Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

मतलबी

मतलबी

3 mins
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पिछले दस मिनट से वो लड़की बीच- बीच में कनखियों से मुझे देख रही है। अक्सर ऐसी हरकत मैं ही करता हूँ। लड़कियों को ताड़ने की। इसलिए थोड़ा हैरान हूँ।

वैसे कॉफीहाउस में ज्यादा भीड़ नहीं है। पिछले एक घंटे से मैं यूँ ही यहाँ एक कप कॉफी लिए बैठा हूँ।

छुट्टी का दिन बिताने के लिए यही कवायद करता हूँ। कुछ देर फेसबुक, कुछ देर अखबार या कोई किताब, फिर यूं ही किसी रेस्त्रां में कुछ समय बिता लेता हूँ।

कस्बे से महानगर आये अभी मुझे ज्यादा समय नहीं हुआ है। यहाँ की तेज रफ़्तार में ढलने में अभी कुछ वक्त लगेगा।

मुझे उस लड़की का खुद को निहारना अच्छा लग रहा है। आज मैंने नया कुरता पहना है। शायद इसीलिये पहले से अच्छा लग रहा हूँ।

फिर भी कस्बे की लड़की होती तो इस तरह नहीं देखती मुझे। बड़े शहरों की लड़कियां कुछ तो अलग होती हैं। कुछ -कुछ लड़कों सी ही। न झिझक, न शर्म। साथ काम करने वाली स्मृति के सामने एक बार, ये बात मेरे मुंह से निकल गई थी। वो कितना हंसी थी। झट से बोली थी - "ऑफिस में हम बस साथ काम करने वाले हैं। सहकर्मी। यहाँ पुरुष -स्त्री का मुद्दा कैसा ? काम बराबर, वेतन बराबर और काम के घंटे भी बराबर। "

"और घर में ?" मैं पूछना चाहता था। शायद घर जा कर स्मृति भी कस्बे की लड़कियों सी हो जाती होगी। आटा गूंध रोटी बना -सब को खिला कर आखिर में बच्चों का छोड़ा खाना भी अपनी थाली में ले कर जल्दबाजी में खाती होगी। एक बार दूर से उसके पति को देखा था। मैदे की लोई को कौआ ले गया वाली कहावत का साक्षात उदाहरण। शायद उसका जबरदस्ती विवाह हुआ होगा। वो ऑफिस में मेरे लिए तो ठीक ही है। कभी -कभी अपने लाये टिफ़िन से मुझे कुछ खिला देती है। काम में कहीं फंसता हूँ तो वो मदद कर देती है।

स्मृति ही नहीं , मुझे किसी भी दूसरे जिंदगी के बारे में सोचना अच्छा लगता है। अपनी कल्पना में मैं उनके जीवन की कैसी भी कथा रच लेता हूँ।

ये लड़की जो मुझे देख रही है। शायद ये मुझ जैसी शक्ल वाले किसी और व्यक्ति को जानती हो। या शायद इसे मुझ में दिलचस्पी हो रही हो।

उफ़। ये लड़की तो मेरी तरफ ही आ रही है। अब मैं क्या करूँ ?

पिताजी कट्टर हैं। किसी शहरी लड़की से प्रेम बढ़ाने की तो मैं सोच भी नहीं सकता। मेरा विवाह तो आशा के साथ तय हो गया है। एक- दो बार फोन पर बात हो चुकी है उससे।

वैसे ये लड़की कितनी खूबसूरत है। बिलकुल गोरी चिट्टी। दुबली -पतली। जींस और टीशर्ट पहने - कस्बे की भाषा में कहूँ तो गजब ही ढा रही है। दोस्ती हो जाए तो क्या पता कल को प्रेम भी हो जाए। कौन सा अभी शादी हो गयी है मेरी।

वो मेरे पास पहुँच चुकी है। परफ्यूम की खुशबू मेरी दीवानगी बढ़ा रही है।

"एक्सक्यूज़ मी " आवाज भी कितनी मादक है।

"आप मुझसे सीट बदल लेंगे क्या ? मेरे दो -तीन दोस्त आने वाले हैं। यहाँ चार लोगों के बैठने की जगह हो जाएगी। मैं जहाँ बैठी हूँ वहां बस दो ही बैठ सकते हैं। पर आपको कोई दिक़्क़त नहीं होगी। आप तो अकेले ठहरे। "

मेरा मुंह लाल है। शर्म से या गुस्से से- ये मैं अभी समझ नहीं पाया हूँ।

पर इन शहरी लड़कियों को समझ गया हूँ।

जब बात करती हैं, बस मतलब से बात करती हैं।


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