बिल्लो
बिल्लो
शाम को मैं अपने बाजार के चौक से लौट रहा था। मेरे साथ में मेरे प्रारंभिक शिक्षक श्री अजय बाबू भी थे। रास्ते में ठंड से काँपती हुई बिल्ली का एक निरीह बच्चा दीख पड़ा। इस प्राणी पर मेरी नज़र पड़ते ही, मेरे पैर रुक गए। ठंड से ठिठुरते इस बिल्ली शावक ने जैसे मेरे पैर रोक लिए। हृदय विगलित हुआ जाता था। मेरे पीछे आते एक बच्चे को इसे गोद में उठा लेने की सिफारिश की। उसने इसे उठाया और कुछ दूर के बाद एक घर के नजदीक छोड़ देने की ठान ली। वह इसे छोड़ना चाहता था कि घरवाले उस अद्भुत प्राणी ने उसे दुत्कार लगाई। उसे फिर गोद में उठा लिया गया। चलते - चलते हरिजन टोली में छोड़ देने का विचार हुआ कि मैंने उसे थाम लिया। अजय बाबू ने विरोध किया - "बिल्ली नहीं पालनी चाहिए।" मैंने दबे विरोध में कहा -"आदरणीय, यह भी तो प्राणी ही है, इसे हमारी ही तरह सबकुछ अनुभव होता है। इतनी ठंड है, देखिए काँप रही है, आख़िर यह भी तो किसी का बच्चा ही है, निरीह है, निर्दोष है, ठीक हो जाएगी तो जहाँ चाहे, चली जाएगी।" श्री बाबू थोड़ा झेंप गए, फिर मुस्कुराते हुए बोले -"चलो, मुझे ख़ुशी है कि मेरी शिक्षा ने मेरे देश को एक इंसान, एक बेहतर नागरिक दिया।" अब झेंपने की बारी मेरी थी। मुझे लगा - भावतिरेक में कुछ ज़्यादा बोल गया। ख़ैर, मैं बिल्ली के उस शावक को घर लाया। कटोरे से गर्म दूध पिलाकर गोद में रखा तब जाकर उसे कुछ गर्मी आई। कुछ देर में तो घर भर में चहलक़दमी भी करने लगी। जब मैं पढ़ने की टेबल पर आया तो वह भी मेरे साथ आकर टेबल पर उछल-कूद करने लगी। कभी टेबल पर, कभी मेरे कंधे पर - उसका उछलना जारी रहा। शायद वह मुझे पहचान गई थी। वह मेरे इर्द - गिर्द रहने लगी। धीरे-धीरे वह मेरे काफी निकट हो गई। मैं जहाँ जाता, पहुँच जाती। देर रात तक लालटेन की रोशनी में मैं पढ़ता रहा और वह लालटेन की रोशनी में पड़ने वाले कीड़े-मकोड़े भगाती रही। मैं जब तक बैठा रहा, वह मेरे इर्द-गिर्द ही रही। शायद, मैं ही उसके लिए सबकुछ हो गया। इंसान चेहरे देखता है, ओहदे देखता है, क़द देखता है और उसीके के वज़न के बराबर, अपने लाभ-हानि के अनुसार यह तय करता है कि किसे, कब और कितना सिर चढ़ाना है! लाभ न हो तो आदमी भगवान को भी न पूछे! ये मूक प्राणी कितने अच्छे हैं, एक बार इनके होकर देखो, ये हमेशा आपके हो जाते हैं, निस्वार्थ... बेलौस......! विकसिततम होने के बाद भी आदमी आदमी को पहचानने में भूल कर देता है ये बेज़ुबान.. आँखों में झाँककर ही पूरी दुनिया पहचान लेते हैं!! मैं काफ़ी समय तक उसकी आँखों में झाँकता रहा। वहाँ असीम धन्यवाद दीखते थे। कभी - कभी वह जब मेरी उलटी हथेली पर अपनी अगली हथेली रखती तो लगता- ईश्वर ने मेरा हाथ थाम लिया है! अब उसे भी इत्मीनान हो चुका था कि उसे आश्रय मिल गया और वह जिंदा रह सकेगी। इस कालखंड ने मुझे प्राणियों से प्रेम करना सिखाया। अब वह टेबल को ही अपना बिछावन बना रही है। खाली समय में जब मैं कुर्सी पर नहीं होता हूँ तो टेबल से कुर्सी तक उछलना ही उसके प्रिय विनोद में शामिल हो चुका है। अभी वह टेबल पर आराम से सो रही है। गुड़मुड़ - सा, पैरों के बीच ऑंखें मूँदे, मुँह छिपाए वह - बिल्ली से बिल्लो हो चुकी है!!