Avinash Kumar

Abstract

3  

Avinash Kumar

Abstract

दुःखित बाबा

दुःखित बाबा

4 mins
228


जब मैं दसवीं में था, गाँव के बहुत कम लोगों को पहचाना करता था। बाद में जब गाँव के बाहर पढ़ने - पढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ तब लोगों से जान-पहचान बढ़ी। मैंने प्रथम बार अनुभव किया था कि दुनिया और भी है। जब मेरे पंख निकले, गाँव के एक ऐसे बुजुर्ग को देखा (पहचाना) जो शाक्त थे। पता नहीं, वे कहाँ की भोजपुरी बोला करते थे। हर वाक्य के अन्त में ‘गऽऽ’ जोड़ दिया करते थे। सुनता था, रात बीते उनके बिछावन के चारों ओर माँ दुर्गा अपने सभी रूपों में आ जाती थीं और उनके मुख से भजनावली सुना करती थीं, भोर होते सब विलुप्त हो जाती थीं। तब उनके भजन के लय-छन्द अलौकिक होते थे, जब माँ उपस्थित होती थीं। जोर-जोर से भजन गाते थे। कहते हैं - वे भजन स्वयं माँ के मधुर कण्ठ से प्रवाहित होते थे। वे गाँव की रक्षिका ‘देवी माई’ होती थीं। गाँव के दक्षिणी-पूर्वी छोर पर मठ-जिरात की शुरुआत में आज भी वह स्थान जर्जरावस्था में उपलब्ध है। कहते हैं- उन्हीं के रक्षा-दायित्व में वह गाँव टिका हुआ है। माँ शान्त मनवाली हैं। किसी पर कोप नहीं करतीं। कोई कहीं परदेश जाता तो माईथान जरूर जाता- दर्शन करने, यदि नहीं जा पाता तो घर से ही उस दिशा में सिर नवाकर यात्रा प्रारम्भ करता। गाँव के इस बुजुर्ग की कहानी ने मुझे प्रभावित किया। वे माता के गह्वर में अशक्त हड्डियों को हिलाते हुए कई बार विचित्र मुखभंगिमा से माता के भजन गा चुके थे; प्रायः गह्वर के पास मिल जाते, तब हमारी एक मित्रमण्डली हो गई थी, जो उनके गह्वर में प्रवेश के साथ ही छिपकर गायन-स्वर सुना करती थी। कभी-कभी उन्हें उकसाकर भजन सुना करती थी। मेरी आँखें, मेरा मन - उनकी सेवा, भक्ति और शारीरिक कम्पन की एकनिष्ठता में उलझ जाते। सेवा-भक्ति के बीज वहीं रोपे गए, विश्वास के पौधे उगे, एकनिष्ठता की जड़ें फैलीं। गाँव के लोग उन्हें ‘दुःखित राम’ कहा करते थे, बच्चे ‘दुखित बा ’ कहते, मैं ‘बाबा’ कहता। बाबा जाति से हरिजन थे। कोई पुत्र न था; पर संस्कार उच्च कोटि के भक्त का था। मैं उन्हें ‘ब्रह्मनिष्ठ’ कह सकता हूँ। बाबा मेरे गाँव के सिद्ध पुरुष थे। देवी माँ ही उनकी इष्ट थीं, सेवा थीं, मेहनत थीं, कमाई थीं, जीवन-मृत्यु और मोक्ष-ब्रह्म थीं। इतने साधारण कि कोई भी उनके गुणों से एकबारगी स्वाभाविक परिचित हो जाता, कर्ता होते हुए भी स्वयं कर्म बने रहे; बँटाई के खेतों में एक सुबह से संध्या तक भिड़े रहते, मन में माँ थी, शरीर में मेहनत, मेहनत में ईमानदारी और ईमानदारी में सेवा भाव तथा सेवा भाव में सामने वाले के दुःख-दर्द में खो जानेवाली हाड़ की मूर्ति!!!प्रकृति ने बाबा को कोई बाहरी रूप नहीं दिया था, शायद अनमने ढंग से ढाँचा बनाकर चमड़ी ओढ़ा दी थी। परन्तु महान् आत्मा को किसी चादर की आवश्यकता पड़ती ही कहाँ है? हाँ, कुबड़ी पीठ, भद्दी गरीबी से निर्मित विकृत आकृति, काले शरीर, छिटपुट बेतरतीब दाढ़ी में वो शक्ति भर ली थी जिसे संसार ‘महात्मा’ कहता है।


बाबा में कुछ ऐन्द्रजालिक मंत्रों के संग्रह थे, जिनका अर्थ से कोई संबंध नहीं होता, सिर्फ भावों का गम्भीर

पुट होता, पता नहीं कहाँ से सीखा था, कभी किसी को नहीं बताया। तब गाँव आधिदैविक प्रकोपों का अखाड़ा

हुआ करते थे। शाम होते ही वृक्षों की शाखाओं पर अंधेरे गाँवों के भूत अजीब ढंग से लहराने लगते थे। दूर नहर पर खिखिर के मानों के मुहानों से सियार के फेंकारने की आवाज़ गाँव के अन्धेरे को हिला दिया करती थीं, द्वार सूने हो जाते थे। घरों में दुबकी साँसों के कभी-कभी उठते उच्छवास स्पष्ट सुनाई पड़ जाते थे। दूर कहीं बच्चे के रोने की धीमी आवाज़ से अंधेरी दीवारों के पार कान खड़े हो जाते थे। यह सब तबतक होता था, जबतक सुबह न हो जाती थी। उषाकाल में झुण्ड बनाकर शौच क्रिया के लिए जाती स्त्रियों को किसी ताड़ के पेड़ के नीचे कोई दस हाथ लम्बे साये उजले वस्त्रों में खड़ा दिख जाता तब सर्द मौसम में भी बदन पसीने से भीग जाता।


बाबा का मुख्य कार्य कृषि था। वे अपढ़ अवश्य थे परन्तु आलसी नहीं, ग़रीब अवश्य थे परन्तु बेईमान नहीं, तन से अष्टावक्र अवश्य थे परन्तु मन गंगा-यमुना की निर्मल धारा से आनन्दित था, पुत्रहीन अवश्य थे परन्तु पिता का हृदय नितान्त ही था। इन सबके बावजूद, बाबा मनुष्य थे लेकिन क्रोध में गाली नहीं देते थे, क्रोध में उतना भयानक जितना आनन्द में विभोर, सांसारिक सुविधाओं से उतना ही वंचित जितना ईश्वरीय कृपा से युक्त। खेद का विषय यह कि गाँव की सीमा ने उन्हें हरिजन ही बनाए रखा। जाति के नाम पर मुँह फेरा किया।

नब्बे की अवस्था में माँ ने उन्हें एकाकार कर लिया। मैंने उनके परलोकगमन की बात सुनकर महसूस किया कि

गाँव की हड्डी गल गई, जैसे संस्कृति की कड़ी टूट गई, जिसके चटखने की आवाज़ आज भी साफ-साफ सुनाई

देती है, जो मुस्कुराती हुई कहती है- जरनैल सिंहों से ही गाँव नहीं बनता, कहीं कोई कड़ी दुखित बाबाओं की भी

होती है जाे सभ्यता-संस्कृति की शृंखला बनाती है, महुआबाड़ी की मिट्टी में सुगंध बाेती है।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract