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कुमार अविनाश केसर

Abstract

3  

कुमार अविनाश केसर

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महाभिनिष्क्रमण

महाभिनिष्क्रमण

7 mins
196


1.


.................रास्ते में राजकुमार ने देखा - एक दुबला-पतला आँखों से क्षीण रोशनी वाला व्यक्ति फटे-पुराने और गंदे कंबल ओढ़े, रास्ते के किनारे पड़ा है। मर गया या लेटा है!

"बाबा" - राजकुमार ने पुकारा।

राजकुमार की आवाज़ मद्धिम होकर व्यक्ति के कानों में पड़ी। उसने सिर हिलाने का असफल प्रयास किया। उसका पूरा शरीर काँप गया। बहुत प्रयास के बाद उसने अपनी आँखें खोली-- अधखुली-सी, झँपझपाती पलकें! धारासार बरसती, विवश आँखें!

"कौन?"- एक सहमी, पतली, कंपकंपाती और दूर जाती हुई-सी, पीड़ा से सनी हुई आवाज़ निकली उस व्यक्ति के मुख से!


........ दीवाली की छुट्टी में मैं घर गया तो सोचा बबन चाचा से मिल लेता हूँ। उनकी तबीयत पहले भी ठीक नहीं थी। अब कैसे हैं? जरा, पता हो जाए! मैंने उनके दरवाजे से उन्हें आवाज़ दी- "चाचा"

सब तरफ सन्नाटा था। थोड़ी देर बाद गीता (चाचा की छोटी बेटी ) बाहर निकली।

"प्रणाम भैया" - उसने मेरे पैर छूकर मुझे प्रणाम किया। "चाचा कहाँ हैं? बाबू!" - मैंने पूछा।

"उस कमरे में, बिछावन पर लेटे हैं।" - दाहिनी तरफ के कमरे की ओर इशारा करती हुई गीता बोली। मैंने कमरे से अंदर झाँका। साधारण-सी, पुरानी चौकी पर पीले और काले रंग का मिश्रित, छींटदार, कंबल ओढ़ कर चाचा लेटे थे। आँखों से पानी मीचमीचा रहा था। कंबल पड़े होने के बावजूद शरीर मात्र हड्डियों का ढाँचा अनुभव हो रहा था। चाचा बायीं करवट लेटे थे। उनकी कमर का दायाँ हिस्सा ऊपर की ओर था.....। ठीक ऊँट की कूबर की तरह.....कोई हड्डी कंबल को ऊपर की तरफ धकेल रही थी। बुद्धि ने उनका पूरा शरीर स्कैन कर डाला। एक चित्र मन में उभरा- गोल और चिकना माथे वाला मुंड! छाती से सोहराव लिए हुए.....पेट निकला हुआ और पेट के नीचे केवल हड्डियों का कंकाल! मांस इस तरह गायब था जैसे हड्डियों से छुड़ाकर चमड़े साट दिए गए हों।आहट पाकर चाचा ने क्षीण आवाज़ में पूछा -"कौन? " गीता ने कहा-"भैया आए हैं।"

 

2.


...........राजकुमार ने पीड़ित व्यक्ति की व्यथा का अनुभव किया। आह! इतनी पीड़ा....राजकुमार सोचने लगा पीड़ा जीवन की व्यथा है। वह व्यथा, जिसका अनुमान केवल अकिंचन या मरणासन्न व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है। क्या यही जीवन की सच्चाई है! सहसा उसके मुख से निकला - "मुझमें भी जीवन है क्या मैं भी एक दिन ऐसी व्यथा से पीड़ित होऊँगा! क्या यही जीवन का अर्थ है! राजकुमार के अंगरक्षक ने कहा - नहीं, राजकुमार आप राजपुत्र हैं, आपको ऐसी मर्मान्तक पीड़ा क्यों व्यापेगी भला! परंतु वह अंदर -ही-अंदर भयभीत हो चुका था। उसे महाराज ने कहा था कि राजकुमार को केवल शाहीबाग में घुमाने ले जाया जाए परंतु राजकुमार की जिद्द के आगे..........।

   "राजकुमार, हमें महल वापस चलना चाहिए। महाराज प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"- अंगरक्षक ने प्रार्थना की। परंतु राजकुमार को जीवन का एक पहलू दिख चुका था। उसने ने दृढ़ होकर कहा - "मैं नगर देखना चाहता हूँ।" अंगरक्षक ने अनुनय-विनय कर राजकुमार को वापस महल लौटने को बाध्य कर दिया। राजकुमार लौट गया।


 ..... चाचा की हालत ने मुझे झकझोर दिया। मैंने उनकी दवा के पुर्जे देखे, डॉक्टर ने उन्हें पीएमसीएच पटना रेफर कर दिया था। मैंने पूछा - "दवाई चल रही है?"

गीता ने कहा - "नहीं भैया, दवा खत्म हो चुकी है। डॉक्टर ने कहा था - दो-चार दिन की दवा शेष रहे तभी दवा स्टॉक कर लेना। रुपए के अभाव में एक सप्ताह से दवाई छुट्टी पड़ी है, सारी दवाई खत्म है।"

चाचा ने लटपटी आवाज़ में कहा - "कोई साथ नहीं दे रहा, बेटा पूछता नहीं। एक अकेली औरत (चाची) कितनी देखभाल करेगी वह न होती तो मैं कब का मर गया होता।"

चाचा की आँखों से आँसू बेज़ार बाहर आने लगे। चाचा फफक कर रो उठे - "बेटी जवान हो गई है, कैसे उसकी शादी किए बिना जाएँ? बड़ी चिंता हो गई है, रिश्तेदार तक पूछने नहीं आ रहे।"

मैंने चाचा को सांत्वना दी कि चिंता न करें, बेटी की शादी ज़रूर हो जाएगी.....तब तक पिताजी भी आ गए। गीता ने उन्हें बैठने के लिए कुर्सी दी। पिताजी बैठ गए। दोनों भाई (पिताजी और चाचा) एक-दूसरे को देख कर रोने लगे। बहुत मर्मभेदी दृश्य था......रोते हुए पिताजी ने दाहिने हाथ से इशारा करते हुए कहा - "इतना छोटा था तब मेरे पीछे-पीछे घूमता फिरता था, आज

बिछावन पर लेटा पड़ा है, निस्सहाय....मजबूर......." -- और पिताजी फफक पड़े। मैंने दोनों को चुप कराया। थोड़ी देर बाद मोबाइल से मित्र मंजूर से बात की और कुछ पैसे कि अर्जी की। वह चकिया था, लौटने पर मिलने की बात हुई। पिताजी ने चाचा को सांत्वना देकर मुझे वापस चलने को कहा। मैं वापस लौट गया। शाम को मित्र से मिलकर चाचा की सहायता की गुहार की। उसने भी अगले दिन रुपए देने की बात की और कुछ ठीक-ठाक होने पर पटना दिखाने की योजना तय हुई। मैं दूसरे दिन वापस मुजफ्फरपुर लौट गया।


3.


.......... राजकुमार के महाभिनिष्क्रमण के लिए इतना काफी था। फिर भी उत्सुकतावश उसने पुनः नगर भ्रमण का हठ किया। सारथी ने, सादर, रथ पर सवार कर, राजकुमार के रथ को नगर की तरफ मोड़ दिया रास्ते में राजकुमार ने एक शव देखा और पूछा - "यह क्या है?" "कुमार! यह जीवन का शाश्वत सत्य है, या कि नग्न सत्य! ऐसा तीखा, जिसे जानते सब हैं, मानते सब हैं। परंतु स्वयं के लिए मानता कोई स्वीकार नहीं करना चाहता। बरबस स्वीकार किया जाने वाला अनिवार्य सत्य!!" - सारथी ने कहा।

" परंतु यह कैसा सत्य महात्मन्? आखिर, यह कौन महानुभाव हैं? जिन्हें लोग कंधे पर उठाए चले जा रहे हैं। ये स्वयं क्यों नहीं चल सकते। "

"यह शव है, श्रीमंत! प्राणहीन जीवन का सार! वही पार्थिव शरीर, जिसके कारण कभी यह देख, बोल, सुन सकता था, समस्त क्रियाएँ संपन्न कर सकता था, वह तत्व अब इसमें विद्यमान नहीं है, कुमार! अब यह जीवन विहीन शरीर, मात्र निर्जीव है! इसका एक मात्र स्थान श्मशान है, कुमार!" - सारथी ने कहा।

 "तो क्या सब की यही गति होनी है? तो जीवन में इतने आमोद-प्रमोद क्यों? " - कुमार ने कहा।

सारथी जीवन दर्शन की अतल गहराइयों में उतर गया -- " कुमार! जीवन के आमोद-प्रमोद, तीज-त्यौहार व अन्य समस्त उत्साहवर्धक एवं उत्साहहीन क्रियाएँ इस अवस्था को भुलाने के उद्योगमात्र हैं, फिर भी इसे कोई भूल नहीं सकता यह स्वयं उपस्थित हो उठता है, कुमार! यह जीवन की अनिवार्य घटना है, श्रीमंत!" - सारथी आगे कुछ नहीं कह पाया। राजकुमार जैसे दूर कहीं पहुँच गया था। वह सोच रहा था -- " क्या मैं जीवंत हूँ? मुझमें भी जीवन है? क्या मेरी भी यह दुर्गति होगी? अपना समस्त बोझ क्या इन्हीं चार कंधों को सौंपना होगा? क्या प्राणी केवल इसीलिए जीता है? क्या जीवन की यही परिणति है? नहीं नहीं, दुख है.... तो दुख का कारण भी होगा। इसका निवारण भी होगा। क्या यही.......यही वास्तविक सत्य है??? " राजकुमार बहुत समय तक इन प्रश्नों से जूझता रहा। इसके महाभिनिष्क्रमण की यह आवश्यक तैयारी थी। समय बहता रहा.... इन प्रश्नों ने उसे एक दिन बुद्ध कर दिया!!!

  ....... चाचा की अवस्था बिल्कुल खराब है - घर से खबर आई। मैं स्कूल गया था। उन दिनों विद्यालय में वार्षिक परीक्षाओं का माहौल था। सवा दस बजे एक फोन आया - "चाचा नहीं रहे।" रिश्तेदारों की प्रतीक्षा के बाद उनका पार्थिव शरीर चार कंधों पर उठकर श्मशान की तरफ निकल गया। समय व मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। लाभ-हानि, जीवन-मरण किसी के बस के नहीं। यह प्रक्रिया सतत चलायमान है। उम्र के जिस पड़ाव पर चाचा चल रहे थे वह भयानक तस्वीर की तरह उनका मुखौटा हो चुका था। जीता-जागता मनुष्य स्मृति से विस्मृति की तरफ बढ़ रहा था। अस्ति से नास्ति की यात्रा पर था। शरीर को अग्नि जला देती है मतलब शरीर आग, हवा, पानी, आसमान बनकर कबूतर हो जाता है। बची राख़ मिट्टी बन जाती है। माँ के गर्भ से आरंभ यह दु:ख की यात्रा का अंतिम पड़ाव है। दु:ख है तो दु:ख का निवारण भी है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा.......

क्या वास्तव में दु:ख - सुख मृत्यु तक सहचर हैं? या दुख कि अंतिम स्थिति है??? मृत्यु!! एक ऐसा यक्ष प्रश्न, जिस पर विचार मंथन मानव धर्म की पराकाष्ठा है। बुद्ध ने दु:ख के कारण, निवारण तो बताए लेकिन मेरे चाचा बुद्ध कहाँ हो पाए!! कहाँ उनके दुखों का निवारण हो पाया!!! जानते हैं क्यों? धन के अभाव में। संभवत:बुद्ध को चाचा के या चाचा जैसों के दु:ख का अनुमान भी न रहा होगा। वास्तव में, दु:ख है....दु:ख का कारण है..... दुख का निवारण भी है.....पर..चाचा को दु:ख हुआ!! दुख का कारण भी हुआ!!! परंतु निवारण संभव न हो पाया।.........और अब तो....डॉलर युग में दु:खों के निवारण के लिए समूचे पर्याय खो चुके हैं!!!!!


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