कुमार अविनाश केसर

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कुमार अविनाश केसर

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प्रतिशोध

प्रतिशोध

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मैं अपने दर्जन भर भाइयों के साथ मजे में दिन बीता रहा था। एक बड़े भंडार घर की नींव के पास हमने सुरंग खोदकर एक बिल बना ली थी। एक दिन अचानक लगा कि सुरंग में पानी भर रहा है। मैं अभी बाहर से आया था, आकाश में बादल नहीं थे। फिर, बिना बादल बरसात भला कैसे संभव हो सकती है? मैं भाँप गया, कोई शरारत कर रहा है। मैं अपने भाइयों के समझा-बुझाकर बाहर आने को उद्यत हुआ, थोड़ा-सा ऊपर आने पर पता चला, कोई बाल्टी से पानी उड़ेल रहा है बिल में। मैं समझ गया कि भाग्य प्रतिकूल है। में झट से भाइयों के पास आया और ख़तरे की सूचना उन्हें दी। सभी घबड़ाए। मैंने सोचा - ‘सुरंग को दूसरी ओर खुदवा दूँ’ परन्तु हमारे पास समय शेष नहीं थे, सब भाई घबड़ाकर इधर-उधर भागने लगे। मैंने चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें रोका। वे सब रुके तो, पर हिलने, झूलने, गरदन घुमाने और सुरक्षित स्थान खोजने में कोई कोताही न कर रहे थे। मेरी परवाह किए बिना वे सुरक्षित स्थान की खोज में लगे थे। पर, मैंने उन्हें सांत्वना देकर शान्त किया- ‘मुसीबत में धैर्य रखना ही सबसे अच्छा उपाय है।’ परन्तु मैं खुद डर रहा था। मेरी बुद्धि ने थोड़ी-सी हलचल मचायी, मैंने भाइयों को चौमुहाने सुरंग से निकल जाने की सलाह दी, भाइयों में कई आज्ञाकारी थे, वे मुहाने की तरफ दौड़े, शेष भी उनके पीछे अपनी जान लेकर भागे। सुरंग में पानी भरता जा रहा था। सबको निकालकर मैं खुद बाहर आया, देखा, कोई मोटी लाठी लिए एक मुहाने पर खड़ा था। भावी कल्पना ने शरीर के रोएँ-रोएँ कँपा दिये। मैं लौट आया। तबतक पानी और भर गया था। दूसरे मुहाने की ओर बढ़ा, वहाँ भी कोई पहरा दे रहा था। तीसरे मुहाने पर गया तो बाप रेऽऽऽ.......यहाँ कर्फ्यू थी। मैं समझ गया कि आज आदमियों के पल्ले पड़ा हूँ। हमारी ख़ैर नहीं। हिम्मत जुटा कर उसी ओर से निकलना बेहतर समझा जिधर से पानी डाला जा रहा था। बाहर निकलते बड़ी चतुराई से काम लिया पर सब बेकार सिद्ध हुए। ज्यों ही बाहर आया तो लगा कि देह में बिजली दौड़ गई। एक पल के लिए होश खो बैठा, साँस रोक ली। रो क्या ली! साँस ही टूट-सी गई थी। पतली छड़ी का तगड़ा प्रहार था, यों तो मेरी आयु बची थी वरना उसी दिन मेरे दाँत गिन जाते। बेहोशी में चल न सका, स्थिर पड़ा रहा, मारने वाले ने समझा- मर गया है, मुझे पूँछ से उठाकर बाहर फेंक दिया गया। जहाँ मैं फेंका गया था, वहीं मेरे भाइयों के क्षत-विक्षत शव पड़े थे, कुछ दूर एक बिल्ली बार-बार अपने टपकते लार को गटककर जीभ से मूँछें साफ कर रही थी। संयोग यह कि पिछली रात बारात में जगा हुआ एक कुत्ता बगल में सोया था, सो बेचारी की हिम्मत ज़वाब दे रही थी। और तो और, ऊपर आसमान में कुछ काग-कौए हवाई सम्मेलन में बाँट-बखरे की जोर-शोर कर रहे थे। मानो, मेरे भाइयों के शव उनकी बपौती संपत्ति हों। मैं रो पड़ा। पर अगले ही पल याद आया कि इन भाइयों के साथ मैं क्यों मरूँ! हाँ, बाद में इनके दुश्मनों से प्रतिशोध अवश्य लूँगा। फिलहाल इस वक़्त, किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचूँ। वहीं इत्मीनान से कलेजा कूट-कूट कर रोऊँगा। वरना, यहाँ रहा तो दलित मज़दूरों की भाँति कोई मेरे नाम को भी रोने को न बचेगा। फिर तेजी से नज़दीक के एक बिल में खिसक लिया। और प्रतिशोध की योजना बनाने लगा। विचार करते-करते नींद आ गई। जब आँखें खुलीं तो भूख ने उधम मचा रखा था। बिल के दूसरी ओर से होता हुआ बाहर निकला तो पता चला कि दूसरा मुंह एक बड़े गोदाम में खुलता था, अब मैं गोदाम में था, चावल की सुगंध ने भूख की मीटर बढ़ा दी। मैंने चारों तरफ घूमकर देखा - कई बोरे चावल थे, पर सारे बोरे सील। मुझे अपने तेज दाँतों पर काफी भरोसा था, एक बोरे पर चढ़कर कुतरते हुए छिद्र बना डाला। अन्दर झाँका तो बाछें खिल गईं। मैंने छककर चावल भोग लगाये। फिर आँखें बंदकर भगवान का धन्यवाद किया। बिना परिश्रम के इत्ता ऽऽ सारा भोजन जो मिला था। बचपन में, गुरुजी ने मुझे पढ़ाया था- ‘सबके दाता राम।’ अब मुझे अनुभव हुआ और मैं पहली बार भक्त बन गया। यह सिलसिला चलता रहा, इसी बीच मेरे चार-पाँच साथी भी हो गये। ये लालच के साथी थे। चावल के बोरे पाने के पहले मैं इन्हें फुटी आँखों न सुहाता था। अब पीछे-पीछे दुम हिलाए फिरते हैं। मुफ़्त की खा-खाकर मैं कुछ मोटा हो गया, बुद्धि भी मोटी होने लगी थी । हो भी क्यों न ! छककर खाता था अफर कर सोता था। एक दिन भाइयों के हत्यारों की टोह लेने की सूझी। अपने गुर्गो को लिया और चल पड़ा।   

2.


अब मैं लालची साथियों के साथ उस घर में था जो मेरे दुश्मन का था। मेहनत से बनाई गई चौमुहानी सुरंग के ध्वंसावशेष को देखा तो आँखें नम हो गईं। भाइयों की याद फिर ताज़ी हो गई। प्रतिशोध की घड़ी में दिमाग अन्य सभी विचारों से खाली हो जाता है, बस, दुश्मन को किसी प्रकार कष्ट देना ही सूझ पड़ता है। मैंने नज़रें दौड़ाई। ऊपर, गद्दे बंधे टंगे पड़े थे। आनन-फानन में अपने फौजों को गद्दे पर चढ़ाकर उसे गाजर की तरह महीन कुतरवा डाला। चूंकि रात का समय था अतः काम करने में कतई बाधा न थी। रात भर में घर को कूड़ेदान बना डालने की योजना थी। सो कार्य युद्ध स्तर पर जारी था। सोफे साफ कर डाले गये। प्लास्टिक के बर्तन, काठ की चारपाई, बिछावन के कुछ भाग, जो खाली थे, सारी किताबें, यहाँ तक कि जहाँ तक वश चला एक-एक कपड़ा भी कुतर डाला। अब हम और हमारे साथी थकने लगे थे। मेरे पूरे शरीर में दर्द होने लगा था। भूख भी लग आई थी। अब खाने के टोह में घूमने लगा कि अचानक वे बोरे दिखाई पड़े, ध्यान से देखा तो यह उसी घर का दूसरा कमरा था। मुझे ख़ूब याद है कि मैं प्रतिदिन यहीं भोग लगाने आता हूँ। मैं दो पैरों पर नाचने लगा। मुझ आश्चर्य हो रहा था कि प्रति दिन मैं दुश्मन की क्षति कर रहा हूँ और मुझे अब तक पता न था। हम सबने मिलकर ख़ूब खुशियाँ मनाईं और चावल के बोरी में घूस गया। ख़ूब उछल-उछलकर साथियों ने भी खाया। कुछ छोटे थे इसलिए उनके पेट ज़ल्दी भर गए, भरपूर होकर वे रफू-चक्कर हो गए। उन दिनों मेरे शरीर और पेट दोनों ही मोटे हो गए थे। मेरा पेट जल्दी भरता ही न था। मैं निश्चिन्त-सा बोरे में दूर-दूर तक घूमकर खाने लगा। सच है, विपत्ति

दुर्भाग्य की सहचारिणी है, दुर्भाग्य सबसे पहले बुद्धि पर हमला करती है और उजाले को भी अंधेरा कर छोड़ती है ताकि विपत्ति पीठ पीछे वार कर सके। खाते-खाते नींद आने लगी परन्तु और खाने के चक्कर में ऊनींदे में ही खाता रहा।


3.


सुबह अचानक नींद खुली तो हल्की हवा-सी महसूस हुई कुछ आदमी के बच्चे शोर मचा रहे थे। मुझे लगा कि मैं अब तक बोरे में हूँ। चारों तरफ देखा तो कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था, मुझे भ्रम हुआ था। बार-बार आँखें मींच कर देखा तो पाया कि मेरे चारों तरफ पतले तार की जालीदार दीवारें तार की छत और टीन के फर्श थे, जिसपर मैं पड़ा था। मेरा कलेजा धक् रह गया। मैं समझ गया कि अब मेरी ख़ैर नहीं। आदमी के बच्चों के हाथ में पतले-पतले तार थे। जिसे वे कभी मेरे कान में, कभी पीठ में चुभो देते थे। मैं इतना मोटा और आलसी कि जब बिलबिला उठता तब फुर्ती आती। घर क अन्दर छाती कूटने की आवाज़ आयी। किसी ने संसदीय भाषा में आक्षेप किया - ‘‘एक साला तो पकड़ा गया, बिल्ली की तरह मोटा है, उसे आग के हवाले किया जाएगा।’’ सुनकर शैतान भी अन्दर तक सिहर जाए। तेज़ी से चारों तरफ झाँका, एक दरवाज़ा नज़र आया लेकिन वह भी बन्द था, सख़्ती से। मेरे हाथ-पैर ढीले हो पड़ गए। इस बार तो शायद भगवान भी न बचा पाए! मेरे खानदान में सिर्फ मैं ही अकेला बचा था, मेरे बाद मेरे नाम को रोनेवाला भी कोई न था। सोच रहा था कि एक खूसट बूढ़े ने कहा-‘‘नहीं, नहीं, इसे मारना मत, जीव हत्या पाप है, इसे ऐसी सज़ा दो कि जीवन भर न भूले।’’ मैंने सोचा -‘‘इस खूसट की तरकीब कहीं ऐसी न हो जो मृत्यु से भी भयंकर हो।’’ बूढ़े ने आगे कहा-“इसे आग और पानी से बड़ा डर लगता है। क्यों न इसे पिंजरे सहित आग पर चढ़ाया जाए!“ मैं नानी के नाम को रो पड़ा। सचमुच खूसट ने गजब ढा दिया। आँखें बन्द कर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। हर उपाय से हारा जीव भगवान की शरण में जाता है, उसका कहीं ठौर नहीं होता दूसरा। आँखें बन्द किये प्रार्थना करना शुरु ही किया था कि फर्श गरम लगने लगा, प्रार्थना की शेष पंक्तियाँ भूल गया। समझ गया कि ईश्वर जैसा कुछ नहीं है, होता तो प्रार्थना के बाद भी मैं आग पर भूना न जाता। स्वयं कोई उपाय करना होगा। सोचते- सोचते फर्श इतना गरम चला था कि न चाहते हुए भी फुर्ती आ गयी। मैं पिंजरे में ही इधर-उधर भागने लगा। उधर बच्चे पतले तार से बार-बार चुभो देते, मानो गोद-गोदकर बैंगन पका रहे हों। फर्श सहित दीवारें भी अंगार बनती जा रही थीं। बार-बार दीवारों पर चढ़ता, दौड़ता, टकराता, गिरता और फिर उठकर इधर-उधर भागने लगता। उफ्फ! आग की कमबख़्त गर्मी तो मुझे ठीक से बेहोश भी न होने देती थी। जब अधमरा हो गया, रोएँ झोंकर कर सिमट गए तो मुझे आग से उतारा गया। शरीर में शायद अन्दर तक फफोले निकल आए थे। अब मैं धीर-धीरे होश गवा बैठा। थोड़ी देर बाद अचानक महसूस हुआ जैसे किसी ने नाक पर भारी कपड़ा डाल दी हो। घुटन हो रही थी पर शरीर को ठंडा पर महसूस हो रहा था। आँखें खुलीं तो पहले से ज़्यादा भयानक मंज़र था। पिंजरे के चारों तरफ पानी था। आसमान से गिरा और खज़ूर पर ही अटका था, यह खज़ूर भी धरती जैसे ग्रह का न था बल्कि मृत्यु देवता के बगीचा का एक कंटीला पौधा भर था। मुझे आग से निकालकर पानी में फेंका गया था। साँसें बेतरतीब फूलने लगीं, एक तो आग में भागमभाग से साँसें उखड़ चुकी थीं। मैं अपने को कोसने लगा। कहाँ चैन की ज़िन्दगी बीता रहा था, इन भाइयों ने कहीं का नहीं छोड़ा। न जाने ये कमबख़्त अभी कितनी और आग में भूनेंगे, न जाने कितनी बार पानी में साँसें उखाड़ेंगे! न जाने कहाँ से मैं इस पचड़े में पड़ गया। अबतक जीने की आशा में तैरने भी लगा था, पर उखड़ी साँसों के साथ कितनी देर टिकता! अन्ततः बेहोश हो गया। तैरते-तैरते नीची बैठता जा रहा था............ लग रहा था- मेरे प्राण आँखों की ओर जा रहे हैं, सबकुछ शून्य-सा स्थिर होने लगा। बस, चारों ओर अंधेरा छा गया।


4.


मैं बाहर था, लेकिन लोगों ने मुझे घेर लिया था, बच्चे तालियाँ पीट-पीटकर चिल्ला रहे थे- “अरे.....रे......टाँग पकड़ के सरका दे रे...............नहीं, नहीं आग में पका दे रे............।“ जीने की शेष आशा पर भी पानी फिरता नज़र आने लगा। बड़े-बुजुर्ग भी पीछे न थे। कोई कहता - ‘‘आँखें फोड़ दो।’’ कोई कहता - ‘‘दाँत तोड़ दो।’’ एक कमबख़्त ने अपना भारी-भरकम प्रस्ताव रखा- ‘‘पूँछ उखाड़ कर छोड़ दो।’’ दर्द की कल्पना मात्र से न चाहते हुए भी मेरे मुँह से चूँ निकल गई। उसने बड़े भद्दे , काले दाँत निकालकर हो.........हो...........हो..........हो........किया, मानो मुझ असाध्य रोगी के लिए कोई गुणकारी दवा मिल गई हो। एक आदमी के बच्चे ने मुझे पूँछ से उठाकर उल्टा लटका दिया और मेले के बड़े चक्के वाले झूले की तरह नचाने लगा। मैंने छटपटाकर विरोध किया मगर वो आदमी का बच्चा.........मत पूछो.......उस आदमजादे ने अपनी स्पीड पकड़ ली थी, बार-बार के झटके से लगता कि दुम सचमुच अलग हो जाएगी। मगर कमबख़्त दुम भी मोटी हो गयी थी। अचानक किसी बुजुर्ग ने रोका उसे, रुकते ही सारी दुनिया घूमने लगी। मुझे ऊँचाई से ही धरती पर पटक दिया गया। लगा, जैसे हड्डियाँ माँसपेशियों में चुभ गईं। उस बुजुर्ग ने जो फैसला सुनाया वह पहली सज़ा से तनिक कम न था, एक आँख की रोशनी तो आग और पानी में ही ग़ायब हो गई थी, शेष बची एक आँख से ही आसमान की ओर देखा, वहाँ न भाई थे, न भगवान! मैंने गिड़गिड़ाते हुए प्रार्थना की-“अब भी कुछ बाकी है? भगवान! अब जीने की इच्छा न रही।“ अभी प्रार्थना पूरी भी न हुई थी कि लगा- किसी ने पूँछ पर तेज़ाब पटा दी, आँख से धुआँ निकलने लगा, जीभ दाँतों से लड़कर बाहर आ गई, कान सनसना गए। पीछे घूमकर देखा तो पाया कि दुम अलग छटपटा रही है। बच्चे तालियाँ पीट रहे हैं। बुजुर्ग अभी भी किसी दूसरी सज़ा के विचार में लगे थे। मुझे भागने की थोड़ी फुर्सत मिली। बस, असहनीय दर्द के बाद भी मैंने अपना एक्सीलेरेटर दबा दिया। सभी उठकर मेरे पीछे भागते तबतक सामने दीख रहे एक अनजान सुरंग में घूस गया। थोड़ी राहत मिली। मैं उनके चंगुल से छुट भागा था। सामने शीशे का एक टुकड़ा पड़ा था। उसमें पूरा शरीर दिखाई पड़ रहा था। देखा, कुछ ही घंटों की यातना से शरीर गल-सा गया है, पूँछ से लाल रंग टपक रहा था। अभी इत्मीनान भी न हो पाया था कि सामने नज़र पड़ी। एक भयंकर, काला, काना साँप मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रहा था। उसकी जीभ, उसके होंठ साफ कर रही थी। मैं समझ गया कि आज विधाता वाम है। मैं दुम दबाकर........नहीं, दुम थी कहाँ! सिर पर पैर रखकर भागा। नागराज सुरंग के मुहाने तक पहुँचा गए। अभी कुछ दुर गया भी न था कि एक बिल्ली ने मुझे देख लिया। किसी तरह जान बचाकर पास के कूड़े की ढेर में घूस गया। संयोग यह कि कूड़े के नीचे एक सुरंग थी। मैं झटपट उसे घूस गया। एक रास्ता दूसरी ओर जाता था। मैंने आर-पार दौड़कर खतरे का निरीक्षण किया। सिर निकालकर देखा-बिल्ली रानी कूड़ा छींट रही थीं। मैं झट से अन्दर गया और फटाफट बेहोश हो गया। आज सुबह जब होश आए तो पूरे शरीर में जैसे गठिया था। किसी तरह आपबीती सुन रहा हूँ

भाइयों! इस सुनकर हँसना नहीं, अन्यथा मुझे काफ़ी दुःख होगा। ख़ैर, आप हँस सकते हैं। दूसरे को हँसने और खोज-खोजकर दुःख देने का हुनर भी तो आदमी में ही है। लेकिन हाँ, मैं समझ चुका हूँ कि प्रतिशोध छोटों से हो या बड़ों से, अपने को जग हँसाई का पात्र ही बनाता है। इसीलिए तो मैंने कान उमेठ ली, उधर का रूख कभी न करूँगा.........कभी नहीं!!!  



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