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Apoorva Singh

Abstract

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Apoorva Singh

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हमारी डायरी...3

हमारी डायरी...3

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आज सुबह से पूरा दिन अच्छा था हमारा।सारे कार्य समय पर किये।अपनी शाखा भी समय पर पहुंचे वहां कार्य भी ठीक ठाक हुआ।शाम तक आते आते आज फिर कुछ नया सीखने को मिला।इस नयी सीखने हमे सोचने पर मजबूर कर दिया एक बार फिर।

सच कहें डायरी तो हम इस जॉब से नाखुश ही हैं।क्योंकि हमारा मन गणित के जोड़ घटाओ में लगता ही नही है।हमारे दिमाग में ये बड़ी बड़ी याद रखने वाली बाते घुसती ही नही।मन में हर लम्हा कोई न कोई किरदार घूमता ही रहता है।कभी किसी का स्वभाव तो कभी किसी की पोशाक।कभी हम अपनी कुर्सी पर बैठे ही बैठे कल्पनालोक में पहुंच जाते है जहां हम कुछ नये किरदारों की नयी सोच से मिलते हैं।करते है रचना आम से दिखते किरदारों की जो अपनी सोच से मजबूत बनते हैं।मन तो इसी में रमता ह

ै हमारा।

फिर जब फोन की रिंग से हमारा ध्यान टूटता है तब वास्तविकता का आभास होता है।फिर वहां होता है न कोई किरदार, न कोई कहानी न कोई संवाद बस दिखती है तो केवल सामने पड़ी कुर्सियां ,लकड़ी की दीवारे और महसूस होती है तो ऐसी की ठंडक।सुनाई देती है फिर झिड़की।कितना मुश्किल होता है बेमन से काम करना।सच में कहां किसी को सबकुछ मिलता है।हमारा मन तो लेखन के क्षेत्र से जुड़ने का था।मन था कुछ ऐसा करने का जिसमे मजा आये जो हमारा पैशन हो।लेकिन किस्मत हमें बैंकिंग क्षेत्र में ले आई।और बेमन से इस कार्य को करने में लगे हैं।रचनाकार मन अभी भी ख्यालातो में ही पन्ने काले कर लेता है इसी उम्मीद से शायद कभी किस्मत हमे हमारी मनचाही जगह पर ले जाये शायद कुछ ऐसा हो...!



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