कुमार अविनाश केसर

Abstract

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कुमार अविनाश केसर

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चित्र दर्शन

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आकाश की बोझिल आँखों में एक अजीब-सी कशिश होती है-…… नीलापन …… धूसर और रुई के हल्के फाहों की मस्ती! सबकुछ के बावजूद बसंत के दो दृश्य अकथ्य होते हैं - सुबह की लाली के साथ सपाट होता विस्तृत प्राची नभ का एक कोना और स्वर्ण परिधान में लिपटी सरल…सरस …कपोलों पर लज्जा की कनक रेखा की चपलता वाली प्रतीची नभ क्षितिज पर अस्ताचल की ओर सूर्य को विदा करती है एक मिस मुस्कान वाली संध्या!

     निरवता ही जिसके छंद हों , सरसों और अतसी की मधुर युगल छनछनाहट पर जिसके राग थिरकते हों, उठनेवाली आँखें सब ओर मात्र जिसकी इंद्रजाल की महामाया से दो-चार होती हों, मंद-मंथर लहरी थाप पर जिसके मन-मयूर मदमत्त थिरक उठते हों, मात्र जिसके चंचल भ्रू - विलास का यह परिणाम हो कि हृदय भी अपनी स्वाभाविक गति भूल जाए और सृष्टि के समस्त स्थावर - जंगम में कोलाहल मच जाए तो उस अपरिमित, अप्रतिम संध्या सुंदरी के दर्शन मात्र ब्रह्मत्व होगा।

     आज मुझे इसी ब्रह्मत्व के दर्शन हुए। हाँ, स्वर्ण शालियों की कलमें न थीं और न शरत् इंदिरा के मंदिर की कोई गैल! बल्कि गगनमंडप में धुएँ के बड़े-बड़े पहाड़ ……चलते-फिरते पहाड़ थे। सूरज अस्ताचल की अंतिम सीढ़ी पर खड़ा सहस्र किरणों का उन शैलशृङ्गों से वसुंधरा के हरित चरणों पर अर्पित कर रहे थे। किरणों की तिरछी भङ्गिमा, शैवाली गोधूम पादप और मसृण पीत सर्षप पुष्पों पर पड़े वृष्टि जलकण से पार एक अलग - सी सतरंगी संसृति की सृष्टि कर रही थी। एक क्षण में पता न चलता था कि वह सूर्य की कृपा किरणें हैं या अर्पित रश्मियाँ, जिनमें आरंभ के अंतराल से तन्मात्रा में सप्तवर्णी संसृतियाँ थीं। चिकमिक… झिलमिल के पश्चात सूरज आज अंतिम बार पुनः पीछे मुड़ा। मैंने देखा - संध्या के मुख पर व्रीड़ा की एक तीव्र रेखा थी, सूरज झेंपकर ठंडा पड़ गया और बेचारे का मुख विवृत होकर रक्तवर्णी मात्र रह गया। मुझे हँसी आ गई। संध्या भी झेंप गई। उसके सरस कपोल और रसीले हो उठे। वह… ऊपर का नील समंदर… मुस्कुरा उठा।

      छोटी सुरधनुओं - सी बालविहंगिनी, कलाबाजियों के साथ समंदर यह शून्य का, संध्या को छेड़ भर देता और वह नववधू सी बार-बार झेंप जाती। लंबे डंठलों के कोर किसलयों ने संध्या से आँखें छुपा, हल्की थरथराहट से मुझे कुछ संकेत करना आरंभ किया और मैंने उनके पास खिसक जाने का उपक्रम! उनके शब्द ताल पर मेरी आँखें और भ्रू - नृत्य में संवरित होते गए कि हवा ने सुई चुभा दी, मैं तिलमिला उठा। आँखें दिखाता हुआ हवा के मिस मुड़ा ही था कि समूचा दृश्य ठिठक गया था मानो मेरे पास तो किसी चितेरे ने तस्वीरें चिपका दी हो। हवा तक ने सांस रोक ली।गर्दन झुकाए झूमने वाले ताड़पतत्रों में ऐसी चुप्पी छा गई थी कि उनकी पूर्व मंत्रणा के नीरव एवं निश्चेष्ट संकेत साफ-साफ मुखरित से लगने लगे। प्रकृति शांत थी। घास, कास,पलास सभी टुकुर-टुकुर ताकने लगे थे एक ओर मुंह किये। मैंने अपने दृष्टिपथ को सांकेतिक दिशा दिखाई -

अहा क्या छटा थी!

      संध्या थी, सूरज था, होठों से कपोलों तक उठने वाली लाली थी। कारी...स्याह पुतलियों के चंचल कज्जल कोर की सीमांतों तक लज्जा की लचक रेखा! नेत्र जुड़कर चार हो गए थे।.संध्या ने धीरे-धीरे अपनी आँखें बंद कर ली। सूरज उन कजरारी-सी आँखों में धँसता चला जा रहा था, जिसके चिह्न उस नवोढ़ा की गजल कोरों तक जाते हुए स्पष्ट दिख पड़ रहे थे।



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