दायित्व
दायित्व


" एक ही तो दायित्व था तुम्हारे ऊपर......नेहा को अच्छी परवरिश और संस्कार देने का..... पर तुमसे वो भी नहीं निभा !"
वो अपनी पत्नी पर क्रोध निकाल रहे थे।
पत्नी आँखों में आंसू भरे ...... मौन अपराधी समान सर झुकाये खड़ी थी।
"ऐसी बेवकूफ औलाद से तो ...... नाऔलाद होना कहीं अच्छा होता ! मन तो कर रहा है ...... यहीं गला घोंट दूँ। अपना भला -बुरा सोचने की तमीज नहीं ...... अभी बीस साल की भी नहीं हुई है ......पर हमसे जुबान चलाती है ...... अरे अपनी नहीं तो हमारी इज्जत का तो ख्याल करती !"
नेहा अपने पिता को एकटक देख रही थी। समझ नहीं आ रहा था उसे कि उससे ऐसी भी क्या गलती हो गयी है ?
माँ का नाराज होना तो स्वाभाविक था। वो तो शुरू से पुराने ख्यालात की थीं और रहेंगी।
पर पिता तो अपने आधुनिक विचारों के लिए जाने जाते रहे हैं।
उनके लेख और कहानियाँ कितने ही अख़बारों और पत्र -पत्रिकाओं में छपते हैं। कई किताबें भी लिखी हैं।
प्रेम के भावों को कितनी शिद्दत और गहराई से व्यक्त करते हैं।
"तू अभी भी यहीं खड़ी है ! नेहा मेरी आँखों के सामने से हट जा ...... अपने कमरे में रहेगी अब से तू। तेरा कॉलेज जाना बंद....... तेरी आगे की पढाई अब पत्राचार से ही होगी ...... और उस बुड्ढे प्रोफ़ेसर को तो कॉलेज से हटवाया नहीं तो मैं अपना नाम बदल दूंगा ...... शरीफ लड़की को अपनी मीठी -मीठी बातों में फंसाता है...... प्यार ...... माई फुट !"
नेहा सहम कर अपने कमरे की तरफ मुड़ गयी।
तभी दरवाजे की घंटी बजी।
पिता ने अपने चेहरे के भाव छुपाते हुए दरवाजा खोला।
"अरे भाई मिठाई खिलाओ !" सामने उनके परम मित्र खड़े थे।
"तुम्हारी प्रोफेसर और उसके विद्यार्थी के बीच की प्रेम -कहानी ने तो साहित्य जगत को हिला दिया है...... इस वर्ष की सर्वश्रेठ कहानी का पुरूस्कार एक बार फिर तुम्ही को मिल रहा है !"
पिता चुपचाप निःशब्द खड़े रहे।
जिंदगी में पहली बार उन्हें अपने हृदय और कन्धों पर दायित्व का भार महसूस होने लगा।