही लगा।घबराकर ये सोच पापा के पीछे छुप गयी मैं अब मुझे कोई नही देख पायेगा।पापा उस महिला और उसके साथ खड़े व्यक्ति से बात करने लगे और मैं अपने ही ख्यालो में उलझी चारो ओर देख हाट का नियम समझने की कोशिश करने लगी।हाट का एक नियम मुझे समझ आया था एक बार लड़की को उन चहारदीवारियों के अंदर जरूर जाना होता।मैं सोच में गुम थी तभी कुछ ही देर में पापा की आवाज सुनाई दी वो मुझसे कह रहे थे श्यामली बहुत किस्मत वाली हो जो तुझे जीजी के साथ ही रहने को मिलेगा।अब तुम हमेशा अपनी जीजी के साथ ही रहोगी।सुनकर अच्छा लगा।लेकिन फिर मैं बाकी सबसे दूर हो जाउंगी ये सोच मन डर से सिमट गया।उस आदमी ने पापा को भी एक लिफाफा थमाया जिसे पापा ने हंसते हुए थाम लिया।जीजी और मैं उस औरत और उसके साथ आये एक आदमी के साथ चल दी।जो हमे कुछ दूर खड़ी एक गाड़ी के पास ले गया।वो महिला हमारे साथ बहुत अच्छे से पेश आ रही थी।चेहरे पर मधुर मुस्कान और आंखों में प्यार लिए उस औरत ने जीजी का हाथ थाम लिया और उसके साथ गाड़ी में पीछे की सीट पर बैठ गयी।मैं भी अपनी जीजी के बगल में ही बैठ गयी।उस आदमी ने गाड़ी दौड़ा दी जो एक बड़े से घर के सामने जा कर रुकी।हम सब गाड़ी से उतर अंदर बढ़ गये।सब कुछ मुझे नया सा लग रहा था।नया ही तो था एक छोटे से मजदूर तबके की झोपड़ी से निकल कर अचानक से बड़े से घर में आना एक सपने जैसा ही तो था मेरे लिए।ऐसा सपना जिसका ख्वाब देखना कोई गुनाह नही है लेकिन उसके पूरे होने का तरीका किसी गुनाह से कम भी नही।मैं और मेरी जीजी दोनो अंदर चली आई।वो घर बेहद खूबसूरत था जिसमे आधुनिक सभी सुविधाएं मौजूद थी।घर में सामने एक थोड़ी बुजुर्ग महिला बैठी हुई थी जिसे देखते ही हमारे साथ आये हुए लोगों ने देखते ही सलाम किया और हमसे भी करने को कहा गया।उस औरत ने हम दोनो को ही अपने पास बुलाया और जीजी की ओर घूरते हुए वो साथ आई औरत की से कहने लगी,'रेवती अच्छे से माप तौल कर के ही तो लाई है इस लड़की को।इस घर की वंशबेल बढ़ाने में सक्षम होवेगी कि नही।दिखने में तो सुन्दर लग रही है कोई दाग धब्बा तो न है शरीर पर।'सुनकर कई सवाल मन में भर आये।वो बूढ़ी औरत किस बारे में बात कर रही है।और जीजी को उस घर में क्यों लेकर आये हैं।वहीं पता चला औरत का नाम रेवती है।जो उस बूढ़ी औरत से कह रही थी सब देखभाल करके ही लाई हूँ इस मालिक की इस नयी रखैल को।मालिक को भी ये ही भाई है अब आप समय दिखवा लें अपने गुरु महाराज से कब किस घड़ी और किस नक्षत्र में इसे मालिक के साथ कमरे में भेजना है।मैं उनकी बाते समझने की कोशिश कर इधर उधर देख रही थी।मुझे ऐसा लग रहा था जैसे अचानक से ही मेरी दुनिया बदल गयी है।वहां उठने बैठने, खाने पीने से लेकर रहन सहन बात करने का तरीका सब बिल्कुल दूसरी दुनिया का लग रहा था मुझे।मैं सब समझने की कोशिश कर रही थी तभी उस बूढ़ी औरत की आवाज सुनाई दी जो फोन पर किसी से बात करते हुए कह रही थी,'जी गुरुजी जैसा आपने कहा वैसा ही किया गया है दुल्हन वाले हाट से छोरे के वास्ते लड़की चुनकर घर आ गयी है आप अब सही समय देख कर बता दो किस समय दोनो का मेल होना सही रहेगा।'सुनकर मैंने जीजी की ओर देखा जो मेरे साथ ही घबराई सी खड़ी थी।शायद उन्हें समझ आ गया था वहां किस बारे में बाते हो रही थी।कुछ देर बात कर बूढ़ी औरत ने फोन रख दिया और रेवती से कह उसे कमरे में ले जाने के लिए कहा।मैं भी जीजी के साथ जाने लगी तो मुझे वहीं खड़ा रहने के लिए कहा गया।बूढ़ी औरत को सुनकर ही मन डर गया।मुझे यहां क्यों रोक लिया गया मैं वहीं एक ओर सिमट कर खड़ी रह गयी।ये जो

मेरी अबूझ पहेलियों की शुरुआत भर थी मैं वहीं खड़ी थी तभी नजर एक बार फिर साथ आये व्यक्ति पर पड़ी जो अभी भी मुझे ही घूरे जा रहा था।उसके चेहरे के भावो को देख मन सहम गया मेरा।उस बूढ़ी औरत के कहने पर वो व्यक्ति वहां से चला गया और मैं वहीं खड़ी रह गयी।कुछ देर बाद रेवती फिर से आई और मुझे अपने साथ ले गयी।घर की साफ सफाई का काम मुझसे कराने लगी और मैं डरी सहमी उस कार्य को चुपचाप करने लगी।

एक दिन कार्य करते हुए कानो में जीजी की चीखे सुनाई पड़ रही थी।जिन्हें सुन मैं उनके पास जाने के लिए बढ़ गयी लेकिन रेवती ने मुझे रोक दिया।नही समझ आया ऐसा क्यों किया उसने।बहुत गिड़गिड़ाई जीजी के पास जाने देने के लिए लेकिन नही जाने दिया।धीरे धीरे ये रोज का सिलसिला बन गया था।बात बात पर डपटना,गलती होने पर समझाने की जगह हाथ उठा देना,घर के सारे काम करवाना रोज का काम हो गया था मेरा।धीरे धीरे वहां रहने से डरने लगी थी मैं।मैं और मेरी जीजी दोनो की दुनिया वही चाहरदीवारी बन गयी थी।महीनों हो गये थे एक घर में रहते हुए भी मैं मेरी जीजी से नही मिल पाई थी।उनके बारे में कुछ खबर नही थी मुझे वो कैसी है।उनके कमरे में जाने की मुझे मनाही थी।एक दिन मैं घर पर कार्य कर रही थी तभी मेरी निगाह दूर से घूर रही दो आंखों पर पड़ी।वासना से भरी उन आंखों को मैं अब तक नही भूल पाई हूँ।कुछ देर ताकते रहने के बाद वो आँखे वहां से चली गयी लेकिन मेरा मन सहम गया।उस दिन एक बार फिर रेवती मेरे पास आई थी और मुझे बना सँवारने लगी।उस समय तक इतना तो मुझे समझ आ गया था कि ये बनाव श्रृंगार यूँही तो नही किया जाता है।इसके पीछे भी कोई न कोई वजह जरूर रहती है।मेरी जीजी को भी यूँही बनाव श्रृंगार कर यहां लाया गया उसके बाद से उन्हें कभी कमरे से बाहर नही निकलने दिया गया।हिम्मत कर मैंने रेवती से इस बारे में पूछा तो रेवती ने मुझे डपटते हुए कहा तुम छोटे घर की लड़कियों के लिए सवाल पूछना उचित नही है।मैं चुप रह गयी नही समझ आया मुझे क्यों उचित नही है हमारा सवाल पूछना।और ये छोटा बड़ा तो घर ही होता है इंसान तो एक ही जैसा होता है वही हाड़मांस का चमड़ी में लिपटा हुआ जिसकी रगो में लाल खून ही बहता है।तो छोटे बड़े इंसानो में जब सब चीजे एक जैसी होती है तो फिर ये घर छोटे बड़े से क्या फर्क पड़ जाना है।नही जवाब मिले मुझे और मैं चुप कर गयी।कुछ देर के बनाव श्रृंगार के बाद रेवती मुझे भी एक कमरे में ले जाकर छोड़ आई।उसके इस कदम से मैं सहम गयी थी।जीजी के साथ भी ऐसा ही किया गया था और अब मेरे साथ भी वही प्रक्रिया दोहराई जा रही थी।एक ग्यारह बरस की लड़की जिसे कभी किसी ने सही गलत नही समझाया कभी उसने स्कूल का मुंह नही देखा उसे कैसे समझ आता अगले कुछ पलो में उसकी अस्मिता पर प्रहार होने को है।खेलने पढ़ने की उम्र में उसे जीवन के वीभत्स रूप देखने को मिलेंगे।बनी ठनी मैं कमरे में रखी चीजो को देख रही थी जो उस घर में रहते हुए भी मैंने कभी नही देखी थी।फूलो वाला नर्म बिस्तर,उसके एक ओर रखी कांच की बोतल जिसमे पानी जैसा कुछ रखा हुआ था।बोतल के पास रखा एक छोटा सा पैकेट जिसमे क्या था पता नही।कुछ ही देर में दरवाजा दोबारा खुला और एक आदमी चेहरे पर मुस्कान रखे अंदर चला आया।वो वही आदमी था जिसे मैंने कुछ घण्टो पहले देखा था।डर के कारण कदम पीछे हटने लगे और वो चेहरे पर कुटिल हंसी रखे हुए आगे बढ़ने लगा।सहम गया था मन मेरा।अगले ही पल मैं उसकी गिरफ्त में थी और छूटने के लिए विनती कर रही थी लेकिन गिरफ्त से छूटना रखैलों की किस्मत में कहां था।कसमसा कर रह गयी मैं।ग्यारह वर्ष की उम्र में बलात्कार का दंश झेला मैंने।दर्द जब हद से ज्यादा बढ़ गया तो बेसुध हो गयी मैं।जब आंख खुली तो खुद को एक रेल की बोगी में कम्बल में लिपटा हुआ पाया।अंजान जगह और लोगों की भीड़ देख मन सहम गया।बदन दर्द कर रहा था।जैसे तैसे उठ कर बैठ गयी खुद पर नजर डाली तो सवस्र उन्ही दुल्हन वाले वस्त्रो में पाया।कहां थी मैं कैसे पहुंची यहां तक सवालो की झड़ी मन में लग गयी।खुद में सिमटी हुई मैं रेल की उस बोगी में बैठी हुई यात्रियों की ओर ताक रही थी।रेल रफ्तार से दौड़ रही थी और मेरी किस्मत न जाने किस गुमनाम मंजिल की तलाश में निकली थी जो रूठ चुकी थी।खगड़िया से लाकर किस्मत ने दिल्ली पटक दिया।रेल रुक चुकी थी और मैं सहमते हुए रेल से नीचे उतर आई।शरीर बेहिसाब दर्द कर रहा था और भूख प्यास के कारण जवाब देता जा रहा था।जान न पहचान मंजिल का ठिकाना नही निरीह अकेले भीड़ में चलती हुई मैं एक बेंच पर जाकर बैठ गयी।कुछ समझ नही थी क्या करूँ कहां जाऊं किससे मदद मांगूं।जाने कितनी रेलगाड़ियां आई कितनी गयी और मैं वहीं बैठी उन्हें जाते हुए देखती रही।पास ही पानी की टंकी थी सो पानी पिया तो भूख के कारण पेट दर्द करने लगा।पेट पकड़ वहीं बैठ गयी।दिन से रात हो गयी।लेकिन मैं वहीं बैठ चारो ओर देख रही थी इस उम्मीद से शायद ईश्वर किसी रहनुमा को भेज दे मदद के लिए।कुछ देर बाद आंखों के सामने किसी ने हाथ में पकड़ा सफेद रुमाल झटका और मैं मूर्छित होती चली गयी।जब आंख खुली तो खुद को एक बार फिर बड़े से घर में पाया।जहां फिर सजी सँवरी महिलाये दिखाई दी।जिन्हें देख इतना तो समझ आ गया कि मैं एक बार फिर ऐसी जगह पर हूँ जहां लड़कियों को सजा सँवार कर एक कमरे में भेज दिया जाता है और फिर वही दर्द वेदना शरीर को सहनी पड़ती है।सिमट गयी मैं खुद में।मेरा मासूम बचपन उस सजी संवरी मुखौटे वाली लड़कियों में खो चुका था।मन उस वीभत्स दृश्य को याद कर सिहर गया और मैं वहां से भागने के बारे में सोचने लगी।इतना सरल नही था वहां से निकलना।चारो ओर देखती हुई मेरी नजर घर की खिड़कियों पर पड़ी और मैं उन्हें देख उम्मीद से भर गयी।शायद यहां से भाग सकूँ मैं।सबके सोने का इंतजार करने लगी।लेकिन चौबीस घण्टे होने पर भी वहां की रौनक कम नही हुई।उस घर में उतनी ही चहल पहल थी।कुछ और रास्ता ढूंढने लगी निकलने के लिए कुछ समझ नही आया तो अपनी किस्मत समझ उसे स्वीकार कर बैठ गयी।अभी इतनी उम्र नही थी सो मुझे लोगों के बीच नही भेजा जाता था लेकिन महीने में एक बार लड़कियों के साथ अदाएं सीखने के लिए भेजा जरूर जाता था।मेरे साथ कुछ और लड़कियां भी थी जो मेरी ही तरह मजबूरी में वहां थी।उम्र बढ़ने के साथ साथ समझ बढ़ती गयी।इसी समझ के साथ वहां से एक बार फिर लड़कियों के साथ बाहर जाते समय भागने की जुगत लगाई।जब बड़ी लड़कियां अपने कार्य पर थी और मैं उनके साथ ही लोगों से बात करने के तरीके चलने फिरने के तरीके सीख रही थी तभी चुपके से एक गाड़ी में जाकर छुप गयी जो वहां से निकल रही थी।किस्मत एक बार फिर मुझे लेकर जा रही थी लेकिन कहां इस बात से मैं पूरी तरह अंजान थी।कुछ देर बाद गाड़ी फिर एक घर के सामने रुकी जो दिखने में अच्छा खासा था लेकिन ज्यादा बड़ा नही था।मैं डरी सहमी उसी गाड़ी में ही डुबकी रही।आसपास कोई नही है पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद मैंने झांक कर देखा था।गाड़ी बन्द हो चुकी थी और मै अंदर फंस चुकी थी।कुछ ही देर में नजर सामने से आती हुई एक महिला पर पड़ी जिसके हाथ में पर्स था और आंखों पर चश्मा।उसके पास आने पर मैं एक बार फिर गाड़ी में छुप गयी।वो औरत गाड़ी में बैठी और गाड़ी एक बार फिर चलने लगी।मन फिर आशंका से भर गया और मुझे खांसी आ गयी।जिसे सुन उसने झटके से गाड़ी रोकी और गाड़ी को चेक करते हुए उन्होंने मुझे देखा।मैं डरी सहमी सी एक कौना पकड़ ली थी।उसने मेरी हालत देख शायद अनुमान लगा लिया था या कहा जाये उसकी पारखी नजरो का कमाल था जो मेरे अंदर छुपे डर को उन्होंने पहचान लिया था।वो महिला और कोई नही मिस नीलीमा थी।मुझे देख उन्होंने कुछ नही कहा और शांत बैठे रहने को कह उन्होंने एक बार फिर गाड़ी दौड़ा दी।पिछले डेढ़ सालो में इतना कुछ देख और अनुभव कर लिया था किसी पर सहज भरोसा नही होता था।मन में विचार आ रहा था मैं एक बार फिर किसी मुसीबत में ही फंसने जा रही हूँ।एक अकेली किशोरी के लिए जीना इतना आसान कहां था।मैं वहीं बैठी हुई गाड़ी के रूकने का इंतजार करने लगी।कुछ देर बाद गाड़ी रुकी तो वो नीलिमा जी मुझे एक जगह लेकर आई जहां मेरे जैसे ही और भी बच्चे थे।मुझसे न डरने का कहते हुए मिस नीलिमा मुझे वहां से एक कमरे की ओर ले जाने लगी जिसपर दरवाजा देखते ही मेरे बढ़ते कदम रुक गये।मेरी मनोदशा को समझते हुए नीलिमा जी मुझे वहीं पास ही पड़ी बेंच की ओर ले गयी और मुझसे वहां बैठने का कह खुद भी वहीं बैठ गयी।मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मिस नीलीमा मुझसे मेरे बारे में पूछने लगी।पहली बार किसी ने सर पर हाथ रख इतने धैर्य और प्यार से कुछ पूछा था मेरा डर थोड़ा कम हो गया।लेकिन भरोसा मैं अभी भी नही कर पा रही थी उन पर।मिस नीलीमा मेरी परेशानी समझ उस जगह के बारे में बताने लगी थी।वहीं पता चला वो एक बाल सुधार गृह था।जिसमे वो बच्चे वहां रहने आते थे जो कम उम्र में किसी न किसी अपराध में लिप्त थे जिन्हें वहां भेजकर सही गलत की शिक्षा दी जाती थी।मिस नीलिमा वहां की एक कर्मचारी थी जो नियमित रूप से उन बच्चो से मिलने आती थी और उनके साथ समय व्यतीत कर उन्हें सही रास्ता दिखाती थी।मैं वहीं बैठी हुई सब समझने की कोशिश कर रही थी।मिस नीलिमा मुझसे काफी देर तक इधर उधर की बातें करती रहीं।कभी वो मुझे उन बच्चो के बारे में बता रही थी तो कभी वहां मौजूद अन्य कर्मचारियों के बारे में बता रही थी।वहां खाना खाने का समय हुआ तो सब बच्चे वहां से एक पंक्ति में जाने लगे।मिस नीलीमा मुझे भी वहां से उनके साथ ही ले गयी और भोजनालय कक्ष में जाकर सब इकट्ठे हो पंक्ति में बैठ भोजन करने लगे।

मिस नीलिमा और बाकी कर्मचारी भी उनके साथ ही बैठ गयी और भोजन करने लगी।उनके व्यवहार से मैं भी सहज होने लगी थी भूख लगी थी सो झिझकते हुए भोजन करने लगी।मिस नीलीमा मुझसे बातें भी करती जा रही थी।धीरे धीरे मैं सहज हुई और उनसे खुलकर बातें करने लगी।मैंने उन्हें अपने अतीत के बारे में बताया जिसे सुन वो मुझे समझाते हुए बोली,'मेघा अतीत सबका होता है हमे उस अतीत को पकड़ कर वर्तमान की खुशियो को नही भूलना चाहिए।बल्कि अतीत को अतीत में छोड़ कर हर पल को मुस्कुराकर जीना चाहिए।मेघा नाम सुन मैं बोली मेरा नाम मेघा नही श्यामली है।तो मिस नीलीमा कहने लगी श्यामली अब नही रही आप मेघा है।मेघ से श्यामल वर्ण वाली।मिस नीलिमा की बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया।और मैं अपने अतीत को भूलकर आगे बढ़ने लगी।मिस नीलिमा मेरे साथ बातें करती खेल खेलती अच्छे बुरे इरादों में पहचान करना सिखाती।उनसे मिल कर मुझे समझ आया वास्तव में मां कैसी होती है।मैं मिस नीलिमा को मां कह संबोधित करने लगी।मुझे पढ़ना लिखना नही आता था सो पढ़ाई लिखाई भी करवाने लगी।धीरे धीरे मुझे पढ़ाई लिखाई की महत्ता समझ आने लगी।समय गुजरने के साथ मिस नीलीमा मुझे अपने साथ अपने घर ले आई।जहां मुझे पता चला मैं जिसकी गाड़ी में छुपकर वहां आई थी वो व्यक्ति उनका भाई था जो उधर से गुजर रहा था।मैं मिस नीलीमा और उनके भाई के साथ रहने लगी।धीरे धीरे मैं पढ़ना लिखना सीख गयी तब मुझे पता चला रिवाज के नाम पर जो मेरे जैसी लड़कियों के साथ होता था वो गलत था।शिक्षा की कमी के कारण विशेष तबके के लोग इस प्रथा को अभी तक निभा रहे हैं।मैंने मिस नीलिमा से इस बारे में बात की और हमने साथ मिल कर इस प्रथा के विरुद्ध उचित कदम उठाने का निर्णय लिया।जहां मैंने संघर्ष के जरिये दुल्हन वाले हाट को रोकने के लिए कोशिशें शुरू कर दी।साथ ही अपनी वास्तविक पहचान बताये बिन मिस नीलिमा की मदद से उन सबको शिक्षा के महत्व समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाने लगे।जिस बारे में प्रयास अब तक जारी है इसी उम्मीद में एक दिन हम इसमें अवश्य सफल होंगे...!

*********

मेघा बेटा चले अब हमारी शिक्षा की जागरूकता के लिए निकालने वाली रैली का समय हो रहा है।आपने सारे बैनर और बच्चो को तैयार कर लिया है न इसके लिये। मिस नीलीमा ने डायरी बन्द करते हुए गाड़ी ड्राइव कर रही मेघा से पूछा।नीलिमा को सुन मेघा बोली,' हां मां सब हो गया है मुझे यकीन है हम मिलकर जल्द ही शिक्षा के जरिये इस प्रथा को समाप्त करने में कामयाब होंगे।'नीलिमा बोली,'सिर्फ प्रथा को ही खत्म नही करना है मेघा हमे बल्कि लोगों में जागरूकता भी भरनी है।जिससे भविष्य में कभी कोई श्यामली इस प्रथा का शिकार न बने।'

समाप्त



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