हम ही दोषी हैं
हम ही दोषी हैं
‘ मॉम, कैसी हो ?’ फोन पर रीना की चहकती आवाज सुनाई पड़ी।
‘ मैं तो ठीक हूँ पर तू बता कैसी है ? ’
‘ मॉम, वैसे तो सब ठीक है, पर गर्मी इतनी है कि कूलर की हवा में भी पूरी-पूरी रात नींद नहीं आती.उमस के कारण पूरा बदन चिपचिपाता रहता है।'
‘ गर्मी तो यहाँ भी बहुत है।'
‘ मॉम, हम ए.सी. लेने की सोच रहे हैं.यदि दस हजार आप दे दें तो बाकी हम अरैन्ज कर लेंगे।'’ तुरंत उसने अपनी बात पर आते हुए कहा।
‘ बेटी, तुम तो जानती ही हो कि अभी तुम्हारे विवाह पर इतना खर्चा हुआ है.लोन लिया है, उसे चुकाना है ऊपर से सीमा की पढ़ाई का खर्च.ठीक है तुम्हारे डैडी से बात करूँगी।’ कविता ने बात वहीं समाप्त करने की गर्ज से कहा क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करती तो वह फोन पर ही वाद विवाद करने लगती।
‘ ठीक है मॉम, शाम को फिर बात करूँगी लेकिन डैडी से पूछ जरूर लेना।’ रीना ने तुरंत उत्तर दिया।
रीना ने फोन रख दिया थाएक बार फिर कविता की आँखों में सूनापन उतर आयाक्या हो गया है इस लड़की को, जो विवाह तय होते ही इतना बदल गई, लगभग आवश्यकता की हर वस्तु उन्होंने उसको दी है और अब ए.सी. की डिमांडक्याा उसे इतना भी एहसास नहीं है कि उसके माता-पिता उसके विवाह में इतना खर्चा कहाँ से कर पाये हैं ?
यह सच है कि आज नई पीढ़ी की सोच में काफी परिवर्तन आया है, पुरानी पीढ़ी के विपरीत नई पीढ़ी अब भविष्य के नाम पर वर्तमान को कष्ट में नहीं बिताना चाहती। आज उसे पूरी गृहस्थी सजी सजाई चाहिए। शायद आज की पीढ़ी में धैर्य नाम की चीज ही नहीं बची है। इसमें बच्चों की भी कोई गलती नहीं है, माता-पिता ही बचपन से बच्चों की हर इच्छा को पूरी करते हुए यह नहीं सोचते कि जीवन में जहाँ फूल हैं वहाँ काँटे भी होंगे। एक दिन जब उन्हें अपनी जिंदगी शुरू करनी पड़ेगी तब क्या वे इन काँटो को सह पायेंगसोचते हुए कविता ने एक लंबी सांस लीविनीत ऑफिस तथा सीमा कालेज जा चुकी थी, करने को कुछ नहीं था अतः वह सदा की तरह बालकनी में पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गई, उसका सारा समय यही व्यतीत होता है। वह यहीं बैठकर अखबार पढ़ने के साथ सिलाई, बुनाई, कढ़ाई तथा क्रोशिये का काम भी किया करती हैअपनी बनाई चीजों से घर को सजाना उसकी हाॅबी है।
सामने पार्क है, हरियाली तो मन मोहती ही है, पार्क की चहल पहल में वह न केवल अपनी सारी परेशानियां भूल जाया करती है वरन् अकेलापन भी नहीं महसूस होता है तथा काम भी हो जाता है पर आज कुछ भी करने का मन नहीं कर रहा था। टेबल पर रखा अखबार उठा कर पढ़ना चाहा पर रोज की वही मार काट तथा उठापटक वाली राजनीति से भरे अखबार में भी उसका मन नहीं लगा। स्वयं को तनावमुक्त करने के प्रयत्न में वह कुर्सी पर अधलेटी मुद्रा में लेट गई। न चाहते हुए भी अतीत और वर्तमान की किताब के पन्ने बार-बार उनकी आँखों के सामने उड-उड़ कर उसे बेचैन करने लगे।
रीना और सीमा उसकी बेटियां हैं। प्रारंभ से ही वह उनकी हर इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करती रही है। चाहे स्कूल द्वारा आयोजित पिकनिक हो या एजुकेशन टूर के नाम पर बने देश भ्रमण के टूर। उसने उन पर कभी कोई पाबंदी नहीं लगाई। यहाँ तक कि उनकी इच्छा पूर्ति हेतु उन्हें अपनी अनेक आवश्यकताओं में कटौती वकरनी पड़ी फिर भी अफ़सोस नहीं हुआ, वरन् यह सोच कर खुश होती रही कि वह अपना कर्तव्य का भली भाँति निर्वहन कर रही है जिसके कारण उसकी बच्चियां स्वस्थ और स्वतंत्र वातावारण में पल रही हैं।
आखिर बचपन की छोटी-छोटी बातें ही तो बच्चों के मन में कुंठा पैदा करती हैं। वह पैसों की कमी के कारण उनके मन में कोई हीनभावना या कुंठा उत्पन्न नहीं होने देना चाहती थी। जब घर में पहला कूलर आया तो पहले उसने बच्चों के कमरे में लगवाया बाद में अपने। वर्षों बाद जब ए.सी. खरीदने का विनीत का मन बना तब पहला ए. सी. भी उसने रीना और सीमा के कमरे में यह सोचकर लगवा दिया कि कहीं उनके मन में यह न आये कि ममा पापा तोे ए.सी. में सो रहे हैं और हम कूलर में। अपनी इसी सोच के कारण उनके मेट्रिक करते ही उसने उनको बाइक खरीदवा दी थी जिससे वे ठीक से पढ़ पायें वरना कहीं ऐसा न हो कि कालेज और ट्यूशन करने में साइकिल से आने जाने में थकान के कारण उनकी पढ़ाई बाधित होने लगे। वह सोच नहीं पा रही थी कि उसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई जो रीना उसे समझाना ही नहीं चाह रही है, अब महसूस हो रहा था कि माता-पिता को बच्चों की माँग को पूरा करते समय यह एहसास दिलाना भी आवश्यक है कि जिस चीज की उसने माँग की है क्या वह उसवके लिये आवश्यक है या वह दूसरों की देखा देखी उसको लेना चाह कर रहा है।
इसके साथ ही अपनी आर्थिक स्थिति से भी उन्हें अवगत कराते रहना चाहिए जिससे वे अपनी अनुचित माँगो पर अंकुश रख सकें। प्रारंभ से ही हर अभाव से उन्हें दूर रखने के प्रयत्न के कारण ही रीना और सीमा थोड़ी स्वार्थी, ईर्ष्यालु और आत्मकेंद्रित होती चली गई थी। अपनी हर इच्छा पर उसकी सहमति की मुहर लगवाने की उनकी आदत पड़ गई थी पर वह यह सोचकर उनकी इच्छा के आगे झुकती गई कि वे अभी बच्ची हैं, अगर वे अपनी माँगे उसकेे सामने नहीं रखेंगी तो और किसके सामने रखेंगी।
धीरे-धीरे उनकी लालसा बढ़ती गई, उससे परेशान होकर कभी-कभी उनकी ऐसी जिद जिसका पूरा करना उस समय उसके लिये संभव नहीं होता था, वह उन्हें यह कहकर समझाने का प्रयास करती कि बेटा, इस समय तो यह संभव नहीं है बाद में दिलवा देंगे या थोड़ी बहुत जो बचत कर रहे हैं वह तुम्हारे लियो ही तो कर रहे हैं या हमारा जो है वह तुम दोनों का ही तो है। इस पर वे कहती, ‘ ममा, अगर हमारा ही है तो अभी हमारी इच्छा पूरी करवा दीजिए न, बाद में पता नहीं आवश्यकता हो भी याा न हो।’
उनके असहयोगात्मक रूख देखकर उनकी ख़ुशी के लिये विनीत मन मार कर सेविंग में से पैसे निकालकर उनकी इच्छा पूरी भी कर देते थे पर अब लग रहा है कि ऐसा करके हम उनको तो बिगाड़ ही रहे थे, अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रहे थे क्योंकि उन्हें बस अपनी सुविधा-असुविधा या आवश्यकता का ही ध्यान रहता था वे यह नहीं सोच पाती थीं कि उनकी इच्छा पूरी करने के लिये उनके माता-पिता को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। सीमा छोटी होने के बावजूद भी रीना की तुलना में थोड़ी समझदार थी जबकि रीना सिर्फ़ और सिर्फ अपने बारे में ही सोचती थी।
कविता ने सुना था कि लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा अपने माता-पिता से बेहद प्यार करती हैं, उन्हें कभी कोई दुख नहीं देती। घर के काम में माँ का हाथ बंटाती हैं पर उसके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। रीना, सीमा के स्वभाव में जमीन आसमान का अंतर है। रीना जहाँ पढ़ाई के अतिरिक्त अपने मित्रों के साथ सैर सपाटे में व्यास्त रहती वहीं सीमा को पढ़ाई के साथ चित्रकला से लगाव था। छोटी सी उम्र में ही उसकी पेंटिंग्स की कई प्रदर्शनियाँ आयोजित हो चुकी थी तथा सराही भी गई थीं। दोनों ही अपने-अपने कार्यकलापों में इतना व्यस्त रहती कि उसके पास बैठने या बातें करने का भी उनके पास समय नहीं रहता था, उसके पास आती भी तो सिर्फ काम से या जब उन्हें पैसे चाहिए होते। घूमने फिरने के बावजूद रीना ने दिमाग अच्छा पाया था अतः पढ़ाई में अव्वल आती रही। यही कारण था कि पहली बार में ही डाक्टरी की प्रतियोगी परीक्षा में चुन ली गई। अपने पापा की चहेती जैसे-जैसे सफ़लता की सीढ़ियां चढ़ती गई दंभी होती चली गई, मुँह से इच्छा निकली नहीं कि पूरी होनी ही चाहिए वरना शिकायतों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता।
कभी कविता उसकी इस आदत पर टोकती तो विनीत कहते, ‘अभी बच्ची है, अपनी इच्छायें यहाँ पूरी नहीं करेगी तो और कहाँ करेगी। समय के साथ-साथ सब ठीक हो जायेगा, तुम व्यर्थ परेशान होती हो ?‘ बच्चीआखिर कब तक बच्ची रहेगी।’ कहना चाहकर वह नहीं कह पाती थी।
समय के साथ कुछ ठीक नहीं हुआ था। जैसे-जैसे बड़ी होती गई उनकी इच्छायें बढ़ती ही गई। भला इच्छाओं का भी कभी अंत होता है। वह तो सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती ही जाती है। उनके चेहरे पर खुशी देखकर विनीत कहते, ‘ तुम व्यर्थ परेशान होती हो, इंसान अपने बच्चों के लिये नहीं करेगा तो किसके लिये करेगा। वे ख़ुश तो हम ख़ुश। पैसों का क्या, वह तो हाथ का मैल है, जब है तभी तो खर्च कर पा रहे हैं। ख़ुशी तो सिर्फ इतनी कि वे दोनों को अपने-अपने क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर रही थीं। उनके उन्नत भविष्य को देखकर सोचती, क्या अंतर है आजकल लड़के और लड़कियों में ? व्यर्थ ही लोग लड़की होने पर मातम मनाते हैं वरना आजकल लड़कियाँ भी लड़कों से कम थोड़े ही हैं।
रीना की डाक्टरी की पढ़ाई समाप्त होते ही अब उसका घर बसाने की चिंता प्रारंभ हो गई। कई लड़के देखने के पश्चात नवीन पसंद आया। वह भी डाक्टर था। स्वप्नों को पंख तब लगे जब उसने तथा उसके घर वालों ने भी रीना को पसंद कर लिया। इससे भी अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि उनकी कोई माँग नहीं थी।
तारीख तय होते ही विवाह की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई। घर की पहली शादी थी अतः कविता और विनीत अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। एक दिन वह और विनीत विवाह में दिये जाने वाले सामान की लिस्ट बना रहे थे कि रीना आ गई लिस्ट देखकर बोली-
‘ डैड, आपने इसमें माइक्रोवेव तो लिखा ही नहीं है। हाँ 56 इंच वाला स्मार्ट टी.वी. ही दीजिएगा वरना उसके बिना मजा नहीं आयेगा। पलंग, ड्रेसिंग टेबल, अलमारी, सोफा डायनिंग टेबल तो देंगे ही।’
अब रीना का सारा समय फरमाइशों और शॉपिंग में व्यतीत होेने लगा। विवाह का जोड़ा उसने पचास हजार का पसंद किया, गहने और सामान तो ठीक है पर पूरी जिंदगी में चार पाँच बार से अधिक न पहने जाने वाले लंहगे पर इतना पैसा खर्च करना कविता के संस्कारी मन को चुभा, न चाहते हुए भी कविता के मुँह से निकल ही गया,‘ बेटा, लंहगा कुछ ज्याादा ही मँहगा नहीं है, कोई दूसरा देख ले।’
‘ तुम भी माँ, विवाह आखिर एक बार ही तो होता है, मुझे तो यही पसंद है, देखो पिंक शिफॉन के इस लहंगे में कितना जेनुइन जरदोजी वर्क किया गया है।’
विवाह के जोड़े के पश्चात साड़ियां भी उसने मँहगी ही पसंद की इक्कीस साड़ियां देने की बात कह़ी तो पहले वह तुनकी फिर यह कहते हुए मान गई कि तुम ठीक कहती हो माँ, साड़ियां तो कभी-कभी ही पहनूँगी, अस्पताल जाने के लिये तो सलवार कुर्ता या जीन्स टॉप ही चाहिए..‘ इतने सलवार सूट तो हैं तुम्हारे पास वही ले जाना।’ कविता ने कहा।
‘ ममा, ये सब तो पुराने हैं, पहली बार पुराने सूट लेकर जाऊंगी तो लोग क्या कहेंगे, उन्हें बाद में ले जाऊँगी।’
बात तो उसकी ठीक ही थी अतः उसने कई जोड़ी मनपसंद सलवार सूट भी खरीदे उसके बाद मैचिंग चूड़ियों, बिन्दी, लिपस्टिक, नेल पालिश, पर्स और चप्पलों का दौर प्रारंभ हुआ। जेवर, घर का फरनीचर भी उसने अपनी पसंद का लिया। कविता को लग रहा था कितना अंतर आ गया है आज और कल में, एक उनका समय था जब विवाह में लेन देन की बात उठते ही लड़कियाँ उठकर चली जाती थीं लेकिन आजकल वे इसमें खुलकर हिस्सा ही नहीं लेती वरन् अपनी पसंद और नापसंद का इजहार करते हुए लिस्ट में फेर बदल भी करवाने में भी नहीं हिचकती, वह समझ नहीं पा रही थी कि यह उनकी जागरूकता है या लोलुपता।
रीना की फरमाइशों को सुनाकर विनीत भी तनाव में आने लगे थे। यद्यपि उन्होंने अत्यंत योजनाबद्ध रूप में प्लानिंग की थी पर रीना की डाक्टरी की पढ़ाई में काफी खर्चा हो गया था तथा इसी बीच सीमा के इंजीनियरिंग में आने कारण उसकी फीस के साथ हाॅस्टल का खर्चा भी देना पड़ रहा था जिसके कारण उनकी कुछ भी बचत नहीं हो पा रही थी। अब विवाह के लिये उनको पी.एफ से रकम निकलवाने के अतिरिक्त बैंक से भी लोन लेना पड़ रहा था। रीना के विवाह पर होते खर्च को देखकर कविता कोेे महसूस हो रहा था कि लोग सच ही कहते हैं कि लड़के लड़की में अंतर होता है। लड़की की पढ़ाई में तो खर्चा होता ही है, विवाह में भी खर्चा करना ही पड़ता है। लड़के के विवाह में खर्च किया पैसा घर में ही रह जाता है जबविक लड़की के विवाह में भरा घर भी खाली हो जाता है। शायद इसीलिए लड़की के होने पर मातम मनाया जाता रहा है। अचानक उसे स्वयं अपने विचारों पर वितृष्णा हो आई। किस जमाने की बात सोच रही है वह जो कुछ दे रही है रीना के सुख के लिये ही तो दे रही है फिर अफसोस क्यों ? बार-बार मन को समझाती पर फिर भी न जाने क्यों रीना की नित नई फरमाइश सुनकर मन बिदक उठता। कैसी लड़की है यह जो सिर्फ़ अपने बारे में सोच रही है, उसे इस बात का एहसास क्यों नहीं है कि उसके पिता विवाह के लियो इतनी बड़ी रकम कहाँ से जुटा पा रहे हैं ? पैसे कोई पेड़ोंपर तो उगते नहीं हैं कि जितने चाहो तोड़ लो।
उसकी नित नई फरमाइश सुनकर एक दिन सीमा भी बोल उठी,‘ दीदी ने तो ऐसी लूट मचा रखी है मानो फिर कभी कुछ मिले या न मिले।’
उस समय उसने सीमा को टोक दिया था पर उसने जो कहा वही तो उसके मन में भी चल रहा था, तो क्या आज लड़कियां स्वयं भी दहेज चाहने लगी है ? बार-बार यह प्रश्न उसके मनमस्तिष्क को मथने लगा था। शायद आज का युवा वर्ग अपनी गृहस्थी को तिनका-तिनका जोड़कर सजाने में विश्वास नहीं रखता। यही कारण है कि आजकल लड़के वाले दहेज माँगे या न माँगे वरन् लड़कियां ही दहेज में ऐशोआराम के सारे साधन चाहती हैं। दहेज को सदा से सामाजिक बुराई, समाज की रग-रग में व्याप्त कोढ़ के रूप में देखा जाता रहा है, जिसवकी बलिबेदी पर न जाने कितनी कन्याओं को अपनी जान गँवानी पड़ी है। जिसे रोकने के लिये दहेज विरोधी कानून भी बनाये गये पर क्याा इससे मुक्ति मिल पाई है…? मुक्ति मिल पाना तो दूर, यह समाज में ऐसा घुल-मिल गया है कि इसे अब संभ्रांत तबकों में पुत्री की गृहस्थी बसाने वका सर्वसुलभ, सर्वसम्मत उपाय मान लिया गया है। समझदार लोग अब इस बारे में अपने मुँह से कुछ नहीं कहते क्योंकि उन्हें पता है कि पुत्री के समझदार माता-पिता बिन माँगे ही अपनी पुत्री को वह सब देंगे जिसकी उसे आवश्यकता है। शायद यही कारण है कि रीना की ससुराल वालों ने इस संदर्भ में उनसे कुछ नहीं कहा पर रीना, उनकी अपनी बेटी का व्यवहार देखकर कविता को लग रहा था कि कहीं दहेज युवा पीढ़ी की परिवर्तित सोच के कारण सामाजिक मान्यता न प्राप्त कर ले।
विवाह का दिन भी आ गया। गुलाबी जोड़े में सजी रीना परी सी लग रही थी। किसी की नजर न लग जाए इसलिये उसने उसके कान के पीछे एक काला तिल बना दिया था। उसे ऐसा करते
देख रीना खूब हँसी थी। विवाह की सारी रस्में हँसी खुशी निपट गई। रीना और नवीन की परफेक्ट जोड़ी को देखकर जब नाते रिश्तेदार और अड़ोसी-पड़ोसी उसे बधाई देने लगे तो वह गर्व से भर उठी थी। हँसते खिलखिलाते माहौल में वह अपनी सारी चिंताएं भूल गई थी। विदाई की बेला भी आ गई, अचानक हँसी खुषी से भरा माहौल बोझिल होने लगा था पर कविता ने स्वयं पर काबू रखा था।
उसकी मान्यता रही थी कि बेटी को रोते-रोते नहीं, वरन् हँसते हुए विदा करना चाहिए। जब हम हँसी खुशी विवाह की सारी रस्मों को निभा रहे हैं तो रोना क्यों ? विदा के समय बेटी अच्छी यादों को लेकर जाए न कि माता-पिता के आँसओं से भरे चेहरे को जब-जब उसे वे चेहरे याद आयेंगे तो क्या उसका मन नहीं दरकेगा अपनी इसी मनःस्थिति के कारण विदा के समय वह यत्नपूर्वक आँसुओं को पीती रही पर उन्हें बहने नहीं दिया। विदा के समया गले लगती बेटी को ढाढस बँधानेे के बजाय विनीत भी फफक-फफक कर रो पड़े थे किन्तु कविता रीती आँखों से पुत्री को विदा होते देखती रही थी पर आँखों से एक भी आँसू नहीं ढलकने दिया, बस हौले से उसे गले लगाकर उसके आँसू पोंछते हुए कहा, ‘ बेटा, अपने नये घर में आँसुओं के साथ नहीं वरन् खुशी-खुशी जाओ, तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी हो, बस यही कामना है।’
‘ देखो कैसी माँ है, मेरी बेटी विदा हुई थी तब कई दिनों तक मेरे आँसूओं ने रूकने का नाम ही नहीं लिया था।’ उसे बेटी को ऐसे विदा करते देखकर उसकी पड़ोसन ने कहा।
‘ हाँ दीदी ,पत्थर दिल है, सबकी आँखों से आँसू निकल रहे हैं और एक यह है बुत बनी खड़ी है।’ दूसरी आवाज आई।
कविता का मन किया कि एक बार पलट कर देखे पर मन पर काबू कर लिया आखिर क्यों रोये, जब-जब खुशी-खुशी उसने अपनी पुत्री के लिये घर वर ढूँढा है, रोकर खुशी के माहौल को गमगीन बनाना क्या उचित है पर सदियों पुराने रीति रिवाज केवल उसके चाहने से तो बदल नहीं सकते हैं अतः उनके वाक्य सुनकर भी चुप लगा गई।
उसे चुप देखकर बात सँभाली थी उसवकी ननद नंदिता ने जिसने उन्हें टोकते हुए कहा था, ‘आप भी कैसी बातें कर रही हैंबेटी के वियोग में भाभी के आँसू सूख गये हैं। दुख में कभी आँसू बह निकलते हैं तो कभी सूख जाते हैं।’ फिर कविता की ओर मुखातिब होकर उसवको अपने अंक में समेटते हुए कहा था, ‘ भाभी, रीना दूर थोड़े ही गई है, जब चाहे मिल आना।’
सूनी आँखों से वह नंदिता की ओर देखती रह गई थी मानो कहना चाह रही हों क्या अन्य रस्मों की तरह यह रस्म निभाना भी जरूरी है, वह खुशी-खुशी अपनी बेटी को विदा कर रही है तो उसमें कौन सा गुनाह हो गयाा। खुद रोकर बेटी को भी रूलाना, उसे एहसास दिलाना कि वह आज से उनके लिये पराई हो गई है क्या उचित है ?
उसकी बेटी आज भी उसके लिये उतनी ही अपनी है जितनी विवाह के पहले थीतभी तो उसने और विनीत ने उसे हर सुख-सुविधा की चीज दी है।
छह महीने हो गये थे रीना के विवाह को, उसके चेहरे पर खुशी देख वह अभिभूत हो उठती थी। नवीन उसका बेहद ख्याल रखता था, ससुराल भी अच्छी और संपन्न थी पर वह जब भी आती डेकोरेशन की, किचन की या कोई भी मनपसंद चीज यह कहकर ले जाती कि ममा, मेरे पास नहीं है क्या मैं ले जाऊं ?’
भला उसके आग्रह को वह कैसे नकार पाती। भले ही बाद में उस चीज की वजह से उसे परेशानी हुई हो पर बच्चों की खुशी के आगे माता-पिता को अपनी हर परेशानी बेमानी लगती है। ऐसा नहीं है कि वह ये चीजें खरीद नहीं सकती थी। अभी कुछ दिन पूर्व उसने 70 लाख का तीन बैडरूम का फ्लैट बुक करवाया था। अपना एक अलग नर्सिंग होम खोलने की भी प्लानिंग चल रही थी पर फिर भी छोटी-छोटी चीजें माँगना या ले जाना उसकी आदत सी बन गई थी। विवाह के कुछ दिन पश्चात रीना आई, उस समय सीमा भी आई हुई थी। दोनों बहनों को एक साथ हँसते खिलखिलाते देख वह भी बेहद प्रसन्नता का अनुभव वकर रही थी, जब वह जाने लगी तब उसने ड्राइंगरूम में रखे सिरेमिक के फ्लावर पाॅट को देखकर कहा, ‘ ममा याह मुझे बहुत अच्छा लगता है, मेरे पास कोई फ्लावर पाॅट नहीं है, क्या मैं इसे ले जाऊं ?’
‘ अगर तुम्हें पसंद है तो ले जाओ।’ कहकर उसने उसे फ्लावर पाॅट ले जाने की इजाजत दे दी थी।
उसके जाने के पश्चात सीमा ने क्रोधित होकर कहा था, ‘ ममा दीदी की यही आदत अच्छी नहीं लगती। फ्लॉवर पाॅट वह स्वयं भी तो खरीद सकती थीं, ले जाने की क्या आवश्यकता थी ?’
‘ तेरी बड़ी बहन है, विवाह हो गया तो इसका यह मतलब तो नहीं है कि उसका इस घर पर अधिकार ही नहीं रहा है।’ कहते हुए उसने सीमा को समझाने का प्रयत्न किया था।
और अब यह फोन। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसकी बेटी रीना को हो क्या गया है। उसका अपना खून होते हुए भी वह उनकी परेशानी, उनकी समस्याओं को समझा क्यों नहीं पा रही है। सीमा की पढ़ाई का खर्चा है। तीन चार वर्ष पश्चात उन्हें सीमा का विवाह भी करना है, उसके विवाह में लिये लोन की किश्तें अभी चुक ही रही हैं। फिर भी यह माँगउसकी मनपसंद का हर सामान उसके विवाह में दिया था पर सर्दी में विवाह होने के वकारण बस ए.सी. ही नहीं दे पाये थे और आज उसने उसकी भी माँग कर डालीदरक गया था कुछ मन में।
डोर बेल ने उसकी विचार तंद्रा को भंग कर दिया। दरवाजा खोला तो सामने उसकी पड़ोसन अंजली थी। आते ही उसने कहा,‘ मन बहुत परेशान था इसलिये तेरे पास चली आई।’
‘ क्या बात है ?’ अपनी परेशानियों को परे ढकेलते हुए उसने प्रश्न किया।
‘ कविता क्याा बताऊँ, समझ में नहीं आ रहा है कहूँ या न कहूँ..?’
‘ ऐसी क्या बात है, पड़ोसन और अच्छी मित्र होने के कारण अगर हम आपस में अपनी बात शेयर नहीं करेंगे तो समाधान कैसे कर पायेंगे ?’
‘ तू सच कह रही है कविता।
‘ अब बता भी बात क्या है ?’
‘ तू तो जानती ही है पल्लव का अभी पिछले वर्ष ही विवाह किया है, वह भी बिना दहेज के, पल्लव और संजना दोनों ही अच्छा कमा रहे हैं। लाखों का पैकेज है दोनों का, पर जब देखो भिखमंगों की तरह हाथ ही फैलाये रहते हैं। उन्हें घर खरीदना है उसके लिये उन्हें डिपोजिट के लिये दस लाख चाहिये। अभी छह महीने पूर्व ही कार के लिये दो लाख दे चुके हैं हमने तो कभी किसी से नहीं माँगा। जब पैसा बचा आवश्यकता का सामान खरीद लिया, कविता पल्लव को यह भी नहीं लगता है कि दो चार वर्ष पश्चात वनिता का विवाह भी करना है, अगर उसकी ऐसी ही डिमांड रही तो कैसे कर पायेंगे वनिता का विवाह…?
उनके खर्चो में कहीं कोई कमी नहीं है, अभी पिछले महीने ही उसके पास दस दिन रहकर आये हैं। हर दूसरे दिन बाहर खाना, ब्रांडेड कपड़े, फ्रिज भरा पड़ा है तरह-तरह के फ्रोजन फूड से। हमने कहा फ्रेश खाना सेहत के लिये अच्छा होता है तो पल्लव ने कहा ममा संजना को फुर्सत ही कहाँ मिलती है खाना बनाने की अतः अगर कभी अवसर मिला तो कुछ बना लिया वरना इनसे काम चला लेते हैं नहीं तो बाहर से मँगा लेते हैं। पता नहीं क्या हो गयाा है नई पीढ़ी को काम ही नहीं करना चाहती। हमारी पीढ़ी में भी औरतें काम करती थीं पर इनके जैसे नहीं थकती थीं।‘ अंजली गलती उनकी नहीं हमारी है।’ शून्य में निहारते हुए कविता ने कहा। जिस समस्या से वह परेशान थी ठीक उसी तरह की समस्या से अंजली घिरी हुई थी।
‘ क्या कह रही है कविता हम दोषी हैं , पर कैसे ?’
‘ हम बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाये, उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिये प्रेरित नहीं किया। हमने उन्हें जीवन की कटु सच्चाइयाों से दूर रखा। सच तो यह है अंजली पुत्र हो या पुत्री जब वे अपने पैरों पर खड़े हो जायें तो उन्हें यह एहसास दिलाना आवश्यक है कि अब वे अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं से स्वयं निबटें न कि हर बार अपने माता-पिता की ओर देखें वरना वह कभी आत्मनिर्भर नहीं बन पायेंगे।’
‘ कविता अगर हम ऐसा करेंगे तो क्या हम पर स्वार्थी होने का आरोप नहीं लगेगा। कहीं उनके मनमस्तिष्क में यह बात तो नहीं पैठ जायेगी कि हमारी आवश्यकता के समय हमारे माता-पिता ने हमारी सहायता नहीं की फिर हम उनकी आवश्यकता के समय उनका साथ क्यों दें ?’
‘ तुम्हारा कहना सत्य हो सकता है। शायद वह हमारी इसी मानसिकता का फायदा उठाते हैं, पर आखिर कब तक हम उनकी माँगों के सम्मुख झुकते रहेंगेआखिर उन्हें भी हमारी मजबूरियों और परेशानियाों को समझना होगा।’
‘ तुम ठीक कह रही हो कविता मैं आज ही विजय से बात करती हूँ। अगर पल्लव को समझा पाये, घर इतना आवश्यक भी नहीं है, एक दो वर्ष पश्चात भी ले सकता है।'
अंजली कहकर चली गई। कविता ने सोच लिया था कि वह रीना की इस माँग के बारे में विनीत को कुछ नहीं बतायेगी, स्वयं ही कोई न कोई रास्ता निकालेगी। दूसरे दिन विनीत को आफिस भेजकर निबटी ही थी कि फिर रीना का फोन आया,‘ ममा, क्या तुमने डैड से पूछा ?’
‘ बेटी, तुम तो हमारे घर की स्थिति से भलीभाँति परिचित हो। अभी तुम्हारे विवाह पर इतना खर्च हुआ है। लोन लिया पैसा तो चुकाना ही है, सीमा की पढ़ाई के खर्चो के साथ-साथ तीन चार वर्षो में उसका विवाह भी करना है।’ स्वर में अनचाहे ही गिड़गिड़ाहट आ गई थी ‘ सिर्फ दस हजार ही तो माँग रही हूँ। पूरा ए.सी. खरीदकर देने के लियो तो नहीं कह रही हूँ, उसके लिये भी तुम मना कर रही हो। वह तो हम अपने आप ही खरीद लेते पर आपको तो पता ही है कि कुछ दिन पूर्व नवीन ने फ्लैट बुक करा लिया है, उसी के लिये दो लाख एडवांस देना पड़ा है इसलिये तुमसे माँग रही हूँ। तुम तो कहती थीं कि हमारा जो कुछ है वह तुम दोनों का है फिर मना क्यों कर रही हो ?’ कहकर उसने क्रोध में फोन रख दिया था।
यह उसका चिरपरिचित अंदाज था। उसे मालूम था उसका फोन फिर आयेगा पर इस बार उसने भी निर्णय ले लिया था कि इस बार वह नहीं झुकेगी। आखिर कब तक वह उसकी जायज़ और नाजायज माँगों को पूरा करती रहेगी। कब वह अपने माता पिता के एहसासों को समझेगी…? अब वह बच्ची नहीं है। उसे समझना चाहिए कि उसके माता-पिता की भी अपनी जिंदगी है, उनके अपने खर्चे हैं। बुढ़ापे की ओर अग्रसर होते जीवन के लिये कुछ बचाना भी है फिर वह अकेली तो नहीं है, उसकी एक बहन और है। उसे भी उन्हें पढ़ाना है, उसका भी घर बसाना है। यहाँ तो एक की कमाई से ही घर चल रहा है। वे तो दोनों ही कमाते हैं फिर भी जब चाहे अपनी डिमांड रख देती है। कमाऊ बच्चे अगर माता-पिता को कुछ दे नहीं सकते तो उनसे माँगे भी नहीं।
कविता को मालूम था कि रीना की माँग को ठुकराना आसान नहीं होगा शायद विनीत से भी टक्कर लेनी पड़े। माँ पुत्री के रिश्ते में दरार भी आये, स्वार्थी बनने का भी इलजाम लगे पर वह झुकेगी नहीं, माता-पिता का काम बच्चे को पालना ही नहीं उन्हें सुखी भविष्य देने के साथ-साथ उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास भी कराना है। आज हम हैं पर जब कल हम नहीं रहेंगे तब तो उसे अपनी समस्याओं से स्वयं ही जूझना होगा। आखिर कब तक वह हमारी अँगुली पकड़कर चलती रहेगी ? कब तक उसकी माँगों के आगे हम सिर झुकाते रहेंगे, कभी न कभी, कहीं न कहीं तो इन नाजायाज दस्तकों, माँगों पर रोक लगानी ही होगी फिर आज से ही क्यों नहीं ?
वह विनीत से बात भी नहीं कर पाई थी कि शाम को ऑफिस से विनीत के आते ही फोन की घंटी बजी, फोन विनीत ने ही उठाया, फोन रीना का ही था, उसकी माँग सुनकर उन्होंने कहा, ‘ ठीक है बेटा, मैं पैसे भेज दूँगा।’
कविता के पूछने पर विनीत ने रीना की कह़ी बात बताई तो कविता ने कड़ा रूख अपनाते हुए अपनी बात रखी। उसकी बात सुनकर विनीत ने सहज स्वर में कहा,‘ कविता, रीना हमारी बच्ची है, हमसे कुछ माँग रही है तो मना करना उचित नहीं है वैसे भी अगले माह उसका जन्मदिन है, उस पर कुछ उपहार तो दोगी ही, यही सही। वैसे भी इसी महीने मेरी एक एन.एस.सी. मैच्योर हो रही है करीब पचास हजार के करीब मिलेंगे। पहले सोच रहा था कि उनको फिक्स डिपोजिट में डाल दूँगा। सीमा के विवाह के वक्त काम आयेंगे अब पच्चीस हजार ही डालूँगा।’ कहते हुए विनीत के चेहरे पर अजीब सी खामोशी छा गई थी। वह चुपचाप फ्रेश होने चले गये।
विनीत की पेशकश सुनकर कविता चाह कर भी कुछ नहीं कह पाई पर विनीत के चेहरे पर छाया दर्द उसे इतना अवश्य एहसास करा रहा था कि कुछ को छोड़ दें तो आज की पीढ़ी जरूरत से ज्यादा स्वार्थी और लालची होती जा रही है।
अपनी कमाई तो क्लब, होटलों और पिक्चरों, डिजाइनर कपड़ों में खर्च करके जीवन का एक-एक पल एन्जाय करना चाहती है पर बूढे़े होते माता-पिता की इन्हें कोई चिंता ही नहीं है। आज के इस यथार्थ से जूझती कविता को दुख तो इस बात का था कि यह लड़के तो लड़के, आज लड़कियाँ भी माता पिता से रुपये ऐठनें में पीछे नहीं हैं। तभी तो उनकी माँगें नित सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं। सिर्फ उसकी ही नहीं, उसकी सखियों अंजली के साथ नीना, बबीता, करूणा, अंजना की भी अपने बेटे, बेटियों से यही शिकायत है। नीना की बेटी पल्लवी का विवाह रीना के विवाह के पंद्रह दिन पश्चात हुआ था वह भी अपनी बेटी की नित नई माँगों से परेशान है। एक ही प्रश्न उसके दिल और दिमाग को बार-बार मथ रहा था, दहेज जो कल तक सामाजिक बुराई थी कहीं आज मान्यता तो प्राप्त करता नहीं जा रहा या जीने के मापदंड ही बदल गये हैं।
‘ पर इसमें दोष किसका है?’ अंतर्मन ने टोका।
‘ दोष बच्चों का ही हैव ही स्वार्थी होते जा रहे हैं।'
‘ पर क्यों ? ’
‘ क्योंकि तुमने उनमें सिर्फ अपने बारे में सोचने की प्रवृत्ति पैदा की है, उनका अलग कमरा, अलग चीजें, उनमें एकात्मकतावादी सोच पैदा करती गई। तुम मानो या न मानो दोष तुम जैसों का ही है…।'
‘शायद तुम ठीक कह रही हो बच्चों में कुंठा न पनपे, हीन भावना न आये इसलिये हम बच्चों की जायज़ और नाजायज माँगे पूरी करते जाते हैं। जब अति होने लगती है तब हम बच्चों को दोष देने लगते हैंवास्तव में दोषी हम ही हैं, हमारी परवरिश है।’
अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाले अंदाज में कविता अस्त होते सूरज की ओर देखने लगीजो अभी तो अस्ताचल में जा रहा था पर शीघ्र ही कल सुबह आशा की नव किरण के संग उदित होगा। कभी कोई न कोई किरण आकर उसके मन के अंधेरों को अवश्य दूर करेगी, कभी तो रीना अपने माता-पिता का दर्द समझेगी, इस आस के संग उसने अपने घायल तन-मन को समझाने के साथ अपने अनियंत्रित विचारों को झटकने का प्रयत्न किया तथा विनीत के लिये चाय बनाने चल दी।