Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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कुमार अविनाश केसर

Abstract

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कुमार अविनाश केसर

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बसंत बुड्ढा हो गया

बसंत बुड्ढा हो गया

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सामने कुछ दूर खड़ा सेमल का पेड़ बसंत की ऋतु... और सेमल के पीले पत्ते! यह बात कुछ बनी नहीं। लोग कहते हैं - "वसंत आ गया" परंतु मुझे नहीं लगता कि सचमुच बसंत ही आया है। यदि आया है तो अपनी उदासी सेमल के पेड़ पड़ी क्यों लटका रखी है! सुनता हूँ - वसंत-कामिनी भी आई है। परंतु किसी के गमछे लहराते नहीं दिख पड़ रहे, न किसी के आँचल ही इठला रहे हैं। गमछे - आँचल सब चुप हैं? बसंत का मतलब? आलस? उदासी? फिर काहे का बसंत! हृदय के अंत तक उछाल मारे, वास करे.... वह बसंत!

         परंतु यहाँ तो सेमल की सत्ता पर आसीन होते ही बसंत ने तमाम पत्तों को पीला कर दिया, बूढ़ा कर दिया। जीर्ण - जर्जर बना दिया। मंडल के रक्त को शोषकर रक्त हीन कर डाला। पीला बना दिया। अरे! यह तो बूढ़ा बसंत है। वसंत की उमंग कहाँ इसमें!! अब तो थाप पर उठते इसके फाग भी बूढ़े हो चले हैं।


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