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Nirmala Bhuradia

Abstract

2.5  

Nirmala Bhuradia

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सुख-सागर

सुख-सागर

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ये है भग्गू का डीलक्स रूम। सीढ़ी के नीचे बरसाती डाल कर बनाए गए इस मेक-शिफ्ट रूम को इस घर के बड़े भाई साहब ने ये नाम दिया है डीलक्स रूम। बड़े भाई साहब चाहे मजाक में इसे डीलक्स रूम कहते हों मगर भग्गू के लिए यह मजाक नहीं सच है। भग्गू को अपने इस कोने से प्यार है, इस कदर कि आप इसे प्यार नहीं मोह कह सकते हैं। फुरसत के क्षणों में भग्गू यहीं आकर सपने देखा करता है। हालांकि फुरसत के क्षण उसके लिए निहायत ही मुश्किल हैं पर जब भी मिल जाएं, वह अपनी कुठरिया में आकर पलंग पर पड़ जाता है और कोई न कोई फिल्मी गीत गाता अपनी नायिका के सपने देखा करता है। जब से भग्गू की मूंछ फूटी है, उसके सपनों में बाकायदा एक नायिका आने लगी है जिसका चेहरा जीतू धोबी की किशोरी कन्या से मिलता है, धड़ राखी सावंत से, आवाज मालिश वाली की लड़की रेशम से...और भी बहुत सी सच्ची-मुच्ची की और काल्पनिक लड़कियों का मेलजोल है भग्गू के सपनों की नायिका। जाने वो कौन होगी, कब, कैसे और कहां मिलेगी, भग्गू नहीं जानता मगर उसने उसका नाम भी रख लिया है - सपना। और तो और, एक दिन तो वह घर की बड़ी भाभीजी के साथ बिजासन माता का मेला देखने गया था तो जब तक भाभीजी धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ कर देवी के द्वार पर गई और दर्शन करके धीरे-धीरे उतर कर आईं, उसने एक गुदने वाले से अपने उल्टे हाथ की कलाई पर गुदवा लिया था - सपना। घर की छोटी भाभीजी या तन्नू दीदी उसे जब तब पढ़ाया करती थीं सो इतना अक्षर ज्ञान उसे हो गया था कि वह अपने हाथ पर लिखा नाम - सपना पढ़ ले।

      भग्गू अरमानों से भरा एक लड़का था। अपनी मां की तरह स्वप्नजीवी। उसका यह महत्वाकांक्षी मन उसकी कुठरिया की साज-सज्जा में साफ झलकता था। पलंग के पीछे की दीवार पर उसने 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का पोस्टर चिपका रखा था जो उसे मन्नू नाई की दुकान से मिला था। पोस्टर कोने से फटा था मगर उसने उसे सेलो टेप से चिपका कर जोड़-जाड़ लिया था। साइड की पुरानी दीवार पर जाने किस जनम का बना एक आला था। भग्गू ने आले में एक छोटा आईना और कंघा रख रखा था। यह उसके जेब के कंघे से थोड़ा बड़ा वाला कंघा था। आईने के पीछे सुगंधित साबुन का टुकड़ा और शैम्पू के पाउच की लड़ी वह रखता था। वह अपनी तनखाह के पैसे इन्हीं चीजों में खर्च करता था। उसे कौन से घर भेजने थे पैसे। वह सुगंधित साबुनों का शौकीन था, अत: हर बार अलग-अलग ब्रांड का सुगंधित साबुन लाता था। बचपन में उसने देखा भी था अपनी मां को, पैसा बचाकर स्वयं के लिए लक्स साबुन खरीदते हुए, जबकि गांव भर की औरतें मिट्टी या सनलाइट से बाल धोती थीं। ज्यादा से ज्यादा हुआ तो मर्दों के लिए लाइफबॉय आ जाता था। भग्गू की मां भी निराली ही थी। ऐसे समाज में रंगीन-सपनों से भरपूर एक औरत जहां औरतों का सपने देखना सख्त मना था। भग्गू भी मां पर ही गया था, हिन्दी फिल्मों का खास प्रेमी और रंग-बिरंगे सपने देखने वाला इंसान। लिहाजा उसकी कोठरी में फिल्मी गानों की कैसेट्स का ढेर लगा था। वह अपने हाथ में आया पैसा ऐसी ही चीजों में खर्च करता था। खाने पहनने को तो घर-मालिक दे ही देते थे। घर की छोटी वाली भाभीजी ने भग्गू को एक पुराना टेपरिकॉर्डर भी दे दिया था जिसमें डालकर वह अपनी कैसेटें बजाया करता था और ठोंक-ठोंक कर ही सही, टेपरिकॉर्डर चलाया करता था। तन्नू दीदी भी अपनी कोई कैसेट पुरानी होने पर भग्गू को ही देती थी। और दीपू भैया ने अपना काला चश्मा भी भग्गू को दे दिया था, जिसकी टूटी डंडी भग्गू ने फेविकॉल से चिपका ली थी। खैर उससे क्या, टूटा ही सही उसके पास काला चश्मा तो है जिसे पहनकर वह थोड़ी हीरोगिरी कर सकता है। काले चश्मे ने भी जब तब उसे अपनी मां की याद दिलाई है, जिसे वह बिल्कुल याद करना नहीं चाहता फिर भी कभी भूलता नहीं। उसकी मां भी तो एक बार कहीं से काला चश्मा ले आई थी। नायलोन की छपेल साड़ी पहन, 'गोगल' लगा कर मटकती हुई जब वो गांव की सड़कों पर निकली तो औरतें पेट पकड़-पकड़ कर हंसी थीं। उसके पति यानी भग्गू के बाप ने उसे मारा था कि बड़ी हेमा मालिनी बनी फिरती है। और सचमुच वो एक दिन भाग गई थी घर से मुंबई, हेमा मालिनी बनने को। फिलिम की शौकीन तो वो सदा से ही थी। हाथ में दो-चार रुपल्ली आई नहीं कि गांव की वीडियो-टॉकीज में घुसी मिलती। भले फिर घर आकर खसम की मार खा ले पर बखत-बखत पर वो पिक्चर जरूर देखती। फिर एक दिन गांव में गुल्लन आया जो भग्गू की मां के दूर के रिश्ते का ममेरा भाई लगता था। वो मुंबई से आया था अपनी 'बहन' के लिए लिपिस्टिक भी लाया था। उसने भग्गू की मां को बताया कि मुंबई में तो कैसी सड़ी शकल की औरतें लीप-पोत के हीरोइन बन जाती हैं। एक का भी चोखटा ऐसा सई-साट नहीं जैसा भग्गू की मां का है। अगले हफ्ते गांव के लोगों को पता चला भग्गू की मां गुल्लन के साथ बस में चढ़ गई। बस के दरवाजे पर टाटा करके हाथ हिलाते हुए, गांव-गली में जो दिखा उसे कहते हुए कि हीरोइन बनने मुंबई जा रही है।

      भग्गू की मां ने ये तक न सोचा कि कौन तो भग्गू की नाक पोंछेगा और कौन उसकी चड्डी धोएगा। भग्गू का बाप शाम को गांव लौटा और उसे पता चला तो उसने सिर ठोंक लिया। जल्दी ही वह दूसरी बीवी ले आया। इस बार वो खुश था, इस बीवी से उसे ज्यादा मगजमारी नहीं करना पड़ती थी। नई बीवी आशा ने कभी सिनीमा देखी ही नहीं थी। वो तो घर के कामकाज में ही लगी रहती थी। आंख में सरम थी उसकी। पति के दोस्त-भाइले घर आते तो उनके लिए चाय लेके छेड़ा काड़े आती। भग्गू की मां की तरह नहीं कि उघाड़े मुंह सारे चमन की खाक छानती फिरे। उस मतमरी ने तो रामलीला में सूरपनखा का पारट भी कर डाला था। बेसरम मार खा लेती पर करती मन की थी। जिला अस्पताल जाकर कोपरटी लगवा आई थी, भले वो खसम को चुभे पर उस जबरी को तो बच्चे पैदा करके अपना बदन ढीला नहीं करना था। आशा तो ना-नुकर करना जानती ही नहीं थी, जिला अस्पताल जाकर बिना खसम की राय लिए कोपरटी लगवा आने की हिम्मत कर लेना तो दूर की बात। सो इस बार भग्गू के नए भाई-बहन भी दुनिया में जल्द-जल्द आ गए और भग्गू के जी का जंजाल बन गए। नए बीवी-बच्चों में बाप का मन ऐसा रमा कि भग्गू बाप के होते अनाथ समान हो गया। जब देखो कुत्ते की तरह दुत्कारा जाता और गधे की तरह काम करता फिरता। और तो और, भग्गू के लिए भैंस की पीठ पर सवारी करना, नदी में खड़े होकर अपने पांव में मच्छियों से टोचा लगवाना, बंदरों पर गुलेल चलाना जैसे अकेले खेले जाने वाले खेल भी दुश्वार हो गए थे। लड़कों के साथ सितौलिया खेलना और लकड़ी लेकर पुराने टायर दौड़ाने का मुकाबला करना तो दूर की बात। वजह यह कि भग्गू जहां भी दिखता लड़के चिढ़ाने लगते, ''भग्गू की मां भाग गई,"" ''भग्गू की मां भाग गई।"" जी हल्का करने के लिए भग्गू के पास एक ही चीज बची थी। बाप ठर्रा लाता तो भग्गू उसमें से चोरी से घूंट दो घूंट पी लेता। एक दिन बाप देख लिया तो जो पिटाई हुई कि बस। बाप ने यह कहते हुए पीटा कि वो अपनी मां पर गया है। वो भी कभी दारू चैन से पीने नहीं देती थी, जिद करती थी कि दो घूंट मैं भी लगाऊंगी। मारपीट लेने के बाद बाप ने भग्गू से कहा- "वो रांड कहीं चकले में पड़ी सड़ रही होगी, जा तू भी भाग जा बंबई, दल्ले का काम तो तेरी मां ही दिलवा लेगी।" भग्गू को यह बहुत बुरा लगा। मारपीट से भी ज्यादा बुरा और एक दिन वह भी बस में सवार हो गया। टिकिट नहीं था सो कंडक्टर ने पास के ही एक शहर में उतार दिया। दो झापड़ लगाए सो अलग।

      अभी तो और झापड़ भग्गू का इंतजार कर रहे थे। वह अब इस अजनबी शहर में था, भूखा, बिना सहारे, जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं। पेट पे हाथ धरे वो एक मस्जिद के ओटले पर सो गया। शाम की अजान हुई तो उसकी नींद खुली। दूर पटरी पर एक मुल्लाजी छोटे से तख्ते पर दुकान सजाए पाव बेच रहे थे। भग्गू उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। हाथ पसारने की हिम्मत तो उसकी नहीं हुई, मगर उसकी नजरों में जाने क्या था कि मुल्लाजी ने उसकी ओर एक पाव बढ़ा दिया और पूछा कि भूखा है क्या? तेरा नाम क्या है? अब कैसे बताता कि उसका नाम भगवानदास उर्फ भग्गू है, जाने क्या लफड़ा हो जाए। सो वह पाव चबाता-चबाता ही वहां से सरपट भागा। दो-चार गली मुहल्ले पार किए होंगे कि एक चाय का ठेला दिखा। वो चाय के ठेले के सामने भी वैसे ही जाकर खड़ा हो गया, आंखों में याचना लिए, जैसे मुल्लाजी के सामने खड़ा हुआ था। मगर मुछंदर चाय वाला शायद मुल्लाजी की तरह दयावान नहीं था। उसने अपनी मूंछ पर ताव देते हुए भग्गू को घूर कर देखा पर पूछा नहीं कि चाय पिएगा क्या? इतने में एक ग्राहक आकर बेंच पर बैठा, दो पहले ही बैठे चाय सुड़क रहे थे। ग्राहक ने स्पेशल चाय मांगी। मुछंदर सेठ ने अपने यहां काम कर रहे लड़कों में से एक को आवाज लगाई, 'ए छोरा, इधर दे, एक पेसल।" छोरा तपेली में से चाय डालने लगा। इतने में सेठ ने भग्गू से पूछा ''क्यों रे, कप-बशी धोवेगा?" भग्गू ने हां में गर्दन हिलाई। ''तो उधर टोंटी वाली कोठी के पास ढेर पड़ा है, धो ले और एक लाइन से जमा दे, सामने लकड़ी के पाच पे" सेठ ने उंगली से इशारा किया ''और हां, फोड़ना मती नी तो दूंगा ढूंगे पे दो लात।" इस पल में जाने कहां से भग्गू में विनम्रता उतर आई कि उसने कहा, ''जी सरकार!"

'जी सरकार" इतना अच्छा संबोधन तो चाय वाले ने अपने लिए कभी किसी के मुंह से भी नहीं सुना था, अत: उसने माथा ऊंचा किया और गर्व से भरी आवाज में कहा, ''छोरे तूने अच्छा काम करके बताया तो कल से चाय बांटने के काम में लगा लूंगा। पर आज तो मुफ्त में काम करना पड़ेगा। खाली चाय दूंगा आज।"

भग्‍गू ने फिर कहा, ''जी सरकार," तो बाकी के तीन छोरे खीं-खीं करके हंसे। सेठ ने उन्हें घुड़का तो चुप हो गए। जो भी हो, भग्गू को तो मानों मुंह मांगी मुराद मिल गई। और ये ''जी सरकार" भग्गू ने कहां से सीखा होगा? निश्चित ही हिन्दी फिल्मों से। अपनी मां के साथ कित्ती ही बार तो वह वीडियो टॉकीज जाता था फिलिम देखने।

      दो-तीन घंटे कब निकल गए भग्गू को पता ही नहीं  चला। रात दस बजे सेठ ने ठेले पर बनी गुमटी के पतरे खींच दिए और ताला लगा दिया। स्टूल-विस्टूल सब अंदर रख दी और घर चला गया। शाम को उसने भग्गू और तीनों बड़े लड़कों को एक-एक ठंडी सी चाय और दो-चार बिस्किट दे दिए थे, जो बरनी में बाकी बिस्किटों के नीचे रखे टूट-फूट गए थे। भग्गू को खैर तृप्ति तो नहीं हुई पर पेट उतना कुलबुला भी नहीं रहा था। भूख से जूझने के बाद अब समस्या थी सोने की। उसने देखा बाकी तीनों लड़कों ने ठेले की छत पे से गुदड़ियां निकाली थीं और ठेले के नीचे और आसपास बिछा ली थीं, वहीं फुटपाथ पर ही। भग्गू ने उनकी ओर आशा से देखा तो एक ने आंख मार कर कहा, ''टेंसन मत ले हमारे पास सुलाएंगे.... चिपका के।" रात के एक बजे जब भग्गू गहरी नींद में सो रहा था, एक लड़के ने उसे भड़भड़ाकर उठाया, ''अबे सरकार के बच्चे उठ और जरा अपनी कैसेट उल्टी कर।" भग्गू को समझ नहीं आया कि वे क्या कह रहे हैं, वो आंख मलता हुआ उठ खड़ा हुआ तो लड़कों ने उसे धक्का देकर फिर गुदड़ी पर पटक दिया और उसे पेट के बल पटक कर उसकी नेकर खींच दी। वह चिल्लाने को हुआ तो एक लड़के ने उसका मुंह बंद कर दिया। वैसे भी रात के इस पहर में उसकी कौन सुनता? सड़क पर वाहन तो छोड़ो, लोग भी न के बराबर थे, बिल्कुल सन्नाटा था। दूसरे दिन से वही सन्नाटा भग्गू के मन में भी पसर गया। वह मुंह उतारे काम करता रहा। उसने सवा महीने गुमटी पर गुजारे। उसकी तनखाह भी लड़कों ने छीन ली। फिर भी गुमटी ही उसका ठौर रही क्योंकि आसपास के दफ्तरों में चाय बांटने जाता तो बाबू लोग उसे कुछ खिला-पिला देते। कभी-कभी पैसे भी दे देते जो वो छिनने के डर से अपने साथियों से छिपा लेता। सेठ रोज सुबह पाव-चाय और शाम ढले चाय बिस्कुट देता ही था। ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन गांव का ही एक बंदा बंशी उस गुमटी पर पेसल चाय पीने आया। वह भग्गू को देखते ही पहचान गया, बोला, ''तू भग्गू है न, वही भग्गू जिसकी मां भाग गई थी? तू यहां क्या कर रहा है, तेरी जरूरत तो सुख सागर में है। वहां उन लोगों को गंगाधर के लिए एक पूंछ की जरूरत है, चल मेरे साथ चल।"

      'सुख-सागर', 'गंगाधर की पूंछ'- भग्गू को समझ नहीं आ रहा था कि बंशी भैया यह क्या कह रहा है, पर वह उसके साथ हो लिया कि जो भी हो, इस नर्क से तो मुक्ति मिलेगी। और सच में वो जहां पहुंचा, वह उसे सुख का सागर ही लगा।

      सुख-सागर उन लोगों के मकान का नाम था। गंगाधर भैया उनके चौबीस घंटे के नौकर। यहां तक कि खाना बनाने वाली नहीं आए तो वे खाना भी बनाते। खाना बनाने वाली आती तो भी चटनी, सलाद, रायता बनाने जैसे रसोई के ऊपर के काम को वही करते थे। इसमें गंगाधर भैया को कोई तकलीफ नहीं थी। उन्हें तो बाइयों के साथ ही-ही ठीठी करने का शौक था। मगर और भी तो काम थे ऊपर के जिनके लिए चौबीस घंटे भी कम पड़ते थे। सो गंगाधर भैया को एक सहयोगी की जरूरत थी। ऐसा सहयोगी जिसके चलते उनका आसन डिगे नहीं और वे घर के सेवकों के सरताज रहें। यानी कि उनको एक सहयोगी हाथ नहीं पूंछ की जरूरत थी जो उनके पीछे-पीछे चले और वे जो काम बताएं, वह करता जाए। इसके लिए उपयुक्त कोई कम उम्र का लड़का ही हो सकता था। ऐसा ही लड़का ढूंढने के लिए घर के बड़े भाई साहब ने बंशी को याद किया था। बंशी उनके एवं और भी कई घरों के लिए एक अनौपचारिक एजेंट था जो जरूरत पड़ने पर सेवक या सेविका ढूंढ कर ला दिया करता था। बंशी को अपना कमीशन मिल जाता था। सो अभी-अभी सुख-सागर में एक ऐसे ही सेवक की जरूरत थी जो बच्चा हो, उमर में कच्चा हो। बड़े भाई साहब ने बंशी से साफ कह दिया था कि बारह का भी हो तो चलेगा पर जिसे भी लाओ उसे अच्छी तरह रटवा देना कि उसकी उम्र चौदह है। इसीलिए बंशी ने जब भग्गू को चाय की दुकान पर देखा तो उसकी बांछें खिल गईं। यूं बंशी को दिख रहा था कि भग्गू की मूंछ नहीं फूटी है और आवाज इतनी पतली है कि वो लता मंगेशकर का गाना भी गा सके, मगर उससे क्या? उसने भग्गू को सिखा दिया कि कोई भी उसकी उम्र पूछे तो चौदह बरस ही बताना है। भग्गू की तो ये बात समझी-समझाई थी क्योंकि चाय वाले सेठ ने भी यही बताया था कि कोई उमर पूछे तो चौदह बताना। खैर भग्गू खुश था कि चाय की दुकान से उसे छुट्टी मिल गई।

      बंशी ने भग्गू को सुख-सागर के जो हरियाले ख्‍वाब बताए थे वो सच्चे ही थे झूठे नहीं। सुख-सागर तो सचमुच सुख-सागर था। भग्गू को दोनों टाइम पेट भरकर खाना मिलता था, सुबह की चाय भी। इसके अतिरिक्त भी खाने-पीने की कोई न कोई चीज उसे मिलती ही रहती थी यहां तक कि टॉफी-गोली भी, या मिठाई भी। कोई भी चीज खराब होने का डर होते ही गंगाधर भैया या भग्गू को दे दी जाती थी। घर की बड़ी भाभी तो रोज प्रसाद चढ़ाती वो भी सबको बांटती थी, घर वालों से लेकर गंगाधर और भग्गू सबको। जैसे ही बड़ी भाभीजी पूजा घर से निकलतीं, भग्गू सब काम छोड़कर हथेली पर हथेली रखकर प्रसाद लेने की मुद्रा में वहां खड़ा हो जाता। वैसे भी उसके काम तो घर भर में घूमने-फिरने के ही थे। कभी गंगाधर उसे छत पर कपड़े सुखाने या उतारने भेजता तो कभी बड़ी भाभीजी उसे तन्नू दीदी या दीपू भैया को जूते पहनाने को या उनके बस्ते उठाकर बस स्टॉप तक छोड़ आने को बोल देती थी। दीदी और भैया से कोई ये न समझे कि वे उमर में भग्गू से बड़े थे। वे तो उससे छोटे बच्चे थे, मगर भग्गू क्या गंगाधर तक उन्हें तन्नू दीदी और दीपू भैया ही कहता था। और भग्गू को भी यही सिखाया गया था। पर इससे भग्गू को बिल्कुल कोई तकलीफ नहीं थी। वह यहां मजे में था। बड़ी भाभीजी यदि प्रसाद देती थीं तो छोटी भाभीजी उसे अक्षर ज्ञान कराती थीं। वे चाहती थीं कि भग्गू अनपढ़ न रहे। दोनों भैया लोग गंगाधर को डांट देते थे पर उसे नहीं। शायद बच्चा समझ कर। हां काम करवाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते थे। छोटे भैया भग्गू से सिर की चम्पी करवाते तो करवाए ही जाते, घंटों मना करने का नाम नहीं लेते, भले भग्गू के हाथ दुख जाएं। बड़े भैया भग्गू से गिनकर पांच सौ मुक्के लगवाते अपनी कमर पर, उनको कमर में दर्द जो रहता था। अम्माजी भी थीं जो दिनभर रामायण बांचती रहती थीं। वह भी जोर-जोर से अक्षर जोड़-जोड़ कर। वे भी लगभग अनपढ़ ही थीं। कभी स्कूल नहीं गई थीं। उन्हें बस गिनती गिनना और 'रमायन' बांचना ही सिखाया गया था। अम्माजी को अपनी 'रमायनजी' में अगाथ श्रद्धा थी और दोनों बेटों को अपनी अम्माजी में। वे अम्माजी के आगे अपनी बीवियों की भी  नहीं सुनते थे।

      भग्गू से अम्माजी का बस ऐसा ही कुछ काम पड़ता था जैसे अम्माजी मंदिर जाएं तो उनके साथ जाना और बाहर खड़े रहकर उनकी चप्पल की रक्षा करना। लकड़ी का हाथ लेकर अम्माजी की पीठ खुजाना। अम्माजी के घुटनों पर बांधने के लिए पड़ोस के घर से खटूमड़े के पत्ते लाना। बस इसी तरह के कुछ छोटे-मोटे काम। कभी-कभी तन्नू दीदी और दीपू भैया उसे अपने साथ बैडमिंटन भी खिला लेते थे। आशय यही कि सुख-सागर में भग्गू एकदम मजे में था। फिर बायस्कोप वाली घटना हुई। उससे भग्गू का कुछ बिगड़ा नहीं, क्योंकि उसने तो कुछ किया नहीं था, बस भग्गू की दिनचर्या में बदलाव हो गया और वह सीनियर हो गया।

      गंगाधर की आदत थी औरतों पर चुपके से तांक-झांक करने की। वह इसी फिराक में रहता था कि बरतन वाली जब बरतन मलने में व्यस्त हो और खुदा न खास्ता उसका पल्लू कुछ सरक जाए तो कैसा मजा रहे। खाना-बनाने वाली ताक पर से सामान उठाने स्‍टूल पर चढ़े और उसकी पिंडली दिख जाए तो क्या खूब। वह छत पर जाकर भी खड़ा रहता कि पड़ोसियों की झाड़ू वाली जब चौक में झाडू दे रही हो और थोड़ा नैन मटक्का हो जाए तो जरा सुरूर आए। उसकी इन हरकतों को किसी औरत ने नजर अंदाज किया तो किसी ने साथ दिया। पिटाई कभी नहीं हुई, शायद इसलिए उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई।

      उस दिन छोटी भाभी की सहेली की सास मर गई थी और वे मय्यत से होकर आई थीं। अम्माजी का साफ निर्देश था कि किसी के मरने में जाकर आने पर घर का कोई भी सदस्य अपने कमरे के बाथरूम में नहाने नहीं जाएगा। ग्राउंड फ्लोर पर सबसे आगे बने सार्वजनिक बाथरूम में नहाया जाए और नहा कर पहनने के कपड़े मय्यत के लिए घर से निकलने के पहले ही बाथरूम में टांग कर जाएं, ताकि छुआ-छूत न हो। सो छोटी भाभीजी वैसा ही करने वाली थीं। भाभीजी नहाने घुसीं कि गंगाधर ने भग्गू को बुलाया ''क्यों बे बायस्कोप देखेगा, मुफित में।" भग्गू को याद आ गया गांव में कभी-कभी मेलों-ठेलों के बखत आने वाला बायस्कोप। अहा! कैसे रील चलती जाती थी और फोटो आगे बढ़ते जाते थे, कभी हेमा मालिनी तो कभी ताजमहल। एक फोटो अमिताभ की तो दूसरी कुतुब मीनार की। वैसे अमिताभ और कुतुब मीनार में अंतर ही क्या था? भग्गू क्या, भग्गू की मां तक बायस्कोप शौक से देखती थी। सो बायस्कोप का नाम सुनकर भग्गू के मन में चाव उतर आया। टीवी पर तेज भागती तस्वीरों के चलते भी बायस्कोप तो बायस्कोप था, उसका अपना ही मजा था। सो भग्गू ने जोश से हामी भरी और पूछा, ''कहां है बायस्कोप?" गंगाधर ने बाथरूम के दरवाजे के की-होल की तरफ इशारा कर दिया, जिसके भीतर छोटी भाभीजी नहा रही थीं। भग्गू को इस प्रस्ताव पर इतना ही बुरा लगा जैसे किसी ने उसकी मां को नहाते हुए देखने को कह दिया हो। बड़ी और छोटी भाभीजी उसे मातृवत ही लगती थीं। या कहो भग्गू के मन ने दोनों भाभीजियों के भीतर ही अपनी बिछुड़ी मां को ढूंढ लिया था। खासकर छोटी भाभीजी में, जो उसे पढ़ा भी देती थीं, खाने-पीने को भी देती थीं और हमेशा उससे कोमलता से ही बात करती थीं। खैर, ढीठ गंगाधर को भग्गू के इंकार से कोई फर्क पहीं पड़ा। उसने भग्गू से कहा, ''ठीक है तो तू चौकीदारी कर, मैं तो बायस्कोप देखूंगा।" उसने भग्गू को बता भी दिया कि कोई आता दिखे तो भग्गू मुंह से क्या आवाज निकालेगा कि गंगाधर सतर्क हो जाए। भग्गू ने हामी भर दी। आवाज निकाल कर भी बता दी। ड्रिल प्रेक्टिस के बाद गंगाधर ने सीधे बाथरूम के की-होल पर झुक कर अपनी एक आंख उस पर रख दी और दूसरी बंद कर ली और ऐसा मगन हो गया कि उसका दिमाग तो क्या उसके कान भी साथ छोड़ गए। अब उसे किसी आहट का भान नहीं था।

कुछ ही क्षण गुजरे होंगे कि भग्गू को बाहर के गेट की जाली पर बड़े भैया की झलक दिखाई पड़ी। वे भीतर आते उसके पहले ही भग्गू वहां से खिसक लिया, आवाज करके गंगाधर को सतर्क करना तो दूर की बात है। और गंगाधर पकड़ लिया गया, रंगी आंखों। बस उसी दिन गंगाधर की सुख-सागर से विदाई हो गई और नन्हा भग्गू अनायास ही चीफ सेवक बन गया। उसने काम भी ऐसी फुर्ती और होशि

यारी से संभाला कि घर के लोग भग्गू के कायल हो गए। सुख-सागर उसका स्थायी वास हो गया। अब यही उसका घर था, यही उसका परिवार, यही उसका संसार।

      पूरे आठ साल पलक झपकते गुजर गए थे। अब भग्गू की मुंछें फूट गई थीं और वह बालिग हो गया था। उसकी तनखाह बढ़ा दी गई थी। बड़े भैया ने कहा भी, ''भग्गू तुम्हें पैसा घर तो भेजना नहीं होता है, अब तुम बड़े हो गए हो, तुम्हारा बैंक अकाउंट खुलवा देते हैं, तुम्हारी तनखाह उसी में जमा करवा देंगे, कब तक हम तुम्हारा रुपया अपने पास जमा रखेंगे। दरअसल अब तक की व्यवस्था यह थी कि बड़े भैया भग्गू का पैसा जमा कर रहे थे। जितना उसे हाथ खर्च के लिए चाहिए होता था, मांग ही लेता था। और अपने सब शौक पूरे करता था। जैसे अक्सर रविवार की शाम जब बाकी सब लोग  बाहर ही खाने वाले हों अम्माजी के लिए खिचड़ी बनाकर, उन्हें खिलाकर, सिनेमा चले जाना। यूं दीवाली पर उसे नए कपड़े दिलाए जाते थे, फिर भी कभी-कभी वह अपने पैसे से कोई छैला सी कैप या टी शर्ट ले आता था। तेल-साबुन तो वह खरीदता ही था, कुछ चीजें उसे भाभीजी लोग भी दे देती थीं जिन्हें वह अपनी कुठरिया में लाकर रख लेता था। मगर उसका सबसे खास पॉजेशन था उसका टेपरिकॉर्डर और वह चौखुट आइना जो उसने आले में रखा था। फ्री टाइम में वह जम कर कैसेट्स सुनता था। जोर-जोर से फिल्मी गाने गाते हुए भी काम करता तो कोई उसे कुछ कहता नहीं था, बशर्ते तन्नू दीदी या दीपू भैया के एक्जाम ना चल रहे हों। अपनापा तो इतना हो गया था कि बड़ी भाभीजी ने तो तन्नू दीदी से भग्गू को राखी भी बंधवा दी थी। क्या पता यह अपनापा नहीं समझदारी हो, शुद्ध समझदारी। ऐसा हो भी तो यह भग्गू नहीं सूंघ पाया। वह राखी बंधवा कर इतना भावविभोर हो गया था कि तुरंत बाजार जाकर तन्नू दीदी के लिए बढ़िया सा गिफ्ट लाया था।

      घर में कोई मिठाई जैसे जलेबी आती तो भग्गू को भी दी जाती, एक दम ताजा-ताजा और गरम। भले तख्त पर बैठी अम्माजी यह चिल्लाती ही रहती कि ''क्यों इस मुए को बिगाड़ रही हो, शुद्ध घी की जलेबी है, देना ही है तो किसी बामन को बुलाकर दो, कम से कम तुम लोगों के खाते में पुन्न तो जमा होगा।" मगर दोनों भाभीजी लोग अम्मा की ऐसी बातें एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देतीं।

      हूं ऽऽऽ, अम्माजी। वो भी बड़ी विचित्र जीव थीं। बात निकली है तो उनके कसीदे भी काढ़ ही लिए जाएं। अम्माजी घर के बीचों-बीच बने चौगान में एक तखत पर बैठी हर वक्त 'रमायनजी' बांचा करती थीं। बीच-बीच में नौकरों को ललकारा करतीं और बहुओं को ताने दिया करती थीं। अम्माजी के ताने इतने मौलिक और विटी हुआ करते थे कि उनको जमा करने पर आराम से एक पुस्तक प्रकाशित करवाई जा सकती थी। बेटों से तो वे लाड़-प्यार से बात किया करती थीं। बेटों को ताना देने का मन हो आए तो उनके लिए अम्माजी के अन्यथा समृद्ध खजाने में बस एक ही ताना था, ''कैसी डरपोक औलाद पैदा की है मैंने, जब देखो लुगाई के घाघरे में घुसे रहते हैं।" अम्माजी को अपने लड़कों की सब बात अच्छी लगती थी सिवा उनके पत्नी प्रेम के। दोनों के दोनों चालीस पार निकल जाने पर भी अम्माजी के आज्ञाकारी बने हुए थे। अम्माजी के दिए संस्कारों के मुताबिक धर्म ध्यान भी करते थे। विधि-विधान से पूजा-पाठ करना, श्रावणी के रोज क्षिप्रा स्नान करके जनेऊ बदलना, कोई स्वामी, महराज या गुरु नगर विहार पर आए तो उन्हें घर आमंत्रित करना, पदरावनी करना और उनसे अपने बीवी-बच्चों को आशीर्वाद दिलवाना वे कभी नहीं भूलते थे। अम्माजी को रात सोने का वक्‍त हो जोन पर हाथ पकड़ कर उनके पलंग पर छोड़  आने का काम भी दोनों बेटों में से ही कोई एक करता था। कभी-कभी तो दोनों भी एक दाएं एक बाएं से मां को पकड़ कर ऐसे चलते कि जो भी ये दृश्‍य देखे, वो 'मेरे राम-लखन, मेरे राम-लखन, जियो राम-लखन..." गुनगुनाए बगैर न रहे। अम्माजी की अपनी 'रमायनजी' में जो अगाध श्रद्धा थी उसे भी दोनों बेटे यथावत निभाते थे। या यूं कह सकते हैं कि उन्होंने भी अपने मन में उस ग्रंथ के प्रति वैसी ही श्रद्धा पाल ली थी। रात को अम्मा को बिछौने पर ले जाने के बाद वे 'रमायनजी' को भी सुलाने ले जाते। उस पुस्तक के लिए बने खास आले में जो चांदी की पतरी से मढ़ा था। और पुस्तक जब अपने पलंग यानी लकड़ी की रेहल सहित आले में बिराज जाती तो उसे गोटा किनारी लगे लाल मखमल के कपड़े से ढांक दिया जाता। अम्माजी के साथ रमायनजी भी सो जातीं। मगर खर्राटे सिर्फ अम्माजी भरतीं।

      इस तरह सुख-सागर में सब अच्छा ही चल रहा था। भग्गू को भैया और भाभी लोग साथ में बेटा जोड़े बगैर कभी न बुलाते थे। भग्गू बेटा, भग्गू बेटा इस तरह बार-बार गूंजता कि लगता भगवानदास का सरनेम 'बेटा' है। बेटा होने के जोश में भग्गू भी दुगुना काम करता। गंगाधर की तरह उसने कभी यह फरमाइश नहीं की कि उसे एक पूंछ की जरूरत है। यूं झाड़ू-पोंछे वाली, कपड़े-बर्तन वाली, खाना बनाने वाली आती जाती ही थी। बाकी चौबीस घंटे का तो भग्गू ही था, जिससे कभी भी पांव की मालिश करवाई जा सकती थी, पीठ दबवाई जा सकती थी, घर देर से आने पर रात को दो बजे भी जिसे उठाया जा सकता था। ड्राइवर न आने पर गाड़ी भी चलवाई जाती थी। भैया लोगों ने भग्गू को भी लायसेंस दिलवा दिया था। झाडू-पोंछे वाली के साथ वो जाले झाड़ता, कपड़े वाली के साथ कपड़े डोरी पर डलवाता, बर्तन वाली बर्तन साफ करे तो उन्हें पोंछ कर छींके में जमाता, खाना बनाने वाली के साथ आलू छीलता, सब्जी काटता, मिक्सी चलाता, उसके जाने पर रसोई का प्‍लेटफॉर्म धोता वगैरह-वगैरह।

      मगर एक दिन लहरों की आवक-जावक की लय में सहज बहते सुख-सागर में तूफान आ ही गया। अम्माजी के पास खूब रकम सामान था, जिसमें से कुछ उन्होंने दोनों बहुओं को आधा-आधा बांट दिया था। मगर सारा नहीं। अम्माजी इतनी मूरख भी नहीं थीं कि सारा खजाना ऐसा खाली कर दें कि बहुओं की लार ही सूख जाए। उसका टपकते रहना जरूरी था। सो अम्माजी ने कुछ गहने अब भी अपने पास रख रखे थे। कुछ को तो गला कर सोने की डलियां बना ली थीं ताकि तन्नू की शादी के निमित्‍त और दीपू की भावी बहू के लिए जरूरत पड़ने पर नए डिजाइन का कुछ गढ़वा सकें। क्या पता उनके जीते जी दीपू की लाड़ी आ जाए और उसे छोरा सरीखा कुछ हो जाए तो फिर वे सुवर्ण सीढ़ी भी तो बनवाएंगी। ऐसे सपने देखने में अम्माजी शेखचिल्ली से कोई कम नहीं थीं। खैर यह सब होता उसके पहले ही एक और काम आ गया। वे मंदिर गई थीं तो स्वामीजी ने कहा था कि मंदिर का स्वर्ण कलश बनाने की योजना है। उसके लिए उनके शिष्यों, शिष्याओं और श्रद्धालुओं में से जिससे जो बने उतना करना है। बस उसी के लिए अम्माजी ने उस रोज अपनी तिजोरी से नौ तोला सोना निकाला था और एक लाल बटुआनुमा थैली में डालकर अपनी छोटी सी जिस तकिएनुमा गद्दी पर वे बैठती थीं उसके नीचे रख लिया था और रमायनजी बांचने बैठ गई थीं। सुबह नहाते ही वे तिजोरी से सोना निकाल लाई थीं और शाम को संध्या आरती के लिए मंदिर जाने के लिए साथ ले जाने हेतु उन्होंने तकिए के नीचे हाथ डाला तो सोना थैली सहित गायब था। बस अम्मा ने वो कोहराम मचाया कि पूछो मत।

      अम्मा ने कहा पुलिस में रपट लिखाओ, जो कोई बेचने जाएगा सो पकड़ा जाएगा। बड़े भैया ने मना कर दिया, ''बावरी हुई हो अम्माजी, जरा सी बात में पुलिस को घर दिखाओगी? सोना मिल गया तो कौन सा पुलिस तुम्हें वापस दे देगी।" बड़े भैया ने कहा तो अम्माजी चुप कर गईं। उन्होंने फिर पुलिस की बात नहीं की। मगर मन में तो हलचल मची हुई थी। पूरे सात दिन हो गए थे सोना गए। अम्माजी दिनभर भड़भड़ाती और ताने मारती रहती थीं। बहुओं को उन्होंने ताना मारा कि उन दोनों के हाथ-पैर चलते नहीं, जब देखों पड़ी-पड़ी अड़लाया करती हैं, तभी तो इतने नौकर-चाकर लगते हैं घर में। ''पीशा-लत्ता देखके गरीब मनख का मन खराब होते कितनी देर लगती है? मगर इन्हें तो झाड़ू वाली भी चाहिए, मालिश वाली भी चाहिए, बिस्तर में चाय भी चाहिए। खुद तो फली भी फोड़के दो नहीं करतीं। इनका बस चले तो पोंद धुलवाने को भी बाई रख लें" अम्मा तिक्त स्वर में उलाहने देतीं।

      पोंछा लगाने वाली आती तो अम्मां अपने तखत पर बैठी-बैठी ही झांक-झांक कर देखती कि अब वह किस कमरे का पोंछा लगाने गई है और फिर उसी दिशा में मुंह करके कहने लगती, ''जिसने भी मेरा सुन्ना लिया है, उसका सत्यानास जाएगा, उसका घर फूट जाएगा।" पोंछे वाली मुंह में पल्लू लिए खींखीं हंसती। मगर धोबिन को जब यही ताना दिया तो वो इतनी जोर से पूरे साठ कपड़ों का गट्ठा फेंक कर चिल्लाई कि गट्ठा सीधे भग्गू की नाक पर लगा और वह टूटते-टूटते बची। धोबिन तो इतनी गुस्सा थी कि श्राप को उलटकर अम्माजी पर मार गई कि जो गरीबों पर झूठा इल्जाम लगाता है, उसी का सत्यानास होगा। रोटी बनाने वाली ने तो अम्मा के ताने सुन-सुन कर काम ही छोड़ दिया। बोली ''हम पर बुरा समय आ गया है, जब तो दूसरों के घर रोटी पो रहे हैं। पर हाथ-पैर ही चला रहे हैं, भीख तो नहीं मांग रहे। फिर भी चोरी का शक करते हो तो तुम्हारे यहां कल से नहीं आएंगे।" दोनों बहुओं ने हाथ जोड़कर सासुजी की तरफ से माफी मांग ली, इस पर भी केसरबाई टस से मस न हुई। लगा-लगाया काम छोड़कर चली ही गई।

      ऐसा नहीं कि भग्गू का नंबर नहीं आया था। अम्मा का कहना था, जिस की मां भाग गई हो, उसका क्या ईमान-धरम होगा और क्या संस्कार। इस निगोड़े की बरसाती तलाशो। बहुत सिर पर चढ़ाया है तुम लोगों ने। मगर भग्गू बुरा मानता उसके पहले ही दोनों भाभीजी लोग उसे पुचकार लेती, ''अम्माजी को तो तुम जानते ही हो भग्गू। हमें तो तुम पर पूरा विश्वास है। तुम तो हमारे बेटे जैसे हो।""

      भग्गू भी जानता था कि उसके नाम से बेटा शब्द कभी अलग नहीं हुआ था। भले अम्माजी ने उसे कभी बेटा न कहा हो पर  दोनों भैया और भाभी उसे बेटा ही कहकर पुकारते थे- भग्गू बेटा। दोनों भाभी लोग उसे समय निकाल-निकालकर पढ़ाया भी करती थीं। सो भग्गू को अक्षर ज्ञान भी हो गया था। भाभी लोग का प्यार देखकर भावना-भावना में बहकर उसने अपनी मां के भागने का राज भी घर वालों को कब का ही बता दिया था। तभी तो अम्माजी बीच-बीच में भग्गू के लिए यह ताना भी हवा में छोड़ देती थीं कि देखना मेरा सुन्ना बेचकर भाग जाएगा ये हीरो  बनने, बंबई का टिकट कटा लेगा, और अपनी नाक तो कब की कटा चुका है। नाक वाली बात अम्माजी ने इसलिए कही थी कि भाभीजी लोगों की शह के चलते अम्माजी के तानों का भग्गू बुरा मानने के बजाए फिक्क से हंस देता था। या किसी फिल्मी धुन की सीटी बजाते हुए काम करता रहता था।

      इस तरह पूरे सात दिन निकल गए थे अम्मा का सोना गुमे हुए। अम्माजी स्वामीजी के दरबार भी नहीं गई थीं। खाली हाथ जाने का मन न हुआ, आखिर वे सोना लेकर जाने वाली थीं उस दिन। सातवें दिन तो खुद स्वामीजी का ही बुलावा आ गया कि सेठानी आने वाली थीं सो अब तक आई नहीं, फिर तो स्वामीजी दो महीने के लिए हरिद्वार जा रहे हैं, उसके बाद ही लौटेंगे। सो वे मिलने आ ही जाएं। इस दफे दोनों बेटे बोले चलो अम्मा, यूं कन्नी ना काटो। सोना चला गया, उसमें तुम्हारा क्या दोष जो तुम स्वामीजी को मुंह न दिखाओ। नौ तोले सोने की कीमत का पैसा हम अपनी तरफ से दे देंगे, कलश के लिए। ये तो पुन्न का काम है, हम कर देंगे।

      सो अम्मा चलीं स्वामीजी के द्वार। इस बार दोनों बेटे साथ थे। वहां दुनिया-जहान की कई बातें हुईं। इस बारे में भी कि मंदिर का स्वर्ण कलश बनवाने के लिए स्वामीजी किन-किन स्रोतों से धन इकट्ठा कर रहे हैं और कैसे अम्मा सहित उनके दोनों बेटों को इस महती कारज में अपना भी योगदान देना चाहिए।'' जो सबसे ज्यादा धन देगा और चंदा भी इकट्ठा करेगा, उसे कलश स्थापनापूर्व होने वाले यज्ञ में जजमान बनने का मौका मिलेगा", स्वामीजी ने बंसी पर गाजर लटकाई। यह बात सुनकर अम्माजी में भी सात दिन से खोया हुआ जोश वापस आ गया। उन्होंने खुश होकर हुंकारा भरा और उम्मीद भरे गर्व से  अपने दोनों बेटों की ओर देखा।

अब अम्माजी को लगा स्वामीजी को सोना गुमने की बात बता ही देना चाहिए। बेटे पुलिस को बताने को मना कर रहे हैं, पर स्वामीजी को बताने को तो नहीं न। सो उन्होंने बेटों के सामने ही पूरा किस्सा स्वामीजी को बताया और लगे हाथों उपाय भी पूछ डाला कि चोरी कैसे पकड़ी जाए।

"रमायनजी में श्रद्धा है न, तो रामशलाका प्रश्नावली में पूछो", स्वामीजी ने उपाय बताया। यह कैसे करना है, यह बताने की जरूरत स्वामीजी को नहीं पड़ी। सुख-सागर में कई बार रामशलाका प्रश्नावली की सहायता ली जा चुकी थी। सो वे लोग जानते थे यह कैसे करना है।

      यह करार पाया गया कि मंगलवार की सुबह घर के सब सदस्य नहाकर रमायनजी पर फूल चढ़ाएंगे। फिर दोनों भाभी लोगों में से एक केश सहित स्नान करके आसन पर रमायनजी के सामने बैठेंगी और आंख मूंद कर भगवान का ध्यान करेंगी, फिर रामशलाका प्रश्नावली के किसी एक कोष्टक में उंगली रखेंगी। हर कोष्ठक से अगला दसवा अक्षर लिखती जाएंगी। धोबन, खाने वाली, मालिश वाली, झाड़ू-पोंछे वाली, ड्राइवर, प्रेस के कपड़े वाला, केबल वाला, हर किसी का नाम लेकर अलग-अलग बार रामशलाका के उत्तर मांगे जाएंगे। जिस-जिस के नाम पर,'सुनु सिय सत्य असीस हमारी..., ' 'प्रबिसि नगर कीजै सब काजा... ', 'मुद मंगलमय संत समाजू... ', सुफल मनोरथ होहुं तुम्हारे...' जैसी चौपाई आएगी, वह निर्दोष जानकर बख्श दिया जाएगा। उससे आगे कोई पूछताछ न होगी। मगर जिन-जिन के नाम पर, 'उधरें अंत न होइ निबाहू...', 'विधि बस सुजन कुसंगत परहीं... ', 'बरुन कुबेर सुरेस समीरा... '' जैसी चौपाई आएंगी, उनके सबके नाम की पर्ची बनाई जाएगी। हथेलियों के बीच अच्छी तरह खंगालकर पर्चियां भगवान के सामने डाली जाएंगी। उनमें से एक पर्ची आंख मूंदकर उठाई जाएगी। इस आखिरी पर्ची पर जिसका नाम निकले वही चोर।

      सो सब कुछ तय हो गया। बस एक गड़बड़ हुई कि छोटी भाभी छूने से बैठ गईं। अम्माजी बड़बड़ाईं भी कि जब कोई काम पड़ता है, ये दन्न से छूने से बैठ जाती है। जनम की आलसी जो ठहरी। मगर इतने से व्यवधान के लिए मुहूर्त नहीं टाला गया। प्रश्नशलाका की बैठक हुई और उत्तर भी आया। अंतिम पर्ची में भग्गू का नाम था जो पीठे पर बैठी बड़ी भाभीजी ने कांपते होंठों से पढ़ा। ऐसा लग रहा था ताजे धुले केश के साथ उनकी आंखें भी नम हो आई थीं।

      अब बारी थी भग्गू की बरसाती पर छापे की। जहां फिल्मी पोस्टर, टेपरिकॉर्डर, कैसेट्स, साबुन, तेल के साथ ही ब्रांडी की एक छोटी बोतल भी थी। आईने के पीछे एक बड़ा सा दिया उल्टा रखा था। बड़े भैया ने उसे सीधा किया तो उसके नीचे से ढेर सारी चिल्लर निकल कर बिखर गई। "क्यों रे कहां से चुरा-चुराकर इकट्ठी की ये चिल्लर" दोनों भाई ने भग्गू पर लात-घूंसे की बौछार कर दी थी। तन्नू और दीपू ऊपर की खिड़की से सहमे हुए देख रहे थे। बड़ी भाभी हक्की-बक्की खड़ी देख रही थीं और छोटी भाभी बाकायदा रो रही थीं। अम्मा ने घुटने पकड़कर इतनी दूर चौक तक चल कर आना जरूरी नहीं समझा, वे तो अपनी राजगद्दी पर बैठी-बैठी यह सोच कर मगन थीं कि रामजी की कृपा से चोर पकड़ा गया, अब पिटाई हो रही है। इधर भग्गू लात-घूंसों के बीच बार-बार चिल्ला रहा था, 'मैंने चोरी नहीं की भैया, मैं चोर नहीं हूं। मां कसम मैंने चोरी नहीं की।

      "हमको भी पता है तेरी मां की कसम कैसी पक्की है, जैसी मां वैसा बेटा। चल बेटा अब तो थाने चलना।" भग्गू कुछ बोल पाता उसके पहले ही छोटे भैया की लात भग्गू के पेट पर ऐसी पड़ी कि वह बिलबिला कर गिर पड़ा। दोनों भाई रुक गए कि कहीं इसे कुछ हो तो नहीं गया। उसे थाने देने की बात छोड़ दी गई। पानी के छींटे मारे तो वह उठ गया। बड़े भैया बोले - चल दफा हो जा यहां से, अब कभी अपनी शकल मत दिखाना। भग्गू निकलने को हुआ और भैया से बोला, "भैयाजी, मेरे पैसे जमा हैं आप पर वो तो दे दो, फिर कभी यहां नहीं आऊंगा, आपको मुंह नहीं दिखाऊंगा, मां कसम।"

      "फिर मां कसम! बाज नहीं आएगा तू। कोई पैसे-वैसे नहीं, जो सोना तूने उठाया है न, उसमें सब हिसाब-किताब बराबर हो गया। अब जा रास्ता नाप।" अब छोटे भैया कह रहे थे। "मैंने सोना नहीं लिया भैया, मां की नहीं तो चाहे जिसकी कसम खिला लो, दोनों भाभीजी की कसम, तन्नू दीदी की कसम..." "अच्छा तो अब तू हमारे बीवी-बच्चों की कसम खाएगा।" बड़े भैया दहाड़ कर जिस वक्त कह रहे थे, उसी वक्त छोटे भैया ने खूंटी पर टंगी भग्गू की जींस में से उसका ड्राइविंग लायसेंस भी निकाल कर खुद की जेब के हवाले कर लिया। भग्गू समझ गया कि हजारों रुपयों के साथ ही उसका लायसेंस भी जब्त हो गया है। वह रोने लगा, "भैया मेरा पैसा दे दो, लायसेंस दे दो।"

      अब छोटी भाभी आगे बढ़ आई थीं, "भैय्याजी प्लीज, बच्चे का रुपया, लायसेंस ना रखो; हमको पाप लगेगा।" "कौन सा हम रखेंगे छोटी, इसका रुपया, स्वामीजी को दे देंगे मंदिर के कलश में काम आएगा। तुम कहती हो तो लायसेंस दे देते हैं, मगर फिर ये हमको कभी अपना मुंह नहीं दिखाएगा।" और कार के लायसेंस के साथ ही भग्गू ने सुख-सागर छोड़ दिया। वह बहुत देर तक फुटपाथ पर बैठा रोता रहा। रात के करीब एक बजे, जब उसे पता था कि सब सो जाते हैं, वह हाथ में एक बड़ा सा पत्थर लिए घर के सामने आया और उसे जोर से सुख-सागर लिखी संगमरमर की नेम प्लेट पर दे मारा। सुख टूट कर नीचे गिर गया और सागर में दरार पड़ गई। कॉलोनी में कोई चिल्लाया भी कौन है, कौन है, मगर उसके पहले ही भग्गू भाग गया था। फिर वह कभी नजर नहीं आया। पता नहीं कहां गया।

      इस घटना को आठ साल हो गए थे। अम्माजी इस बीच नहीं रही थीं। तन्नू की शादी हो गई थी। शादी ऐसी ठाठ-बाट से हुई थी कि देखने वाले देखते रह जाएं। दीपू आगे की पढ़ाई करने लंदन चला गया था।

बड़े भैया को डायबिटीज हो गया था, छोटे भैया को एक कार एक्सीडेंट में मल्टीपल फ्रेक्चर, जिसके ठीक होने के बाद भी उनका लंगड़ाकर चलना कभी नहीं छूटा। अम्मा के घुटनों का दर्द ज्यूं आकर बड़ी भाभी के पांव में समा गया था मगर अब भग्गू जैसा कोई नहीं था जो पड़ोस के घर से खटूमड़े के पत्ते लाकर देता। उसके बाद चौबीस घंटे का आदमी मिला ही नहीं। भग्गू तो क्या गंगाधर जैसा भी नहीं। नौकर आते और छुट्टे काम करके चले जाते। दोनों भाभीजी जब-तब भग्गू को याद करतीं। छोटी भाभीजी कुछ ज्यादा ही। वे हमेशा कहतीं, 'हमने भग्गू के साथ अच्छा नहीं किया। किसी का भी नाम आ जाता भग्गू का नहीं आना था। रमायनजी की पर्ची झूठी है।" छोटी भाभीजी ने दोनों भैया लोगों, यहां तक बड़ी भाभीजी से भी छुपाकर पंडितजी को रुपए दिए थे कि कोई पूजा-पाठ करा लें, क्या मालूम भग्गू का ही शाप लग गया हो जो घर-भर में सबको कुछ न कुछ बीमारी हो गई। वैसे सबसे जटिल बीमारी तो छोटी भाभीजी को ही हुई थी। बार-बार हाथ धोने की बीमारी। जिसके चलते उनकी हथेलियों की चमड़ी छिल गई थी और कभी-कभी खून भी रिसता था। डॉक्टर ने कहा साईकेट्रिस्ट को दिखाओ। साइकेट्रिस्ट ने कहा ऑबसेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर है और दवा भी लिखी साथ ही मरीज की हिस्ट्री भी जानना चाहिए मगर छोटी भाभीजी ने बताई नहीं।

इनमें से कोई भी बीमारी ऐसी नहीं थी कि भैय्या लोगों की फैक्ट्री बैठ जाए या घर की चकरी रुक जाए। टुचुर-टुचुर ही सही जिंदगी चल तो रही थी। कमाई भी तगड़ी ही हो रही थी। तभी ऐक दिन की बात है भैय्या लोगों के ऑफिस से एक आदमी दौड़ता हांफता आया। उसने बड़ी भाभीजी के कान के एकदम नजदीक मुंह लाकर कुछ कहा। बड़ी भाभीजी ने छोटी भाभीजी को दौड़कर अलर्ट किया, 'अरी छोटी हमारे यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा है। अभी तो वे ऑफिस में हैं घर भी आ सकते हैं। तुम्हारे गहने-लत्ते तो सब डिक्लेयर्ड हैं ना और बैंक में भी होंगे। मेरे पास मेरे मायके के दो सेट हैं मैं पड़ोस में मधु के यहां रखने जा रही हूं, तुम्हारे पास क्या है, दे दो वह भी रख आऊंगी।"

'मेरे तो सब सेट डिक्लेयर्ड हैं, बैंक में भी रखे हैं। मगर...।"

'मगर... मगर क्या छोटी?"

'एक चीज है अनडिक्लेयर्ड, वो अपने गहनों के साथ मधु के यहां रख दो भाभीजी।"

'दो, वो क्या है?"

'नौ तोला सोना", बड़ी भाभीजी से आंखें मिलाए बगैर छोटी भाभीजी बोलीं।


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