कुछ चित्र में के कैनवास से
कुछ चित्र में के कैनवास से
नभचर जलथर की तरह थलचर के अनेकानेक प्राणियों में से एक मनुष्य भी एक यायावर प्राणी है। एक जगह बैठना तो मानो उसने सीखा ही नहीं हैं। यात्राएं उसकी जिजीविषा है वह यात्राएं कर अपने थके तन-मन को संजीवनी देने की चाह के साथ जगह-जगह की संस्कृतियों को आत्मसात करने का प्रयास करते हुए अपनी मानसिक भूख को शांत करने के साथ-साथ जहां ज्ञान वृद्धि करने का प्रयत्न करता है वहीं कूपमंडूकता से छुटकारा भी पाना चाहता है।
बौद्धिक क्षमता से परिपूर्ण मानव एक ही जगह कुएं के मेंढक की तरह उछल कूद करते हुए अपनी जीवन यात्रा संपूर्ण नहीं करना चाहता। अगर वह ऐसा करता है तो उसका जीवन मृत के सदृश है। जिव्हा को संतुष्टि तभी मिलती है जब वह समोसे के साथ इडली बड़ा का भी रसास्वादन कर पाए। आंखें अच्छे बुरे में तभी भेज कर पाती हैं जब उन्हें आकाश में छाए इंद्रधनुष के साथ घनघोर वर्षा के दुष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न कीचड़ को भी देखने का अनुभव होता है। कर्ण कर्कश ध्वनि की तीव्रता को तभी महसूस कर पाते हैं जब उन्हें सुरीला संगीत सुनने को मिलता है। उसी प्रकार इंसान का घुमक्कड़ मन तभी संतोष का अनुभव कर पाता है जब वह जगह-जगह भ्रमण कर प्रकृति के विभिन्न रूपों को दिल में संजोकर संतोष और शांति का अनुभव कर पाता है।
कभी वह प्राची की नवकिरण में जीवन को फलते फूलते देख संतुष्टि का अनुभव करता है तो कभी सूर्यास्त की लालिमा में अपने जीवन के अवसान की कल्पना करने लगता है। कभी प्रकृति की मनोरम वादियों में अपना सुख खोजता है तो कभी बीहड़ जंगलों में घूमता वन्य प्राणियों से मित्रता करता नजर आता है। कभी वह मंदिर में भगवान के दर्शन कर अपनी आत्मशक्ति को जागृत करने का प्रयास करता है तो कभी किसी दरगाह पर माथा टेक कर सर्वधर्म समभाव का संदेश देना चाहता है। अगर अपने देश में भ्रमण की उसकी भूख शांत नहीं होती तो वह विदेश भ्रमण पर निकल कर वहां की सभ्यता और संस्कृति से अपने देश की सभ्यता और संस्कृति की तुलना करने की चाह रखता है। यही हमारे साथ हुआ अपने देश में अनेकों स्थानों पर भ्रमण करने के पश्चात हमारे मन में समुद्र पार दुनिया देखने की योजना बना ली।
नेपाल तो मैं कई बार जा चुकी हूँ पर सात समुंदर पार जाने का यह पहला अवसर था। वह भी अपनी उस बहन के पास जिसे सदा यह मलाल रहता है कि उसके दो दशक से ज्यादा विदेश प्रवास के बावजूद उसके मायके से कोई भी उसके पास नहीं आया है। मेरे पति से आदेश जी जो उस समय रांची में कार्यरत थे निर्दिष्ट तिथि पर मुझे लेने आ गए। मम्मा पापा तथा भाई भाभी राकेश वंदना से विदा लेकर हम 21 जुलाई 2009 की सुबह लखनऊ से दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में मेरी छोटी ननंद आभा तथा उनके पति रवि जी रहते हैं वह हमें लेने एयरपोर्ट पहुंच गए थे। 21 तथा 22 जुलाई की रात को हमारी फ्लाइट थी।
नियमानुसार 2 घंटे पहले ही हम दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर पहुंच गए। आभा और रवि जी हमें छोड़ने आए थे। हमारी फ्लाइट नंबर IL-127 रात्रि के 1:10 मिनट पर चलने वाली थी। लगभग 18 घंटे के सफर के पश्चात शिकागो के ओ हेरे एयरपोर्ट पर वहां के समय समयानुसार सुबह 10:50 पर उसका पहुंचने का समय था। एयरपोर्ट पहुंचते ही बोर्डिंग पास लेने के लिए हम कतार में लग गए। सारे डॉक्यूमेंट तो थे ही अतः बोर्डिंग पास में मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई। सामान जमा कराकर तथा बोर्डिंग पास लेकर हम गेट नंबर 5 पर जाकर बैठ गए क्योंकि फ्लाइट वहीं से जानी थी। बैठे हुए अभी आधा घंटा ही हुआ था कि वहां उपस्थित स्टाफ ने कहा फ्लाइट नंबर IL127 अब 10 नंबर गेट से जाएगी। ट्रेन में तो अक्सर अंतिम क्षण पर प्लेटफार्म बदलते सुना और देखा था पर अंतरराष्ट्रीय फ्लाइट में भी ऐसा होगा देख सुनकर हमें आश्चर्य हुआ।
3 घंटे पश्चात वह समय भी आ गया जब बोर्डिंग प्रारंभ हो गई एक-एक करके हम हवाई जहाज में सवार हुए। इच्छा होने के बावजूद विंडो सीट नहीं मिल पाई। विंडो सीट पर एक महिला विराजमान थी। सब कुछ वैसा ही था जैसा कि डोमेस्टिक फ्लाइट में होता है अंतर सिर्फ इतना था कि इस बोइंग विमान की सीटिंग कैपेसिटी ज्यादा थी। इसमें बीच में 4 सीट थी तथा दोनों तरफ 3-3... दो पैसेज थे। रियर और बैक में वॉशरूम के अलावा मिडिल में भी दो वॉशरूम और थे। इसके साथ ही हर सीट के पीछे टी.वी. लगा हुआ था। टीवी की आवाज से किसी को असुविधा ना हो इसलिए सभी यात्रियों को एयरफोन दिए गए थे। हवाई जहाज में हमें समय से बिठा दिया गया पर फ्लाइट लेट पर लेट होती जा रही थी। कारण पूछने पर पता चला कि कनेक्टिंग फ्लाइट के लेट होने के कारण कुछ यात्री नहीं आ पाए हैं उनका इंतजार हो रहा है। यह सुनकर अच्छा लगा।
लगभग 2 घंटे पश्चात उन यात्रियों के आते ही विमान चल पड़ा। आकाश में विमान के गति प्राप्त करते ही नाश्ता सर्व कर दिया गया। रात के लगभग 3:30 बजे खाना अजीब लग रहा था पर क्योंकि इतनी देर से जगे थे और आगे भी जगना ही था इसलिए सोचा खा ही लिया जाए, कम से कम नींद तो दूर हो जाएगी।
नाश्ता करते ही बगल में बैठी महिला से संक्षिप्त परिचय हुआ। उसका नाम नीलम था। वह पटियाला की थी तथा अमेरिका के इंडियाना स्टेट में पिछले 10 वर्षों से रह रही थी। वह अक्सर भारत आती जाती रहती थी। नाश्ता करने के पश्चात मेरी सहयात्री नीलम ने कहा, ' आज लोग ज्यादा नहीं लग रहे हैं अगर कहीं खाली सीट हो तो देखती हूं।' कहकर वह उठकर चली गई। काफी देर तक जब वह लौटकर नहीं आई तो हमें लगा उसे दूसरी सीट मिल गई है।
कुछ देर उसके इंतजार के पश्चात मेरे पति आदेशजी ने कहा, ' मैं भी जरा घूम कर आता हूँ शायद कोई खाली सीट मिल जाए।'
थोड़ी देर पश्चात आदेश जी लौट कर आए तथा कहा,' आगे एक सीट खाली है ऐसा करो तुम यहां सो जाओ मैं वहां सो जाता हूँ।'
अब तीन सी पूरी अपनी थीं। सीट के हेंडिल को उठाकर उसी में सोने का प्रयत्न करने लगी। यद्यपि पैर पूरी तरह फैल नहीं पा रहे थे पर कहते हैं जब इंसान थकान से त्रस्त हो तो नींद आ ही जाती है यही मेरे साथ हुआ। इस बीच विमान की बिजली ऑफ कर दी गई तथा खिड़की के शटर डाउन करने के लिए कहा गया।
लगभग 9:15 के करीब आदेश ही ने जगाया। 4 घंटे की नींद ने सारी थकान दूर कर दी थी। वॉशरूम गई फ्रेश होकर विंडो खोलकर बाहर का नजारा देखने लगी। थोड़ी देर पश्चात ही चाय नाश्ता या कहें हेवी ब्रेकफास्ट सर्व हो गया। नाश्ता करने के बाद सीट पर लगे टीवी पर पिक्चर देखने लगी। थोड़ी ही देर में घोषणा हुई 7500 किमी दूरी तय करके हम फ्रैंकफर्ट, जर्मनी की राजधानी में उतरने जा रहे हैं। खिड़की से नजारा बेहद खूबसूरत लग रहा था। हर जगह पेड़, सड़कों पर भागती खिलौना जैसी गाड़ीयां, कॉटेज टाइप घर, तथा पवन चक्की जैसे कुछ स्ट्रक्चर...फ्यूल लेने तथा प्लेन की साफ सफाई के लिए हमें करीब 2 घंटे यहां रुकना था । हमें हमारी आईडेंटिटी के लिए एक-एक कार्ड दिया गया तथा प्लेन से बाहर जाने का निर्देश दिया गया। हम उनके निर्देशानुसार बस द्वारा एक हॉल में पहुंचे। यद्यपि उस हाल में वॉशरूम की सुविधा थी पर सामान्य ही लगा...एक सामान्य वेटिंग रूम जैसा जिसमें कुछ कुर्सियां थी। पहले पहुंचने के कारण हमें कुर्सी मिल गई जबकि काफी लोग खड़े ही रहे। वस्तुतः लोगों की संख्या के हिसाब से हॉल बहुत ही छोटा था। लगभग 1 घंटे बाद बोर्डिंग की घोषणा की गई। एक बार फिर बोर्डिंग पास की चेकिंग हुई। उसके पश्चात हम फिर से अपनी-अपनी सीट पर आकर बैठ गए।
अभी अपने पड़ाव पर पहुंचने के लिए लगभग लगभग 8 घंटे और लगने थे। फ्रैंकफर्ट से कुछ और यात्री विमान में चढ़े। मेरी सहयात्री उअपनी सीट पर आ गई थी। थोड़ी बहुत उससे बातें हुईं फिर वह सीट पर बैठे बैठे ही सो गई। मैंने भी सोने की कोशिश की पर सो नहीं पाई। नीलम की विंडो सीट होने के कारण बाहर के नजारे तो देख नहीं सकती थी अतः सामने टी.वी. पर (जिससे विमान का बाहर का नजारा देख रहा था) पर नजर टिकाई पर विमान के ऊपर आ जाने के कारण वहां भी कुछ साफ नजर नहीं आ रहा था। मैंने सीट के आगे लगा टी.वी. ऑन किया और मीना कुमारी और अशोक कुमार महल पिक्चर देखने लगी। इसी बीच खाना सर्व हुआ। इसके बाद हमें दो फॉर्म दिए गए। उसमें कुछ जानकारियों के अतिरिक्त यह भी भरना था कि हम कितना सामान (कीमत सहित) ले जा रहे हैं तथा हमारे सामान में कोई खाने पीने की चीज या कोई पौधा तो नहीं है ,फोन नंबर इत्यादि।
धीरे-धीरे ऐसे ही खाते पीते पढ़ते या पिक्चर देखते 7 घंटे बीत गए तभी घोषणा हुई कि सभी यात्री सीट बेल्ट बांध लें, हमारा विमान शिकागो के ओ हेरे इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर पहुंचने वाला है। विमान नीचे उतरने लगा... फ्रैंकफर्ट की तुलना में यहां ऊंची ऊंची इमारतें ज्यादा दिखाई दे रही थी तथा बीच-बीच में पानी भी नजर आ रहा था।
शिकागो
आखिर हमारे वायुयान ने जमीन छू ही ली। हम शिकागो के 'ओ हेरे इंटरनेशनल एयरपोर्ट ' पर उतरे। शिकागो की धरती पर कदम रखते हुए मुझे बेहद हर्ष हो रहा था क्योंकि यहां की धर्म संसद में 11 सितंबर 1893 में स्वामी विवेकानंद ने विश्व शांति का संदेश दिया था।
हमें लग रहा था कि सामान आने में तथा कस्टम क्लियर होने में समय लगेगा पर यह सब फॉर्मेलिटी पूरी होने में 1 घंटे से ज्यादा समय नहीं लगा। इमीग्रेशन काउंटर पर उपस्थित अधिकारी ने हमारे आने का उद्देश्य तथा समयाविधि पूछी। हमारे समयाविधि बताने पर उसने आश्चर्य से कहा, ' बस इतना कम समय... हमारे अमेरिका को आप इतने कम समय में कैसे देख पाएंगे ?'
आदेशजी ने अपनी छुट्टी की समस्या बताई तो उसने मुस्कुराकर ओ.के. कहा। हो सकता है या प्रश्न और उत्तर उसकी ड्यूटी का हिस्सा हो पर उस देश जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां के लोग अंतर्मुखी हैं, का इस तरह से मुस्कुराकर बात करना सुखद आनंद ले गया।
एयरपोर्ट काफी बड़ा था। सामान लेकर दिशा निर्देशों के आधार पर बाहर आए। गेट से बाहर निकलकर मैं अपनी बहन बहनोई प्रभा व पंकज जी को देख ही रही थी कि वे सामने से आते नजर आए । मुझे देखते ही प्रभा मेरे गले से लग गई। वह बहुत खुश थी आखिर कोई तो आया उसके मायके से...।
करीब आधा घंटे की ड्राइव के पश्चात हम घर पहुंचे। सारे रास्ते कुछ नया ढूंढने का प्रयास करती रही पर सड़कें चौड़ी होने वन वे ट्रैफिक तथा सड़कों पर सिर्फ गाड़ियां ही गाड़ियां होने के अतिरिक्त कुछ नया नजर नहीं आया। हां मौसम अवश्य जुलाई में हमारे देश के अक्टूबर-नवंबर जैसा था। घर पहुंचते ही गाड़ी में बैठे बैठे ही रिमोट कंट्रोल से पंकज जी ने खोला तथा गैराज से ही घर के अंदर जाने वाले दरवाजे से हमने घर के अंदर प्रवेश किया। वहां बच्चों प्रियंका एवं पार्थ के साथ उनके कुत्ते बंटी ने हमारा स्वागत किया। कुछ देर तो वह भौंकता रहा फिर धीरे-धीरे शांत हो गया। उसी समय प्रभा की नौकरानी मार्था ने आकर गुड मॉर्निंग कहा। उसे पता था कि हम आ रहे हैं। उसने इंग्लिश में हमसे हमारे बारे में पूछा तथा फिर कहा, 'बहुत खूबसूरत घर है ना।'
रियली वेल मेंटेंड खूबसूरत बंगला है प्रभा का। डाइनिंग रूम में बड़े-बड़े शीशे से घर के बाहर बने स्विमिंग पूल के साथ-साथ हरा-भरा गार्डन भी दिख रहा था। बाहर का नजारा देखने के लिए हम बाहर निकले। उसी समय पंकज जी का फोन आ गया, वह बात करते हुए हमसे दूर चले गए । प्रभा हमें घुमाने लगी... बाहर बागान में हरियाली के साथ खूबसूरत रंग बिरंगे फूल लगे हुए थे। प्रभा ने बताया कि यहां काफी ठंड तथा बर्फ पड़ने के कारण सिर्फ इसी सीजन (मार्च से सितंबर तक) में फूल खिलते हैं। इनमें कुछ पेरीनियल (पूरे वर्ष खिलने वाले ) तथा कुछ एनुअली (वर्ष में एक बार) खिलने वाले हैं। गुलाब की भी कई वैरायटी वहां उसके बगीचे में मौजूद थीं।
'घर के बाहर कोई बाउंड्री नहीं दिखाई दे रही है।'आदेश जी ने पूछा।
' यहां घर के बाहर कोई बाउंड्री नहीं बना सकता।' प्रभा ने उत्तर दिया।
'फिर यह कैसे पता लगता है कि यह जगह हमारी है ?'
'हमने अपनी बाउंड्री की पहचान के लिए पेड़ लगवा लिए हैं।' प्रभा ने इशारा करते हुए कहा।
बाहर घूमने के पश्चात हम अंदर आए। प्रभा ने चाय का पानी रख दिया था। मार्था अभी काम कर रही थी। पूछने पर पता चला कि वह 1 घंटे का $15 लेती है। अब वह अपने ऊपर निर्भर करता है कि उससे क्या और कितनी देर काम कराया जाए। वह अपना वैक्यूम क्लीनर तथा साफ सफाई का सारा सामान अपने साथ लेकर आती है। उसके दो बच्चे हैं जो पढ़ते हैं माथा काफी हंसमुख एवं चुस्त लगी। वह अपना काम बेहद सफाई तथा मनोयोग से कर रही थी।
इस बीच पंकज जी भी आ गए। बातचीत के साथ हमने चाय नाश्ता किया फिर हम अपने लिए निर्धारित कमरे में थोड़ी आराम करने चले गए। इतना लंबा सफर करने के कारण थोड़ी थकान तो थी पर इतनी भी नहीं जितना सुनते आए थे विशेषकर 'जेट लेग' वाला शब्द ...।
शाम को प्रभा एवं पंकज जी ने हमसे पूछा थकान तो नहीं हो रही है। हमारे मना करने पर उन्होंने हमें शिकागो की खूबसूरत झील मिशीगन लेक तथा डाउनटाउन घुमाने का प्रोग्राम बना लिया। लेक क्या थी, पूरा समुद्र ही नजर आ रही थी। यह लेक लगभग 150 किमी चौड़ी तथा 500 किमी लंबी है। इसी लेक नाम से मिशीगन स्टेट बन गया है । लगभग 2 घंटे इस लेक के किनारे घूमते रहे। पास में ही एडलर प्लैनेटोरियम स्थित है। इस स्थान से शिकागो की सबसे ऊंची इमारत सीयर्स टावर नजर आ रहा था। हमने लेक के किनारे लगी बेंच पर बैठकर सूर्यास्त देखा। जगह कोई भी हो प्रकृति का सौंदर्य प्रत्येक स्थान पर एक जैसा ही होता है। यह बात अलग है कि विभिन्न स्थानों पर आसपास के वातावरण के कारण दृश्य में थोड़ा परिवर्तन अवश्य जाता है।
इसके पश्चात वे हमें डाउनटाउन गए जो वहां का मुख्य मार्केट एरिया है। करीने से सजी दुकानें, फुटपाथ पर चलते लोग बड़ी-बड़ी इमारतें, सड़कों पर अपनी-अपनी लेन में दौड़ती गाड़ियां...यहां आकर महसूस हो रहा था कि हम किसी दूसरे देश में आ गए हैं। समय ना होने के कारण हम कहीं उतरे नहीं सिर्फ गाड़ी से ही हमने मार्केट सर्वे किया।
अब वे हमें इंडियन मार्केट देवन लेकर गए। इस जगह आकर ऐसा लगा जैसे हम इंडिया के ही किसी मार्केट में घूम रहे हैं। भीड़ भाड़ भी वैसी ही थी। दुकानों पर इंडिया की तरह ही डिस्प्ले होते लहंगे, साड़ियां इत्यादि ... नॉर्थ इंडियन साउथ इंडियन रेस्टोरेंट्स...। थोड़ी देर हम देवेन एवेन्यू घूमे। खाने का समय हो गया था अतः हम एक साउथ इंडियन रेस्टोरेंट्स में गए। रेस्टोरेंट का माहौल बिल्कुल इंडियन रेस्टोरेंट जैसा ही महसूस हुआ। वहां हमने उत्तपम तथा रवा मसाला डोसा का आर्डर दिया। स्वाद भी भारत के साउथ इंडियन रेस्टोरेंट जैसा ही पाकर हमें लगा ही नहीं कि हम अमेरिका के किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर खा रहे हैं।
लौटते हुए उन्होंने हमें पाकिस्तानी मार्केट भी घुमाया जो इंडियन मार्केट के पास ही था। वह भी काफी कुछ इंडियन मार्केट जैसा ही था पर दुकानों पर नाम उर्दू में लिखे हुए थे। कुछ लोग सिर पर पाकिस्तानी टोपी पहने हुए थे जो उनके मुस्लिम होने का एहसास करा रहे थे। भारतीय और पाकिस्तानी मार्केट को देखकर ऐसा लग रहा था कि कुछ लोग अपने देश से मीलों दूर रहकर भी अपने संस्कार और संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। एक आम हिंदुस्तानी सोच भी नहीं सकता कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग अपनी पहचान बनाने के लिए वही माहौल, वही पहनावा अपनाकर अपना देश प्रेम जीवित रखेंगे। सच तो यह है कि यह लोग मजबूरी वश या निज महत्वाकांक्षा के वशीभूत अपने देश से दूर तो चले गए पर अपने लिए वैसा ही माहौल बनाकर, अपने देश के खानपान, वेशभूषा और संस्कृति को न केवल जीवित रखे हुए हैं वरन विदेशी धरती पर प्रचार और प्रसार भी कर रहे हैं।
देश से दूर रहकर, देश को अपने आसपास पाकर अत्यंत ही गर्व का एहसास हो रहा था वरना हमारे मस्तिष्क में तो ऐसे लोगों की छवि अंकित थी जो स्वयं को आधुनिक कहलाने के प्रयास में अपनी पहचान मिटाने से भी नहीं चूक रहे हैं। इस बात का एहसास उन भारतीयों को देखकर होता है जो कुछ वर्ष विदेशों में रहने के पश्चात भारत आकर ऐसा व्यवहार करते हैं मानो वे यहां कभी रहे ही नहीं है। लौटते लौटते रात हो गई पहला दिन काफी खुशनुमा रहा।
दूसरे दिन अर्थात 23 तारीख को हम शिकागो के लेमोंट मंदिर गए। मंदिर काफी अच्छा और सुंदर बना हुआ था। साफ-सफाई भी काफी थी। इस मंदिर में बालाजी के मुख्य मंदिर के अतिरिक्त सभी देवी देवताओं की मूर्तियां थीं। अगर किसी को पूजा-अर्चना, हवन करवाना हो तो इसके लिए एक हॉल की व्यवस्था भी थी। मंदिर के पंडित जी पूरे विधि विधान से पूजा अर्चना करवाते हैं। मंदिर में जन्माष्टमी ,शिवरात्रि, होली, दीपावली ,दशहरा इत्यादि त्योहारों पर विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है तथा महाप्रसाद का आयोजन भी किया जाता है। यह आयोजन सप्ताहांत में किये जाते हैं जिससे सब सम्मिलित हो सकें। सभी भारतीय परिवार पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ इन आयोजनों को सफल बनाने के लिए भरपूर योगदान भी करते हैं। कई भारतीय हमें वहां मिले वहां स्थित दुकान से हमने उपहार देने के लिए एक 'बाल गोपाल जी 'की मूर्ति खरीदी। यह हमारी यहां प्रथम शॉपिंग थी। भावभक्ति से युक्त खुशनुमा एहसास लेकर हम मंदिर से निकले। यहां आकर यह एहसास और भी दृढ़ हो गया कि हम भारतीय अपनी संस्कृति , संस्कार और धरोहरों को कभी नहीं भूलते। अगर कहीं बाहर जाते भी हैं तो इन्हें अपने साथ ले जाना नहीं भूलते।
अब हमें टेनिस कोर्ट जाना था जहां मेरे भतीजे पार्थ का टेनिस का मैच चल रहा था । हॉल काफी बड़ा तथा एयर कंडीशन था। इस हॉल में एक साथ तीन मैच चल रहे थे। अंडर सिक्सटीन का मैच था। सबसे बड़ी बात यह थी यहां कोई एंपायर नहीं था। बच्चे स्वयं ही अपने स्कोर की पट्टियां पलट रहे थे। पार्थ मैच खेल रहा था तथा उसके हर पॉइंट पर हम ऊपर गैलरी में बैठे उसे प्रोत्साहित कर रहे थे। उसका मैच देखकर मैं अचानक उन दिनों में पहुंच गई जब हम अपने पुत्रों अभिषेक और आदित्य को बैडमिंटन मैच खिलाने ले जाया करते थे। वे दोनों अपने इस ग्रुप में बहुत ही अच्छा खेलते थे। डिस्ट्रिक टूर्नामेंट में वे अपने एज ग्रुप में विनर या रनर रहा करते थे। उनका खेल देखकर बैडमिंटन के बच्चों के कोच नायडू सर ने हमसे कहा भी था कि इन दोनों बच्चों की कोचिंग करवा दीजिए ,एक दिन अवश्य नाम रोशन करेंगे पर हम नहीं चाहते थे कि बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान आये अतः हमने उनकी पेशकश ठुकरा दी।
यह सच है कि खेल में अच्छा खासा पैसा नाम और शोहरत है पर इसमें दो राय नहीं है कि किसी भी खेल में सफलता प्राप्त करने के लिए अत्यंत ही शारीरिक परिश्रम की भी आवश्यकता है। साथ ही खेल जगत में राजनीति भी हावी है। इसका अंदाजा हमें बच्चों को बैडमिंटन की जिलास्तरीय प्रतियोगिता में भाग दिलाते-दिलाते धीरे-धीरे होने लगा था। एक बच्चे के माता-पिता ने अपने बच्चे को अंडर ट्वेल्थ ( बारह ) प्रतियोगिता में प्रथम का ताज पहनाए रखने के लिए उसका बर्थ सर्टिफिकेट ही बदलवा दिया था ...जब जिला स्तरीय प्रतियोगिता में यह हो सकता है तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में क्या कुछ नहीं होता होगा। आज हमें अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं है। अपने दोनों बच्चों को अपने अपने क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाड़ते देखकर हम बेहद खुश हैं।
एक आवाज सुनकर अतीत के झरोखों से मैं वर्तमान में आई। पार्थ मैच जीत गया था ।उस दिन उसके दो मैच थे, दोनों मैचों में ही वह जीता था। उसकी मैच जीतने की खुशी को हमने एक मैक्सिकन रेस्टोरेंट्स सेलिब्रेट किया। घर आते आते-आते रात हो गई। कुछ देर बातें कर हम सब अपने अपने कमरों में सोने चले गए।
दूसरे दिन पंकज जी की मौसी साधना अग्रवाल ने हमें लंच पर बुलाया था। उस दिन प्रभा और पंकज जी ने हमें घुमाने का व्यस्त कार्यक्रम बना रखा था अतः लंच के लिए उन्होंने उनसे मना कर दिया पर उनके अति आग्रह के कारण कुछ समय के लिए आने का वादा भी कर लिया था। दरअसल उस दिन सर्वप्रथम हमें पार्थ का मैच देखने जाना था। उसके पश्चात हमें वहां होने वाला वोट शो देखने जाना था जो वर्ष में एक बार होता है। संयोग से वह दिन हमारे सामने ही पढ़ रहा था। उस दिन भी पार्थ मैच जीत गया था। मैच के पश्चात हम मौसी जी के घर गए। बहुत ही गर्मजोशी से उन्होंने हमारा स्वागत किया। नाश्ते का भी उन्होंने बहुत अच्छा प्रबंध कर रखा था। मौसाजी और मौसी जी दोनों ही बहुत खुश मिजाज हैं। प्रभा और पंकज के अमेरिका प्रवास के प्रारंभिक दिनों में उन्होंने उनकी अत्यधिक सहायता की थी अतः वे दोनों उन्हें मानते भी बहुत हैं। लगभग 1 घंटे उनके साथ व्यतीत करने के पश्चात हम पहले डाउनटाउन स्थित मॉल में गए। यह मॉल लगभग हमारे देश के बड़े शहरों में बैंगलुरू तथा कोलकाता में स्थित मॉल जैसा ही लगा। हाँ थोड़ा स्पेशियस अवश्य था , भीड़ भी यहां , हमारे देश जैसी नहीं थी।
मिलेनियम पार्क
माल में घूमकर हम मिलेनियम पार्क गए जो मिशीगन लेक के पास स्थित है। यह सार्वजनिक पार्क है। लूप समुदाय क्षेत्र के इलिनोइस स्टेट के शिकागो में स्थित इस पार्क को शिकागो के सांस्कृतिक मामलों के विभाग द्वारा संचालित और एम.बी . रियल एस्टेट द्वारा मैनेज किया जाता है। यह शिकागो मिशिगन लेक के किनारे स्थित मुख्य पर्यटक स्थल है। उत्तर-पश्चिमी ग्रांट पार्क के 24.5-एकड़ में बना यह पार्क मिशिगन एवेन्यू से घिरा है। 2009 तक केवल नेवी पियर को शिकागो के पर्यटकों के आकर्षण के रूप में जाना जाता था।
हमें बताया गया कि 24.5 एकड़ में फैले इस मिलेनियम पार्क में स्थित क्लाउड गेट का कांसेप्ट एक भारतीय अनीश कपूर का है। इस पार्क का मुख्य आकर्षण एक 33 फीट लंबा, 66 फीट चौड़ा, 42 फीट ऊंचा तथा 100 टन वजन का,168 स्टेनलेस स्टील की प्लेटों को जोड़कर बनाई संरचना बीन है जिसका नाम इसकी बीन के आकार की आकृति के कारण पड़ा। इसकी बाहरी सतह पर इस तरह पॉलिश की गई है कि इसके जोड़ दिखाई नहीं देते हैं। इसकी बाहरी सतह पारे (मरकरी ) की तरह चमकती है। इतनी चमकदार सतह के कारण ही इसकी धनुषाकार आकृति के सामने खड़े होने पर इंसान को अपनी आकृति भी नजर आती है। बहुत से लोग इसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचा रहे थे। इसकी इस विशेषता को देखकर हम आश्चर्य चकित हुए तथा हमने भी अपनी फ़ोटो यादगार स्वरूप खिंचवाई।
मिलेनियम पार्क का केंद्रबिंदु जे प्रित्जकर पैवेलियन है। जो फ्रैंक गेहरी द्वारा डिज़ाइन किया गया एक बैंडशेल है। मंडप में 4,000 सीटें हैं, साथ ही 7,000 लोगों के लॉन में बैठने की व्यवस्था है। मंच को स्टेनलेस स्टील की प्लेटों को मोड़कर तैयार किया गया है जो गेहरी की विशेषता है। इसका नाम जे प्रित्जकर के नाम पर रखा गया था, जिनके परिवार को हयात होटल्स के मालिक के लिए जाना जाता है और वह एक प्रमुख दानदाता थे। प्रिट्ज़कर पैवेलियन ग्रांट पार्क के छोटे बड़े नृत्य और संगीत के कार्यक्रमों के लिए जाना जाता है। पहले यहां कार्यक्रम देखने की कोई टिकिट नहीं थी लेकिन अब टिकिट लगती है। जब हम गए तो इस स्थान पर म्यूजिकल कॉन्सर्ट ( संगीत का कार्यक्रम ) चल रहा था। वहां भारी संख्या में लोग मौजूद थे।
इसके अतिरिक्त इस पार्क में एक जोड़ा (पेयर ) क्राउन फाउंटेन भी है जिसके दोनों टावर 50 फीट ऊंचे हैं। क्राउन फाउंटेन सामान्य और वीडियो मूर्तिकला ,अनुपम उदाहरण है। कैटलन वैचारिक कलाकार जेउमे प्लेनसा और द्वारा निष्पादित Krueck और सेक्सटन आर्किटेक्ट्स द्वारा डिजाइन इस फाउंटेन को क्राउन परिवार द्वारा जनता के लिए जुलाई 2004 में खोला गया। यह एक काले ग्रेनाइट से बना है जो पारदर्शी कांच की ईंटों के टॉवर के बीच रखा गया है। टावरों की लंबाई 50 फीट (15 मीटर) है। ईंटों के पीछे प्रकाश-उत्सर्जक डायोड का उपयोग करके चेहरों का डिजिटल वीडियो प्रदर्शित करते हैं। क्राउन फाउंटेन का निर्माण और डिजाइन और बनाने में $ 17 मिलियन लगे।
यह फब्बारा मई से अक्टूबर तक संचालित होता है क्यों कि यहां इन दिनों मौसम अच्छा होता है। दो मीनारों के बीच रुक-रुक कर और प्रत्येक टॉवर के सामने वाले चेहरे पर पानी एक नोजल के माध्यम से घूमता है। पानी और प्रकाश के माध्यम से फाउंटेन के टावर पर विभिन्न चेहरे बनते रहते हैं जिनके मुंह से कभी पानी का फव्वारा निकलता है, कभी यह चेहरे मुस्कुराते हैं तो कभी रोते हैं। कभी आँख झपकाते हैं तो कभी सोते प्रतीत होते हैं। इनसे निकलते पानी में बच्चे बड़े भींगकर मस्ती कर रहे थे । चलती ठंडी हवा बहुत ही खुशनुमा एहसास करा रही थी। लगता था शाम वहीं गुजारी जाए पर ऐसा संभव नहीं था क्योंकि इसके तुरंत बाद हमें वोट शो के लिए निकलना था।
बोट शो
कुछ समय मिलेनियम पार्क में व्यतीत करने के पश्चात अब हम बी.पी. पैदल पुल के द्वारा बाहर आए तथा मिशीगन लेक में होने वाले बोट शो के लिए चल दिए। भीड़ इतनी अधिक थी कि देख कर लग रहा था जैसे कोई मेला लगा हो। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ट्रैफिक पुलिस वाले घोड़ों पर चढ़कर ट्रैफिक कंट्रोल कर रहे हैं। जैसे तैसे हम गंतव्य स्थल पर पहुंचे । मिशिगन लेक के किनारे पहले से ही लोग अपनी दरी, चादर या कुर्सियां लेकर अपनी जगह घेर कर बैठे हुए थे। साथ ही खाना पीना भी चल रहा था। यह देखकर अच्छा लगा कि जिस देश के बारे में कहा जाता है सब अपने आप में मस्त रहते हैं , किसी को यह भी पता नहीं रहता कि उनके पड़ोस में कौन रहता है, ऐसे अवसरों पर बहुत थी इनफॉर्मल (अनौपचारिक )हो जाते हैं। हमारे यहां तो एक आम भारतीय परिवार कहीं भी जाएगा तो प्रेस के अच्छे कपड़े पहनकर निकलना चाहता है पर यह लोग जींस और टीशर्ट में कहीं भी चले जाते हैं। जूते चप्पल भी सामान्य ही रहते हैं।
कहीं कोई खाली स्थान नजर नहीं आ रहा था इधर-उधर घूम कर आखिर प्रभा ने उस भीड़ भाड़ वाली जगह में बैठने के लिए थोड़ी सी जगह ढूंढ ही निकाली तथा अपने साथ लाई चादर वहां बिछाकर उस जगह को अपने नाम कर लिया। हम सब भी यह देखकर संतुष्ट थे कि अब हम इस शो का आनंद ले पाएंगे।
उद्घोषक ने शो प्रारंभ होने की घोषणा की। इसके साथ ही एक के बाद एक नाव सामने से निकलने लगी। किसी में माइकल जैक्सन का शो चल रहा था तो किसी में हॉलीवुड की हस्तियां नाचती गाती नजर आ रही थीं, किसी में हैरी पॉटर के कारनामे थे तो एक बोट में लिखा था 2016 ओलंपिक स्टार्टिंग शिकागो ... वहीं वेलमोंट yachat क्लब (सी स्काउट) की बोट में लिखा था अरर...आई एम सी सिक ...। हर वोट का स्वागत वहां उपस्थित लोग जोर शोर से आवाजें निकालकर हर्ष के साथ कर रहे थे। अपने देश में 26 जनवरी पर विभिन्न प्रदेशों की झांकियां निकलती हैं। अंतर बस इतना था कि हमारे देश में झांकियां ट्रकों पर सजाई जातीं हैं तथा यहां इस वोट शो में झांकियां वोट पर सजी थीं।
बोट शो के बाद लगभग 15 मिनट का क्रेकर (पटाखा) शो होना था। एक के बाद एक छूटते पटाखे आकाश में एक अद्भुत नजारा पेश कर रहे थे। लोग इस शो का खूब आनंद ले रहे थे पर एक बात बार-बार मन में आ रही थी कि क्या इस शो से प्रदूषण नहीं हो रहा है ? विशेषतया उस देश में जो स्वयं को प्रदूषण मुक्त करने का दावा करता है।
बोट शो देखने के बाद हम चले। बीच रास्ते में ही बकिंघम फाउंटेन पड़ता है। समय था अतः हम वहां चले गए। बकिंघम फाउंटेन गोलाकार था तथा बहुत बड़े एरिया में फैला हुआ था। ठंडी- ठंडी हवाएं चल रही थीं। वहीं लय के साथ पानी छोड़ते विभिन्न प्रकार के फव्वारे के ऊपर विभिन्न समय में विभिन्न रंग गिरकर एक अनोखे रहस्यमय वातावरण का निर्माण कर , इस फाउंटेन की खूबसूरती को दुगणित कर रहे थे । इस फाउंटेन को देखकर हमें मैसूर के वृंदावन गार्डन के उस म्यूजिकल फाउंटेन का ध्यान आ गया जिसे हमने 80 के दशक में देखा था । संगीत की लहरों के साथ नाचती पानी की फुहारें... जितना उस समय उसे देख कर मन आनंदित हुआ था वैसा ही कुछ बकिंघम फाउंटेन को देखकर महसूस हो रहा था । मन कर रहा था कि एक 2 घंटे यहीं रुककर इसकी खूबसूरती को निहारते हुए कुछ समय बिताएं पर रात ज्यादा हो गई थी तथा हम सभी थक भी गए थे अतः न चाहते हुए भी हमें लौटना पड़ा।
आदेश जी और पंकज जी तो घर पहुंचते ही सोने चले गए पर मैं और प्रभा कुछ समय बात करने के इरादे से रुक गए हमने इंडिया अपने माँ-पापा तथा बच्चों सेबात की। सब ठीक थे। संतुष्ट मन से
शुभरात्रि कहकर एक दूसरे से विदा ली।
दूसरे दिन रविवार था। सब आराम के मूड में थे और देर से उठे। सुबह की चाय हमने बाहर बनी कोटेज में पड़ी कुर्सियों पर बैठकर पी। आदेश और पंकज जी बैठकर बातें करने लगे तथा हम दोनों उठकर नाश्ते की तैयारी में लग गए। वहां साधारणतया रविवार को ब्रंच करने का रिवाज है यानि हैवी ब्रेकफास्ट तथा लंच गोल...पर उस दिन दोपहर में हमें एक सरप्राइज पार्टी में जाना था अब ब्रेकफास्ट सामान्य ही किया।
ब्रेकफास्ट के पश्चात प्रभा ने कहा ' दीदी, कुछ सामान लाना है तुम्हें और जीजा जी को चलना हो तो चलो '
हमने सोचा जब घूमने आए हैं तो जितना घूम सकें, घूम लें। अतः प्रभा के साथ शॉपिंग सेंटर चले गए। पार्किंग प्लेस ने आकर्षित किया। पार्किंग प्लेस काफी बड़ा था। गाड़ियां भी बहुत ही व्यवस्थित ढंग से लगी हुई थीं। उस शॉपिंग सेंटर में दस बारह दुकानें थीं। गाड़ी पार्क करने के पश्चात हम एक दुकान में जा रहे थे कि तभी एक गाड़ी आई... हमें सड़क पार करते देखकर रुक गई जबकि वहां कोई गार्ड वगैरह भी नहीं था न ही कोई अन्य पैदल यात्री ...। हमारे सड़क पार करने के पश्चात वह गाड़ी आगे बढ़ी।
हमें आश्चर्य में पड़ा देखकर प्रभा ने कहा, ' यहां पैदल चलने वालों का विशेष ध्यान रखा जाता है।'
प्रभा की बात सुनकर अच्छा लगा जबकि हमारे भारत में सड़क पार करना बड़े जोखिम का काम होता है गाड़ीवाले स्वयं तो रुकते नहीं हैं, हाथ देखकर रोकना पड़ता है इस पर भी दाएं बाएं से गाड़ियां तेजी से निकलती ही जातीं हैं। ज़ेबरा क्रॉसिंग जगह जगह तो बनाए गए हैं पर ट्रैफिक रूल कोई फॉलो नहीं करता है।
अनचाहे विचारों को झटक कर हम दुकान के अंदर गए …. उस मॉल नुमा दुकान में एक ही रूफ़ के नीचे विभिन्न तरह की वस्तुएं क्रोकरी, गारमेंट, खिलौने इत्यादि थे पर उस मॉल में भारत की तरह भीड़ भाड़ नहीं थी अतः आराम से घूम -घूम कर हमने हर चीज को देखा एवं परखा। आज से 10 वर्ष पूर्व अगर वहां जाते तो शायद हैरानी होती पर इंडिया में भी 'मॉल कल्चर ' आ जाने के पश्चात अब हमें कुछ नया या अनोखा नहीं लगा। जो सामान वहां डिस्प्ले हो रहा था उस तरह का हर सामान अब भारत में भी उपलब्ध है। मॉल में अधिकतर सामान चाइना का था। कुछ कपड़ों की डिजाइनें जानी पहचानी लगीं। उन्हें उठाकर देखा तो 'मेड इन इंडिया' देखकर सुखद आश्चर्य के साथएक अजीब सुकून का अहसास हुआ। वहां रखा हर सामान डॉलर में तो बहुत सस्ता लग रहा था पर जब उसे भारतीय रुपए में कन्वर्ट किया तो लगा इस रेट में तो हमारे भारत में भी यह सामान मिल जाएगा।
प्रभा ने गिफ्ट में देने के लिए एक शर्ट खरीदी तथा शीघ्र ही घर लौट आए क्योंकि दोपहर में हमें पार्टी में जाना था। यह पार्टी प्रभा व पंकज जी के मित्र के द्वारा उनके पुत्र सुजय के ग्रेजुएट होने पर दी जा रही थी। पार्टी का मकसद सुन मुझे आश्चर्य में पड़ा देखकर प्रभा ने कहा, ' दीदी यहां बहुत कम बच्चे ही ग्रेजुएशन कर पाते हैं अतः यहां बच्चों के ग्रेजुएट होने पर पार्टी देने का यह प्रचलन है। वस्तुतः कुछ लोग तो यहां अपने बच्चों के हर क्लास में पास होने के बाद पार्टी देते हैं ,इसे ग्रेडेशन पार्टी कहा जाता है। दरअसल व्यस्तता के इस युग में लोग पार्टी देने के अवसर ढूंढते हैं जिससे न केवल उनकी नीरस दिनचर्या में बदलाव आता है वरन आपसी मेल मिलाप के साथ मित्रता में भी प्रगाढ़ता आती है। सरप्राइज पर उसने कहा कि ऐसा करने से बच्चे की खुशी दुगनी हो जाती है। वैसे सरप्राइज पार्टी का प्रचलन तो अब हमारे भारत में भी चल पड़ा है पर बच्चों के ग्रैजुएट होने पर किसी ने पार्टी दी हो ऐसा अभी तक नहीं सुना था... अगर बच्चा किसी प्रोफेशनल कोर्स में सलेक्ट हो जाता है या कंपटीट कर लेता है तब तब पार्टी दी या ली जाती है।
नियत समय पर हम पार्टी में पहुंच गए। कुछ ही समय में सुजय ने अपने मित्रों के साथ हॉल में प्रवेश किया। वहां अपने ममा पापा तथा अन्य लोगों को देखकर उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव आ गए। जब तक वह कुछ कहता उसके ममा- पापा ने उसे गले से लगाकर बधाई दी । उसके बाद अन्य लोगों ने उसे बधाई दी।
इसके पश्चात खाने-पीने का दौर प्रारंभ हो गया। खाना बिल्कुल भारतीय अंदाज में था। गोलगप्पे, टिकिया ,मूंग की दाल के चीले, छोले भटूरे के अलावा दोसा डोसा इडली भी थे... खाने में पनीर बटर मसाला, मिक्स वेज बूंदी रायता, मिस्सी रोटी, नान तंदूरी के साथ पुलाव, पापड़ ,अचार भी था। डेजर्ट में आइसक्रीम नहीं कुल्फी थी। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि हम भारत में नहीं है सिर्फ पहनावा तथा वहां उपस्थित एक दो लोगों को छोड़कर सभी लोगों का अंग्रेजी में बात करना ही इस बात का एहसास करा रहा था कि हम भारत में नहीं किसी अन्य देश में हैं।
बहाई टेंपल
पार्टी के पश्चात हम बहाई टेंपल गए जो 100 लिंडन एवेन्यू विलमेटि में स्थित है। इस मंदिर का पहला पत्थर 19 अप्रैल 1912 में लगाकर इसके निर्माण कार्य शुभारंभ किया गया । किन्तु इसका निर्माण कार्य सन 1921 में प्रारंभ हुआ... लगभग 32 वर्षों पश्चात इसका निर्माण पूरा हो पाया तथा उसी वर्ष सन 1953 में कनाडा के वास्तुकार लुईस बुर्जुआ द्वारा "मानवता के लिए एक सभा स्थल" के रूप में निर्मित, बहाई हाउस ऑफ उपासना विल्मेट, इलिनोइस, अमेरिका के धार्मिक स्थलों में से एक है। यह सहिष्णुता और समावेशिता के बहाई मूल्यों के लिए एक स्मारक के रूप में दुनिया का सबसे पुराना बहाई मंदिर है।
इसके आर्किटेक्ट लुइस बोर्गीइस ने इस टेंपल को ऐसे डिजाइन किया है कि चाहे व्यक्ति पूर्व का हो या पश्चिम का यहां आकर मन में सुख शांति का प्रकाश न केवल लेकर जाए वरन एक दूसरे के मन में एकता और भाईचारे की भावना भी पैदा कर सके।
इसके कुछ सिद्धांत निम्न है... यूनिवर्सल शिक्षा , सभी प्रकार की बुराइयों से मानव मात्र को दूर करना, विश्व शांति के लिए प्रयास, विज्ञान और धर्म में सामंजस्य स्थापित करना, नर और नारी में समानता का भाव उत्पन्न करना तथा आर्थिक समस्याओं का आत्मिक (स्प्रिचुअल) से समाधान करना।
पूरे विश्व में केवल 7 बहाई टेंपल हैं, यह उनमें से एक है। सच तो यह है कि इस बहाई टेंपल का नाम यूनाइटेड स्टेट के हिस्टोरिक प्लेस (ऐतिहासिक जगहों) के रजिस्टर में इलिनॉइस स्टेट के सात आश्चर्यों में से एक के रूप में दर्ज है। बहाई टेंपल काफी बड़े एरिया में बना सफेद रंग की एक गुंबद नुमा बहुत बड़ी इमारत है। इसके गुंबद का व्यास 27.5 मीटर है। इसके चारों ओर बहुत ही अच्छा पार्क है तथा इसमें लगे फव्वारे उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा रहे हैं। अंदर एक बहुत बड़ा हाल है। इसकी ऊंचाई 42 मीटर है इस हाल में कुर्सियां पड़ी हुई है जिसमें 1192 व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था है। इस हॉल के अंदर हम लगभग 15 मिनट बैठे। हमें बताया गया कि यहां प्रवचन इत्यादि होते रहते हैं। उस समय प्रवचन तो नहीं हो रहा था पर मंदिर के वातावरण में उपस्थित प्राणवायु तथा सुव्यवस्थित व्यवस्था के कारण हमें बहुत ही शांति का अनुभव हुआ।
दूसरे दिन अर्थात 27 जुलाई को हमें वाशिंगटन डी.सी. के लिए प्रस्थान करना था। सुबह 6:18 कि हमारी यू.एस. एयरवेज की फ्लाइट शिकागो आई.एल.( ओ. आर. डी.) से थी। एक घंटा 47 मिनट हमें शिकागो से वाशिंगटन पहुंचने में लगना था। प्रभा और पंकज जी ने हमसे कहा 4:45 बजे भी निकलेंगे तो समय से पहुंच जाएंगे। उन्होंने 5:15 बजे तक हमें एयरपोर्ट पहुंचा दिया। पहुंचते ही हम बोर्डिंग पास लेने के लिए लाइन में लग गए। सोमवार होने के कारण लाइन बहुत ही लंबी थी। लगभग 5:45 बज गए पर हमारे सामने अभी 15-20 यात्री और थे। हमने अपने सामने वाले व्यक्ति को अपनी परेशानी बताते हुए जगह देने का आग्रह किया। उसने हमारा अगले मान लिया पर उसके आगे वाला व्यक्ति नहीं माना। तब हमने स्टाफ से अपनी परेशानी बताते हुए आग्रह किया तो उसने कह दिया कि आप पहले क्यों नहीं आए ? अब हमने स्वयं को भाग्य के हवाले छोड़ दिया। दुख तो इस बात का था कि बोर्डिंग पास देने वाला व्यक्ति इस बीच दो-तीन बार अपनी जगह से उठा तथा कई मिनट उसने अपने सहयोगी से बातों में बिता दिए तब हमें ऐसा महसूस हुआ कि हमारा भारत व्यर्थ इस तरह की अव्यवस्था के लिए बदनाम है, यहां भी तो कुछ इसी तरह के हालात है।
आखिर हमारा नंबर आ गया बोर्डिंग पास लेकर हम सिक्योरिटी चेक में गए वहां भारत के विपरीत हमसे चूड़ी, घड़ी, जूते ,चप्पल तथा बेल्ट हटाने के लिए कहा गया। वहां से क्लीयरेंस पाकर हम उस गेट की ओर बड़े जहां से हमारे विमान को जाना था। स्पष्ट दिशा निर्देशों की वजह से कहीं भी कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ी। एयरपोर्ट बहुत बड़ा था निर्धारित गेट पर पहुंचने के लिए काफी चलना पड़ा। 3 -4 फ्लैट एक्सलेटर हमने लगभग दौड़ते हुए पार की। जब हम निर्धारित गेट पर पहुंचे तो हमने पाया कि हमारा नाम सामने स्क्रीन पर डिस्प्ले हो रहा है। हमने वहां उपस्थित स्टाफ से बात की। उन्होंने कहा गेट बंद हो चुका है अतः अब हम कुछ नहीं कर सकते ...हां नेक्स्ट फ्लाइट में आपको अपडेट कर दिया जाएगा। हालांकि इस प्रक्रिया में कोई परेशानी तो नहीं हुई पर अगली फ्लाइट 2 घंटे बाद की थी अगर हमारी फ्लाइट मिस नहीं हुई होती तो अब जिस समय हमें चलना है उस समय हम वाशिंगटन में उतर रहे होते। हम काफी निराश थे क्योंकि वाशिंगटन में हमारा स्टे सिर्फ 1 दिन का था। हमें लग रहा था अगर वहां हम सुबह जल्दी पहुंच जाएंगे तो पूरा दिन घूमने के लिए मिल जाएगा पर अब आधा दिन तो यूं ही बीत रहा था शेष आधा दिन ही बचा था। वैसे भी शिकागो और वाशिंगटन के टाइम में 1 घंटे का अंतर है अगर शिकागो में 9:00 बज रहे हैं तो वाशिंगटन में 10:00 बज रहे होंगे आखिर हमारी फ्लाइट का समय हो गया और हम चल पड़े।
वाशिंगटन डी.सी.
वाशिंगटन के समय के अनुसार लगभग 11:00 बजे हम वाशिंगटन डी.सी. के बाल्टीमोर एम.डी. (बीडब्ल्यू. आई. ) एयरपोर्ट पर उतरे। सामान अपने साथ ही रखने के कारण हमें सामान आने का इंतजार नहीं करना पड़ा। हम सीधे ही एयरपोर्ट से बाहर निकल आए। एयरपोर्ट से होटल जाने के लिए हमने पहले से ही शटल वैन बुक करा रखी थी। बाहर खड़ी शटल टैक्सी को हमने अपनी बुकिंग बताई तो उसके ड्राइवर ने कहा, 'आपने इंटरनेट से बुकिंग की है इसलिए टिकट और टैक्सी नंबर आपको अंदर बुकिंग काउंटर से लेना पड़ेगा।'
टिकट और टैक्सी नंबर के लिए आदेश जी को फिर से अंदर जाना पड़ा इस प्रक्रिया में भी लगभग आधा घंटा और लग गया। लगभग 45 मिनट की ड्राइव के पश्चात हम अपने लिए पहले से ही बुक होटल चर्चिल पहुंचे। $ 55 किराया हमें एयरपोर्ट से होटल पहुंचने में देना पड़ा।
चर्चिल होटल तथा होटल का कमरा अच्छा था। रेंट भी $ 100 था। समय कम था अतः हम सामान अपने कमरे में रखकर, जल्दी से फ्रेश होकर रिसेप्शन में आए। रिसेप्शन में बैठे व्यक्ति को अपने कम समय की समस्या बताते हुए वाशिंगटन कैसे घुमा जाए के संदर्भ में हमने उससे सारी जानकारियां प्राप्त कीं। उसने हमें पहले कैनेडी साइंस एंड स्पेस सेंटर जाने की सलाह दी तथा उसी ने नाइट टूर की हमारी बुकिंग भी करा दी जो शाम 6:00 बजे से प्रारंभ होना था। हमारे आग्रह पर उसने टैक्सी का भी अरेंजमेंट कर दिया।
हमारे पास 4 घंटे थे। रिसेप्शन से वाशिंगटन टूर बुक लेकर टैक्सी वाले को कैनेडी स्पेस सेंटर ले चलने का निर्देश दिया। टैक्सी चल पड़ी। टैक्सी ड्राइवर ने रास्ते में टैक्सी एक जगह खड़ी की तथा हमसे कहा कि यह वाइट हाउस है अर्थात प्रेसिडेंट हाउस... हम थोड़ा कंफ्यूज हुए क्योंकि हमारे मनमस्तिष्क में व्हाइट हाउस की एक दूसरी तस्वीर अंकित थी। फिर भी हमने वहां खड़े होकर फोटो खिंचवाई तथा कंफ्यूज माइंड के साथ टैक्सी में बैठकर अपने गंतव्य स्थल की ओर चल दिए। लगभग 10 मिनट की ड्राइव के पश्चात हम कैनेडी साइंस एवं स्पेस सेंटर पहुंचे। टैक्सी वाले ने हमसे $12 टैक्सी का किराया लिया।
कैनेडी स्पेस सेंटर में अच्छी खासी भीड़ थी। यहां रॉकेट के कई मॉडल थे। अपोलो 15 की बेसलेट तथा लैंडिंग साइट का चिन्ह संजोकर रखा था वहीं अपोलो 16 के द्वारा लाया राक यानी चट्टान का एक टुकड़ा (एंथ्रोसिस्ट) जो पुरानी ल्युनर क्रस्ट (चंद्रमा का टुकड़ा) से बना था तथा जिसकी उम्र डेटिंग की आर्गन विधि द्वारा 4.19 बिलियन पुरानी बताई गई है, वह भी दर्शकों के दर्शनार्थ रखा हुआ था। इसके साथ ही अपोलो 17 द्वारा लाई मिट्टी जो विभिन्न साइज के पार्टीकल के द्वारा बनी थी, का सैंपल भी वहां था । कुछ एस्ट्रोनेट तथा चंद्रयानों के बारे में जानकारी के अलावा उनके कपड़े तथा मॉडल भी वहां रखे हुए थे। सबसे पहले चंद्रमा पर उतरने वाली चार पहिया वाली गाड़ी ( रोवर ) का मॉडल अलग आकर्षण पैदा कर रहा था। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि कुछ वृद्धजन भी व्हीलचेयर पर बैठकर इस स्पेस सेंटर को देख रहे थे।
लगभग एक घंटा यहां व्यतीत करने के बाद हम बाहर निकले। दोपहर के 2:00 बज रहे थे। सुबह से कुछ खाया नहीं था। अब भूख लगने लगी थी। बाहर निकले तो बाहर एक बड़े से मैदान में एक ओपन एयर रेस्टोरेंट नजर आया जहाँ कुछ टेबिल कुर्सियां भी थीं। चाय तो मिली नहीं , आदेश जी कॉफ़ी और बर्गर लेकर आ गए। कॉफ़ी बड़े ग्लास में थी जिसके ऊपर कवर था। उसके साथ ही स्ट्रॉ भी थी। इतने बड़े कप में कॉफी देखकर लगा अगर एक ही कप कॉफी लेते तो ज्यादा अच्छा था। हम जहां बैठे थे वहां से वाइट हाउस तथा एक कुतुब मीनार जैसी संरचना नजर आ रही थी जिसे वॉर मेमोरियल शहीदों की याद में बना स्मृति स्थल बताया गया। उसे देखकर हमें हमारे देश की राजधानी दिल्ली में स्थित 'अमर जवान ज्योति' की याद आ गई। अंतर सिर्फ इतना था कि हमारे भारत में वीर सैनिकों की याद में अमर जवान ज्योति सदैव जलती रहती है पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। कॉफी पीते-पीते होटल चर्चिल से प्राप्त वाशिंगटन डी.सी. का टूरिस्ट लिटरेचर पढ़ने लगी। तब पता चला जिसे मैं अभी तक वाइट हाउस समझ रही थी वह वास्तव में यू.एस. कैपिटल अर्थात अमेरिकी संसद है। मन ही मन टैक्सी वाले को मैंने धन्यवाद दिया जिसने हमें व्हाइट हाउस के सामने रोककर उसके बारे में बताया था।
लिटरेचर पढ़ते-पढ़ते मन में विचार आया कि वाशिंगटन को वाशिंगटन डी.सी. क्यों कहा जाता है इसका उत्तर भी तुरंत ही मिल गया। अमेरिकी कांग्रेस ने सन 1790 में रेजिडेंस एक्ट पास किया था, उसके अनुसार प्रेसिडेंट जॉर्ज वाशिंगटन ने एक एरिया (जगह ) का चुनाव किया था जो पोटमैक रिवर के पास था जिसे अब यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका की राजधानी कहा जाता है। संविधान ने उसे फेडरल डिस्ट्रिक्ट (अनेक स्वतंत्र राज्यों का जिला) के रूप में स्थापित किया है । फेडरल डिस्ट्रिक्ट को पहले जॉर्ज वाशिंगटन के सम्मान में वाशिंगटन सिटी कहा गया और उसके चारों ओर के भूभाग को अमेरिका की खोज करने वाले क्रिस्टोफर कोलंबस के सम्मान में टेरिटरी ऑफ़ कोलंबिया... कोलंबिया का भूभाग कहा गया। सन 1871 में कांग्रेस ने एक एक्ट पास किया जिसके अनुसार वाशिंगटन सिटी और टेरिटरी ऑफ़ कोलंबिया को एक कर दिया गया तथा एक नया नाम डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया (कोलंबिया का जिला) दिया गया क्योंकि उस समय तक वाशिंगटन सिटी को अमेरिका की कैपिटल के रूप में जाना जाने लगा था अतः दोनों को एक करने के कारण इसको वाशिंगटन डी.सी. कहा जाने लगा डी.सी. का अर्थ है डिस्ट्रिक्ट आफ कोलंबिया।
अभी हमारे पास समय था। शाम को तो हमारी बुकिंग थी ही, हम केनेडी स्पेस सेंटर के पास स्थित नेशनल आर्ट गैलरी चले गए क्योंकि वह सिर्फ 5:00 बजे तक ही खुली रहती है। उसमें कई दीर्घाएं थीं। किसी में पेंटिंग तो किसी में स्टैचू... एक जगह तो लिंकन मेमोरियल का पूरा मॉडल ही बना हुआ था । आर्ट गैलरी काफी विस्तृत क्षेत्र में फैली होने के कारण पूरी देख पाना तो हमारे लिए संभव नहीं था पर फिर भी हमने कई गैलरी देखी तथा कुछ फोटोस भी खींचे। 5 कैसे बज गए पता ही नहीं चला। समय की पाबंदी के कारण हमें बाहर निकलना पड़ा।
कुछ देर हम बाहर पड़ी बेंच पर बैठकर नजारा देखते रहे फिर सोचा वहाँ चलना चाहिए जहां से हमें टूरिस्ट बस पकड़नी है। बस को यूनियन स्टेशन से जाना था। टैक्सी पकड़कर हम लगभग 10 मिनट में स्टेशन पहुंच गए। बस जाने में अभी देरी थी। वाशिंगटन से न्यूयार्क जाने के लिए हमने ट्रेन में रिजर्वेशन कराया था क्योंकि हम वहां के विभिन्न मोड ऑफ ट्रांसपोर्ट के बारे में जानना और समझना चाहते थे। यूनियन स्टेशन से ही हमारी ट्रेन को चलना था।
यहाँ ट्रेन सर्विस को आर्मट्रेक कहा जाता है। हमारे पास ई टिकट था। हमें बताया गया था कि हमें वह टिकट दिखा कर दूसरी टिकट लेनी है। हमारी ट्रेन सुबह की थी फिर भी हम वहां का सिस्टम जाने के लिए अंदर गए। यहां हमारे देश की तरह प्लेटफार्म टिकट लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी। हम अंदर गए तो बड़े-बड़े रेस्टोरेंट तथा दुकानें नजर आईं जहां विभिन्न तरह का सामान मिल रहा था। स्नेक से लेकर कपड़ों तक की विभिन्न दुकानें थी पर ट्रेन की पटरी कहीं नजर नहीं आ रही थी। हम रिजर्वेशन काउंटर में लगी लाइन में लग गए। हमारा नंबर आने पर काउंटर पर खड़े व्यक्ति ने हमारा ई टिकट देखकर प्लेन के बोर्डिंग पास जैसा टिकट हमें दिया। उसमें गेट नंबर भी लिखा हुआ था। पूछने पर उसने हमसे आधे घंटे पहले पहुंचने के लिए कहा। समय अभी भी बाकी था। सामने मैकडोनाल्ड दिखाई दिया। हम उसमें यह सोच कर चले गए कि चलो कुछ स्नेक ले लिया जाए जिससे रात को डिनर की आवश्यकता ही न पड़े । आदेश जी फ्रेंच फ्राई तथा दो बड़े गिलास स्प्राउट लेकर आ गए। मुझे कोल्ड ड्रिंक ज्यादा पसंद नहीं है। अपने भारत में अगर कोई ऑफर करता है तो या तो मैं मना कर देती हूँ या बहुत थोड़ी लेती हूँ। इतना बड़ा ग्लास देखकर मैंने लेने से मना किया तो आदेश जी ने कहा,' ले लो 2:30 डॉलर की मिनरल वाटर की 1 लीटर की बोतल है। लगभग इतने की ही यह है।सादे पानी की जगह यही ठीक लगा इसलिए ले आया।'
बाहर निकले तो एक दो जगह नल दिखे जिनकी टोटी ऊपर की ओर थी। अर्थात पानी ऊपर से नीचे की ओर आ रहा था तथा लोग उसकी धार के आगे मुंह लगाकर पी रहे थे। हमारा इस तरह से पानी पीने का मन नहीं किया। खा पीकर बाहर निकले तो बस का समय हो गया था।
हमारी बस सामने ही खड़ी थी। हम उस में बैठ गए। बस बहुत ही सामान्य थी। सभी सवारियों के बैठते ही बस चल पड़ी। बस एक मेक्सिकन महिला चला रही थी।वही कंडक्टर तथा गाइड का काम भी कर रही थी। उसके शब्द ठीक से समझ में न आने के कारण हम उसकी पूरी बात समझ नहीं पा रहे थे पर फिर भी काम चल रहा था। वहां के दर्शनीय स्थलों व्हाइट हाउस , यू.एस. कैपिटल, वाशिंगटन मॉन्यूमेंट ,सुप्रीम कोर्ट, बोटैनिकल गार्डन दिखाते हुए उसने बस अमेरिका के पूर्व प्रेसिडेंट रुजवेल्ट के नाम पर निर्मित रूजवेल्ट मेमोरियल में रोकी। यहां घूमने के लिए हमें लगभग 1 घंटे का समय दिया। पार्क नुमा रुजवेल्ट मेमोरियल काफी बड़े हिस्से में फैला हुआ है। इसमें अमेरिका के प्रेसिडेंट रूजवेल्ट की मूर्ति के अलावा कई जगह फाउंटेन बने हुए हैं तथा जगह-जगह पत्थरों पर उनके उपदेश खुदे हुए हैं। पोटो मैक रिवर के किनारे बनाया मेमोरियल देखने लायक है।
अब अंधेरा हो चला था ।यहां अंधेरा भारत की तुलना में देर से होता है लगभग आठ, 8:30 बजे ...हमारी यात्रा पुनः प्रारंभ हुई। इस समय बस ने हमें लिंकन मेमोरियल के सामने उतारा। यह भी काफी बड़ा स्मारक है पर इस समय तक हम काफी थक गए थे अतः ऊपर चढ़कर नहीं गए। नीचे से ही हमने फोटोग्राफी की। इसके बाद हमारी बस उस जगह रुकी जो वियतनाम में हुए शहीदों के नाम पर बनाया गया है । यहां फोटोग्राफी करते हुए हम सोच रहे थे कि व्यर्थ ही यह प्रचारित किया जाता है कि इन पाश्चत्य देशों के व्यक्तियों के मन में भावनाओं और संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता है। अगर यह सच होता तो व्यक्ति विशेष की याद में बनाए रूजवेल्ट और लिंकन मेमोरियल के साथ वार मेमोरियल और वियतनाम में शहीद हुए शहीदों के नाम पर बने इन मेमोरियलों का अस्तित्व ही नहीं होता।
इन स्थानों के बाद कुछ अन्य स्थानों को बस में बैठे- बैठे ही घुमाया और अंततः हमें यूनियन स्टेशन छोड़ दिया ।
हमें दुख था तो इस बात का कि कहां तो हम सोच रहे थे कि बस के टूर के जरिए हमें वाइट हाउस, वाशिंगटन मोनुमेंट, यू. एस. कैपिटल के नजदीक जाने का अवसर मिलेगा या कुछ देर तो बस वहां रुकेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अगर ऐसा पता होता तो जब हम कैनेडी स्पेस सेंटर गए थे तभी यू.एस. कैपिटल और वाशिंगटन मोनुमेंट के नजदीक तक जा सकते थे क्योंकि वे दोनों ही स्थान वहां से बहुत ही पास थे पर हम यह सोचकर नहीं गए कि जब टूरिस्ट बस से टिकट बुक करा ही लिया है तब उसी समय देख लेंगे। इस समय बस से इन स्थानों को दूर से ही देख कर संतोष करना पड़ा पर अब कुछ कर भी नहीं सकते थे क्योंकि अब हमारे पास समय ही नहीं था सुबह ही हमें न्यूयॉर्क के लिए निकलना था।
वाशिंगटन का यू.एस. कैपिटल वाला एरिया हमें काफी कुछ अपने दिल्ली के राजपथ जैसा लगा। वैसी ही शांति , वैसी ही भव्य इमारत...अंततः हमने अपने होटल की ओर जाने के लिए टैक्सी पकड़ी। कुछ दूर ही गए होंगे कि टैक्सी वाले ने हमसे पूछा , ' क्या हम भारत से आए हैं ?'
हमारे सकारात्मक उत्तर पर वह भावुक हो उठा वह दिल्ली से था। करीब 20 वर्षों से वह यहां रह रहा था पर फिर भी घर की याद उसे बेचैन कर देती थी। उसका कहना था कि अपना भारत जैसा कोई देश नहीं है। पैसा कमाने के लिए वह यहां आया था। सोचा था कुछ दिन यहां रहकर घरवालों के गरीबी दूर कर दूंगा फिर अपने देश लौट जाऊंगा पर धीरे-धीरे उसकी आवश्यकता मजबूरी बनती गई और अब वह चाह कर भी घर नहीं लौट पा रहा है। होटल पहुंचकर हमने उसे किराया देना चाहा तो वह मना करने लगा बोला, ' आप तो मेरे ही देश से हो भला अपने भाई बंधुओं से क्या लेना।'
हमारे बहुत समझाने पर वह पैसे लेने को तैयार हुआ। उसकी भावनाओं और उसके व्यवहार ने हमें इतना भाव विभोर किया कि बरबस दिलो-दिमाग में पंकज उधास का गाना... चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है... घूमने लगा । न जाने क्यों ऐसा महसूस होने लगा यह गाना किसी ने ऐसे ही नहीं लिख दिया वरन ऐसी ही किसी परिस्थिति ने लेखक की भावनाओं को कागज पर उतारा होगा। वैसे भी जो कथा, कहानी ,गीत दिल की गहराइयों में उतर कर लिखी जाती है, वही पाठकों के दिल में स्थान बना पाती है।
देश प्रेम की भावना देश से दूर जाने पर ही शिद्दत से महसूस होती है। अपने लोग बहुत याद आते हैं अगर ऐसा नहीं होता तो विदेशी धरती पर हम भारतीय अपनी संस्कृति को जीवित रखने के प्रेम में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे नहीं बनाते ...भारत से जुड़े रहने की कोशिश में ही भारतीयों ने विदेशी धरती पर भारतीय मार्केट या रेस्टोरेंट भी बना लिए हैं। यहां आकर कुछ देर के लिए ही सही व्यक्ति अपने देश की माटी से जुड़ाव महसूस कर प्रसन्नता पाने की कोशिश कर ही लेता है।
भावुक मन से हमने होटल में प्रवेश किया। काफी थके थे अतः कमरे में रखे कॉफी मेकर में दो कप कॉफी बनाई तथा साथ में लाए स्नेक्स के साथ कॉफी पीकर सोने की तैयारी करने लगे। कल हमें अपने दूसरे पड़ाव के लिए निकलना था। होटल के रिसेप्शन पर हमने सुबह 5:00 बजे ही टैक्सी बुलाने के लिए कह दिया था। यद्यपि ट्रेन 7:00 बजे की थी पर शिकागो में प्लेन छूट जाने के कारण हमने समय से पहले पहुंचने का मन बना लिया था। सुबह फ्रेश होकर कॉफी पी ही रहे थे कि रिसेप्शन से टैक्सी आने की सूचना आ गई। हम शीघ्रता से नीचे आए तथा चेक आउट करके लगभग 1 घंटे पहले ही हम यूनियन स्टेशन पर पहुंच गए। हम टिकट में दिए गेट पर पहुंचे तो देखा कुछ यात्री हमारी तरह ही वहां बैठे हुए हैं। यहां की व्यवस्था तथा माहौल अपने देश के स्टेशन से एकदम अलग था। यहां भीड़ भाड़ का नामोनिशान नहीं था। सच तो यह है कि यहां रेलवे स्टेशन को भी एयरपोर्ट की तरह विकसित किया गया है तथा उसी तरह की व्यवस्था है । एयरपोर्ट की तरह ही लगभग 20 मिनट पहले गेट खुला। गेट पर उपस्थित व्यक्ति हर व्यक्ति की टिकट चेक करके ही अंदर जाने दे रहा था। हम भी औरों की तरह गेट के अंदर प्रविष्ट हुए तथा अन्य सहयात्रियों का अनुसरण करते हुए आगे बढ़े। एलिवेटर से नीचे उतरते ही हम प्लेटफार्म पर आ गए। ट्रेन खड़ी थी कोई सीट नंबर नहीं था अतः जो भी डिब्बा सामने पड़ा हम उसमें बैठ गए। ट्रेन हमारे देश में चलने वाली शताब्दी एक्सप्रेस जैसी थी । वैसा ही सीटिंग अरेंजमेंट था। अंतर था तो सिर्फ इतना कि इसमें नाश्ते एवं खाने की व्यवस्था नहीं थी। अगर किसी को कुछ लेना हो तो वह ट्रेन में उपस्थित पैंट्री कार से ला सकता है।
धीरे-धीरे एक के बाद एक स्टेशन गुजरते जा रहे थे। भारत जैसे ही प्लेटफार्म , वैसे ही बैनर... हां यह अवश्य है कि यहां प्लेटफार्मो में साफ-सफाई भारत की तुलना में अधिक थी तथा भीड़ भाड़ भी हमारे देश के स्टेशनों जितनी नहीं थी। ट्रेन की खिड़की से निहारते निहारते हुए ऐसा लगा कि चाहे हम दुनिया के किसी भी हिस्से में क्यों न चले जाएं प्राकृतिक संपदा तो प्रत्येक स्थान में एक जैसी ही रहेगी। यह अवश्य है प्रकृति विभिन्न समय और जलवायु के अनुसार विभिन्न स्थानों में विभिन्न सौंदर्य बिखेरेगी। नदी, नाले ,तालाब तथा पहाड़ इत्यादि हर जगह एक जैसी ही सुंदरता या कुरूपता प्रदान करेंगे। यही कारण था कि यहां भी भारत जैसे ही खेत, छोटे बड़े घर, कहीं कहीं गंदगी भी दिख रही थी। इसी बीच टिकट चेकर आकर टिकट चेक कर गया।न्यूयॉर्क
साढ़े 4 घंटे की यात्रा के पश्चात हम न्यूयॉर्क के पेंसिलवेनिया स्टेशन पर उतरे जो मेनहट्टन के बीच में स्थित है। हम बाहर निकले तथा टैक्सी पकड़ने के लिए लगी कतार में खड़े हो गए। जब हमारा नंबर आया तो टैक्सी अरेंज कर रहे व्यक्ति ने एक टैक्सी की ओर इशारा करते हुए हमसे बैठने को कहा। ठीक इसी तरह की कतार हमने हमारे देश के कलकत्ता शहर में देखी थी। वहां भी इसी तरह से नंबर आने पर टैक्सी में बैठने को हमसे कहा गया था। हम टैक्सी में जाकर बैठ गए टैक्सी वाले ने हमसे हमारे जाने की जगह पूछी। न्यूयॉर्क मैं भी हमारा होटल पहले से ही बुक था। पता बताते ही टैक्सी दौड़ पड़ी। होटल फिफ्थ एवेन्यू पर स्थित था...नाम था 373।
अब हम न्यूयॉर्क सिटी में प्रवेश कर रहे थे। गगनचुंबी इमारतें जहां मन को आंदोलित कर रही थी वही करीने से चलता ट्रैफिक यहां के निवासियों के ट्रैफिक सेंस को दर्शा रहा था। सबसे बड़ी बात यह थी कि सभी गाड़ियां अपनी-अपनी लेन में चल रही थीं तथा कोई भी हॉर्न नहीं बजा रहा था। दरअसल यहां अति आवश्यक परिस्थितियों में ही हॉर्न बजाया जाता है वरना फाइन लग जाता है।
मैंने पढ़ा था कि न्यूयॉर्क हडसन नदी के किनारे बसा अमेरिका के सबसे बड़ा तथा खूबसूरत शहरों में से एक है । यह न्यूयार्क राज्य में है, जो अमेरिका के उत्तरपूर्वी भाग में स्थित है।
न्यूयार्क नगर सन 1790 से अमेरिका का सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर है। न्यूयार्क का महानगरीय क्षेत्र विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या वाले महानगरीय क्षेत्रों में से एक है। यह विश्व का एक प्रमुख महानगर है जो विश्व व्यापार, वाणिज्य, संस्कृति, फैशन और मनोरंजन के लिए विश्वविख्यात है। संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय यहाँ स्थित होने के कारण यह नगर अन्तर्राष्ट्रीय मामलों गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया है।
अटलांटिक महासागर की ओर मुख किए हुए विशाल बंदरगाह वाले इस महानगर में पाँच बरो (प्रशासनिक इकाईयाँ) हैं... ब्रॉन्क्स, ब्रुक्लिन, मैनहटन, क्वींस और स्टेटन द्वीप। नगर की अनुमानित जनसंख्या लगभग ८२ लाख है जो 790 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बसी हुई है। अपनी जनसंख्या के कारण न्यूयार्क अमेरिका का सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाला नगर है। न्यूयार्क महानगरीय क्षेत्र की अनुमानित 1.88 करोड़ की जनसंख्या भी अमेरिका में सर्वाधिक है, जो 17,400 किमी के क्षेत्र
न्यूयॉर्क शहर, संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वोत्तर में न्यूयॉर्क राज्य में वॉशिंगटन, डी॰ सी॰ और बोस्टन के मध्य स्थित है। हडसन नदी के मुहाने पर स्थित होने के कारण तथा अटलांटिक महासागर, ने न्यूयॉर्क शहर को एक व्यापारिक बंदरगाह के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना दिया है। अधिकांश न्यूयॉर्क शहर आइलैंड, मैनहट्टन, और स्टेटन द्वीप के तीन द्वीपों को मिला कर बनाया गया है।
हडसन नदी अमेरिकी राज्य न्यू जर्सी को शहर से अलग करती है। न्यूयॉर्क शहर की खूबसूरती न केवल इसकी गगनचुंबी इमारतें हैं वरन संसार के सात आश्चर्यों में से एक 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी ' भी यहाँ स्थित है। हमारे मुम्बई की तरह न्यूयॉर्क अमेरिका की आर्थिक राजधानी भी है...।
होटल पहुंचकर हमने सामान रखा तथा अपने प्रोग्राम के अनुसार हम संसार के सात आश्चर्यों में से एक स्टैचू ऑफ लिबर्टी को देखने के लिए चल दिए...।
स्टेच्यू आफ़ लिबर्टी
टैक्सी से न्यूयॉर्क हार्वर पहुंचने में हमें लगभग 20 से 25 मिनट लगे। यह 19वीं शताब्दी से मध्य बीसवीं शताब्दी तक लाखों प्रवासियों के लिए यह न्यूयार्क का ऑफिशियल पोर्ट था। 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी' के लिए टिकिट बैटरी पार्क में स्थित कास्टल क्लिंगटन नेशनल मॉन्यूमेंट में स्थित काउंटर से लेनी होती है। मेनहट्टन आइसलैंड के दक्षिण की ओर बने इस बैटरी फोर्ट का निर्माण न्यूयॉर्क हार्वर के बचाव के लिए किया गया था। यह किला सन 1812 के युद्ध के समय यू.एस. आर्मी का हेड क्वार्टर था। यहां पहुंच कर हम टिकट की कतार में लग गए।
स्टैचू ऑफ लिबर्टी समुद्र के बीचो-बीच बने टापू पर स्थित है जहां केवल शिप द्वारा ही जाया जा सकता है। शिप (फेरी सर्विस) 9.30 से 3.30 तक रोजाना बैटरी पार्क लोअर मैनहैटन तथा लिबर्टी स्टेट पार्क न्यू जर्सी से चलते हैं । इसकी राउंडट्रिप टिकिट मिलती है जो 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी 'के साथ ' एलिस आइसलैंड ' भी घूमाती है। फेरी के टिकट का मूल्य बच्चों के लिए $5 (12 वर्ष तक) $12 (62 वर्ष तक) तथा $10 (62 से अधिक उम्र )के लोगों के लिए रखी गई है।
जैसे ही हम टिकट काउंटर की कतार में खड़े हुए , घोषणा हुई कि 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी 'के अंदर जाकर देखने के टिकट समाप्त हो गए हैं, सिर्फ बाहर से ही उसे देखा जा सकता है। हमारे पास कोई ऑप्शन नहीं था क्योंकि न्यूयॉर्क में हमें सिर्फ 2 दिन ही रहना था। अगर आज टिकट नहीं लेते हैं तो कल फिर आना पड़ता। अगर स्टैचू ऑफ लिबर्टी को कल के लिए छोड़ते हैं तो हो सकता है हम न्यूयार्क के अन्य स्थानों को नहीं देख पाते हैं।
बाहर आए तो देखा फिर एक लंबी कतार हमारा इंतजार कर रही है। इतनी लंबी कहीं उसका ओर छोर ही नजर नहीं आ रहा था। कहते तो हैं कि अमेरिका की जनसंख्या कम है पर यहां का नजारा देख कर तो ऐसा नहीं लग रहा था। आदेश जी ने मुझे बैठने के लिए कहा तथा स्वयं लाइन में लगने के लिए चले गए। मैं वहीं रेलिंग के किनारे बने स्पेस में बैठकर चारों ओर निहारने लगी। गेटवे ऑफ इंडिया और ताज होटल के खूबसूरत नजारे को छोड़ दें तो समुद्र में खड़े शिप तथा नावें काफी कुछ मुंह मुंबई के दृश्य की याद कराने लगी थीं। वैसे ही समुद्र की अठखेलियां करती लहरें, लहरों पर लहराते जलयान... नजारों को आंखों ही आंखों में कैद कर लेना चाहती थी कि तभी कहीं से एक आदमी आया तथा एक आदमी को इंगित करते हुए कहने लगा, ' आपने चीटिंग की है आप बीच में ही कतार में लग गए हैं।'
उस आदमी ने सकपका कर इधर-उधर देखा फिर थोड़ी देर पश्चात उसने उसकी बात पर ध्यान देना बंद कर दिया। उस आदमी ने दो तीन बार अपनी बात कही पर किसी को अपनी बात पर ध्यान ना देता देख वह चला गया। उसे देखकर मुझे लगा कि कहीं यह आदमी पागल तो नहीं, पर अमेरिका में... अभी सोच रही थी कि कहीं से संगीत की सुमधुर ध्वनि सुनाई देने लगी... नजर घुमाई तो पाया एक आदमी काफी मनोयोग से गिटार बजा रहा है तथा कुछ लोग उसके पास रखे कटोरे में सिक्के डाल रहे हैं। यद्यपि वह आदमी काफी सभ्य लग रहा था तथा अपने गिटार से धुन भी काफी मनोहारी निकाल रहा था पर फिर भारतीय मन सोचने को विवश हुआ कि यह भी तो एक तरह की भीख ही है।
आदेश जी के पास आते ही मैं लाइन में सम्मिलित हो गई। बहुत तेज धूप थी कुछ लोग छोटे-छोटे पंखे से हवा कह रहे थे तो कुछ हाथों की ओट से छाया करने का प्रयास कर रहे थे। धीरे-धीरे हम एक हॉल में प्रविष्ट हुए यहां हमें सिक्योरिटी चैक कराना था, ठीक वैसे ही जैसे एयरपोर्ट पर होता है ।इसके बाद हमें शिप में बिठाया गया । शिप भी लगभग वैसा ही था जैसा मुंबई के दर्शकों को एलिफेंटा केव ले जाने के लिए प्रयुक्त होता है। शिप के फुल होते ही शिप चल पड़ा। शिप में बैठकर चारों ओर निहारना बहुत ही अच्छा लग रहा था। चारों तरफ पानी ही पानी तथा बीच-बीच में चलते हैं छोटे-बड़े शिप, दूर से ही नजर आती स्टैचू ऑफ लिबर्टी की मूर्ति... शिप से ही विभिन्न एंगल से उसके कई फोटो खींचे।
लगभग 45 मिनट की यात्रा के पश्चात हम टापू पर पहुंचे। टापू से मूर्तिस्थल थोड़ी दूर है अतः यात्रियों की सुविधा के लिए एक छोटी ट्रेन की भी व्यवस्था है। कुछ सहयात्री तो पैदल ही चल दिए। हमने ट्रेन का इंतजार करना उचित समझा। ट्रेन के आते ही हम सवार हो गए। यह खिलौना गाड़ी की तरह थी। लगभग 10 मिनट में मुख्य स्थल पर पहुंच गए।
टिकट काउंटर से हमने इंट्री पास लिया तथा मूर्ति को पास से देखने के लिए चल दिए। मूर्ति के चारों ओर बाउंड्री बनी थी। अंदर जाकर देखने की हमारी टिकट नहीं थी अतः बाहर से ही देखकर तथा घूम- घूमकर हम फोटो ले रहे थे। तभी आदेश ने एक जगह खड़े होकर स्टैचू की तरह हाथ ऊंचा करके फोटो खिंचवाई। इनका फोटो खिंचवाना था कि अनेक हाथ खड़े हो गए आदेश जी की तरह फोटो खिंचवाने के लिए... तब ऐसा महसूस हुआ कि किसी ने सच ही कहा है कि इंसान कभी बंदर था।
स्टैचू ऑफ लिबर्टी जिसके बारे में अभी तक सिर्फ मैगजीन, टी.वी .या पिक्चर में देखा सुना और पढ़ा था, मेरी आंखों के सामने खड़ी थी। इस मूर्ति को अपनी नंगी आंखों से देखना बहुत ही भला लग रहा था। सचमुच स्टैचू ऑफ लिबर्टी न सिर्फ न्यूयार्क की वरन विश्व की भी सबसे लंबी तथा अद्भुत रचना है। अगर आप अमेरिका जा रहे हैं तो इसे देखने की योजना अवश्य बनाइए ,इसको देखे बिना आपका अमेरिका का अधूरा रहेगा। इसकी अद्भुत कारीगरी को देखते हुए मैं हाथ में लिए हुए लिटरेचर को पढ़ने लगी। जिससे इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकूं।
151 फीट लंबी, कॉपर की बनी मूर्ति जिसे फ्रांस ने अमेरिका को अमेरिकन रिवॉल्यूशन के समय बने एलाइंस की यादगार के रूप में उपहार में दिया था, कलाकार की अद्वितीय रचना है। इसकी ऊंचाई पृथ्वी से मशाल की टिप्स 305 फीट है। मूर्ति की ऊंचाई 151 फीट, इसके पेडेस्टल के ऊंचाई 154 फीट है। इसकी नाक की लंबाई 4 फीट 6 इंच है। सिर्फ यही बात आपके मन मस्तिष्क में इसकी ऊंचाई का नक्शा बना देगी... इसकी कॉपर की खाल की मोटाई 1 इंच का 3.2 (2.37 एम.एम ) या दो सिक्कों की मोटाई के बराबर है। इसकी पतली कॉपर स्किन को स्टील की छड़ों, जो आपस में जाली में गुंथी है , से सहारा दिया गया है तथा यह छड़ें ,चार मुख्य छड़ों से जुड़ी हैं, जिससे की मूर्ति को मजबूती मिल सके।
सच कहें तो इसकी नींव सन 1811 में रख दी गई थी। जब बेडलोए ( जो अब लिबर्टी आइसलैंड ) के नाम से जाना जाता है , में तारे के आकार का वुड फोर्ट बना। लगभग 54 वर्ष पश्चात सन 1865 में फ्रेंच बुद्धिमानों का एक ग्रुप जिसकी अगुवाई एडवर्ड डी. लेबोयूलेय कर रहे थे, के मन में पहली बार लिबर्टी मोनुमेंट का विचार आया तथा इसे मूर्त रूप देने के बारे में उन्होंने आपस में विचार विमर्श किया। वे यूनाइटेड स्टेट अमेरिका को इसे लिबर्टी (आजादी) के प्रतीक के रूप में उपहार में देना चाहते थे क्योंकि उसी समय यहां सिविल वॉर समाप्त होने के साथ दास प्रथा की समाप्ति हुई थी। देश आगे बढ़ना चाहता था। स्मारक तथा इमारत बनाने की नई नीतियां खोजी जा रही थीं लिबर्टी के निर्माण में एक नहीं कई हाथ और दिमाग लगे।
सन 1871 में एडवर्ड डी. बारथोलडी ने अमेरिका का भ्रमण किया तथा न्यूयार्क हारबर में इसके लिए स्थान का चयन किया। सन 1876 में लिबर्टी के हाथ और मशाल का फिलाडेल्फिया में आयोजित शताब्दीय प्रदर्शनी ( सेंटिनियल एक्सपोजिशन) में प्रदर्शन किया गया। सन 1877 में इसके स्थान के चुनाव के लिए कांग्रेस को अधिकार दिए गए। सरकार के पास धन की कमी थी जिसके कारण निजी उपायों के द्वारा इसकी आधारीय संरचना ( पेडस्टल ) के निर्माण के लिए अमेरिका में अभियान चलाया।
सन 1879 में एलेक्जेंडर गोस्टेव एफिल जिन्होंने एफिल टावर का निर्माण किया था, ने इस मूर्ति के अंदरूनी डिजाइन का प्रारूप तैयार किया। सन 1881-84 तक स्टेचू को पेरिस में असेंबल किया गया तथा इसी के साथ बैडलोए आइसलैंड (अब लिबर्टी ) में इसकी नींव का काम प्रारंभ कर दिया गया। सन 1884 में रिचर्ड मौरिस ने पेडेस्टल की पूरी डिजाइन को बना लिया।
सन 1885 में स्टेचू को डिस्मेंटल कर शिप के द्वारा न्यूयार्क लाया गया। उसी समय पेडेस्टल के निर्माण के लिए पूरे देश में जोसेफ पुल्टिजर द्वारा पैसा इकट्ठा करने के लिए अभियान चलाया गया। इसके साथ ही इसको बनाने का काम भी चल रहा था। सन 1886 में स्टेच्यू को असेंबल्ड कर बैडलोए आइसलैंड में 28 अक्टूबर को स्थापित किया गया। इस अवसर पर आयोजित समारोह में अमेरिका को इसे उपहार देते समय फ्रेंच राष्ट्रपति ने कहा... लिबर्टी की यह प्रतिमा फ्रांस को समुद्र पार भी गौरवान्वित करेगी और यह सच साबित हुआ। आज न केवल अमेरिका वरन पूरे विश्व के लोग इस प्रतिमा को देखकर दांतो तले उंगली दबा लेते हैं।
यद्यपि यह विशाल मूर्ति कॉपर की बनी हुई है पर निरंतर हवा पानी के संपर्क में रहने के कारण यह हरे रंग में परिवर्तित हो गई है। हरे रंग में इसकी आभा को क्षीण नहीं वरण दुगणित ही किया है। स्टैचू ऑफ लिबर्टी अपने कई चिन्हों द्वारा स्वतंत्रता का संदेश देती प्रतीत होती है। इसके पैरों की टूटी जंजीर दर्शाती है कि अब क्रूर शासन से मुक्ति मिल गई है। इसका मुख्य आकर्षण इसके दाएं हाथ में स्थित मशाल तथा उसकी लौ न्याय और सच्चाई का संदेश देते हुए दूसरे देश से आए लोगों की आशाओं के लिए प्रकाश की किरण है वहीं बाएं हाथ में स्थित कानून की पुस्तक जिसमें रोमन लिपि में अमेरिका की स्वतंत्रता का दिन 4 जुलाई 1776 अंकित है , के द्वारा शायद इस देश और समाज को अवगत कराया जा रहा है कि एक स्वतंत्र देश में सबको न्याय और बराबरी का दर्जा मिलेगा वहीं इसका क्रॉउन इस बात का संदेश देता है कि यहां अमेरिका में एक आम आदमी भी राजा बन सकता है। इसके क्राउन में बनी सात किरण इस विश्व के सात महाद्वीपों तथा सात समुद्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। सन 1883 में इसकी भव्यता तथा इसमें निहित संदेश से प्रेरित होकर इमा लाजारस नामक कवि ने 'द न्यू कोलोसस ' नामक कविता की रचना की जिसने पेडस्टल निर्माण के लिए धन एकत्रित करने के अभियान को संपूर्णता प्रदान करने में सहायता दी
इस मूर्ति की योजना बनाने तथा इसे साकार करने में लगभग 21 वर्ष लगे। अमेरिका में अधिकतर लोग प्रवासी ही हैं अर्थात दूसरे देश से आकर बसने वाले ...। 19वीं शताब्दी के अंत में अत्यधिक देशांतरवास तथा इसी कारण देशांतर वास रोकने के कड़े नियम बनने के कारण आजादी की प्रतीक यह प्रतिमा निर्वासितों के लिए मां के रूप में उनके मन मस्तिष्क में बस गई। शायद इसीलिए इसे 'मदर ऑफ एक्सजाइल' अर्थात 'निर्वासितों की मां' का नाम भी दिया गया है। वास्तव में यह प्रतिमा उन लाखों प्रवासियों के लिए आजादी का प्रतीक है जो दूसरे देशों से आकर यहां बसे तथा जिन्होंने अपना तन, मन, धन इस देश को उन्नत बनाने में लगा दिया।
पहले विश्व युद्ध के पश्चात 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी' अमेरिका की पहचान बन गई। लगभग 38 वर्ष पश्चात अर्थात सन 1924 में 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी ' को अमेरिका के राष्ट्रीय धरोहर का सम्मान मिला। सन 1933 नेशनल पार्क सर्विस वॉर डिपार्टमेंट से इसके रखरखाव की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। सन 1956 में बैडलोय आइसलैंड का नामकरण लिबर्टी आइसलैंड के रूप में कर दिया गया।
सन 1986 में स्टैचू के शताब्दी समारोह के लिए इसका जीर्णोद्धार कर इस मूर्ति को नई भव्यता प्रदान की गई। सन 2001 में 11 सितंबर को हुए आतंकवादी हमले के कारण यह दर्शनार्थियों के लिए बंद कर दी गई थी किंतु उसी वर्ष 20 दिसंबर को यह आइसलैंड खुल गया पर मूर्ति तक जाने की इजाजत नहीं दी गई। 3 अगस्त सन 2004 को पूर्ण सुरक्षा के इंतजामात के साथ मूर्ति जनता के अवलोकनार्थ पुनः खोल दी गई।
स्टैचू ऑफ लिबर्टी का मुख्य द्वार जो इस स्टैचू के आधार के पीछे वाले भाग में स्थित है, से प्रवेश कर दर्शनार्थी एलिवेटर के द्वारा पेडेस्टल की दसवीं मंजिल तक जा सकते हैं। 24 सीढ़ी चढ़कर मूर्ति के अंदर वाले भाग को तो देखा ही जा सकता है। साथ ही न्यूयॉर्क हार्बर, मैनहट्टन, ब्रुकीलैंड , स्टेटन आइसलैंड तथा न्यूजर्सी के विहंगम दृश्यों का भी आनंद प्राप्त कर सकते हैं। इसके नीचे के टहलने के सार्वजनिक भाग के द्वारा दर्शनार्थी ऐतिहासिक स्थल के द्वारा बाहर निकल सकते हैं।
अगर आप स्टैचू ऑफ लिबर्टी को देखने जाना चाहते हैं तो 25 दिसंबर के अलावा यहां हर दिन जाया जा सकता है। यहां खाने पीने का कोई भी सामान ले जाना वर्जित है। इसके साथ ही बड़ा बैग या कोई हथियार ले जाना भी नियम विरुद्ध है। अन्य सूचनाओं के लिए 212 -363- 3200 पर फोन किया जा सकता है तथा इस वेबसाइट पर भी क्लिक कर सकते हैं www.nps.gov/stli. बैटरी पार्क तथा लिबर्टी स्टेट पार्क न्यू जर्सी से टिकट के लिए क्रमशः 212-269-5755 तथा 201-435-9499 पर फोन कर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।
अब भूख लगाई थी। पास ही ओपन एयर रेस्टोरेंट था। पेट पूजा के इरादे से हम रेस्टोरेंट्स गए। सेल्फ सर्विस थी। मैं खाली जगह देख कर बैठ गई। आदेश जी वेज बर्गर के साथ स्प्राउट का बड़ा गिलास लेकर आ गए तथा कहा कि वेज में और कुछ समझ में नहीं आया तो यहीं ले आया। यहां मुझे भी यही अच्छा लग रहा था अतः खाने लगे। वैसे भी जब भूख लगी हो तब खाने के लिए कुछ भी मिल जाए अच्छा लगने लगता है। अब लौटने का समय हो गया था। हम ट्रेन द्वारा डेक पर पहुंचे तथा शिप पर सवार हो गए। सभी यात्रियों के आते ही शिप अपने अगले गन्तव्य स्थल की ओर चल पड़ा।
एलिस आइसलैंड
अब हमारा अगला गंतव्य स्थान एलिस आइसलैंड था जो स्टैचू ऑफ लिबर्टी के साउथ में स्थित है जिसका नाम इसके मालिक सैमुअल एलिस के नाम पर रखा गया है। मैंने जहाज में बैठे- बैठे टूरिस्ट बुकलेट पढ़नी प्रारंभ कर दी... दरअसल पहले से उस स्थान, जहां हम घूमने जा रहे हैं ,के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान हो तो देखने का मजा दुगना हो जाता है। इसलिए मेरी सदा यही कोशिश रहती है जहां जाए वहां के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी एकत्रित कर लूँ।
एलिस आइसलैंड न्यूयॉर्क हारबर का प्रवेश द्वार है। 100 लाख से अधिक लोगों ने एलिस आइसलैंड के जरिए अमेरिका में प्रवेश किया। प्रेसिडेंट जॉन. एफ. कैनेडी ने अपनी पुस्तक 'रिलेशन ऑफ़ इमिग्रेंट्स ' में लिखा है कि बाहरी देशों से लोगों के अमेरिका आने के कई कारण थे... धार्मिक उत्पीड़न, राजनीतिक कलह, बेरोजगारी, परिवार के किसी व्यक्ति का यहां पहले से रहना या फिर एडवेंचर की खोज।
यहां उपस्थित रिकॉर्ड के अनुसार सन 1892 के आरंभ में 12 लाख से अधिक लोगों ने एलिस आइसलैंड में अपना कदम रखा। अमेरिकी क्रांति के दशकों तक 5,000 लोग प्रतिवर्ष अमेरिका आते थे पर 1900 वीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रत्येक दिन ही इतने लोग आने लगे। 17 अप्रैल 1907 को 11,747 लोगों ने प्रवेश किया... सच तो यह है इन वर्षों में लगभग 12लाख लोगों ने एलिस आइसलैंड के जरिए अमेरिका में प्रवेश किया।
1 जनवरी 1892 को एलिस आइसलैंड में इमीग्रेशन स्टेशन खोला गया था। 5 वर्ष पश्चात इमीग्रेशन स्टेशन जो लकड़ी का बना था, जल गया जिससे वहां स्थित सारे रिकॉर्ड जल गए। सन 17 दिसंबर 1900 को एक नई अग्निरोधी फ्रांसीसी कला संयुक्त इमारत... नए इमीग्रेशन स्टेशन का लोकार्पण हुआ। उस दिन लगभग 2,251 लोगों ने अमेरिका में प्रवेश किया। इसके साथ ही अमेरिका में प्रवेश करने वाले हर यात्री के स्वास्थ्य की जांच होने लगी तथा उनके आने का प्रयोजन जानने तथा रिकॉर्ड रखने के लिए उनसे इस स्टेशन पर नियुक्त इंस्पेक्टर तरह-तरह के प्रश्न पुचनेबलगे अर्थात नाम, कार्य, कहां जाना है तथा उनके पास कितना धन है इत्यादि इत्यादि।
एक ज्यूइश अप्रवासी जो रूस से आया था, को इमीग्रेशन स्टेशन पर उपस्थित ऑफिसर की ड्रेस , उस ड्रेस की याद दिला गई जिसके डर से वह अपना देश छोड़ कर आया था। इसका विवरण भी यहां मौजूद रिकॉर्ड में दर्ज है। नियमानुसार केवल 3% लोगों को न्यूयॉर्क में रोका जाता था तथा अन्य को देश के विभिन्न हिस्सों में जाने के लिए कहा जाता था। केवल 1 या 2% को ही प्रवेश की अनुमति नहीं मिल पाती थी।
1920 में इस आइसलैंड के कार्यभार की जिम्मेदारी यू.एस. कॉन्सुलेट ने ले ली। अब बहुत कम लोग ही आइसलैंड में से प्रवेश करते थे। सन 1954 नवंबर में यह बंद हो गया। 1965 में एलिस आइसलैंड को लिबर्टी नेशनल मॉन्यूमेंट बना दिया गया। इसकी इमारत का पुनःनिर्माण सन 1980 में किया गया तथा 10 सितंबर 1990 को इससे इमीग्रेशन म्यूजियम बना दिया गया। अब एलिस आइसलैंड उन लोगों का यादगार स्थल है जिन्होंने अमेरिका को अपनी कार्य स्थली बनाया।
इस म्यूजियम में स्थित ट्रेजर फ्रॉम होम में अप्रवासियों के द्वारा अपने देश से लाया सामान उनकी यादगार के रूप में स्थित है... उनमें टेडी बेयर, पासपोर्ट, बैग, सूटकेस, होलडोल, फोटो इत्यादि स्वयं अपनी कहानी बयां करते प्रतीत होते हैं।
30 मिनट की फिल्म आइसलैंड ऑफ होप एन्ड टियर के द्वारा इस आइसलैंड के बारे में सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं आप अगर चाहे तो इस स्थान पर स्थित इनफॉरमेशन सेंटर सूचना केंद्र द्वारा ऑडियो तथा गाइडेड टूर भी ले सकते हैं।
यहां स्थित अमेरिकन फैमिली इमीग्रेशन हिस्ट्री सेंटर में नया शोध संस्थान स्थित है जो यहां के सारे रिकॉर्ड रखता है इसी के अनुसार 1892-1929 तक 22 लाख व्यक्ति न्यूयॉर्क पोर्ट से एलिस आइसलैंड में आए। इसके अतिरिक्त यहाँ कंप्यूटराइज्ड जैनोलॉजी सेंटर है जिसमें 1892 -1924 तक आये प्रवासियों के नाम और पते सुरक्षित हैं।
'अमेरिकन इमीग्रेशन वॉल ऑफ आनर' जो मुख्य मार्ग के बाहर स्थित है, में मॉनिटरी कंट्रीब्यूशन 'आर्थिक भागीदारी' के द्वारा लगभग 6 लाख लोगों के नाम इसमें खुदे हैं। इसके आसपास अस्पताल, संक्रामक रोग वार्ड, डॉक्टरों के घर, मेंटेनेंस तथा अन्य ऑफिस, फेरी टर्मिनल( जहाज के आवागमन का स्थान) स्थित है।
एलिस आइसलैंड सुबह 9:30 से शाम 5.00 बजे तक खुला रहता है। अगर आप इसको अच्छी तरह देखना चाहते हैं तो कम से कम 3 घंटे का समय लेकर जाइये। यहां स्थित 30 गैलरियों के द्वारा आप अमेरिका में आए इमीग्रेंटस के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मैं अभी पढ़ ही रही थी कि हमारा पड़ाव आ गया।
यहां उतरते ही हमने सबसे पहले एक बड़े से हॉल में प्रवेश किया। हॉल में प्रवेश करते ही हमें कुछ सामान...जैसे कुछ बक्से, होलडोल नुमा चीजें रखीं नजर आईं। पूछने पर पता चला यह सामान उन लोगों का है जो पहले पहल अमेरिका में आये थे। दरअसल 1600 वीं शताब्दी में लोग नई बसने योग्य भूमि की खोज करते -करते यहां आए तथा यहां आकर बस गए। इस आइसलैंड में स्थित अमेरिकन वाल ऑफ ऑनर में 1892-1924 तक आये लोगों लगभग 600,000 से अधिक इमिग्रेंट्स (एक देश से दूसरे देश में बसने वालों ) के नाम यहां खुदे हुए हैं। यहां तक कि यहां एक गैलरी में कुछ लोगों के चित्र भी मौजूद हैं। साथ ही कुछ स्टेचूज के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है किस अनुपात में स्त्री और पुरुष इस आइसलैंड में आए थे।
यहां स्थित कंप्यूटराइज जिओलॉजी सेंटर में 1892-1924 में आये लोगों के नाम दर्ज हैं। 28 मिनट की फिल्म आइसलैंड ऑफ होप तथा आइसलैंड ऑफ टियर के द्वारा उन प्रवासियों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है जो जहाज के द्वारा अमेरिका आए थे। इन प्रवासियों का न्यूयॉर्क के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें अधिकतर कुशल कामगार थे जो कम से कम दैनिक भत्ते में भी काम करने को तैयार थे। उन्होंने सड़कें, पुल इत्यादि बनाएं जिससे ट्रांसपोर्ट सिस्टम में सुधार हुआ, जिसके कारण न्यूयॉर्क सिटी मेट्रोपोलिस में परिवर्तित हो गया।
यह आईसलैंड प्रवासी यात्रियों के लिए अमेरिका में प्रवेश का गेट वे था। इस बात को ऑडियो तथा वीडियो के द्वारा भी दर्शाया तथा जानकारी दी जा रही थी। तभी हमारी नजर रिसेप्शन काउंटर पर पड़ी। न्यूयॉर्क में हमें और कहां-कहां घूमना चाहिए, इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए हम रिसेप्शन काउंटर पर गए। काउंटर पर बैठे रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कुराकर हमारा स्वागत किया। जब हमने उसे बताया कि हम इंडिया से हैं तथा पहली बार यहां घूमने आए हैं। तब उसने मुख्य स्थल बताने के साथ हमें 'न्यूयॉर्क टूर बुक' देते हुए एक बार मुस्कुराहट के साथ कहा,' इंजॉय योर जर्नी...।'
उसकी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा। यही सद्भावना मुस्कुराहट से सजे बोल हमें अनजान जगह में भी अपनों जैसा साथ और सुकून दे गए। जैसा मैंने एलिस आइसलैंड के बारे में पढ़ा था वैसा ही पाया।
लौटते हुए हम सोच रहे थे कि कल की प्लानिंग कैसे की जाए !! न्यूयॉर्क टूर का पास खरीदा जाए या जो जगह अच्छी लगे वह अपने आप ही घूम ली जाए। खैर आज तो कहीं घूमना नहीं था अतः वहीं समय समुंदर के किनारे बैठ कर डूबते सूरज का नजारा देखने लगे। डूबता सूरज तथा उसकी समझ में अठखेलियां करती किरणें अलग ही नजारा पेश कर रही थीं। इस दृश्य को आंखों में समेटे हमने टैक्सी से अपने होटल की ओर प्रस्थान किया।
रास्ते में हमने टैक्सी वाले से वहां की प्रसिद्ध एंपायर स्टेट बिल्डिंग के बारे में पूछा तो उसने चलती टैक्सी से एक बिल्डिंग की ओर इशारा किया। मुझे उसकी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि वह इमारत बहुत ही घनी आबादी वाले स्थान में स्थित थी। मुझे लग रहा था कि ऐसी इतिहास प्रसिद्ध इमारतें आबादी से थोड़ा दूर होतीं हैं। अंततः उसने हमें होटल से थोड़ा पहले यह कह कर छोड़ दिया कि यहां वन वे है। आपको, आपके होटल तक छोड़ने के लिए काफी घूमकर जाना होगा। आपका होटल पास ही है अतः आपके लिए यही अच्छा है कि आप यहां से पैदल ही चले जाएं वरना किराया काफी बढ़ जायेगा।
हम उसकी बात मान कर उतर गए पर उसकी साफगोई ने हमारा मन मोह लिया था वरना वह भारत के कुछ टैक्सी ड्राइवर की तरह इधर-उधर घुमाते हुए हमें हमारे होटल तक लाता। मीटर बढ़ रहा है या नहीं, उसकी उन्हें चिंता नहीं होती है। उन्हें तो सिर्फ पैसों से मतलब होता है। होटल पास में ही था। होटल के रिसेप्शनिस्ट से न्यूयॉर्क घूमने के लिए पास लेने की बात की पर उसने कहा आप सुबह 8:00 बजे टूर ऑपरेटिंग कार्यालय पर पहुंच जाइएगा। आपको पास मिल जाएगा यह स्थान मैडम तुसाद वैक्स म्यूजियम के पास है पर वाशिंगटन में हुए अनुभव के आधार पर मैं टूर बुक नहीं कराना चाहती थी। मुझे लगता था जो भी दर्शनीय स्थल है वहां जाकर अपनी पसंद के अनुसार समय बिताएं। आदेश जी ने कहा होटल में बैठे रहने से तो अच्छा है कि रिसेप्शनिस्ट द्वारा बताई टूर बुक करने वाली एजेंसी के पास चलें, शायद कुछ और जानकारी मिल जाए।
हम निकल पड़े तथा पूछताछ करते हुए काफी आगे बढ़ गए रात भी होने लगी थी। अनजान जगह, मन में बेचैनी होने लगी थी। ऊंची ऊंची इमारतों वाले इस शहर में कहीं हम रास्ता भूल गए तो...तब मैंने अपने मन का डर बताते हुए आदेश जी से कहा कि अब लौट चलते हैं, सुबह जल्दी उठकर पता लगा लेंगे। पहले तो आदेश जी को मेरी कमजोरी पर थोड़ा क्रोध आया पर फिर मेरी बात मानकर लौट लिए। भूख लग रही थी। आस- पास और कोई का रेस्टोरेंट नजर नहीं आ रहा था। हम होटल के नीचे स्थित रेस्टोरेंट में चले गए। खाने के लिए कोई विशेष चीज नजर नहीं आ रही थी। जितनी भी चीजें थीं , वह ब्रेड से बनी थीं अंततः हमने दो कप कॉफी और ब्रेड सैंडविच का ऑर्डर दे दिया। टेस्ट थोड़ा अलग था। बेमन से खाकर अपने कमरे में जाने के लिए रेस्टोरेंट्स निकले ही थे कि एक 10- 12 वर्ष का बच्चा हमारे पास आया। उसने किसी जगह के बारे में हमसे पूछा। हमें उस जगह के बारे में पता नहीं था। हम उसे उत्तर देने ही जा रहे थे कि उसकी मां ने उसे आवाज देते हुए बुलाया तथा कहा,' विक्की नई जगह में इधर-उधर मत भागो मत वह भी हमारी तरह टूरिस्ट हैं। उन्हें भी पता नहीं होगा।'
वह भी हमें अनदेखा कर वहीं खड़ी होकर किसी का इंतजार करने लगी। हमने की बात करना उचित नहीं समझा पर हिंदी में प्रश्न उत्तर सुनकर हमें आभार हो गया था कि वह भी हमारी तरह नॉर्थ इंडियन है। उनकी चिंता छोड़ हम अपने कमरे में आ गए। कल का पूरा दिन हमारे पास था। हम दोनों ने न्यूयार्क टूर बुक किताब पढ़नी प्रारंभ की तो पता चला 5th एवेन्यू यानि जहां हम रुके हैं उसी के पास संसार प्रसिद्ध अंपायर स्टेट बिल्डिंग है। टैक्सी वाले ने ठीक ही बताया था और उसने हमें इसी बिल्डिंग के पीछे ही उतारा था। तब मैंने यह सोच कर विश्वास नहीं किया था की विश्व प्रसिद्ध इमारत भला इतनी भीड़ भाड़ वाले इलाके में कैसे हो सकती है पर यहां पर भी मैं ही गलत थी !!
नक्शे के अनुसार टाइम स्क्वायर और मैडम तुसाद वैक्स म्यूजियम पास ही पास थे पर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर मेमोरियल अवश्य दूसरे डायरेक्शन में लग रहा था। वास्तव में यह स्थान उसी तरफ था जिधर हम 'स्टैचू ऑफ लिबर्टी 'देखने गए थे। अगर हम पहले से सर्च कर लेते हैं तो इसे आज ही देख सकते थे पर अब पिछला समय तो लौट आया नहीं जा सकता था अतः सोचा पहले अन्य जगह देख लें बाद में टैक्सी द्वारा वहां चले जाएंगे। मन ही मन घूमने का एक खाका खींचा तथा सुबह 6:00 बजे का अलार्म लगा कर सोने की कोशिश करने लगे।
सुबह 6:00 बजे अलार्म बजते ही हम उठ गए। लगभग 8:00 बजे तैयार होकर हम होटल के नीचे स्थित काफी हाउस में गए। ब्रेकफास्ट करके हम अपने होटल की बिल्डिंग से एक ब्लॉक दूर स्थित एंपायर स्टेट बिल्डिंग गए। वहां काउंटर पर बैठी महिला ने बताया कि मौसम क्लाउडी होने के कारण इस समय ऑब्जर्वेटरी देख से बाहर के दृश्य क्लियर नहीं दिखाई देंगे। आप टिकट ले लीजिए। टिकट आज पूरे दिन के लिए वैलिड (मान्य ) है। शाम को आकर आप देखिए तब तक मौसम साफ हो सकता है। उसकी सत्यवादिता हमें अच्छी लगी।
हम टिकट लेकर दूसरे दर्शनीय स्थल की ओर चल दिए। हमारे हाथ में मेप था। उसके आधार से जो निकटतम दर्शनीय स्थल था वह था रॉकफेलर सेंटर ...जो 5th और 6th एवेन्यू के बीच में 43 वेस्ट था। यहां हर चौराहे पर बहुत ही क्लियरिटी की से स्ट्रीट नंबर दिए हुए हैं। 1 ,2 ,3, 4 ,5, 6, 7 एवेन्यू पेरेलल बने हुए हैं तथा थोड़ी थोड़ी दूर बने चौराहों पर लगे खंभों पर 35, 36, 37, 38... ईस्ट और वेस्ट लिखे हुए हैं। हमारा होटल 5th एवेन्यू के 35 ईस्ट में था तथा एंपायर स्टेट बिल्डिंग 36 वेस्ट में तथा रॉकफेलर सेंटर 5th और 6th एवेन्यू के मध्य 43 वेस्ट में था। हमारे हाथ में मैप था उसी के दिशा निर्देशों के आधार पर हम यहां स्थित दर्शनीय स्थलों को देखने की योजना बना रहे थे।
ऊंची ऊंची इमारते हैं जहां हमें शहर की भव्यता का दर्शन करा रही थीं वहीं सड़कों पर चलता व्यवस्थित ट्रैफिक हमें आश्चर्य में डाल रहा था। हमें कहीं भी सड़क पार करने में परेशानी नहीं हुई। हर चौराहे पर जेबरा क्रॉसिंग बनी हुई है। पैदल चलने वालों के लिए साइन हैं। जब साइन डिस्प्ले होता है तभी लोग सड़क पार करते हैं। यहां तक कि गाड़ियां भी जब तक एक भी पेडेस्टेरियन (पैदल यात्री ) रहता है , पास नहीं होती हैं चाहे साइन हो या ना हो। गजब का ट्रैफिक सेंस है यहां के लोगों में। पैदल चलने वाले लोगों के लिए सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर थोड़ी थोड़ी दूर पर बेंच भी बनी हुई हैं। जहां थक जाने पर या आस-पास के दृश्य निहारने हेतु लोग बैठ जाया करते हैं। फुटपाथ के एक और सड़क तथा दूसरी ओर बड़ी बड़ी दुकानें हैं ... लगभग वैसी ही जैसे हमारे देश के बड़े-बड़े योजनाबद्ध बने शहरों के अच्छे मार्केट एरिया में होती हैं।
बीच में बिरिएंट पार्क पड़ा। थोड़ी देर वहां बैठकर हम आगे बढ़े। मैप (नक्शे ) के अनुसार आगे बढ़ते हुए हम रॉकफेलर सेंटर पहुंच गए। यह 5th एवं 6th एवेन्यू के बीच में 43 वेस्ट स्ट्रीट पर स्थित है। यह काफी ऊंची इमारत है। इसकी ऑब्जर्वेटरी डेक 70 मंजिल पर है। न्यूयार्क की सबसे ऊंची इमारत एंपायर स्टेट बिल्डिंग की टिकट हम खरीद चुके थे अतः इसकी टिकट खरीदना आवश्यक नहीं समझा। वहां जो जो देखने लायक जगह थीं वह हमने देखीं। इस इमारत के सामने एक सुंदर सी प्रतिमा है जिसके ऊपर फब्बारों से होती है पानी की बौछार इसकी सुंदरता को दुगणित कर रही थी।
कुछ समय वहां बिताने के पश्चात हम सेंट पेटरिक चर्च गए जो रॉकफेलर सेंटर के पास ही स्थित है। चर्च तो हमने कई देखे हैं पर इस जैसा नहीं... यह चर्च बहुत ही खूबसूरत तथा विशाल है। इसके मध्य में एक विशाल प्रतिमा के साथ अगल बगल अन्य कई प्रतिमाएं बनी है जो शायद संतों की होंगी। हमने वहां 1 कैंडल जलाई तथा कुछ देर बैठकर प्रार्थना की। हमें बताया गया कि इस चर्च में 2500 लोग एक साथ बैठकर प्रार्थना कर सकते हैं।
हमारा अगला पड़ाव टाइम स्क्वायर था। यहां जगह-जगह लेड और नियॉन लाइट से झिलमिलाते बड़े-बड़े पोस्टरों द्वारा बड़ी-बड़ी कंपनियों का प्रचार किया जा रहा था। हर जगह जगमगाती रोशनी देखकर ऐसा लग रहा था कि सचमुच यह कथन बिल्कुल सत्य है कि न्यूयॉर्क कभी नहीं सोता। मन ही मन यह अवश्य महसूस हुआ कि अगर यहां रात्रि में आते तो बहुत ही अच्छा लगता। अभी हम नजर भर कर देख भी नहीं पाए थे कि धीरे-धीरे बूंदाबांदी प्रारंभ हो गई। इस बूंदाबांदी से बचने के लिए हम टाइम स्क्वायर के पास में ही स्थित मैडम तुसाद म्यूजियम में चले गए।
मैडम तुसाद म्यूजियम
टिकट लेने में आधा घंटा बीत गया। इस बीच खड़े- खड़े मैं टिकट काउंटर पर उपलब्ध मैडम तुसाद के बारे में जानने के लिए बुकलेट को पढ़ने लगी। मैडम तुसाद फ्रांस के स्ट्रांसबर्ग में पैदा हुई थीं। इनका नाम अन्ना मैरी ग्रोशॉटज रखा गया। उनकी मां डॉक्टर फिलिप्स क्यूरटियस के घर हाउसकीपिंग का काम करती थी। डॉक्टर फिलिप्स फिजिशियन थे तथा उन्हें मोम के मॉडल बनाने में सिद्धहस्तता हासिल थी। मैडम तुसाद में उनके साथ रहकर यह कला सीखी तथा अपना पहला मॉडल सन 1777 ने बनाया।
1795 उनका विवाह फ्रेंकोसिल तुसाद के साथ हुआ। अपने एक मित्र के बुलावे पर वह लंदन आईं। कई वर्ष इधर-उधर घूमने के पश्चात वह लंदन में बस गईं। सन 1835 मैडम तुसाद ने लंदन में अपना पहला म्यूजियम खोला। इस म्यूजियम की अधिकांश मूर्तियां एक आग में नष्ट हो गई थीं। बाद में इसका पुनरुद्धार किया गया। मैडम तुसाद के मरने के पश्चात उनकी कला को उनके उत्तराधिकारीयों ने जीवित रखा। न्यूयॉर्क में सन 2000 में मैडम तुसाद म्यूजियम खोला गया।
अब तक हमारा नंबर आ गया था। टिकट लेकर हम अंदर गए तथा हमने एक बड़े से हॉल में प्रवेश किया। हॉल के मध्य में एक बड़ी सी प्रतिमा सुशोभित थी ...उसके साथ ही वहां मॉम की बनी विभिन्न मूर्तियां मनमोहक छटा पेश कर रही थीं। अमेरिका के प्रेसिडेंट कैनेडी ,निक्सन ,ओबामा के अलावा माइकल जैक्सन, स्पाइडरमैन, हॉलीवुड के कई नामी स्टार तथा प्रसिद्ध खिलाड़ियों की मूर्तियां भी यहां उपस्थित हैं। हमें खुशी हुई जब हमने वहां महात्मा गांधी, दलाई लामा के अलावा सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन की मूर्ति भी वहां देखी। कुछ समय के लिए तो हम इन मूर्तियों को देखकर दंग रह गए क्योंकि एक दृष्टि में ये सभी मूर्तियां मोम की बनी हुई नहीं , वरन सजीव नजर आ रही थीं। इस म्यूजियम में विभिन्न प्रतिष्ठित लोगों की लगभग 225 मूर्तियां हैं।
कुछ मूर्तियों के साथ फोटो खिंचवाने के पश्चात हमने यहां के मुख्य आकर्षण चेंबर ऑफ हॉरर में प्रवेश किया। इस भाग में फ्रेंच रिवॉल्यूशन के समय हुए युद्ध में खून से लथपथ तड़पते सहायता मांगते, भुक्त भोगियों के साथ अत्याचार करते आतताइयों को दिखाया गया था। यह सब दृश्य सजीव लग रहे थे कि लगा ही नहीं कि यह सब नाटक है। एक दो बार तो मुंह से चीख निकलते -निकलते बची। जैसे- तैसे गैलरी से बाहर आकर चैन की सांस ली। देर हो रही थी हमारे पास समय कम था। हमारी बनाई सूची के अनुसार हमें दो तीन स्थान और देखने थे अतः हम बाहर आ गए।
बाहर आए तो देखा अभी भी बरसात हो ही रही है। पहले तो हम पास स्थित दुकान के शेड में खड़े हुए, फिर अंदर चले गए । वह मेंस (आदमियों ) के कपड़ों की दुकान थी। समय पास करने के लिए कपड़े देखने लगे पर कुछ भी ऐसा नहीं मिला जिसे देखकर ऐसा लगे कि खरीद ही लिया जाए। जब कुछ समझ में नहीं आया तब दुकान के सामने खड़े होकर पानी के रुकने का इंतजार करने लगे। तभी हमारी तरह कुछ अन्य यात्री भी पानी से बचाव के लिए शॉप में घुसे। यह देखकर अच्छा लगा कि वहां के स्टाफ ने हमारी तरह ही उनका भी मुस्कुरा कर स्वागत किया। कुछ पानी दुकान के अंदर भी आने लगा था। ' फ्लोर इस वेट ' का बोर्ड लगा कर एक आदमी गीले फर्श को वाईपर की सहायता से पोंछने लगा। पानी कम होते ही हम बाहर आए ।पानी पूरी तरह तो नहीं रुका था, कुछ कम अवश्य हुआ था। अब तक थोड़ी-थोड़ी ठंड भी हो चली थी। एक कप कॉफी पीने के इरादे से एक कॉफी शॉप में घुस गए। कॉफी के साथ वेज बर्गर लिया...कॉफी पीते-पीते हम टाइम स्केवयर की रोशनी और चहल-पहल में खो गए।
टाइम स्कवेयर और वर्ल्ड ट्रेड मेमोरियल
31 दिसंबर 1904 को दि न्यूयॉर्क टाइम के प्रकाशक एडोल्फ एस. ओच्स ने अखबार के संचालन के लिए लॉन्गकेयर स्क्वायर पर 42 वें स्ट्रीट पर, पूर्व पाबस्ट होटल की साइट पर एक नए गगनचुंबी इमारत में स्थानांतरित कर दिया। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने 7th एवेन्यू के 42 और 43 स्ट्रीट पर बने ट्रैफिक ट्रायंगल पर बनी, अपनी नई बिल्डिंग का शुभारंभ फायर वर्क के जरिए धूमधाम से किया। 4 महीने पश्चात इस लोंगाकेयर स्कवेयर का नाम टाइम स्क्वायर कर दिया गया। यह विश्व का सबसे अधिक पर्यटकों को आकर्षित करने वाला स्थान बन गया है।
नववर्ष के अवसर पर स्क्वेयर की सबसे ऊंची इमारत पर एक क्रिस्टल बॉल लटकाई जाती है तथा नववर्ष प्रारंभ होते ही इसे नीचे किया जाता है... उस समय इस स्थान पर हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमूह खुशियां मनाता है। पहले यहां फायर वर्क भी होता था पर अब इसे बंद कर दिया गया है।
टाइम स्क्वेयर पर लगे लेड और नियॉन लाइट से झिलमिलाते बड़ी -बड़ी कंपनी ( नैस्डेक,तोशिबा ,सैमसंग) के बड़े-बड़े पोस्टर अपनी अलग छटा बिखेर रहे थे। कुछ वर्ष पहले की बात और है पर अब तो इस तरह के बड़े-बड़े पोस्टर भारत में भी बड़े-बड़े शहरों में दिख जाएंगे जिनके द्वारा बड़ी-बड़ी कंपनी अपने-अपने बिजनेस को बढ़ावा देने के लिए इस तरह के पोस्टरों के जरिये प्रचारित करतीं हैं। इस स्क्वेयर पर कई थिएटर, टेलीविजन स्टूडियो, म्यूजियम और शॉप के अतिरिक्त विजिटर सेंटर (यात्री सूचना केंद्र ) भी है जहां से टूरिस्ट इनफॉरमेशन के साथ टूरिस्ट स्थानों की टिकटें भी प्राप्त की जा सकतीं हैं।
बरसात धीरे-धीरे कम होने लगी थी। हम बाहर आए तथा टैक्सी से 'वर्ल्ड ट्रेड सेंटर मेमोरियल ' की ओर चल दिए। टैक्सी ड्राइवर मुस्लिम था। वह भी हमसे काफी गर्मजोशी से बातें करने लगा। उसका कहना था कि कुछ सिरफिरे लोगों ने सारे पाकिस्तान को बदनाम कर रखा है। अल्लाह कभी किसी की जान लेने को नहीं कहता। उसकी बातों से हमें अच्छा लगा कि हमारे राजनेता भले ही एक दूसरे के लिए आग उबलते रहें पर भारतीयों और पाकिस्तानियों के दिलों में आज भी मोहब्बत है। अगर यह मोहब्बत परवान चढ़ जाए तो हम हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी पूरी दुनिया से अपनी योग्यता का लोहा मनवा सकते हैं। यह बात अलग है कि अगर ऐसा हुआ तो तथाकथित नेताओं की नेतागिरी खतरे में पड़ जाएगी। अंततः उसने हमें वर्ल्ड ट्रेड मेमोरियल के पास छोड़ दिया।
वर्ड ट्रेड मेमोरियल वाली जगह अभी तक ऐसे ही पड़ी है। चारों तरफ बैरीकेड से घिरी, अंदर क्रेन टाइप कुछ स्ट्रक्चर नजर आ रहे थे... पूछ-पूछ कर हम मेमोरियल पहुंचे। यहां भी टिकट के लिए लंबी कतार थी। हम टिकट लेकर अंदर गए। यहां 11 सितंबर 2001 की उस भयानक दुर्घटना में मारे गए लोगों के कुछ चिन्ह सुरक्षित रखे हुए हैं ...जैसे बिल्डिंग को हिट करने वाले प्लेन का टुकड़ा, किसी का वॉलेट (पर्स ) का टुकड़ा , सेंडिल, पीतल का टुकड़ा जिस पर कोई नंबर खुदा है ...ऐसे ही न जाने कितनी चीजें इस मेमोरियल में रखी हैं। कुछ व्यक्तियों के फोटो, कुछ व्यक्तियों की प्रतिक्रियाएं है तथा संवेदना संदेश...। सबसे बड़ी बात हमें यह लगी कि इस मेमोरियल में उपस्थित सभी लोग मौन थे। कुछ को हमने रोते भी देखा। लोगों के मौन तथा आंखों में आंसू मेरी इस धारणा को झुठला रहे थे कि पाश्चात्य देशों में लोग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए जीते हैं।
नीचे बने हॉल में कुछ संदेशों के साथ अपनी प्रतिक्रिया लिखकर एक बॉक्स में डालने की भी सुविधा है। वहां एक बड़ी सी मेज है, बैठने के लिए कुर्सियां हैं। सामने मेज पर कागज पेन भी रखे हैं। हमने भी अपनी प्रतिक्रिया लिखकर बॉक्स में डाल दी तथा शांति के साथ बाहर निकल आए।
हमारे पास जो नक्शा था उसके अनुसार पास में ही वॉल स्ट्रीट सेंटर की बिल्डिंग अर्थात अमेरिकन ट्रेड सेंटर की बिल्डिंग थी। पूछते पूछते हम वहां गए किन्तु रिमझिम बरसात ने हमारा सारा मजा किरकिरा कर दिया। आखिर टैक्सी कर हम एंपायर स्टेट बिल्डिंग की ओर चल दिये। क्योंकि आज हमारा अंतिम दिन था। अब चाहे जैसा भी दृश्य दिखें देखना ही था तो था ही। दुख था तो सिर्फ इतना कि हम यूनाइटेड नेशन हेडक्वार्टर नहीं देख पाए। हमने टैक्सी वाले से कहा भी तो उसने कहा कि यह स्थान यहां से काफी दूर पड़ेगा। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर मेमोरियल से एंपायर स्टेट बिल्डिंग तक लौटने के क्रम में हमने चाइना टाउन तथा लिटिल इटली के नाम से बने मार्केट को भी टैक्सी द्वारा देखा।
एम्पायर स्टेट बिल्डिंग
अंपायर स्टेट बिल्डिंग में लो विजिबिलिटी ( कम दर्शनीयता ) के बावजूद काफी भीड़ थी। हम कतार में लग गए। सिक्योरिटी चेक के पश्चात हर एक व्यक्ति का फोटो खींचा जा रहा था। हमारा भी फोटो खींचा गया। धीरे-धीरे लगभग 15 मिनट कतार में चलते-चलते हुए हम लिफ्ट तक पहुंच गए। लिफ्ट ने लगभग 1 मिनट में हमें 86 मंजिल पर पहुंचा दिया। लिफ्ट की गति देखकर हम आश्चर्यचकित थे। लिफ्ट से बाहर निकलते ही हम ऑब्ज़र्वेटरी डेक ( निरीक्षण करने का स्थान ) पहुंच गए। अभी गेट के बाहर बने गलियारे में आए तो बहुत तेज हवा तथा पानी था। वहां अधिक देर तक खड़ा रहना हमारे लिए संभव नहीं था ... आखिर हम अंदर आ गए। अंदर से भी शीशे की सहायता से बाहर दिख रहा था। हमें बताया गया कि हम यहां से 80 मील दूर के दृश्य देख सकते हैं। दृश्य तो दिख रहे थे पर मौसम ठीक न होने के कारण।साफ नहीं दिख रहे थे। न्यूयॉर्क से लगे शहर न्यू जर्सी तथा मेनहट्टन की सीमाएं दिख रही थीं। साथ ही विश्व प्रसिद्ध ब्रुकिलेन पुल भी जो न्यूयॉर्क को मैनहैटन से जोड़ता है।
खूबसूरत दृश्यों को आंखों में भरकर बाहर ही रहे थे कि कल वाली वही फैमिली दिखाई दी। मुझसे रहा नहीं गया, अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे दिल्ली से हैं। उनके पति देवांशु का वहां अपना बिजनेस है। देवांशु के भाई बोस्टन में रहते हैं। वे यहां उनसे मिलने तथा यहां घूमने के इरादे से आये हैं। उन लोगों के साथ कुछ पल बिताकर अच्छा लगा। मैंने दोनों बच्चों को अपने पर्स से निकाल कर एक -एक चॉकलेट दी। वे दोनों बहुत ही खुश हुए तथा बोले,' आंटी आप इंडिया में हमारे घर अवश्य आइएगा।'
फोन नंबरों के आदान-प्रदान के साथ उस परिवार के साथ कुछ समय बिताकर 86 मंजिल से दिखते विहंगम दृश्यों को आंखों में समाए हम बाहर निकल ही रहे थे कि सामने खड़ी एक महिला ने हमें हमारे फोटो पकड़ा दिए। हम फोटो लेकर बाहर आ गए। बाद में सोचा कि कहीं हमें इस फोटो का पेमेंट तो नहीं करना था पर न उसने कहा और ना हमने ही पूछा।
बाहर निकलते ही एक स्टोर दिख गया। सोचा नाश्ते के लिए कुछ ले लें पर यहां बिस्किट ब्रेड काफी महंगे लगे। दो या तीन डॉलर का एक पैकेट... थोड़ा और घूमे तो एक जगह ड्राई फ्रूट्स रखे थे। काजू का 200 ग्राम का एक डिब्बा ढाई डॉलर का देखकर लगा कि ब्रेड, बिस्कुट खरीदने से तो अच्छा है यही खरीदना उचित होगा। सोचकर 3 डिब्बे ले लिए। मिनरल वाटर की बोतल जो होटल के कमरे में रखी थी वह 5 डॉलर की थी। यहां डेढ़ डॉलर में मिल रही थी। हमने यह दोनों चीज खरीदीं तथा रेस्टोरेंट में वेज सैंडविच खाकर अपने कमरे में आ गए आखिर कल हमें ऑरलैंडो के लिए निकलना था।
सुबह 8:00 बज कर 35 की हमारी यू.एस. एयरवेज की फ्लाइट नम्बर 2249 न्यूयॉर्क से शिरलोटे के लिए थी जिसे 10:00 बज कर 44 मिनट पर शिरलोटे पहुंचना था तथा वहां से 44 मिनट पश्चात 11:00 बज कर 55 मिनट पर यू.एस. एयरवेज की फ्लाइट ऑरलैंडो के लिए थी। ऑरलैंडो में हमारे अभिन्न मित्र श्री महापात्रा की पुत्री संगीता रहती है। दरअसल उसी के बार-बार आग्रह करने के कारण हमने ओरलैंडो का कार्यक्रम बनाया था। वह हमें रिसीव करने एयरपोर्ट आ रही थी। अमेरिका में बातें करने के लिए प्रभा ने हमें एक यहीं ( अमेरिका ) का नंबर दे दिया था।
सुबह 5:00 बजे हमने टैक्सी को बुलाया था। हमारे होटल से न्यूयॉर्क के लागार्डिया एयरपोर्ट तक की 45 मिनट की ड्राइव थी। सुबह का समय था रश कम था अतः 30 मिनट में ही हम एयरपोर्ट पहुंच गए। टैक्सी ड्राइवर अत्यंत शिष्ट लग रहा था। उसने हमारा सामान उतारा। हमने उसे पैसे दिए तो उसने टिप की मांग की थोड़ा अजीब लगा। फिर हमने उसे $5 पकड़ा दिए। बाद में पता चला कि यहां टिप्स मांगना उसका अधिकार है।
यहां हमें बोर्डिंग पास जल्दी ही मिल गया। हमने अपना सामान अपने पास रखना चाहा जिससे प्लेन से उतरते ही हम दूसरी फ्लाइट पकड़ने जा सकें पर स्टाफ ने हमें इस बात की इजाजत नहीं दी। उसने हमें बताया हमारी इस फ्लाइट तथा शिरलौटे से ऑरलैंडो जाने वाली फ्लाइट में मात्र 44 मिनट का अंतर है हमारी बात सुनकर वहां उपस्थित स्टाफ ने कहा,' नथिंग टू वरी यू हैव सफिशिएंट टाइम।'
संतोष की बात तो यह थी कि हमें बोर्डिंग पास न्यूयॉर्क से शिरलोटे तो मिला ही साथ में शिरलोटे से ऑरलैंडो भी मिल गया। कनेक्टिंग फ्लाइट होने के कारण बोर्डिंग पास में शिरलोटे का गेट नंबर भी दिया गया था।
समय काफी था अतः हमने एयरपोर्ट पर बनी शॉप घूमने प्रारंभ की पर यहां भी कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जिसे देखकर ऐसा लगे कि यह सामान खरीद ही लिया जाए अब तो हमारे भारत में भी एक से एक अच्छी चीजें मौजूद है वैसे भी यहां भी हमें अधिकतर सामान चाइना का ही बिकता दिखा चाहे वह कटलरी हो चाहे खिलौने या कपड़े … घूमते घूमते सोचा की अब कुछ खा ही लिया जाए पता नहीं प्लेन में कुछ मिलेगा या नहीं एक रेस्टोरेंट में बैठ गए सेल्फ सर्विस थी। आदेशजी कॉफी के साथ फ्रेंच फ्राई और बर्गर ले आए दरअसल हमें हमें यही शुद्ध शाकाहारी लगा। समय हो गया था अतः सिक्योरिटी चेक से होते हुए बोर्डिंग पास में लिखे गेट पर जाकर बैठ गए।
अभी हम बैठे ही थे कि घोषणा हुई कि जो यात्री न्यूयॉर्क से शिरलौटे जा रहे हैं अगर वह इस फ्लाइट से न जाना चाहे तो वह इस फ्लाइट को छोड़ सकते हैं। हम उन्हें अगली फ्लाइट में अकोमोडेट्स कर देंगे तथा इसकी एवज में उन्हें $300 दिए जाएंगे ...। घोषणा सुनकर हम दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे। हमारे लिए यह राशि कम नहीं थी पर हमारे लिए ऐसा करना संभव नहीं था क्योंकि शिरलोटे से हमारी अगली फ्लाइट ऑरलैंडो के लिए थी। अगर हम न्यूयॉर्क से शिरलौटे वाली फ्लाइट छोड़ देते हैं तो शिरलोटे से ओरलैंडो की फ्लाइट पता नहीं कब मिलेगी ? वहां हमें लेने संगीता आ रही थी। उसको भी हमें अपने परिवर्तित कार्यक्रम के बारे में बताना पड़ेगा। वैसे भी शिकागो में हमारी फ्लाइट छूट जाने से मन घबरा रहा था कि इतने कम समय के अंतर पर हम शिरलोटे से ओरलैंडो की दूसरी फ्लाइट पकड़ भी पाएंगे या नहीं। अतः अपने प्रोग्राम मे
ं परिवर्तन कर हम किसी दूसरी परेशानी में नहीं पड़ना चाहते थे।
आखिर बोर्डिंग का समय हो गया। जिस विमान में हम बैठे वह बहुत ही छोटा था शायद 60-70 लोगों की कैपेसिटी वाला विमान...विमान मुझे मेरा पर्स भी अपनी गोद में नहीं रखने दिया।
विमान में सिर्फ कॉफी सर्व की गई। समय पर हम शिरलौटे पहुंच गये पर हमें अपने सामान का इंतजार करना था। विमान के बाहर निकलते ही, हमें एक जगह डेक नुमा जगह दिखी, जहां विमान से सामान निकाल कर रखा जा रहा था। लगभग 10 मिनट में हमारा सामान आ गया। जैसे ही हमारा सामान आया हमने अपना सामान लिया तथा निर्धारित गेट नंबर एच-22 पर हम लगभग दौड़ते दौड़ते पहुंचे। वहां जाकर पता चला कि हमारी फ्लाइट गेट नंबर एच-22 से नहीं, वरन बी-21से जाएगी। सिर्फ 25 मिनट बचे थे हमें लगा यह प्लेन भी मिस हो जाएगा क्योंकि हमने एच-22 गेट की तरफ जाते हुए एक जगह बी नंबर की गेट की ओर इशारा करते हुए एरो को देखा था। वह जगह काफी दूर था। शिरलोटे एयरपोर्ट काफी बड़ा है। इस एयरपोर्ट पर गेट नंबर एच पर जाने के क्रम में हमने ए, बी ,सी से जी, एच गेट की ओर इशारा करते एरो देखे थे तथा हर किसी में 20-22 गेट तो शायद होंगे ही। बी-21 गेट काफी दूर था। अभी हम सोच ही रहे थे कि उस गेट पर मौजूद स्टाफ ने एक बैटरी ऑपरेटेड मोटर गाड़ी की ओर इशारा करते हुए उसमें हमें बैठने का इशारा किया। हम उस गाड़ी में बैठ गए उसने हमारा बोर्डिंग पास लेकर कुछ लोड किया तथा हमें हमारे गेट के पास छोड़ दिया। तब जाकर हमने चैन की सांस ली।
बोर्डिंग प्रारंभ हो चुकी थी। हम भी सारी फॉर्मेलिटी पूरी कर विमान में प्रवेश कर गए। सारे घटनाक्रम पर गौर किया तो पाया इस तरह से गेट और ट्रेन के प्लेटफॉर्म भारत में भी चेंज होते रहते हैं, उनसे यात्रियों को परेशानी भी बहुत होती है। विशेषता वृद्ध तथा बीमार लोगों को... कभी-कभी तो भगदड़ में लोगों की जानें भी चली जाती हैं। क्या इसे रोका नहीं जा सकता ? ऐसी स्थिति में यहां यात्रियों को दी जा रही सुविधाएं भारत की तुलना में काफी बेहतर हैं। काश ! ऐसी ही सुविधाएं हमारे देश में भी होती !! इस मामले में हमें हमारा देश काफी पिछड़ा लगा।
यह विमान बड़ा था... बोइंग 767 ...लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद हम ऑरलैंडो इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरे। न्यूयॉर्क से ऑरलैंडो पहुंचने में हमें लगभग 4 घंटे 20 मिनट लग गए। बने चिन्हों के सहारे हम बाहर निकले। वहां पर हमारे भारत के मेट्रो जैसी ट्रेन हमारा इंतजार कर रही थी। इस तरह की दो ट्रेनें वहां खड़ी थीं। दोनों ही यात्रियों को बाहर ले जा रही थीं तथा बाहर से अंदर ला रही थीं। हम बाहर जाने वाली ट्रेन में बैठ गए। लगभग 10 मिनट की यात्रा के पश्चात हम ट्रेन से बाहर आए।
ओरलैंडो
ऑरलैंडो फ्लोरिडा स्टेट के मध्य स्थित अत्यधिक जनसंख्या वाला पर्यटक स्थल है। ऑरलैंडो को सुंदर शहर के नाम से भी जाना जाता है। जहां लेक एओला में स्थित फब्बारा इसका प्रतीक चिन्ह है। वहीं इसे विश्व का 'थीम पार्क कैपिटल' भी कहा जाता है।
ट्रेन से उतरने के पश्चात हमने पिंकी संगीता से संपर्क किया। वह फ्लोरिडा में लेक मैरी में रहती है। उसी के पास हमें जाना था। उसे आने में अभी आधा घंटे की देरी थी। हम बाहर आ गए। बाहर वेटिंग एरिया भी काफी बड़ा था। कई गेट थे, बैठने के लिए कुछ बेंचेज थे , हमने उसे अपने बैठने का स्थान वहां लिखे साइन के आधार पर बता दिया तथा वहीं एक बेंच पर बैठकर उसका इंतजार करने लगे। थोड़ी ही देर में वह आ गई। लगभग 12 वर्ष पश्चात हम उससे मिल रहे थे। वह पहले जैसी ही चुलबुली लगी। अब उसके दो बेटे हैं सोम और अंशु। उसके पति सुकू जी (शुभ्रांशु ) भी बहुत ही गर्मजोशी से मिले। वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। उनका यहां अपना घर है। घर पहुंचने में हमें लगभग 1 घंटा लग ही गया।
उसका घर जिस कैंपस में है उसके अंदर प्रवेश करने के लिए एक बहुत बड़ा गेट है। शुभ्रांशु जी ने गाड़ी में बैठे- बैठे रिमोट से गेट खोला तथा अपने घर के सामने गाड़ी खड़ी कर दी। न गाड़ी से उतरना पड़ा न ही गेट खुलवाने के लिए किसी को बुलवाना पड़ा। भारत में ऐसी सुविधा आने में अभी बरसों लग जाएंगे।
घर पहुंचते ही पिंकी हमें हमारे लिए नियोजित कमरे में ले गई तथा कहा, ' आंटी आफ फ्रेश हो लीजिए। तब तक मैं खाना लगाती हूँ।'
जैसे ही हम फ्रेश होकर बाहर आए। उसने गरमागर्म खाना परोस दिया। पूरी तरह इंडियन खाना... पिछले तीन-चार दिनों से फ्रेंच फ्राई और बर्गर खाते-खाते मन ऊब गया था। कोल्ड ड्रिंक तो मैंने इन 3 दिनों में इतनी पी थी कि मुझे लग रहा था कि इतनी तो अब तक मैंने पूरी जिंदगी में भी नहीं पी होगी क्योंकि मुझे कोल्डड्रिंक प्रारंभ से ही पसंद नहीं है। थोड़ी सी भी पीने से डकार आने लगती है पर यहां दिन में दो-तीन बार पीने के पश्चात भी ऐसा नहीं लगा या तो यह क्लाइमेटिक फैक्टर था या इतनी हैवी चीज खाने के पश्चात उसे पचाने के लिए इसकी आवश्यकता होती है। अधिकतर लोग पानी की वजह है यहां यही पी रहे थे क्योंकि यह पानी से भी सस्ता है। उस दिन हमने आराम किया।
दूसरे दिन के लिए उन्होंने हमारे लिए यहां के मुख्य आकर्षण स्थल 'वाल्ट डिजनी वर्ल्ड रिजोर्ट ' के टिकट बुक करा दिए थे। हमें सुबह 7:00 बजे घर से निकलना था। इतनी सुबह भी हमारे मना करने के बावजूद संगीता ने हमारे साथ सब्जी परांठा पैक करके रख ही दिया। सुबह 7:00 बजे सुभ्रांशु जी ने हमें डिज्नी वर्ल्ड के गेट पर छोड़ दिया।
डिज्नी वर्ल्ड को चार हिस्सों में बांटा गया है। एनिमल किंग्डम, मैजिक किंग्डम, एपकोट तथा हॉलीवुड स्टूडियो। संगीता एंड सुभ्रांशु जी ने हमें सलाह दी थी कि 1 दिन में चारों भाग तो घूमना संभव नहीं है अतः पहले आप एपकोट जाइएगा क्योंकि एपकोट में साइंस से संबंधित जानकारियां हैं। वह आपको अच्छी लगेंगीं। उसके पश्चात अगर समय मिले तो हॉलीवुड स्टूडियो जाइएगा।
टिकट हमारे पास थे ही ,उनको दिखा कर हमने अंदर प्रवेश किया तथा इनफॉरमेशन सेंटर 'यात्री जानकारी केंद्र ' में जाकर हमने बुकलेट ली। उसको देखकर हमने प्लान किया कि कहां से हमें घूमना प्रारंभ करना है। बुकलेट बहुत ही अच्छी थी। उसमें दर्शनीय स्थलों के साथ रेस्ट रूम , रेस्टोरेंट इत्यादि के बारे में भी पूरी जानकारी मैप (नक्शे ) के द्वारा दी हुई थी।
15-एपकोट
एपकोट में सर्वप्रथम हम स्पेसशिप अर्थ गए वहां हमें एक चलते खिलौना रेलगाड़ी में बिठा दिया प्रत्येक डिब्बे में दो व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी गाड़ी चलती जा रही थी तथा गाड़ी में बैठे बैठे हमें विभिन्न मॉडलों के जरिए मानव के विकास की यात्रा तथा पर्यावरण पर असर तथा इसे कैसे मानव की भलाई के लिए उपयोग में लाया जा सकता है इसे दर्शाया जा रहा था साथ में एनाउंसर समय और परिस्थितियों से हमें अवगत करा रहा था यात्रा के दौरान उसने हमसे कुछ प्रश्न पूछने प्रारंभ किए जिसका डिस्प्ले हमारी शेर के सामने लगे कंप्यूटर सेट पर भी हो रहा था कुछ प्रश्न थे उनके कुछ ऑप्शन थे हमने अपनी अपनी सोच और समझ के साथ अपने उत्तर पर टिक करना था अब तक हम अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके थे एनाउंसर ने कहा यदि आप अपने उत्तर जानना चाहते हैं तो बाहर लगे टीवी स्क्रीन पर देखें हमने बाहर आकर देखा तो हमारे उत्तर के अनुसार हमारे चित्र बाहर डिस्प्ले हो गए अपने फोटो कार्टून के माध्यम से देखकर हमें हंसी भी आ रही थी साथ में ही साइंस की इस गति को देखकर आश्चर्य हो रहा था हर शो में कम से कम 20:25 पर तो होंगे ही चोर लगभग 45 मिनट का था तथा अशोक के तुरंत बाद इस तरह फोटो डिस्प्ले होना हमारे लिए आश्चर्य से कम नहीं था हमने इस चित्र को अपने कैमरे में कैद कर लिया इन यादों को सहेजने के लिए हमें सुविधा दी गई थी कि हम उन्हें वहां लगे कंप्यूटर की सहायता से अपने मेल बॉक्स में स्टोर करना और हमने ऐसा ही किया अब हम इनोवेशन नामक स्टूडियो में पहुंचे जब हम कतार में थे तब हमें एक आदमी मिला नाम तो याद नहीं आ रहा है वह वहां का कर्मचारी था हमें देखकर वह हमारे पास आया तथा पूछा क्या आप भारत से आए हैं हमारे यहां कहने पर वह बड़ी ही गर्मजोशी से हमसे मिला तथा बताया कि वह स्वयं भोपाल का है हमने वहां घूमने वाली जगह पूछी तो उसने कहा यहां इसी तरह के साइंस से संबंधित स्टूडियो हैं सभी दर्शनीय हैं परमिशन स्पेस में आप ग्रीन कार्ड लीजिएगा वैसे भी आप यहां घूमने आए हैं लकी एडवेंचर के लिए कहीं कोई प्रॉब्लम ना हो जाए उसकी चिंता हमें भली लगी।
अंततः हमने हॉलनुमा कमरे में प्रवेश किया। हमको वहां पड़ी बेंचों पर बिठा दिया गया, शो प्रारंभ हुआ… इस शो में तेज हवा या साइक्लोन का हमारे घर या वातावरण पर बढ़ते प्रभाव को थ्री डाइमेंशनल बोली थी सहायता से दिखाया जा रहा था हमारे सामने एक घर था तभी तेज हवा चलती दिखाई दी हवा इतनी तेज थी कि घर के टुकड़े टूट टूट कर उड़ने लगे इसके साथ-साथ फिर भी टूट टूट कर गिरने प्रारंभ हो गया श्री डाइमेंशनल इफेक्ट के कारण हमें लग रहा था कि वहां स्थित पेड़ हमारे ऊपर ही गिर रहा है इसके साथ ही पानी पढ़ना भी प्रारंभ हो गया टेक्निक के कारण पानी के छींटे हमारे ऊपर भी पढ़ने प्रारंभ हो गए थे इस समय तक घर के टुकड़े टुकड़े हो गए थे आप सो के प्रोग्राम प्रोग्राम मरने हमसे कुछ कुछ प्रश्न पूछने प्रारंभ किए जिससे हम एक ऐसा घर बना सकें जो साइक्लोन प्रूफ हो हम उनके उत्तर देते गए मेजोरिटी के उत्तरों के आधार पर घर बनाया गया फिर एक बार फिर पहले जैसी सिचुएशन बनाई गई कुछ टूट-फूट तो हुई पर पहले जितनी नहीं संदेश ही था हमें ऐसे घर बनाने चाहिए जो हर तरह की हवाओं और पानियों पानी को झेल सकें अब हमने मिशन स्पेस वाले पवेलियन में प्रवेश किया हर जगह की तरह यहां भी अच्छी लंबी कतार थी लगभग आधे घंटे पश्चात हमारा नंबर आया एक बार फिर हमें लगा वैसे तो भारत की तुलना में अमेरिका की जनसंख्या कम है पर भीड़ तो हर जगह हमारे भारत जैसी ही है जैसे ही हमारा ना हमें एक हॉल में ले जाया गया यहां हमें ग्रुप में बांट दिया गया हमें मिशन 2 मार्च के बारे में बताया गया उसके बाद उस निर्देशों के पश्चात हमें एक कुर्सी पर बैठने का निर्देश दिया 4 कुर्सियों का एक रॉकेट मार्केटिंग था केबिन में घुसते ही दरवाजे लॉक हो गए तथा हमें बांधने का निर्देश दिया गया इसमें एक इंजीनियर था एक नेविगेटर एक पायलट तथा एक कमांडर हमें एनाउंसर के निर्देश के आधार पर अपना ज्ञान संचालित करना था हमें मोटर स्कूटर सेल राइट के द्वारा अपना मिशन टू स्पेस पूरा करना था इस काम में हमारा यहां भी नदी नालों से होता हुआ पहाड़ों से टकराता प्रतीत होता तो कभी स्पेस में चांद तारों के बीच घूमता।
हमें पता था कि हमारा यान कहीं नहीं टकराएगा। हम स्पेस या अर्थ में वास्तव में नहीं घूम रहे हैं वरन एक केबिन में बैठे सिर्फ उसका एहसास कर रहे हैं पर फिर भी लाइट और साउंड इफेक्ट के कारण हमारी हार्ट बीट बढ़ गई थी। जब शो समाप्त हुआ तब लगा भोपाल वाला वह आदमी ठीक ही कह रहा था... हमारी जितनी उम्र में हमें ऐसे शो में भाग नहीं लेना चाहिए। हम यहां घूमने आए हैं न कि किसी एडवेंचरस ट्रिप पर... अगर वास्तव में हममें से किसी को कुछ हो जाता है तो मेडिकल इंश्योरेंस के बावजूद इस देश में व्यर्थ परेशानी ही होग़ीब। साथ ही घूमने का सारा मजा भी किरकिरा हो जाएगा पर हमने उसकी बात पर तब ध्यान नहीं दिया था।
अब हमने यूनिवर्स ऑफ एनर्जी स्टूडियो में प्रवेश किया। यहां हमें एक बड़ी बेंच नमः सीट पर बिठाया गया। शो से पहले लगभग 8 मिनट की फिल्म के द्वारा पृथ्वी पर जीवन के विकास की यात्रा पर प्रकाश डाला गया। इस शो के पश्चात हमारी सीट ने घूमना प्रारंभ कर दिया। सामने की स्क्रीन पीछे चली गई तथा हम डायनासोर युग में चले गए...। धीरे-धीरे हमें मानव के विकास की विभिन्न अवस्थाओं से विभिन्न मॉडलों के द्वारा परिचित कराया गया। बाद में पता चला कि इस थिएटर की पूरी छत 80,000 फोटोवॉल्टिक सोलर सेल से बनी है जो यात्री गाड़ी को चलाने में सहायता करती है।
अंत में हम एस्कॉर्ट करैक्टर स्पॉट में गए। वहां हम मिकी माउस तथा कुछ उसी तरह के अन्य करैक्टरों से मिले। बच्चों के साथ उनके हाव-भाव बड़ों को भी आकर्षित कर रहे थे। लोग उनके साथ विभिन्न पोजों में फोटो खिंचा रहे थे। हमारे मतानुसार जो जगह हम देखना चाहते थे, हमने देख ली थीं। लगभग एक 1:00 बज गया था अब हमने साथ में लाया खाना खाया तथा मेप देखकर आगे की प्लानिंग करने लगे।
एपकोट रिसोर्ट के चारों ओर विभिन्न देशों के शो केस पवेलियन मॉडल बने हुए थे। हमारे पास इतना समय नहीं था कि हम इन सबको पैदल देख पाते अतः हमने मोटर बोट से घूमना श्रेयस्कर समझा। इस बोट ने हमें मैक्सिको, नार्वे ,चाइना, जर्मनी ,इटली, जापान, मोरक्को, फ्रांस ,यूनाइटेड किंगडम, कनाडा तथा अमेरिकन एडवेंचर घुमाया। प्रत्येक मॉडल में कुछ शो हो रहे थे, साथ ही उनके अपने ररेस्टोरेंट भी थे जहाँ लोग कह-पी भी रहे थे। मोटर बोट ने हमें दो जगह उतारा। हम वहां उतर कर घूम और फोटोग्राफी भी की। इस एपकोट रिसॉर्ट में सप्ताह में 2 दिन फायर वर्क भी होता है पर जिस दिन हम वहां गए उस दिन फायरवर्क की सुविधा नहीं थी। वैसे भी एक फायरवर्क तो हम शिकागो में बोट शो के समय देख ही चुके थे।
हमें देखकर आश्चर्य हुआ जिस पाश्चात्य संस्कृति के बारे में हम सुनते आए है कि वे बुजुर्गों की ओर ध्यान नहीं देते, उनका सम्मान नहीं करते ...पर हमने यहां व्हील चेयर पर कुछ ऐसे बुजुर्ग व्यक्तियों को घूमते देखा जो चलने में समर्थ नहीं थे। उन्हें उनके बच्चे घुमा रहे थे। कुछ व्यक्ति सेल्फ ड्राइविंग वेहीकिल (स्वयं चलाने वाली छोटी गाड़ी ) में भी घूम रहे थे। व्हीलचेयर तथा छोटे बच्चों के लिए प्राम यहां किराए पर उपलब्ध थी।
अब थोड़ी बूंदाबांदी प्रारंभ हो गई थी। लोगों ने फटाफट प्लास्टिक के रेनकोट निकाले और पहन लिये। ये रेनकोट इतनी महीन प्लास्टिक के बने थे कि हम इंडियन शायद इन्हें सामान्य परिस्थितियों में भी पहनने को तैयार नहीं हों। अब हमने होलोवुड स्टूडियो जाने का फैसला किया। एपकोट से हॉलीवुड स्टूडियो पहुंचने के लिए पैदल रास्ता भी था पर हमने एपकोट इंटरनेशनल गेटवे से बोट ली। कुछ ही देर में हम डिजनी हॉलीवुड स्टूडियो पहुंच गए।
हॉलीबुड स्टुडियो
बूंदाबांदी अभी हो ही रही थी। मैप के अनुसार हमने पहले पवेलियन' दी ग्रेट मूवी राइड' में प्रवेश किया। यहां पर छोटे आकार की गाड़ी में हमें बैठा दिया गया। इस गाड़ी के चलते ही अंधेरा हो गया। इसके साथ ही सन 1930 की फिल्मों से हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। कुछ पुरानी क्लासिकल फिल्मों के द्वारा यह दर्शाया जा रहा था कि कैसे फिल्मों का निर्माण प्रारंभ हुआ तथा धीरे-धीरे कैसे इसमें सुधार आता गया। लगभग 45- 50 विभिन्न फिल्मों के दृश्यों द्वारा इस 22 मिनट की विकास यात्रा से हमें बहुत सारी जानकारियां मिलीं।
जब हम इस शो से बाहर आए तो पानी की रफ्तार काफी तेज हो चुकी थी। पानी से बचने के लिए हमने दूसरे नंबर के पवेलियन 'अमेरिकन आइडियल एक्सपीरियंस' में प्रवेश किया। पहले से ही एक बड़े हॉल में हमारे जैसे अनेकों व्यक्ति वहां खड़े होकर शो प्रारंभ होने का इंतजार कर रहे थे। कुछ देर पश्चात हमने उस हाल में प्रवेश किया जहां शो होना था। जैसे ही हम सीट पर बैठे , शो प्रारंभ हो गया। वह अमेरिकन आईडल का फाइनल शो था। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि हमें आगे की पंक्ति में बैठने की जगह मिल गई। स्टेज पर तीन जज बैठे हुए थे। प्रतिभागियों का एक के बाद एक आना प्रारंभ हुआ। ठीक उसी तरह जैसे हमारे भारत में इंडियन आइडियल प्रोग्राम में होता है। अभी हम शो का आनंद उठा रहे थे कि संगीता का फोन आ गया कि शुभ्रांशु जी चल दिए हैं, लगभग आधा घंटा में वे पहुंच जाएंगे आप लोग बाहर आ जाइएगा।
किसी तरह से हम शो से बाहर निकले। बाहर इस शो का प्रसारण बड़े-बड़े टी.वी .सेट द्वारा भी हो रहा था। बाहर रिमझिम बरसते पानी में भी खड़े होकर लोग शो का आनंद ले रहे थे। सचमुच आनंद लेना कोई इन अमेरिकन से सीखे। यह लोग जीवन सचमुच जीवन का मजा लेना जानते हैं । जहां हम भारतीय हर जगह सज धज कर निकलते हैं, यह लोग सामान्य कपड़ों में ही निकल पड़ते हैं। घूमना इनके लिए फन है तभी तो कम से कम साधनों के साथ यह लोग घूमने निकल पड़ते हैं। इन्हीं एहसासों को दिल में लिए हम बाहर आए ही थे कि सुभ्रांशु जी आ गए उनके साथ हम घर आ गए।
घर पहुंचे तो पिंकी और बच्चे इंतजार करते मिले। हमारे पहुंचते ही संगीता ने गरमागर्म चाय सर्व कर दी। सुखद एहसास हुआ... अपने तो अपनों के लिए करते ही हैं पर जब दूसरे जिनसे हमारा दूर तक खून का संबंध नहीं होता, अपने जैसे बन जाते हैं तथा अपना जैसा व्यवहार करते हैं तो हमारे मन में उनके लिए मान और सम्मान और अधिक बढ़ जाता है। यह पिंकी और सुभ्रांशु जी के साथ रहकर हमें महसूस हो रहा था। उनका अपने लिए प्यार, सम्मान और व्यवहार देखकर बिल्कुल भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वह हमारे अपने बच्चे नहीं है।
सचमुच इस समय हमें एक कप घर की गरमागर्म चाय की तलब हो रही थी। बच्चे खेलने में लग गए तथा पिंकी और सुभ्रांशु हमारे साथ हमारे अनुभव शेयर करने लगे। खाना पिंकी ने पहले ही बना कर रख लिया था बस रोटियां ही सेकनी थीं। दूसरे दिन हमें सी वर्ल्ड जाना था। सीबवर्ल्ड ऑरलैंडो में स्थित बहुत बड़ा पार्क है। इसमें अनेक प्रकार के थलचरीय , समुद्री जीव जंतुओं के साथ रोलर कोस्टर राइड, वाटर पार्क इत्यादि भी हैं। यद्यपि अंशु और सोम कई बार इस पार्क को देख चुके थे फिर भी दोबारा इसे देखने की चाहत के कारण वे सब भी हमारे साथ चल रहे थे। सुबह जल्दी निकलना था अतः जल्दी खाना खाकर सो गए।
सी वर्ल्ड
सुबह सब जल्दी-जल्दी तैयार हो गए। शीघ्रता से नाश्ते के साथ पिंकी ने दोपहर में लंच के लिए उपमा भी तैयार कर लिया। लगभग 1 घंटे की ड्राइव के पश्चात हम सब सी वर्ल्ड पहुंच गए। उनके पास सी वर्ड के पास थे अतः शीघ्र ही प्रवेश मिल गया ।
बच्चों को राइड (झूला ) इत्यादि पसंद होती है। जब तक वे राइड करते, संगीता ने हमें 'वाइल्ड आर्कटिक' देखने की सलाह दी। जब हम 'वाइल्ड आर्कटिक' पहुंचे तो वहां दो पंक्तियां थीं। पूछने पर पता चला कि एक हेलीकॉप्टर राइड के लिए है तथा दूसरी सामान्य रूप से घूमने के लिए। हमने सोचा हेलीकॉप्टर राइड का अनुभव ले लिया जाए। हम हेलिकॉप्टर राइड वाली पंक्ति में जाकर खड़े हो गए। हमारा नंबर आया तो हम उसमें बैठ गए। यह हेलीकॉप्टर, हेलीकॉप्टर जैसा नहीं था। साइंसटिफिक इफैक्ट (वैज्ञानिक प्रभाव) के द्वारा दर्शनार्थियों को ऐसा महसूस कराया जा रहा था कि जैसे हम आर्कटिक रीजन में हैं। जब हेलीकॉप्टर राइड का अनुभव कर हम बाहर निकले तो बर्फ के बने पवेलियन में घूमने का मन बनाया। यह पवेलियन पूरा उसी तरह से बनाया और प्रोजेक्ट किया गया है जैसे आर्कटिक रीजन में होता है अर्थात पूरा बर्फ से बना हुआ। तापमान भी माइनस से नीचे ...इसमें बने छोटे-छोटे केबिन में पोलर बीयर तथा पेंगुइन घूमते मिले। हमारा यह एक नया अनुभव रहा।
हम बाहर निकले ही थे कि संगीता का फोन आ गया... वे लोग एक पार्क में हमारा इंतजार कर रहे थे। जिस डायरेक्शन में उसने बताया हम उस ओर चलने लगे। शीघ्र ही वे मिल गए। अब हमें शामू स्टेडियम जाना था। शो का समय हो रहा था। लगभग डेढ़ घंटे का शो था। हम वहां पहुंच कर आगे बैठने लगे तो पिंकी ने कहा , 'यहां नहीं आंटी ...यहां बैठेंगे तो पूरे भीग जाएंगे। साथ में पूरा दृश्य दिखाई भी नहीं देगा।'
हम उठ कर अब लगभग बीच वाली पंक्ति में जाकर बैठ गए। अभी लोग आ ही रहे थे अतः आराम से हम अपनी मनपसंद सीट चुन सकते थे। यह स्टेडियम हमारे देश के खेल स्टेडियम जैसा ही है... अंतर सिर्फ इतना है कि खेल के स्टेडियम में चारों ओर बैठने की व्यवस्था होती है पर इसमें सिर्फ एक और बैठने की व्यवस्था है। सामने बने तालाब में शामू (शार्क ) शो की व्यवस्था है। व्हीलचेयर वालों के लिए अलग से व्यवस्था देखकर हमें सुखद आश्चर्य हुआ। हमें बताया गया कि यहां अमेरिका में विकलांग लोगों को हर जगह विशेष सुविधा मिलती है।
शो प्रारंभ हुआ। शामू स्टेडियम में उपस्थित शार्क (एक बड़ी समुद्री मछली) को आदेश देने के लिए वहां कई आदमी तथा औरत (इंस्ट्रक्टर) उपस्थित थे। उनके इशारे पर यह शार्क मछलियां अपने केबिन से बाहर आतीं तथा पानी में विभिन्न प्रकार के करतब दिखाकर अंदर चली जातीं। वे संख्या में 8 थीं। हमें आश्चर्य तो उनकी चुस्ती और फुर्ती को देखकर हो रहा था तथा यह सोचकर भी कि बेजुबान प्राणी को कैसे इतना सब सिखाया गया होगा। शार्क मछली का एक ग्रुप अपना करतब दिखा कर जाता तो तुरंत ही दूसरी चार मछलियां निकलकर अपना करतब दिखाने लगतीं। उनका पानी में दौड़ते-दौड़ते नाचना, कभी खड़े होना तो कभी तेजी से डुबकी मार कर बाहर आना वह भी सबका एक साथ... शो की निरंतरता तथा उनके गाइड की फुर्ती देखकर हम सब चकित थे। हर शो के पश्चात शार्क मछली के मुंह में मछली डालकर उनके मास्टर उन्हें पुरस्कृत कर रहे थे। आश्चर्य तो तब हुआ जब पानी में विद्युत गति से दौड़ती एक शार्क मछली के साथ पानी में तैरते उनके एक इंस्ट्रक्टर ने शार्क के मुंह पर खड़े होकर वाहवाही बटोरी। यह दृश्य न केवल हमारी आंखों में वरन हमारे कैमरे में भी कैद हो गया।
इसके पश्चात हम बाद में 'व्हेल एंड डॉल्फिन थिएटर ' में गए। खाना तो हमने पहले ही खा लिया था। इस समय आदेश जी आइसक्रीम लेकर आ गए। बच्चे तो आइसक्रीम प्राप्त कर खुश हुए ही, उनके साथ हमें भी आइसक्रीम खाने को मिल गई। डॉल्फिन थिएटर भी लगभग शामू शो के थियेटर जैसा ही था। यहां बस पर शार्क की जगह डॉल्फिन थीं। ये भी पानी में अपने-अपने इंस्ट्रक्टर के इशारे पर विभिन्न प्रकार के करतब दिखा रही थीं। कभी वह पानी में दौड़ रही थीं तो कभी पानी से एक साथ निकल कर कई फीट उछलकर फिर पानी में डुबकी लगा देतीं थीं। उनकी तेजी और फुर्ती के साथ उनकी लयबद्धता हमें आश्चर्यचकित कर रही थी। टी.वी. या पिक्चर में तो इस तरह के शो हमने कई बार देखे हैं पर अपनी आंखों से इस शो को देखना अच्छा लग रहा था। इसके अतिरिक्त इसके पूरे शो में संगीत के सुमधुर लहरी हमारा मन मोह रही थी वहीं शो के बीच-बीच में परिनुमा बालाएं आकाश में अपना करतब दिखाकर, दर्शकों का मनोरंजन भी कर रही थीं।
डॉल्फिन शो का आनंद लेने के पश्चात हम मनता एक्वेरियम में गए। यह काफी बड़ा एक्वेरियम है। स्टार फिश, इलेक्ट्रिक फिश, ऑक्टोपस के अतिरिक्त सैकड़ों तरह की रंग बिरंगी मछलियां वहां तैरती दिख रही थीं। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि हमें यहां चलना नहीं पड़ रहा था। हम एक फ्लैट एक्सलेटर पर खड़े हो गए तथा वह धीरे-धीरे खिसकती जा रही थी और हमने सारा एक्वेरियम घूम लिया। इस एक्वेरियम में अगल-बगल ही नहीं सिर के ऊपर बने चेंबर में भी फिश तैर रही थीं। वास्तव में यह एक्वेरियम जमीन से छत तक अंग्रेजी के उलटे यू की तरह बना खूबसूरत एक्वेरियम है जिसमें मछलियां ही नहीं हजारों की संख्या में समुद्री जीव जंतुओं के अतिरिक्त छोटे क्लाउन फिश से बड़ा ऑक्टोपस भी दिखा जिन्हें देखना न केवल बच्चों वरन बड़ों के लिए भी आनंददाई और शिक्षाप्रद है।
इसमनता एक्वेरियम के पास ही 'जर्नी टू अटलांटिस' है। पेंगुइन इनकाउंटर पर सरसरी निगाह डालते हुए हम 'सी लायन एन्ड ओटर स्टेडियम' पहुंचे। शो प्रारंभ होने ही वाला था। सी लायन हम पहली बार देख रहे थे। यह काले भूरे रंग का भारी शरीर वाला जंतु है पर भारी शरीर होने के बावजूद इसने अपने मालिक के आदेश पर पानी में कई तरह के करतब दिखाए। अंत में उसने अपना पिछला पैर उठाकर अभिवादन किया तब आवाज आई...शामू कैन यू डू इट ?
यहां स्काईटावर भी है जिसके द्वारा ऊपर जाने पर सी वर्ल्ड तथा आसपास के एरिया को देखा जा सकता है। पिंकी और शुभ्रांशु जी ने हमसे फायरवर्क का आनंद लेने के लिए कहा पर हमने मना कर दिया क्योंकि फायर वर्क्स का समय रात 9:30 बजे से था। अगर वह देखते तो घर पहुंचने में काफी रात हो जाती है। इसके अलावा साथ में छोटे बच्चे भी थे। वे भी काफी थके हुए लग रहे थे। शाम हो चली थी घर पहुंचने में अभी एक घंटा और लगता। वैसे भी हम बहुत ज्यादा स्ट्रेन नहीं लेना चाहते थे क्योंकि दूसरे दिन सुबह ही हमें नासा के लिए निकलना था। सबसे अच्छी बात जो इन जगहों में हमें लगी वह थी जगह-जगह रेस्ट रूम (वॉशरूम ) का होना। विकलांगों तथा बच्चों के लिए विशेष सुविधा है मसलन व्हीलचेयर, स्ट्रॉली के अतिरिक्त स्टेडियम में जाने और बैठने के लिए विशेष जगह और रास्ते ...खाने-पीने के लिए रेस्टोरेंट, यहां तक की नर्सिंग एरिया फॉर बेबीस भी है। इन सब जगह को मैप में भली-भांति दर्शाया गया है। जबकि हमारे भारत में अच्छे से अच्छे दर्शनीय स्थलों पर भी इन चीजों की कमी है अगर कहीं यह सेवाएं उपलब्ध भी हैं तो साफ सफाई नहीं रहती है।
हम सब थक गए थे अतः सोचा अब घर जाकर खाना कौन बनाएगा !! अतः मार्ग में स्थित रेस्टोरेंट से पिज्जा पैक करा लिया। घर पहुंच कर एक कप गर्म चाय के साथ थकान मिटाई तथा पिज्जा खाकर विश्राम करने चले गए।नासा में हमारा एक दिन
अमेरिका प्रवास के दौरान हमारे पर्यटन स्थलों की सूची में नासा भी था। आज हमें अपने पसंदीदा स्थान की सैर के लिए जाना था। मैं और आदेश जी सुबह 5:00 बजे उठकर तैयार हुए। घर से हमें 7:00 बजे नासा के लिए निकलना था… NASA (National Aeronautic and space Administration ) अटलांटिक महासागर के समीप स्थित बी वार्ड काउंटी ( Brevard county ) के मेरिट आइसलैंड के उत्तरी भाग में स्थित है। पिंकी ने सुबह उठकर सब्जी परांठा बना कर देना चाहा पर हम ने मना कर दिया। नाश्ता करके हम घर से निकले सुभ्रांशु जी ने हमें उसे स्थल तक छोड़ दिया जहां से बस को चलना था। बस को आने में अभी आधा घंटा समय था। जहां से बस को चलना था, उस स्थल पर ग्रॉसरी की अच्छी बड़ी दुकान है। सुबह ही सुबह वह भी खुल गई थी। अभी समय था अतः समय बिताने के लिए हम उस दुकान में चले गए. हमने वहां से कुछ स्नैक्स के पैकेट यह सोच कर खरीद लिए कि पूरे दिन की घुमक्कड़ी में शायद वे हमारे काम आएं.
बाहर आए तो सामने से बस आती दिखाई दी. हम ने नंबर चैक किया तो पाया, यह वही बस है जिससे हमें जाना है। बस में बैठते ही वह चल पड़ी। यहां से सिर्फ हमें ही चढ़ना था। बीच-बीच में कुछ जगहों पर रुक कर बस ने कुछ और यात्रियों को लिया तथा यात्रा प्रारंभ हो गई। ड्राइवर कम कंडक्टर तथा गाइड हमें बीच-बीच में पड़ते स्थानों के बारे में बताता जा रहा था। लगभग डेढ़ घंटे बाद उस ने बस ‘एस्ट्रोनौट हौल औफ फेम’ के सामने रोकी तथा यात्रियों को घूमने के लिए 1 घंटे का समय दिया.
एस्ट्रोनट हौल औफ फेम
एस्ट्रोनट हौल औफ फेम के अंदर प्रवेश करते ही एक बड़ी सी एस्ट्रोनट अर्थात अंतरिक्ष यात्री की मूर्ति दिखाई दी।अंदर एक बड़े हॉल में उनके द्वारा समय-समय पर पहने जाने वाले कपड़े, स्पेस शटल के मौडल, पहली बार चंद्रमा पर उतरे मानव द्वारा वहां पहली बार चलाई गई गाड़ी का मॉडल डिस्प्ले किया हुआ था। इसके साथ ही स्पेस की मिट्टी तथा अन्य कई तरह की जानकारियां वहां उपलब्ध थीं। हॉल बहुत बड़ा नहीं था, इसलिए घूमने में बहुत समय नहीं लगा। वहां एक छोटे से रेस्टोरेंट के अतिरिक्त वाशरूम की भी सुविधा थी। हम तरोताजा होकर बस में बैठ गए, धीरे-धीरे सभी यात्री आ गए। बस चल दी ड्राइवर ने हमें बताया कि अब हमारा अगला स्टॉप कैनेडी स्पेस सैंटर होगा। कैनेडी स्पेस सैंटर जाने के लिए हमें इंडियाना रिवर को क्रॉस करना पड़ा। ड्राइवर ने कैनेडी स्पेस सैंटर के पास बने पार्किंग स्थल पर बस पार्क की तथा शाम साढ़े 5 बजे तक लौटकर हमें आने के लिए कहा। लगभग 12 बज रहे थे... हम आगे बढ़े, सामने नासा की भव्य इमारत देख कर रोमांचित हो उठे। जिसका नाम न जाने कितनी बार सुना था, उसे आज देखने जा रहे थे। हम अंदर प्रविष्ट हुए तो हमें सूचना केंद्र दिखाई दिया। वहां उपस्थित सज्जन से हमने बुकलेट लेते हुए पूछा, ‘‘ हमें पहले क्या देखना चाहिये ?’’ उसने हमसे आईमैक्स थिएटर देखने के लिए कहा।
आईमैक्स थियेटर सूचना केंद्र के एकदम सामने था। हमने अंदर प्रविष्ट किया। पहले हमें वहां के स्टाफ ने हमें एक हॉल में बिठाया। इस हाल में हमें टी.वी. के द्वारा इससे जुड़ी जानकारी दी गई। उसके समाप्त होते ही हमें अंदर थियेटर में ले जाया गया। अंदर प्रवेश करते समय हमें पहनने के लिए एक चश्मा दिया गया। 3D इफेक्ट के द्वारा हमें दिखाया जा रहा था कि स्पेस शटल में भार रहित स्थिति में एक इंसान को एक-दो दिन नहीं, महीनों कैसे रहना और काम करना पड़ता है। अंतरिक्ष यात्री इस स्पेस में चलते नहीं वरन तैरते रहते हैं। तैरते- तैरते ही उन्हें शेव बनाना, कपड़े पहनना यहां तक कि खाना भी खाना पड़ता है। कभी-कभी खाने की वह चीज अगर हाथ से छूट जाए तो उसका अनुभव करना भी आनंददाई रहा। 3D इफेक्ट के कारण एक अंतरिक्ष यात्री के हाथ से छूटा संतरा अचानक ऐसा लगा कि जैसे वह हमारे हाथ में ही आ गया है।
हमारा अगला दर्शनीय स्थल शटल लॉन्च था। हॉल में जाने से पहले उन्होंने हमसे हमारा बैग और अन्य चीजें बाहर ही छोड़ने का निर्देश दिया । इसके लिए उन्होंने हमें एक लॉकर दिया। उसमें सामान रखकर हम अंदर गए।पहले हमें एक हॉल में बिठा कर शटल लॉन्च ऐक्सपीरिएंस के बारे में जानकारी दी गई। इसके बाद हमें एक दूसरे हॉल में ले जाया गया। उस हाल में घुसते ही मुझे एक बोर्ड पर वार्निंग लिखी दिखाई दी... मैं जब तक आदेश जी को रोकती तब तक वह अंदर जा चुके थे। मैं भी इनके पीछे पीछे गई। अंदर हमें ग्रुप में खड़ा कर दिया गया I मैंने इन्हें बोर्ड पर लिखी वार्निंग के बारे में बताया जिसमें लिखा था कि जिनको हार्ट प्रॉब्लम हो या जिनको ब्लड प्रेशर हो या बैक या नेक प्रॉब्लम या कोई भी ऐसी बीमारी जो इस प्रकार के अनुभव से बढ़ जाए वह इसमें न बैठें।
मुझे और इनको दोनों को ही ब्लड प्रेशर की प्रॉब्लम थी। पहले तो यह नहीं माने पर जब बार-बार मैंने इनसे आग्रह किया तब इन्होंने बाहर निकलने के लिए वहां उपस्थित स्टाफ से बात की। उसने हमारी बात मानी तथा हमसे कहा अगर आप शटल में नहीं बैठना चाहते तो कोई बात नहीं है , आप अगर चाहे तो उसका अनुभव कर सकते हैं। उसने हमें एक कमरे में बिठा दिया। जहां से हम इस शटल की गतिविधियों को लाइव देख सकते थे। जब शो समाप्त हुआ तब हमें लगा इस प्रकार का अनुभव तो हम एपकोट में मिशन स्पेस की शटल में ले चुके हैं पर वहां इस तरह की कोई चेतावनी न पढ़ने के कारण हम उसमें बैठ गए थे पर यहां नहीं बैठ पाए। अनजाने में हमने वहां अंतरिक्ष यान में बैठने का अनुभव कर लिया था जबकि यहां इस चेतावनी को पढ़ने के पश्चात हिम्मत नहीं कर पाए जबकि वहां भी भोपाल वाले व्यक्ति ने हमें सचेत किया था।
शटल एक्सप्लोरर
हमारा अगला गंतव्य स्थल शटल एक्सप्लोरर में था। जहां एक रॉकेट का मॉडल रखा हुआ था। उसमें रॉकेट के अंदर के भागों को दर्शाया गया। उसके अंदर जाने के बाद ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो हम वास्तविक रॉकेट के अंदर के भागों का अवलोकन कर रहे हैं।
स्पेस सेंटर टूर स्टॉप
अब हम नासा के अन्य भागों को घूमने के लिए स्पेस सेंटर टूर स्टॉप पर गए जहां से नासा के द्वारा चलाई जा रही। बस में बैठकर अन्य स्थानों के अवलोकनार्थ हमें जाना था। लंबी कतार थी। गर्मी भी काफी थी।तभी एक हलकी सी बौछार ने हमें गर्मी से राहत दी। ऊपर देखा तो पाया जगह-जगह पर ऐसे फौब्बारे लगे हैं जो यात्रियों के ऊपर पानी का हलका सा छिड़काव करते हुए उनको गरमी से राहत पहुंचा रहे हैं। इसी तरह का फब्बारा मैंने पिछले वर्ष चंडीगढ़ से दिल्ली आते समय 'हवेली' नामक रेस्टोरेंट के सामने स्थित फन जोन में देखा था।
नंबर आने पर हम बस में सवार हुए। उसी समय हमने देखा कि व्हीलचेयर को बस में चढ़ाने के लिए बस से एक स्लाइडर नीचे आया तथा व्हीलचेयर के चढ़ते ही वह अंदर चला गया। हमें यह देखकर बहुत अच्छा लगा। वृद्ध और विकलांग लोगों के लिए वह बहुत अच्छी व्यवस्था है। इसके द्वारा बिना किसी परेशानी के वे भी बस में सवार हो गए। सबके बस के अंदर बैठते ही बस चल दी। उसने हमें रॉकेट लौंच कॉम्प्लेक्स ‘39 औब्जर्वेशन गैंट्री’ में उतारा।
39 औब्जर्वेशन गैंट्री
यहां पहले हमें एक फिल्म के जरिए रॉकेट लॉन्च की जानकारी दी गई। उसके बाद हम लॉन्च पैड पर चढ़े जहां से हम ने क्राउलर वे तथा व्हीकल एसैंबली बिल्डिंग देखने का आनंद लिया.
अपोलो सैटर्न फिफ्थ
39 औब्जर्वेशन गैंट्री को देखने के बाद हम ने बस पकड़ी तो उसने हमें ‘अपोलो सैटर्न फिफ्थ’ पर उतारा... वहां हम ने एक बड़े हॉल में प्रवेश किया। उस हॉल में अनेक तरह की मशीनें लगी हुई हैं। जिनके द्वारा लॉन्च किए रॉकेट को कंट्रोल किया जाता है। वह फायरिंग रूम थिएटर था जिसके द्वारा अपोलो के लॉन्च का प्रसारण किया जा रहा था जो पहली बार चंद्रमा पर उतरा था। वैसे तो इस तरह के दृश्य टी.वी . पर मैंने कई बार देखे हैं, लगभग हर बार जब भी किसी रॉकेट को लॉन्च किया जाता है पर अपनी आंखों से उन मशीनों को देखना अपने आप में अद्भुत था।इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन सैंटर
अब हमारा दूसरा स्टौप ‘इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन सैंटर’ था। वहां बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हुई थीं। दरअसल, वहां रॉकेट के विभिन्न भागों के निर्माण का काम चल रहा था। यह एक बड़ा प्रोजैक्ट है जो हमारे टूर प्रोजैक्ट का भी एक हिस्सा था। उन भागों को हम प्रोजैक्ट के चारों ओर बने पथगामी मार्ग से ही देख सकते हैं, किसी को भी अंदर प्रवेश करने की इजाजत नहीं है। एक स्टॉप से दूसरे स्टॉप पर जाते हुए हमने नासा हैडक्वार्टर भी देखा। जिसमें लगभग 6 हजार कर्मचारी काम करते हैं। वह काफी बड़ी एवं भव्य इमारत है। इसके साथ ही दूर से बस के द्वारा हमने वे स्थान भी देखे जहां लॉन्चिंग पैड बने हुए हैं। इनकी सहायता से ही स्पेस शटल को लॉन्च किया जाता है। पर्यटकों को वहां जाने की सुविधा नहीं है। यह जगह एटलांटिक ओशन के पास बनी हुई है। अब हम वापस स्पेस सेंटर टूर स्टॉप पर आ गए। इस समय तक हमें भूख लग आई थी। हम वहीं बने रेस्टोरेंट में बैठ गए। आदेशजी बर्गर और कॉफी लेकर आ गए। अभी कहा ही रहे थे कि बड़े पुत्र अभिषेक का फोन आ गया। उसने हमसे बात कर फोन अपने छोटे भाई आदित्य को पकड़ा दिया। उनसे बातें करने के पश्चात मैंने अपनी दोनों बेटी समान बहुओं से बात की। विदेश प्रवास के दौरान फोन के जरिये ही हम उनसे जुड़े हुए थे। वैसे मेरी बड़ी बहू अनुप्रिया प्रेग्नेंसी की अंतिम स्टेज पर थी। संतोष था तो सिर्फ इतना कि वे सब साथ में रहते थे। वैसे भी इस ट्रिप के तुरंत पश्चात मुझे उनके पास बैंगलोर जाना था...अपने परिवार के नये नवासे को गोद में खिलाने जो उनत्तीस वर्ष पश्चात हमारे परिवार का हिस्सा बनेगा।
बच्चों से बात करके, संतुष्ट मन से खा पीकर तथा थोड़ा आराम करने के बाद बाहर आए तो एक जगह एस्ट्रोनौट के कपड़े पहना मॉडल बना हुआ था... उसकी सिर वाली जगह खाली थी, कुछ लोगों को फोटो खिंचवाते देखा तो हमने भी एक दूसरे की फोटो खींच लीं।
समय बाकी था। हम वहीं बने रॉकेट गार्डन में चले गए। वहां पर एक बहुत बड़े स्पेस में रॉकेट के विभिन्न मॉडल बने हुए थे। कुछ देर हम वहां बैठे और घूम-घूम कर देखते रहे। साढ़े 5 बज रहे थे। हमने नासा पर अंतिम बार नजर डाली तथा बाहर निकल कर बस में बैठ गए।
यात्रियों के बैठते ही बस चल पड़ी. जहां हम सुबह एक आस ले कर चले थे उस आस से तृप्त हो जाने की खुशी तथा एक अनोखा एहसास लेकर लौट रहे थे। यद्यपि शरीर थक कर चूर हो गया था जबकि मन सारी यादों, बातों को मन ही मन दोहरा रहा था। बस ड्राइवर जहां सुबह से लगातार जानकारी देता जा रहा था, अब चुप था। अपनी मंजिल आने पर यात्री उतरते तथा अपरिचित बन जाते। हम भी संतुष्ट मन से अपने स्टॉप पर उतरे। शुभ्रांशु जी हमें लेने आने वाले थे। हमने नासा से बस के चलते ही उन्हें फोन कर दिया था।उनके आते ही हम घर की ओर चल दिये। नई यादों और अनुभवों के साथ हमारी यात्रा का एक दिन और समाप्त हो गया था। पिंकी और बच्चे हमारा इंतजार कर रहे थे, उनके साथ हमने अपने पूरे दिन के अनुभव शेयर किए तथा कहना खाकर सोने चले गए।
लेक मेरी
लेक मेरी से मियामी पास ही था किंतु इतना भी पास नहीं था कि सिर्फ एक दिन में जाकर लौटकर आया जा सके। हमारी प्लानिंग में थोड़ी कमी रह गई थी वरना हम मियामी भी घूमकर आ सकते थे।
हमारे पास आज का पूरा दिन था अतः हमने सोचा यह दिन आराम करने में बिताएंगे पर पिंकी ने कहा कि आज आप लेक मेरी, जहां वह रहती है, भी घूम लीजिए। वह हमें सुबह मंदिर ले गई। दूर देश में भी भारतीयों की आस्था देख कर मन खुश हो गया था। सच हम किसी भी धर्म के मानने वाले हों पर ईश्वर के प्रति आस्था, विश्वास सार्वभौमिक है। कोई एक सर्वोच्च सत्ता तो है जो इंसान के सारे कार्यकलापों को नियंत्रित करती है। सुख-और दुःख में हमारा मनोबल बढ़ाती है। बिल्कुल भारतीय अंदाज में ही यहां पूजा हो रही थी। हां साफ सफाई भारत के मंदिरों की अपेक्षा यहां इस मंदिर में अधिक थी।
मंदिर प्रांगण में कुछ समय बिताने के पश्चात हमने पिंकी से कहा कि हमें किसी स्टोर में ले चलो। दरअसल बच्चे इसीलिए हमारे साथ आने के लिए तैयार हुए थे जब हमने उनसे कहा कि हम तुम्हें तुम्हारा मनपसंद खिलौना खरीदवाएंगे। पिंकी ने काफी मना किया पर हमारे बार-बार आग्रह पर वह हमें वॉलमार्ट ले गई। उसने बताया इस स्टोर में समान की कीमत रीजनेबल (वाजिब ) रहती है। सोम और अंशु अपना -अपना मनपसंद खिलौना पाकर बहुत खुश हुए। स्टोर हमें भी ठीक ही लगा।
शाम को हमारे लिए शुभ्रांशु जी ने अपने घर से 20-25 मील दूर स्थित बीच ( समुंदर के तट ) पर जाने का प्रोग्राम बना लिया था पर हमारे घर आने के थोड़ी देर पश्चात ही बरसात होने लगी। धीरे-धीरे हवा भी चलने लगी। एक तरह से तूफान आ गया पिंकी ने बताया यहां अक्सर ऐसा होता है। शाम को शुभ्रांशु जी ऑफिस से आए तो रिमझिम बरसात के साथ टी.वी . ने तेज हवा के साथ बरसात होने की संभावना व्यक्त की। मौसम के रुख को देखकर हमने स्वयं भी बीच पर जाने के लिए मना कर दिया । अभी भी रिमझिम बरसात हो ही रही थी ऐसे में बीच पर जाना तथा उन्हें परेशान करना हमें उचित नहीं लग रहा था जबकि बच्चे बीच पर जाने के नाम पर खुश थे।
मौसम खुशगवार होने के कारण हमारे मना करने के बावजूद पिंकी पकोड़े बनाने लगी। इसके लिए उसने घर के पिछवाड़े रखी गैस का उपयोग किया। उसके घर के पिछवाड़े एक बड़ा सा लॉन है वहीं शेड के नीचे एक टेबल तथा कुछ कुर्सियां तथा एक झूला रखा हुआ है। हम वहीं बैठ गए रिमझिम मौसम में दूर देश में ठेठ भारतीय स्वाद की पकौड़ी खाने में अलग ही आनंद आ रहा था।
4 दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला सोम और अंशु इन चार दिनों में ही हमसे बहुत ही मिल गए थे। दोनों ही बहुत ही समझदार और शांत बच्चे हैं। उनके सबके साथ हमारा बहुत ही अच्छा समय बीता। विशेषकर अंशु का भौगोलिक ज्ञान देखकर हम हैरान थे। जब उसे पता चला कि हम रांची से आए हैं तो उसने हमारे स्टेट के साथ मैप में रांची की पोजीशन भी बता दी।
दूसरे दिन सुबह यानि 4 अगस्त को सुबह 5:00 बजे के लगभग हमें निकलना था। 7:00 बजे हमारी फ्लाइट थी शिकागो के लिए...। सुबह 3:00 बजे का अलार्म लगाकर हम सो गए। यद्यपि इतनी सुबह उनको उठाना अच्छा नहीं लग रहा था पर इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय भी नहीं था। सुभ्रांशु जी ने हमें समय से एयरपोर्ट पहुंचा दिया इस बार हमें अमेरिकन एयरलाइंस की फ्लाइट से जाना था। प्रिय पिंकी और शुभ्रांशु जी के सहयोग से ओरलैंडो का हमारा ट्रिप भलीभांति पूरा हुआ। एयरपोर्ट की फॉर्मेलिटीज को पूरा कर हम पुनः शिकागो चल दिये।
एक बार फिर शिकागो
समय से हम एयरपोर्ट पहुंच गए। शटल ट्रेन से हमने एयरपोर्ट में प्रवेश किया। बोर्डिंग पास लेकर , सिक्योरिटी चेक कराकर हम उस गेट नंबर पर जाकर बैठकर हम बोर्डिंग का इंतजार करने लगे। समय पर बोर्डिंग प्रारंभ हो गई। इस बार मुझे विंडो सीट मिल गई थी।नदी ,नाले, घर पीछे छूटे जा रहे थे। समानांतर सड़कों का जाल बिछा हुआ था जो ऊपर से देखने में मोटी रस्सी जैसी नजर आ रही थीं। आकाश में बादल छाए हुए थे। बादलों के बीच से निकलकर प्लेन ऊपर उठ गया। थोड़ी देर पहले जो बादल हमारे आस पास होने का एहसास करा रहे थे अब नीचे एक मोटी चादर के रूप में नजर आने लगे। बहुत ही मनमोहक दृश्य था। अभी इसे आंखों में समेट कर कविता लिखना चाह ही रही थी कि बादल एकाएक गायब हो गए नीचे हरियाली का जाल फैला नजर आया। कहीं खेत, कहीं सड़कें तो कहीं नदी, एक पतली रेखा के रूप में अपने होने का एहसास करा रही थीं। एकाएक हमें पानी दिखने लगा। हम किसी समुंदर के ऊपर से गुजर रहे थे। इसे पार करने में हमें लगभग 6 मिनट लग गए। बाद में पता चला कि वह समुंदर नहीं, मिशीगन लेक है । इस लेक के एक तरफ मिशीगन स्टेट है तथा दूसरी ओर इलिनॉइस। शिकागो शहर इस लेक के किनारे बसा हुआ है। अंततः हम अपने गंतव्य स्थल पर पहुंच गए।
ओ हेरे एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही प्रभा मिल गई। वह हमें लेने अपनी वैन लेकर आई थी। हम घर पहुंचे तो उसकी मेड( नौकरानी) मार्था घर की साफ सफाई में लगी हुई थी। वह हमें देख कर बहुत खुश हुई। उसने हमसे पूछा...हम कहां-कहां घूमे तथा हमें अमेरिका कैसा लगा ? हमसे बातें करते हैं वह काम में लग गई। प्रभा भी उस दिन व्यस्त थी। उस दिन पंकज जी का बर्थडे था। हमको अपने मित्रों से मिलवाने के लिए उसने एक छोटी सी पार्टी का आयोजन कर रखा था। काफी तैयारी तो उसने हमारे आने से पूर्व कर ली थी। जो थोड़ी बहुत बाकी थी, उसे पूरा करने में हम दोनों लग गए । सब्जियां घर में ही बना ली थीं तथा केक और परांठों का उसने ऑर्डर दे दिया था। इन दोनों चीजों को शाम को मार्केट से लेकर आना था।
सबसे पहले अपने पति के साथ इंदु आंटी आईं। प्रभा ने बताया वह उसे अपनी बेटी मानती हैं। वह लखनऊ से हैं। लखनऊ में वह हमारे मम्मी पापा के घर के पास ही रहते थे पर कुछ वर्ष पूर्व वह अपनी पुत्री के पास अमेरिका शिफ्ट हो गई हैं तथा उनके पति ने भी यहीं जॉब ढूंढ लिया है। दूसरे आने वालों में प्रभा की मौसी साधना और श्वसुर जी थे। इसी तरह कुछ और लोग भी आये, इनमें कुछ उसके पड़ोसी थे तो कुछ प्रियंका और पार्थ के मित्रों के मम्मी पापा थे जो समय के साथ उनके भी मित्र बन गए हैं। सब इंडियन थे। उनमें कोई महाराष्ट्रीयन था तो कोई गुजराती, कोई बिहारी तो कोई पंजाबी... लग रहा था एक मिनी इंडिया घर में समा गया है।
मैं रांची से आई हूं जानकार, रांची की रहने वाली एक महिला अपना अतीत शेयर करने लगी। वह और उसके पति डॉक्टर हैं। वह मुझसे बात कर ही रही थी कि उसे किसी ने आवाज दी...एक्सक्यूज मी...कहते हुए वह चली गई। उसके जाते ही उसकी छोटी बहन जो उससे मिलने अमेरिका आई थी, मेरे पास आई तथा बात चीत के इरादे से बोली,
' इस देश को चाहे यहां रहने वाले कितना भी अच्छा कहें पर मुझे तो अपना देश ही अच्छा लगता है। यहां पैसा है पर तन- मन को आराम नहीं है । पैसा... पैसा... पैसा ...आखिर इंसान की भूख क्यों नहीं मरती। अपने देश में तो छोटे से छोटा कर्मचारी भी घर के काम के लिए नौकर रख लेता है पर यहां पति पत्नी दोनों के काम करने के बावजूद मेड रखना संभव नहीं हो पाता है तथा सारा काम स्वयं ही करना पड़ता है।'
'मशीनों से तो मिनटों में काम हो जाता है तथा किसी पर निर्भरता भी नहीं रहती है।'मैंने कहा।
' यह सच है कि मशीनों से काम मिनटों में हो जाता है पर उसके लिए भी तो स्वयं को ही लगना पड़ता है ... यह तो नहीं कि स्वयं आराम फरमाते रहो तथा सारा काम हो जाए। 'उसने उत्तर दिया।
अभी बात हो ही रही थी कि आवाज आई...केक कटने जा रहा है...आप सब आइए। मुझे भी लगा चलो मुक्ति मिली वरना 1, 2 निगाहें बराबर हमें देख रही थीं। अच्छाई बुराई तो हर जगह है, यह तो व्यक्ति पर निर्भर है कि वह उसे किस तरह से देखे। प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि इंसान हर जगह की अच्छाइयों को ग्रहण करें और बुराइयों को भूल जाए। यह सच है अपने देश, अपने घर से अच्छा कहीं कुछ भी नहीं है। शायद यही कारण है मजबूरी या स्वेच्छा से अपना वतन छोड़कर आये भारतीय इस जमीन पर अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं जबकि हम भारतीय अपने ही देश में व्यस्तता का आवरण ओढ़ते हुए बहुत कुछ छोड़ते जा रहे हैं।
केक कटते तथा मोमबत्ती बुझाते ही ' हैप्पी बर्थ डे ' गीत से घर गुंजायमान हो गया। बिल्कुल एक भारतीय पार्टी लग रही थी सिवाय इस बात के एक दो लोगों को छोड़कर सब अंग्रेजी में ही बातें कर रहे थे।
केक के पश्चात स्नेकस का इंतजाम था। सर्वप्रथम फ्रूट पंच सर्व किया गया फिर गोलगप्पे तथा समोसे जो इंदु आंटी बनाकर लाई थीं। समोसे वास्तव में ही बहुत ही स्वादिष्ट बने थे। यही कारण था कि सभी उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। बच्चे अपनी अपनी प्लेट लेकर बेसमेंट ( घर के नीचे का हिस्सा ) में चले गए तथा आदमी तथा औरतों ने अपनी अपनी टोली बना लीं तथा सब बातों में मगन हो गए।
नाश्ते का दौर समाप्त होते ही हम खाना लगाने उठ गए। सब्जियां हमने वार्मर में रख दी थीं जो काफी बड़ा था तथा जो प्रभा के किचन की एक कैबिनेट में फिक्स था। बाहर से देखने में वह वार्मर नहीं वरन ड्रॉअर प्रतीत हो रहा था। वैसे ही 3 ड्रॉअर फ्रिज के थे इनके अलावा दो बड़े फ्रिज और थे। इनमें एक बेसमेंट में तथा एक डाइनिंग रूम में रखा हुआ था।
खाना तो लगभग तैयार ही था अभी नाश्ते के बाद अभी किसी का खाने का मन नहीं था अतः हम लोग भी सबके बीच आकर बैठ गए। गपशप का दौर चल निकला लगभग 1 घंटे पश्चात खाना लगाया।
उस दिन हमें सोते-सोते रात्रि के लगभग 12:00 बजे दूसरे दिन हमारा शिकागो की सबसे ऊंची इमारत सीयर्स टावर देखने का प्रोग्राम था।
सीयर्स टावर
हम वहां की लोकल ट्रेन का भी अनुभव करना चाहते थे अतः बुररिज अर्थात जहां प्रभा रहती है उसके पास स्थित रेलवे स्टेशन हिंसडेल पर हमें प्रभा का बेटा पार्थ छोड़ गया। यह स्टेशन छोटी जगह के भारतीय रेलवे स्टेशन की तरह की है पर यहां भीड़ बहुत ही कम थी। टिकट काउंटर भी भारत जैसा ही है। इस स्टेशन से ही हमें शिकागो जाने वाली ट्रेन में बैठना था। हमने टिकट काउंटर पर टिकट ली। समय काफी था अतः सोचा आसपास का एरिया घूम लिया जाए।
समय व्यतीत करने के लिए हम घूमने चल दिए तथा पास में स्थित एक स्टोर में प्रवेश किया। वहां डेकोरेटिव पीस थे, कुछ एंटीक पीस भी थे पर महंगे बहुत थे। उन्हें लेने का तो कोई प्रश्न ही नहीं नहीं उठता था। हम।वहां से निकलकर आगे बढ़े तो एक फर्निशिंग स्टोर दिखाई दिया। हम उसके अंदर गए तो बैड कवर सेट इत्यादि थे ...रेट 200-250 $ देखकर हम सोचने को मजबूर हो गए आखिर इनमें ऐसा है क्या, जो यह इतने महंगे हैं। इस स्थल की सभी दुकानें भारतीय दुकानों की तरह ही हैं।
समय हो रहा था हम वापस हिंस्डल स्टेशन आ गए । घोषणा के अनुसार अभी भी ट्रेन के आने में 20 मिनट बाकी थे। हम वहां पड़ी कुर्सी नुमा बेंच पर बैठ गए ।पूरे स्टेशन पर मात्र 15-20 लोग ही थे। ट्रेन आते ही हम उसमें सवार हुए। डबल डेकर ट्रेन थी। हमें ट्रेन के नीचे वाले हिस्से में ही जगह मिल गई। 2-2 की सीट थी तथा बीच में स्पेस था। पूरी ही ट्रेन एयर कंडीशंड थी। यह ट्रेन हमारी मेट्रो की तरह थी, नाम भी मेट्रा है पर सीटिंग अरेंजमेंट में अंतर था। हर स्टेशन के आने से पहले स्टेशन के नाम की उद्घोषणा हो जाती थी जिससे यात्रियों को अपने गंतव्य स्थान पर उतरने में सुविधा होती थी।
हमें यूनियन स्टेशन उतरना था शायद प्रत्येक रेलवे स्टेशन को यहां यूनियन स्टेशन ही कहा जाता है। वाशिंगटन और शिकागो में एक ही नाम देखकर मैंने यह निष्कर्ष निकाला। हमारे भारत की तरह यहां मेट्रा के लिए अलग स्टेशन नहीं दिखा।
स्टेशन से बाहर निकलते ही सियर्स टावर नजर आया। स्टेशन से लगभग 100 कदम ही दूर था। देखने में यह न्यूयॉर्क के एंपायर स्टेट बिल्डिंग जैसा ही लग रहा था। टावर के बाहर से ही प्रवेशार्थियों की लंबी कतार लगी दिखाई दी। हम भी कतार में जाकर खड़े हो गए। लगभग 1 घंटे पश्चात हम टिकट काउंटर पर पहुंचे। कतार में चलने के दौरान मैं दीवार पर लिखी जानकारियां भी हम पढ़ती जा रही थी। 108 स्टोरी बिल्डिंग (मंजिल इमारत ) यह इमारत कारपोरेट हेडक्वार्टर है सीयर्स रोबक एंड कंपनी का... इसका स्काई डेक 103 मंजिल पर है। यह 365 दिन खुला रहता है तथा इसकी एलिवेटर नॉनस्टॉप चलती रहती है। यह शिकागो का मुख्य आकर्षण स्थल है ...इत्यादि इत्यादि।
टिकट लेने के बाद हमारा सिक्योरिटी चेक हुआ। फोटो खींची गई फिर हम कतार में चलते चलते लिफ्ट तक पहुंचे। लिफ्ट से हम ऑब्जर्वेटरी डेक पर पहुंचे जो 103 मंजिल पर स्थित है। ऑब्ज़र्वेटरी डेक पर पहुंचने में हमें सिर्फ 1 मिनट लगा। मौसम साफ होने के कारण बाहर का दृश्य बहुत ही साफ नजर आ रहा था। दूर-दूर तक नजर आती मिशीगन लेक के अतिरिक्त इलिनॉइस, इंडियाना तथा विस्कोसिन स्टेट के साथ चारों तरफ फैली स्काई क्रेपर ( ऊंची ऊंची इमारतें ) ...सच खूबसूरत देखने लायक नजारा था।
सियर्स टावर शिकागो की सबसे ऊंची इमारत है। 108 स्टोरी बिल्डिंग (मंजिल की इमारत) की इस इमारत की ऊंचाई 1451 फीट (442 मीटर ) है जबकि एंटीना तक इसकी लंबाई 1730 फीट है । सन 1973 में जब इसका निर्माण हुआ तब यह अमेरिका की सबसे ऊंची इमारत थी। इसने अपना रुतबा 25 वर्षों तक कायम रखा। जनवरी 2009 में इसके मालिक बिलीस ग्रुप ने इसका पुनर्निर्माण कराया तथा 16 जुलाई 2009 से यह इमारत ऑफीशियली 'विलिस टावर' के नाम से जानी जाने लगी है। पुनःनिर्माण में इसकी ऑब्ज़र्वेटरी (निरीक्षण स्थल ) पर ग्लास चेंबर बनाए गए हैं। इस गिलास चैंबर से नीचे का सारा नजारा नजर आता है। इस ग्लास चेंबर पर खड़े होकर ऐसा लगता है कि जैसे हम हवा में खड़े हैं। सीयर्स टावर आने वाला हर व्यक्ति इस ग्लास चेंबर पर खड़े होकर नीचे फैले विशाल दृश्य का आनंद लेता हुआ फोटो अवश्य खींचवाता है। हमने भी इस ग्लास चेंबर पर खड़े होकर फोटो खिंचाई पर मन में एक विचार तेजी से कौंधा... था अगर बाई चांस यह ग्लास चैंबर टूट जाए तो इस पर खड़े सारे आदमियों का पता ही नहीं चलेगा ...। वैसे यह ग्लास चैम्बर 4.5 मीट्रिक टन बोझ सह सकता है। इसे जनता के लिए 2 जुलाई 2009 में खोला गया।
सीयर्स टावर शिकागो का मुख्य आकर्षण स्थल है। हर वर्ष लगभग एक मिलियन व्यक्ति इसके दर्शनार्थ यहां आते हैं। लगभग एक घंटा यहां बिताने के पश्चात हम बाहर निकले तथा टैक्सी पकड़कर नेवी पियर के लिए चल दिए। लगभग आधा घंटे की ड्राइव के पश्चात हम नेवी पियर पहुंचे।
नेवी पियर
नेवी पियर मिशीगन लेक पर स्थित हारबर है जहां वोटिंग करते हुए हम शहर की खूबसूरती का नजारा देख सकते हैं। वोट 1 घंटे से आधा घंटे के लिए मिलती है। मोटर बोट के लिए बुकिंग नेट द्वारा पहले ही करा ली थी। बोट शो के प्रारंभ होने में अभी समय था अतः हम वहां होने वाले एक कंसर्ट (गीत संगीत कार्यक्रम) की टिकट लेकर थिएटर में चले गए। लगभग 1 घंटे का शो था। कलाकार बड़ी ही खूबसूरती के साथ अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। विभिन्न तरह के डांस थे जिनके द्वारा कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए विभिन्न तरह के करतब दिखा रहे थे। कुछ दृश्यों को देखकर हमें अपने समय में होने वाले जेमिनी सर्कस की याद दिला दी। उसमें जानवरों के करतब दिखाने के बीच में लड़के, लड़कियां काफी कुछ इसी तरह का नजारा पेश किया करते थे। मुख्यतः शो की निरंतरता ने हमारा मन मोह लिया।
शो के समाप्त होने के पश्चात हम जॉइंट व्हील में बैठे। मेरा तो बैठने का मन नहीं था पर प्रभा एवं आदेश जी के कहने पर बैठ गई। जॉइंट व्हील जैसे -जैसे ऊपर जा रहा था मिशीगन लेक के चारों ओर फैला नजारा बहुत ही सुंदर नजर आ रहा था ।उसे देखकर ऐसा महसूस हुआ कि जॉइंट व्हील में बैठकर अच्छा ही किया। जब घूमने आए हैं तब हर तरह का आनंद लेना ही चाहिए।
अब तक मोटर बोट में बैठने का हमारा नंबर आ गया था। हम वहां पहुंच कर कतार में खड़े हो गए। नाव ठीक-ठाक थी। नाव में बैठने की बेंचें लकड़ी की थीं। हम सामने की बेंच पर जाकर बैठ गए जिससे कि दृश्य अच्छी तरह से दिखाई दे। सफर प्रारंभ हुआ साथ साथ चलती नावें , वहां का लाइटहाउस, आकाश को छूती इमारतें, सूरज के डूबते समय आकाश में छाई लालिमा तथा उसका पानी में पड़ता प्रतिबिंब दृश्य को अत्यंत ही मनमोहक बना रहे थे। अभी हम चारों तरफ फैली सुंदरता को आंखों में कैद करने का प्रयास कर ही रहे थे कि एकाएक हमे नाव ने अपने डेस्टिनेशन की ओर लौटना आरंभ कर हमें एहसास करा दिया कि अब हमारा लौटने का समय हो गया है। आधा घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला।
हमें लेने के लिए पंकज जी आने वाले थे उनके आने में अभी समय था अतः हमने वहां उपस्थित आर्ट गैलरी में प्रवेश किया। शीशे पर रंगों से उकेरी कलाकृतियां बेहद सुंदर थीं। एक के बाद एक कलाकृति को निहारते हम आगे बढ़ रहे थे तभी पंकज जी का फोन आ गया कि मैं आधे घंटे में पहुंच रहा हूं। जल्दी-जल्दी हम जितना देख सकते थे हमने देखा फिर बाहर आ गए। बाहर क्रैकर शो हो रहा था। क्रेकर शो काफी कुछ उसी तरह का था जैसा बोट शो के समय हुआ था। उसे देखने के लिए काफी संख्या में लोग वहां उपस्थित थे। हम क्रेकर शो को देखते-देखते बाहर निकले। निर्धारित जगह पर पहुंचते ही पंकज जी हमें मिल गए।
दूसरे दिन प्रभा ने हमें वहां के कुछ स्टोर घुमाने की योजना बनाई। अगले सप्ताहांत में हमारा नियाग्रा फॉल देखने का प्रोग्राम था। नियाग्रा फॉल कनाडा की तरफ से देखने से अच्छा लगता है पर हमारे पास कनाडा का वीजा नहीं था। प्रभा पंकज जी का कहना था कि नियाग्रा जाते समय डेट्राइट जहां से कनाडा का वीजा मिलता है, रुककर वीजा बनवा लेंगे। उसके लिए फोटो खिंचवाना था। प्रभा ने एक स्टोर के सामने गाड़ी पार्क की। हमें देखकर आश्चर्य हुआ कि वहीं पर एक महिला ने डिजिटल कैमरे से हमारी फोटो खींची तथा तुरंत ही प्रिंट करके हमें दे दी। वहां हमारे भारत की तरह अलग से फोटो स्टूडियो नहीं था।
अधिकतर यहां बड़े-बड़े स्टोर हैं। जहां सब सामान मिल जाता है।बअब तो भारत में भी रिलायंस स्टोर ,बिग बाजार, स्पेंसर ,विशाल मेगा मार्ट जैसे स्टोर या माल या इन मॉल की चेन हर शहर में खुल गई है अतः इन्हें देखकर हमें ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ पर अभी भी दिल्ली ,बेंगलुरु मुंबई इत्यादि बड़े शहरों को छोड़कर फल और सब्जियों की इतनी वैरायटी शायद ही देखने को मिलें। शिमला मिर्च... लाल पीली, हरी... साइज भी बड़ा, देखने में बहुत ही अच्छी लग रही थीं। फूल गोभी, पत्ता गोभी ,ब्रोकली ,पालक, मेथी, भिंडी, गाजर के अतिरिक्त भारत के खरबूजे की तरह का फल कैंटलूप और हनीड्यू यहां तक कि तरबूज अभी हमें दिखाई दिया।
इसके पश्चात प्रभा हमें 'डॉलर ट्री 'नामक एक स्टोर में ले गई । यह काफी बड़ा स्टोर था। इसकी विशेषता यह थी कि यहां हर चीज $1 की थी। टूथपेस्ट ,पेपर नैपकिन, किचन टॉवल, नेल पॉलिश, लिपस्टिक ,क्लिप जैसी चीजों के अतिरिक्त डेकोरेटिव पीस इत्यादि भी थे।हमने पूरा स्टोर घुमा। कुछ चीजें तो मूल्य के हिसाब से हमें उचित तथा आवश्यक लगीं, वह हमने लीं ... जैसे टूथपेस्ट, सैनिटाइजर , जिप लॉक बैग, एल्मुनियम फाइल, क्लिंग फ़िल्म इत्यादि।शाम हो चुकी थी हम घर लौट आए।
फील्ड म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री
दूसरे दिन हम शिकागो के अजायबघर गए। शिकागो ( इलीनॉइस ) में स्थित फील्ड म्यूजियम विश्व के बड़े अजायबघरों में से एक है। इस अजायबघर ने यह स्थान अपने आकार, शैक्षिक तथा वैज्ञानिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अपने अद्वितीय संग्रह के कारण प्राप्त किया है। इसका नामकरण इसके जन्मदाता ( स्थापित करने वाले) मार्शल फील्ड के नाम पर किया गया है। इस अजायबघर को देखने के लिए प्रतिवर्ष लगभग 2 मिलियन लोग आते हैं।
इसके मुख्य हाल में डायनासोर का कंकाल रखा हुआ है ।इसका 17मई , 2000 में लोकार्पण हुआ था। यह कंकाल 42 फीट (13 मीटर ) लंबा , 13 फीट ऊंचा तथा 67 मिलियन (लाख ) वर्ष पुराना है।यद्यपि इसके सिर को कुछ टेक्निकल कारणों के कारण नहीं लगाया जा सका है। इस डायनासोर की मृत्यु 28 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी। इसके फॉसिल्स (पृथ्वी में गढ़े अस्थिपंजर ) को सयू हैडरिक्सन नामक आदमी ने खोजा था अतः इसको सयू नाम से भी जाना जाता है।
इस अजायबघर में कई गैलरियां हैं। बर्ड ऑफ बर्ड गैलरी में अन्य पक्षियों के साथ भारतीय पक्षी मोर को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ।
इवॉल्विंग प्लेनेट (घूमते ग्रह ) में 4 बिलियन( खरब) वर्ष पूर्व से अब तक पृथ्वी की विकास यात्रा को विभिन्न मॉडलों के जरिए इतने जीवंत तरीके से दर्शाया गया है कि देखकर विश्वास ही नहीं होता कि कितनी कठिन कठिनाइयों से गुजर कर हमने यह मुकाम पाया है।
फील्ड म्यूजियम की लाइब्रेरी में 2,75,000 पुस्तक हैं जो बायोडायवर्सिटी (जीव विभिन्नता ), जेम्स (बहुमूल्य पदार्थ /रत्न ) मीटियअराइट (आकाशीय तारा ग्रह), फॉसिल (पृथ्वी में गड़े मानव और वनस्पति के अवशेष )इत्यादि से संबंधित हैं। जानवरों की प्रदर्शनी वाले भाग में एशिया और अफ्रीका के स्तनपाई जीव बहुतायत संख्या में रखे गए हैं वही ग्रेनर हॉल में हीरे जवाहरातों का बहुत बड़ा एवं नायाब संग्रह है।
यह अजायबघर अपनी विविधता एवं संग्रहणीय वस्तुओं के कारण न केवल दर्शनीय है वरन पढ़ने और शोध करने की सुविधा भी प्रदान करता है। उस दिन लौटते हुए शाम हो गई थी। दूसरे दिन हमें स्वामीनारायण मंदिर देखने जाना था।BAPS श्री स्वामी नारायण टेम्पल
दूसरे दिन हम बारलेट नामक स्थान में स्वामीनारायण मंदिर देखने गए। BAPS श्री स्वामीनारायण मंदिर शिकागो , इलिनोइस बीएपीएस स्वामीनारायण संस्थान द्वारा निर्मित एक पारंपरिक हिंदू पूजा स्थल है। BAPS स्वामीनारायण संस्था, जिसकी अध्यक्षता महंत स्वामी महाराज करते हैं, हिंदू धर्म के स्वामीनारायण शाखा का एक संप्रदाय है।
भारतीय मरकना एवं इटालियन संगमरमर के पत्थरों से बना प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अंतर्निहित किए , आधुनिक टेक्नोलॉजी का अद्भुत सम्मिश्रण है यह मंदिर। इस मंदिर को बार्टलेट के शिकागो उपनगर में 7 अगस्त 2004 को खोला गया। यह हाथ से नक्काशीदार इतालवी संगमरमर और तुर्की चूना पत्थर से बना है। स्वामीनारण मंदिर इलिनोइस में अपनी तरह का सबसे बड़ा है और इसका निर्माण मंदिर वास्तुकला के प्राचीन हिंदू ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों के अनुसार किया गया था। यह परिसर 27 एकड़ में फैला है,
इस मंदिर का निर्माण लगभग 16 महीने में 17 हजार से अधिक कारसेवकों की सहायता से हुआ है।
देश विदेश के लोग इसकी नक्काशी और कारीगरी को देखकर चकित रह जाते हैं। यही हमारे साथ हुआ। दीवारों पर खुदी कलाकृतियों ने जहां मन मोहा, वहीं मंदिर के प्रांगण में स्थित झरना अलग ही छटा बिखेर रहा था...भारतीय वेशभूषा में खड़ी मटकी से पानी गिराती स्त्रियों की मूर्तियां मन मोह रही थीं वही सामने बागान में पेड़ों को हाथियों के आकार में तराशा देख मन आनंदित हो उठा। पूरा का पूरा ही भारतीय लुक था।
लकड़ी से बनी नक्काशीदार इमारत हवेली से हमने मंदिर में प्रवेश किया। यहां हिंदुत्व और उसके आदर्शो को समझने तथा भारत की महानता तथा समृद्धिशाली अतीत के बारे में है बताने के लिए लगी प्रदर्शनी को 5 भागों में बांटा गया है। इसमें चित्रों और लेखों के द्वारा यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि चाहे मेडिसिन हो, चाहे स्पेस, चाहे योग हो या केमिस्ट्री, गणित हो या एलजेब्रा से संबंधित समीकरण, सभी भारत की देन हैं। जीरो की खोज भारत में 700 B C E में हुई तथा गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी भारत के भौतिक शास्त्री महर्षि कनद ने 600 B C E में दुनिया को दिया अर्थात ज्ञान विज्ञान की हर खोज भारत से ही दूसरी जगह गई है। हर क्षेत्र में भारत की अग्रणी रहा है, पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा। कम से कम दूर देश में हमें यह तो एहसास हुआ कि आज विश्व के पास जो कुछ है, वह भारत का ही दिया हुआ है।
मंदिर के अलावा , इसमें एक हवेली, एक छोटी सी किताबों की दुकान भी शामिल है। हवेली एक सांस्कृतिक केंद्र है जिसमें साप्ताहिक मंडलियाँ आयोजित की जाती हैं। मंदिर प्रतिदिन पूजा और दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है।
भारत की संस्कृति और गौरव को समझने और समझाने के लिए यहां नियमित रूप से कक्षाएं भी चलाई जातीं हैं जिनमें भगवान स्वामीनारायण की शिक्षाएं उनके शिष्यों द्वारा सिखाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न भारतीय त्योहारों पर जैसे शिवरात्रि, दीपावली, अन्नकूट, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, हिंदू नव वर्ष के रूप में रामनवमी पर मंदिर को सजाया जाता है। यह जानकर हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई कि इस मंदिर में हर त्यौहार पूरे जोश के साथ पूरी भारतीयता के साथ मनाया जाता है। स्वामीनारायण मंदिर को देखकर लौटते हुए हम सोच रहे थे कि विदेश में अपनी सभ्यता को जीवित रखने का प्रयास सचमुच अद्भुत एवं प्रेरणादाई है।
लौटते हुए रात हो गई थी। खाना खाकर आराम करना ही श्रेयस्कर लगा क्योंकि अगले दिन हमें नियाग्रा के लिए सुबह-सुबह ही निकलना था।
नियाग्रा फॉल
हमें कनाडा का वीजा बनवाना था अतः सुबह 9:00 बजे तक हमारा डेट्रायट पहुंचना आवश्यक था। 9:00 बजे डेट्रायट तक पहुंचने के लिए हमें घर से सुबह 4:00 बजे निकलना था। वीजा सिर्फ 12:00 बजे तक ही मिल सकता था। हम समय से निकल गए।
पेपर तैयार ही थे। पंकज जी और प्रभा पूरे आश्वस्त थे कि हमें वीजा मिल ही जाएगा। उन्होंने कनाडा में होटल मैरियट भी बुक करा लिया था पर हमारे मन में शंका थी क्योंकि इंडिया में तथा अमेरिका में भी एक दो लोगों ने हमसे कहा था कि अगर आप इंडिया से ही कनाडा का वीजा लेकर आते तो अच्छा था, यहां से मिलना कठिन है। पर कहते हैं आस पर दुनिया जिंदा है इसी आस के सहारे प्रयत्न करना था पर फिर भी मन में आ रहा था आखिर कनाडा का टूरिस्ट वीजा मिलने में परेशानी क्यों आएगी जबकि हमारे पास अमेरिकन टूरिस्ट वीजा है ही। कोई भी जब अमेरिका आता है तो वह नियाग्रा फॉल देखना चाहेगा ही।
मन के इसी संशय के कारण आदेश जी ने कनाडा के टोरंटो में रहने वाली अपनी कजिन सिस्टर वनिता को भी अपने आने की सूचना नहीं दी थी। घर से सुबह 4:00 बजे हम निकल गए । थरमस में चाय बना कर रख ली थी। गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार से चल रही थी साथ में ही हमारे विचार भी... बीच-बीच में हम इधर- उधर की बातें करने लगते। वन वे ट्रैफिक था। एक ही लाइन में एक ही स्पीड में गाड़ियां चल रही थीं। अगर कोई फास्ट ड्राइव करना चाहता या सामने वाली गाड़ी को ओवरटेक करना चाहता तो वह दूसरी लेन में जाकर उसे ओवरटेक कर आगे बढ़ जाता... भारत की तुलना में यहां गाड़ी चलाना काफी सुविधाजनक लगा।
लगभग 9:00 बजे के करीब हमने डेट्राइट में प्रवेश किया। पंकज जी ने उस इमारत के सामने गाड़ी खड़ी की जिसमें कनाडा का वीजा मिलने का ऑफिस है। वह काफी बड़ी मल्टी स्टोरी ( बहु मंजिली) इमारत है। इसमें जी.एम. मोटर का भी कार्यालय है। हमें उस इमारत के पास उतारकर पंकज जी गाड़ी पार्क करने चले गए। हम ऑफिस का पता पूछते पूछते पहुंचे। ऑफिस छोटा ही था लगभग 20 -25 लोग लाइन में लगे हुए थे। आदेश जी और पंकज जी लाइन में लग गए तथा मैं प्रभा वहां लगी कुर्सी पर बैठ गए।
लगभग 1 घंटे पश्चात हमारा नंबर आया। सारे डॉक्यूमेंट, फॉर्म के हिसाब से पूरे थे पर काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने सारे पेपर चेक करने के बाद कहा, ' आपका फाइनैंशल डॉक्यूमेंट नहीं है।'
फाइनेंशियर डॉक्यूमेंट था पर वह गाड़ी में रह गया था। उसे निकालकर लाने में समय लगता। आदेश जी और पंकज जी ने उसे अपने अपने तरीके से समझाने का प्रयत्न किया कि हम सिर्फ 2 दिन के लिए नियाग्रा फॉल देखने जा रहे हैं वहां हमारी होटल बुकिंग भी है बुकिंग से संबंधित उन्होंने सारे पेपर दिखाएं पर वह नहीं माना तब पंकज जी ने हमसे कहा तुम बैठो मैं सारे डॉक्यूमेंट निकाल कर लाता हूं।
हम ऑफिस से बाहर निकलकर पास ही बने रेस्टोरेंट में आकर बैठ गए भूख लगी होने के बावजूद खाने का मन नहीं कर रहा था । पता नहीं वीजा मिल पाएगा या नहीं, बार-बार यही विचार मन को परेशान कर रहा था। 11:00 बज रहे थे। 12:00 बजे तक वीजा मिलने का समय है। वहीं एक पंजाबी परिवार भी बैठा था। उनके साथ एक वृद्ध औरत भी थी। हमें अपने देश का जानकर में वह हमारे पास आई। हमसे नमस्ते की तथा कहां से आए हैं वगैरा-वगैरा पूछा। उनकी भी हमारी जैसे ही समस्या थी। अभी हम बातें कर ही रहे थे कि पंकज जी आ गए। आदेशजी एवं पंकजजी पुनः वीजा ऑफिस गए। वहां से थोड़ी ही देर में आ गए तथा कहा 1 घंटे में वीजा के पेपर मिल जाएंगे ..सुनकर मन मस्तिष्क पर छाया बोझ कम हुआ तथा निश्चिंत मन से हम नाश्ता करने लगे।
लगभग 1 घंटे पश्चात वे दोनों फिर ऑफिस गए। वीजा तैयार था। दोनों के आते ही हम बाहर निकले। फिर हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। अभी थोड़ी दूर ही गए थे कि चेकपोस्ट आया। अमेरिका से कनाडा में प्रवेश करते समय बॉर्डर पर चेकिंग होनी थी। एक लंबी लाइन हमारा इंतजार कर रही थी। यह जगह हमारे यहां टोल टैक्स के लिए बनी लाइन के समान थी। लगभग 1 घंटे पश्चात हमारा नंबर आया। वहां उपस्थित संबंधित अधिकारी ने हमारा पासपोर्ट वीजा चेक किया। सब कुछ ठीक होने पर हमें आगे जाने की इजाजत मिल गई।
हम सफर पर चल दिए । इस बीच आदेशजी ने अपनी कजिन सिस्टर वनिता से बात की। उसने कहा कि जब आप इतना पास आ गए हैं तो हमारे घर आने का भी प्रोग्राम बना लीजिए पर यह संभव नहीं था क्योंकि हमारी पहले से बुकिंग हो चुकी थी और ना ही हमारे पास अतिरिक्त समय था कि हम अपना एक दिन का इससे बढ़ा लेते। उसको अपनी समस्या बताई तो उसने कहा अच्छा मैं ही आप लोगों से मिलने आ जाऊंगी।
लगभग 2 घंटे बाद पंकज जी ने प्रभा से कहा,' मैं अब थक गया हूं गाड़ी तुम चलाओ।'
उन्होंने एग्जिट से बाहर निकलकर एक रेस्टोरेंट (सब वे ) पर गाड़ी पार्क की। तब पता चला कि हाईवे के किनारे गाड़ी पार्क करना नियम विरुद्ध है। थोड़ी थोड़ी दूर पर बने एग्जिट से बाहर निकलकर ही गाड़ी पार्क करनी पड़ती है। एग्जिट एरिया में पेट्रोल पंप ,रेस्टोरेंट और वाशरूम की सुविधा भी रहती है जिससे लंबी ड्राइव पर जाने वाले हैं यात्रियों को कोई परेशानी ना हो। इसके लिए पहले से ही साइन आने लगता है। फ्रेश होने के पश्चात हमारी यात्रा फिर प्रारंभ हुई। इस बार ड्राइविंग सीट पर प्रभा थी तथा उसके बगल में मैं बैठी थी। मन में संशय था कि वह कैसे हाईवे पर गाड़ी चला पाएगी। कैसे रास्ते ढूंढेगी पर इस समय कुछ भी कहने सुनने का प्रश्न ही नहीं था। वैसे भी जब पंकज जी ने उसे ड्राइविंग के लिए कहा है तो विश्वास तो होगा ही।
प्रभा ने गाड़ी में सामने लगी मशीन जी.पी.एस. पर कुछ फीड किया। जी.पी.एस. के बारे में सुना अवश्य था पर उसका फायदा आज नजर आ रहा था। पहले पीछे बैठने के कारण मैं पर ध्यान नहीं दे पाई थी पर अब सामने बैठकर उसके दिशानिर्देशों को न केवल स्पष्ट देख पा रही थी वरन सुन और समझ भी पा रही थी। सामने लगी जी.पी.एस. मशीन न केवल रास्ते के बारे में बता रही थी वरन रास्ते में पेट्रोल पंप, रेस्टोरेंट, तथा वाशरूम के बारे में भी दूरी बताने के साथ इंगित भी कर रही थी अगर कहीं मुड़ना होता तो उस मोड़ के पहले ही वह बोलते हुए निर्देश भी दे देती थी।
प्रभा बड़ी ही चुस्ती और फुर्ती से ड्राइव कर रही थी जो मेरे लिए एक अनोखा अनुभव था। जगह-जगह पर स्पीड लिमिट लिखकर आ रही थी। लगभग सभी स्पीड लिमिट को फॉलो कर रहे थे क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करते तो फाइन हो सकता है। अगर किसी को अपनी स्पीड कम या अधिक करनी है तो वह स्पीड के अनुसार अपनी लेन बदल सकता है। प्रभा ने हमें बताया कि यहां पर हाईवे या अन्य सड़कों पर चलने वालों के ऊपर ट्रैफिक पुलिस के कंट्रोल रूम से निरंतर निगरानी रखी जाती है। अगर कोई ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करता है तो तुरंत पकड़ा जाता है तथा उसे फाइन देना पड़ता है। प्रभा की इस बात से लगभग हफ्ते का वाकया याद आया... प्रभा की बेटी प्रियंका की गाड़ी की हेड लाइट अचानक खराब हो गई। उसे पता ही नहीं चला तथा वह गाड़ी ड्राइव करती रही। जब नियम तोड़ने का उसे संदेश मिला तब उसे पता चला कि गाड़ी की हेड लाइट खराब हो गई है। दूसरे दिन उसने लाइट ठीक करवाई तथा जुर्माना भरा ...इस एक उदाहरण से ही पता चल जाता है कि यहां ट्रैफिक नियम कितने कड़े हैं।
चलते चलते एक बार सू...की आवाज आई। मैंने प्रभा से पूछा तो प्रभा ने बताया यह आवाज सड़क के किनारे बने पीली लाइन को गाड़ी के पहिए द्वारा छूने के कारण हुई है। इसका मतलब है हम अपने लेन से भटक रहे हैं। यहां पर सड़क के किनारे बनी पीली लाइन पर छोटे-छोटे कटा वाली धारियां (स्पीड ब्रेकर टाइप ) बनी रहती हैं। जब तेज रफ्तार चलती गाड़ी इस पीली लाइन।को छूती है तो गाड़ी में हल्के झटके (वाइब्रेशन) आने लगते हैं जो चालक को सावधान कर देते हैं जिससे दुर्घटना से बचाव हो सके।
इसी तरह हमने भी गाड़ियों की लाइट जलती देखी तो उसने कहा कि यहां गाड़ियों में लगे सेंसर निर्धारित लाइट के कम होने पर अपने आप लाइट जला देते हैं ...अर्थ यह यह कि आपको यहाँ गाड़ी का स्टीयरिंग संभालने के अतिरिक्त कुछ नहीं करना पड़ता है। सब कुछ गाड़ी में लगी मशीन अपने आप ही कर देतीं हैं। हमें आश्चर्य तो तब हुआ जब प्रभा ने सीधे मैरियट होटल के पार्किंग लाउंज में गाड़ी खड़ी करके यात्रा की समाप्ति की घोषणा की। शाम का 4:00 बज रहा था हमने लगभग 800 मील की यात्रा कर ली थी। अपने भारत में इतने कम समय में इतनी दूरी तय कर पाना संभव ही नहीं है। सिर्फ इसी बात से यहां की सड़कों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है।
हमने रिसेप्शन पर अपने लिए बुक कमरे की चाबी ली तथा सामान लेकर अपने कमरे में पहुंचे। हमारा कमरा 19 वीं मंजिल पर था। हमने कमरे में जैसे ही प्रवेश किया उसकी खिड़की से नियाग्रा फॉल को देखते ही मुंह से निकला... अति सुंदर... अति सुंदर...। इस झरने को देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे 8 घंटे की हमारी थकान छूमंतर हो गई है। पंकज जी फॉल व्यू वाला कमरा बुक कराया था जिससे कमरे के अंदर से प्रकृति के सौंदर्य को निहार सकें। कनाडा की तरफ घोड़े की नाल के आकार का फॉल बहुत ही सुंदर है। जैसा सुना था वैसा ही पाया। हम इस दृश्य को आंखों में भर लेना चाहते थे। वैसे होटल की खिड़की से अमेरिका की तरफ वाला झरना भी पूरी तरह दिख रहा था। यह सीधा फॉल है पर इसकी शोभा भी कम नहीं है। हम सामने रखी कुर्सी पर बैठकर झरने का आनंद लेने लगे।
' क्या यहीं बैठे-बैठे फलक5 देखती रहोगी, नीचे नहीं चल आ है क्या ?' आदेशजी ने कहा।
आदेशजी की आवाज सुनकर हम सपनों की दुनिया से बाहर आए। कॉफी बनाने के लिए कॉफी मेकर ऑन कर दिया तथा फ्रेश चले गए। फ्रेश होकर आए, तो कप में कॉफी, शुगर और दूध डालकर काफी तैयार कर सबको दी। फॉल को देखते-देखते गरमागर्म कॉफी का आनंद लिया तथा नीचे चल दिए। रिसेप्शन में कुछ बुकलेट रखीं थी जो भी हमें ठीक लगी हमने उठा लीं।
होटल से नीचे उतरते ही फॉल था। एक ट्रॉली लिफ्ट भी चल रही थी ऊपर से नीचे जाने के लिए पर हमने पैदल जाना ही उचित समझा। सोचा इस बहाने इधर-उधर के दृश्य भी देख लेंगे।
थोड़ी देर में हम नीचे पहुंच गए। जितना सुंदर फॉल था उतना है अच्छा वहां का रखरखाव था। वैसे उस फॉल को देखकर हमें अपने देश के जबलपुर में स्थित 'धुआंधार फॉल' की याद आ गई। वह भी इसी तरह घोड़े की नाल की तरह बना हुआ है तथा उसका पानी भी इतने वेग से नीचे गिरता है कि चारों ओर पानी की बौछारों के कारण लगता है कि जैसे रिमझिम बरसात हो रही है तथा जहां पानी गिरता है वहां धुंआ भी हो जाता है शायद इसी कारण उसका नाम 'धुंआधार 'पड़ा है। वहां मार्बल रॉक के बीच बहती नदी में वोटिंग करना तथा फॉल का आनंद लेना एक अनोखा सुख प्रदान करता है। कहते हैं पूर्णिमा कि वहां पूर्णिमा की रात में उपस्थित मार्बल रॉक पर चांदनी के कारण बना अभूतपूर्व दृश्य दर्शकों को अभूतपूर्व आनंद से भर देता है।
'दीदी कहां खो गई चलो आगे चलते हैं। यह कनाडा की तरफ का फॉल है। थोड़ा आगे जो दिख रहा है वह अमेरिकन साइड का है तथा सामने दिखता पुल दोनों भागों के बीच आवागमन का साधन है।' प्रभा की बात सुनकर मैं विचारों से बाहर आई।
चलते-चलते जब उसे 'धुआंधार फॉल' के बारे में बताया तो उसने कहा, ' तुम सच कह रही हो दीदी, हमारे भारत में एक से एक अच्छे पर्यटन स्थल हैं पर हमारी सरकार को इसका एहसास नहीं है कि उनको कैसे उनको डेवलप किया जाए तथा कैसे इनका प्रचार प्रसार करें जिससे इन स्थलों को देखने के लिए न केवल ज्यादा से ज्यादा दर्शक आएं वरन टूरिज्म की वजह से भी कुछ आय हो।'
बातें करते -करते हम अमेरिकन साइड के फॉल की तरफ बढ़ गए। यह फॉल भी अच्छा था पर कनाडा के फॉल की तरह नहीं है। हमने पूछा इसका नाम नियाग्रा फाल कैसे पड़ा ? तो प्रभा ने बताया यह नियाग्रा रिवर के द्वारा बना है इसलिए इसे नियाग्रा फॉल कहते हैं। इस फॉल के आसपास बसी आबादी नियाग्रा शहर कहलाती है।
नियाग्रा रिवर में छोटे जहाज की तरह नावें में चल रही थीं। उनमें कुछ अमेरिकन साइड से आ रही थी तो कुछ कनाडा की तरफ से। दोनों तरफ की बुकिंग काउंटर तथा डेक अलग -अलग थे पर यह बात अच्छी लगी कि अमेरिकन साइड वाली बोट कनाडा साइड के फॉल तक आ रही थी तथा कनाडा साइड की बोट अमेरिकन फॉल तक जाकर दर्शकों को फॉल का आनंद करा रही थी। तेजी से गिरते झरने से गिरते पानी के छींटे से कपड़े गीले ना हो जाए उसके लिए दर्शकों को पहनने के लिए रेनकोट दिया गया था। नीले रंग का कनाडा सेड वालों का था तथा पीले रंग का अमेरिकन साइड वालों का था। शायद रंग का यह अंतर दोनों देशों के यात्रियों को पहचान देने के लिए था।
उस दिन तो समय के अभाव के कारण और कहीं घूमने का प्रश्न ही नहीं था। रेलिंग के किनारे खड़े होकर ही हमने फॉल का आनंद लिया तथा कुछ फोटोग्राफ भी लिए। शाम हो गई थी हम वहीं पार्क में बड़ी बेंच पर बैठकर फॉल का आनंद लेने लगे... होटल के रिसेप्शन से हमने आसपास घूमने की जगह की जानकारी प्राप्त करने के लिए बुकलेट ले ही ली थी। फॉल की सुंदरता निहारते निहारते मैं वही बुकलेट पढ़ने लगी …
2-नियाग्रा फॉल…'हनीमून कैपिटल'
वस्तुतः बर्फ की एक बहुत बड़ी सतह या पिंड के गिरने के कारण एक बड़ी नदी जिसे लेक ऐरी का नाम दिया गया, नियाग्रा फॉल के निर्माण का कारण बनी। इसके कारण शहर का नाम ही नियाग्रा तथा नदी का नाम नियाग्रा रिवर पड़ गया। यह नदी लगभग 12,000 वर्षों से बहती आ रही है। मौलिक रूप से इस फॉल का निर्माण लुइस्तन शहर के 7 मेल उत्तर में हुआ था लेकिन कटाव के कारण अब यह लुइस्तन तथा ओंटीरिओ के लगभग बीच में स्थित है। नियाग्रा नदी इंटरनेशनल बाउंड्री द्वारा दो भागों में विभक्त है नियाग्रा फॉल और न्यूयॉर्क तथा नियाग्रा फॉल और ओंटीरिओ नदी पर बने रेनबो पल द्वारा जुड़े हुए हैं।
कनाडा की तरफ स्थित फॉल घोड़े की नाल के आकार का है जिसका 2,200 फीट का अत्यंत गहरा कटाव है। इसकी ऊंचाई 177 फीट है अर्थात पानी 177 फीट ऊंचाई से नीचे गिर कर फॉल का निर्माण करता है वहीं अमेरिका की तरफ स्थित फॉल का 1,075 फीट का सीधा कटाव है तथा इसकी ऊंचाई 184 सीट है। तीसरा छोटा ब्राइडल वेल फॉल है जो नियाग्रा फॉल से लूना और गोट आइसलैंड द्वारा अलग होता है।
फॉल में गिरने से पहले आधे से अधिक पानी पावर जनरेशन के लिए ले लिया जाता है। अगर जनरेशन के लिए पानी को डायवर्ट ना किया जाए तो 1.5 गैलन पानी एक सेकेंड में कटाव से नीचे गिरेगा। वास्तव में 700,000 गैलन पानी प्रति सेकेंड गिरकर अद्वितीय फॉल का निर्माण करता है।
2,000 वर्षों से यहां लोग रह रहे हैं। एक पुजारी फादर लुईस हेनिपेन ने जब 1678 में जब इस झरने को देखा तो वह प्रार्थना की मुद्रा में घुटने के बल बैठ गया तथा कह उठा... पूरी पृथ्वी पर इसके जैसा झरना हो ही नहीं सकता...।
सन 1820 में स्टीमशिप तथा सन 1840 में रेल के द्वारा यहां आने का साधन उपलब्ध होने से ज्यह स्थान पर्यटकों के लिए उपलब्ध हो गया। एक पुरानी कहावत के अनुसार जो लोग यहां हनीमून के लिए आते हैं उनका प्यार उतना ही चिरस्थाई रहता है जितना कि यह फॉल है ...सचमुच हनीमून के लिए यह स्थान स्वर्ग से कम नहीं है शायद इसीलिए इसे 'हनीमून कैपिटल ' भी कहा जाता है। यह फॉल एक वर्ष में लगभग ढाई इंच कट रहा है लेकिन फिर भी सदियों तक अपने इसी रूप में लोगों को आकर्षित करता रहेगा।
नियाग्रा फॉल के अतिरिक्त अमेरिका तथा कनाडा की तरफ के कुछ अन्य दर्शनीय स्थल है ...जैसे गोट आइसलैंड, डिस्कवरी सेंटर, रेनबो ब्रिज, प्रोस्पेक्ट पॉइंट, क्लिफ्टन हिल, ओके गार्डन पार्क, क्वीन विक्टोरिया पार्क, वर्ल्ड ऑफ लास्ट किंग्डम, स्काईलोन टॉवर, स्काई व्हील, फॉल व्यू वाटर पार्क, आईमैक्स थियेटर , वर्लपूल एरो कार, फ्लोरल क्लॉक, बटरफ्लाई एक्ज़िबिट, हेलीकॉप्टर राइड इत्यादि। इसके अतिरिक्त नियाग्रा सीनिक ट्रॉली चलती है जो तीन मील तक फैले नियाग्रा पार्क का गाइडेड टूर कराती है।
अभी मैं पढ़ ही रही थी कि झरने के पानी पर विभिन्न तरह की लाइटें, सर्च लाइट के द्वारा पड़ने लगीं। इन विभिन्न प्रकाश की किरणों ने एक अलग ही दृश्य पैदा कर दिया था। लग रहा था जैसे बहुत सारे रंगों का पानी एक साथ गिरकर एक गहरे कुंड में समा रहा है। सूरज अस्तांचल में विश्राम के लिए जाने लगा था। हमने सोचा अब खा-पीकर आराम किया जाए अतः झरने के सामने बने वेलकम सेंटर में चले गए। वहां भी एक रिसेप्शन काउंटर था। वहां से कुछ जानकारी प्राप्त कर अंततः इस दृश्य को देखने के लिए हमने वहीं स्थित रेस्टोरेंट में खाने का मन बनाया तथा ऐसी टेबिल का चुनाव किया जहां से दोनों झरने नजर आएं। खाते-खाते झरने को निहारना अत्यंत ही अच्छा लग रहा था।
हम खाकर अपने कमरे में लौट ही रहे थे कि अचानक क्रैकर्स शो प्रारंभ हो गया। आकाश में बनती बिगड़ती विभिन्न आकृतियों ने मन को सहज ही मोह लिया। सच तो यह था कि कभी हम आकाश की तरफ देखते जहां विभिन्न तरह तरह के दृश्य पटाखों द्वारा बनाए जा रहे थे तो कभी झरने की तरफ जिसमें विभिन्न रंग फॉल ( झरने ) की लहरों को एक मायावी रूप प्रदान कर रहे थे। हमें पता चला कि यह क्रेकर शो हफ्ते में दो बार होता है। शुक्रवार तथा इतवार की रात को 8:00 बजे तथा कुछ छुट्टी के दिन भी ...संयोग से उस दिन शुक्रवार था।
खाना खाकर हम अपने कमरे की ओर जा रहे थे पर अभी भी फॉल की खूबसूरती देखने को मन मचल रहा था पर सब कुछ चाहने से ही तो नहीं होता... समय का भी ध्यान रखना पड़ता है। अपने कमरे में आकर फॉल की तरफ देखा तो पाया अभी भी सर्च लाइट के जरिए फॉल पर विभिन्न तरह के रंग डाले जा रहे हैं जिसके कारण फॉल की खूबसूरती और भी बढ़ गई है। उस समय ऐसा महसूस हो रहा था जिसने अमेरिका आकर यह फॉल नहीं देखा तो उसने कुछ भी नहीं देखा।
हमने टी, कॉफी मेकर द्वारा काफी बनाकर पी। आदेशजी और पंकज जी अपने -अपने बेड पर लेट गए और शीघ्र ही सो भी गए। दरअसल हमने अपनी सुविधा के लिए ऐसा कमरा लिया था जिसमें एक ही कमरे में दो डबल बेड थे। मैं और प्रभा रूम में पड़ी कुर्सियों पर बैठकर फॉल का आनंद लेते हुए बातें करने लगे। दो स्त्रियां , वह भी दो बहनों की बातों का भी कभी अंत हो सकता है। आखिर समय ने हमें जताया तो हमने सोचा चलो अब बातों को विराम देकर विश्राम कर ही लिया जाए क्योंकि सुबह फिर से नियाग्रा शहर के अन्य पर्यटन स्थलों को घूमना है।
3-नियाग्रा फॉल
दूसरे दिन हम सोकर उठे , आदेश जी और पंकजजी अभी सो रहे थे अतः हम दोनों बाहर बालकनी में आकर बैठ गए। सामने इंद्रधनुष दिख रहा है। पता चला कि यहां पर इंद्रधनुष दिखना आम बात है। मुझे तथा प्रभा को बेड टी की आदत नहीं थी अतः हम एक-एक करके फ्रेश हो लिए। अब तक आदेशजी और पंकजजी भी उठ गए थे। हमने रूम का पर्दा उठा दिया। फॉल पर सूरज की पहली किरण एक अलग ही नजारा पेश कर रही थी। प्रभा ने कॉफी मेकर ऑन किया तथा दोनों को काफी का कप पकड़ाते हुए कहा, ' दीदी, कल नीचे से ऊपर आते हुए मैंने देखा था कि नीचे काफी हाउस में चाय भी मिल रही है। चलो चाय ले आते हैं। मेरा काफी पीने का मन नहीं कर रहा है।'
हम दोनों 19वीं मंजिल से लिफ्ट द्वारा नीचे आए। रेस्टोरेंट में दो तरह की चाय मिल रही थी उसने साढ़े $4 वाली चाय ऑर्डर की तथा कहा, 'यह चाय इंडिया की मसाला चाय जैसी होती है। दूसरी तो केवल उबला पानी लगती है। '
प्रभा के अनुसार हम न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में उबला पानी ही पीते रहे थे। वह दो ढाई डॉलर में मिल जाती थी। वैसे हमें चाय के बारे में पता भी नहीं था। वहां स्मॉल कप , मीडियम कप तथा बिग कप में चाय या कॉफी मिलती थी। बिग कप में बहुत ज्यादा कॉफी या चाय होने के कारण पी ही नहीं पाते थे। स्मॉल कप महंगा पड़ता था। मीडियम कप में भी इतनी अधिक मात्रा में कॉफी या चाय रहती थी कि दो लोग उसे पी सकते थे अतः हम लोग मीडियम कप चाय या कॉफी लेकर एक एक्स्ट्रा खाली कप ले लेते थे तथा उसको दो भागों में विभक्त कर पी लेते थे। इस बार भी ऐसा ही किया।
थोड़ी ही देर में आदेशजी और पंकजजी भी तैयार हो गए। हम नाश्ते के लिए होटल में बने रेस्टोरेंट में गए। नाश्ता कंप्लीमेंट्री था ...जूस, विभिन्न तरह के सिरियल्स, फ्रूट सलाद, ब्रेड आमलेट , केक वगैरा कई तरह के व्यंजन थे। भारत के अच्छे होटलों में भी इसी तरह की चीजें रहती हैं। इन सबके अतिरिक्त भारतीय होटलों में भारतीय डिश पूरी पराठा या साउथ इंडियन इडली दोसा, बड़ा सांभर भी नाश्ते में सम्मिलित रहते हैं।
नाश्ता करने के पश्चात हम अपने मिशन पर निकले ... हमने Niyagra falls great gorge adventure pass लेना उचित समझा जिससे अलग-अलग जगह, अलग-अलग टिकट लेने की आवश्यकता ना पड़े। इस पास के अंतर्गत हम जर्नी बिहाइंड द फॉल, वाइट वाटर लेक, मेड ऑफ मिस्ट तथा नियाग्रा फ्यूरी देख सकते थे ।
सबसे पहले हम maid of mist के कतार में जाकर लगे मेड ऑफ मिस्ट अर्थात वह जहाज या नाव जिसमें बैठकर हमें फॉल का आनंद लेना था । यह जहाज मेड ऑफ मिस्ट प्लाजा से चलता है। मेड ऑफ मिस्ट प्लाजा में 4 हाई स्पीड एलिवेटर चलती हैं जो यात्रियों को नीचे डेक तक ले जाती है। एलिवेटर के द्वारा हम डेक पर पहुंचे जहां से आप 15 मिनट पर जहाज चलता है। जहाज में प्रवेश करने से पूर्व हमें नीले रंग का रिसाइकिलेविल रेन कोट पहनने के लिए दिया गया । अपना समय आने पर हमने जहाज में प्रविष्ट किया। जहाज में लगभग 600 यात्री बैठ सकते हैं। यह जहाज लगभग 80 फीट लंबा था तथा इसमें 350 हॉर्स पावर के दो डीजल से चलने वाले इंजन लगे रहते हैं जो जहाज को बहाव के विपरीत दिशा में ले जाते हैं।
सब यात्रियों के बैठते ही जहाज चल दिया। जहाज घूमता हुआ पहले वह अमेरिकन साइड के फॉल फॉल के बिल्कुल नजदीक तक गया। फॉल के पानी के गिरने से उत्पन्न छीटें रिमझिम बरसात का एहसास करा रहे थे। इस सबके बीच में लोगों के कैमरे चालू थे। साथ ही फॉल के इतिहास के बारे में जानकारी देती कमेंट्री भी... इस फॉल को 1889 में किसी विदेशी ने खोजा था। तबसे यह फॉल लगातार लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। धीरे-धीरे हमारा जहाज आगे बढ़ता गया। हमारा जहाज झरने के किनारे किनारे चलता-चलता कनाडा साइड के झरने जो घोड़े की नाल के आकार का था, के पास पहुंचा तथा बीचो-बीच खड़ा हो गया। यहां झरना अपनी पूरी ऊंचाई से नीचे गिर रहा था। लगभग पंद्रह मिनट तक जहाज वहीं खड़ा होकर दर्शकों को झरने की गहराई का एहसास कराता रहा। पानी के छींटे इतने तेज थे कि चेहरे को भी रेनकोट से ढकना पढ़ रहा था। यहां तक कि आंखें खोलना भी संभव नहीं हो पा रहा था। पानी का शोर तथा पानी की बौछारें जहां तन मन को विभोर कर रही थी वहीं आंखें मंत्रमुग्ध सी फॉल की सुंदरता को निहार रही थीं।
अब जहाज लौट रहा था। हम उस दृश्य को आंखों में भरकर खुशनुमा एहसास को दिल में समाए हुए धीरे-धीरे हम फॉल से दूर होते जा रहे थे आखिर मेड ऑफ मिस्ट की हमारी यात्रा पूरी हुई। मेड ऑफ मिस्ट में शॉपिंग और डाइनिंग खरीदने और खाने की सुविधा दी थी इसके पश्चात अब हमें दूसरे स्थान की ओर जाना था।
अब हम जर्नी बिहाइंड फॉल की कतार में जाकर खड़े हो गए। हम एलिवेटर द्वारा 150 फीट नीचे उतर कर ऑब्जर्वेटरी डेक (निरीक्षण स्थल) पर पहुंचे जो फॉल के फुट पर स्थित है। हमें यहां पहनने के लिए पीला रेनकोट दिया गया, उसे पहनकर हम फॉल के समीप बने गलीनुमा रास्ते से होते हुए अंदर गए। यह स्थान फॉल के एकदम नजदीक है। इसके किनारे बनी रेलिंग के सहारे खड़े होकर हम ऊपर से नीचे गिरते पानी की धारा को नजदीक से देखते हुए बौछारों का आनंद ले रहे थे पर वहां पानी की इतनी तेज बौछारें थी कि खड़ा होना तथा आंखें खोलना भी कठिन लग रहा था। रेनकोट पहने होने के बावजूद कपड़े गीले होने का एहसास हो रहा था और अच्छा भी लग रहा था। हमने यहां कुछ फोटोग्राफ भी लिए।
लगभग एक घंटा यहां व्यतीत करने के पश्चात हमने नियाग्रा फ्यूरी की ओर प्रस्थान किया। नियाग्रा फ्यूरी का स्टूडियो कनाडा के घोड़े के नाल के आकार के फॉल के समीप स्थित टेबल रॉक वेलकम सेंटर में है। यहां 4 डी स्टूडियो में विभिन्न तकनीकों के जरिए यह बताया जाता है कि नियाग्रा फॉल कैसे निर्मित हुआ। जिस प्लेटफार्म पर हम खड़े हुए वह कभी हिलता तथा कभी हल्का तिरछा होकर हमें प्रकृति के विराट रुप का दर्शन करा रहा था तथा यह भी बता रहा था कि कैसे बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघलकर पानी बनकर इस झरने का निर्माण करते हैं। इस क्रम में बर्फ के टुकड़े तथा पानी की बूंदे हमारे ऊपर गिर कर वास्तविकता का अहसास करा रही थीं।यहां तक कि तापमान भी 20 डिग्री तक गिर गया था। यह लगभग 10 मिनट का शो है। यहां भी पहनने के लिए हमें रेनकोट दिया गया।
इसके पश्चात हम नियाग्रा फॉल डिस्कवरी सेंटर गए। यहां पर फॉल और गार्ज के प्राकृतिक और स्थानीय इतिहास के बारे में जानकारी मिली। इसमें प्राचीन रॉक लेयर मिनिरल और फॉसिल्स की जानकारी के साथ ग्रेट गार्ज रूट ट्रॉली लाइन के इतिहास के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ जानने को मिला। 180 डिग्री मल्टीस्क्रीन थिएटर प्रेजेंटेशन शो के द्वारा बताया गया कि कैसे नियाग्रा रिवर गार्ज तथा फॉल के रूप में 12,000 वर्षों से लगातार बहती आ रही है।
अब हमें वाइट वाटर लेक देखने जाना था। वह जगह यहां से दूर थी अतः हम बस पकड़ने के लिए वहां स्थित बस स्टैंड पर खड़े हो गए। पास तो हमारे थे ही, थोड़ी ही देर में बस आ गई। दो बसें आपस में जुड़ी हुई थीं। यह बस मुझे लगभग वैसी ही लगी जैसे कोलकाता में ट्राम होती है। अंतर केवल इतना था कि ट्राम रेल की पटरियों पर चलती है जबकि यह सड़क पर चल रही थी। हम बस में जाकर बैठ गए। बस में आसपास के स्थलों के बारे में जानकारी दी जा रही थी । थोड़ी देर में हमारा गंतव्य स्थल आ गया। वहां हमें वनिता दी मिल गईं जो टोरंटो में रहती हैं। हमारे टोरंटो न जा पाने के कारण वह अपने पति धीरजी के साथ हम से मिलने आई थी ।
यहां भी शॉपिंग सेंटर था। उसे देखते हुए हम एलिवेटर तक पहुँचे। एलीवेटर ने हमें उस जगह पहुंचाया जहां से हम नियाग्रा रिवर के पानी को काफी तेजी से बेहता देख सकते थे। यहां बहता पानी एकदम सफेद नजर आ रहा था शायद इसी कारण इसे वाइट वाटर लेक का नाम दिया गया है। पानी का शोर काफी कुछ हमारे भारत की पहाड़ी नदी का एहसास करा रहा था। नदी के किनारे दर्शकों के घूमने के लिए 305 मीटर लंबा पथ बना हुआ था। कुछ समय यहां बिताकर यादगार के रूप में हमने कुछ फोटो लिए तथा बाहर निकल आए। वनिता दी और धीरजी चले गए तथा हम बस से वापस नियाग्रा फॉल लौट आये।
वहां से होटल के लिए हम पैदल ही चल दिए जिससे कि आसपास के स्थानों के बारे में जान सकें। चलते- चलते हम थक गए थे अतः कॉफी पीने के इरादे से एक कॉफी हाउस में कॉफी पीने बैठ गए बयह काफी हाउस एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग के पास स्थित है। मल्टी स्टोरी बिल्डिंग के ऊपर की मंजिल पर एक रिवाल्विंग रेस्टोरेंट है। पता चला कि इस रिवाल्विंग रेस्टोरेंट के डाइनिंग हॉल से नियाग्रा फॉल तथा नियाग्रा शहर का विहंगम दृश्य नजर आता है। हमने उसी रेस्टोरेंट्स में खाने का मन बनाया। समय बिताने के लिए हम कुछ देर इसकी नीचे की मंजिल में स्थित स्टोर में घूमे जिसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बिक रही थीं। हमने खरीदा तो कुछ नहीं अंततः हम खाना खाने रेस्टोरेंट चले गए। नियाग्रा फॉल और नियाग्रा शहर को देखते में खाना खाया । यह नियाग्रा का प्रसिद्ध स्काइलोन टावर है।
इस रिवाल्विंग रेस्टोरेंट में खाना खाते खाते हुए हमें मुंबई का अम्बेसडर होटल में रिवाल्विंग रेस्टोरेंट की याद आ गई। जहां बैठकर खाना खाते हुए मुंबई की मैरीन ड्राइव दूर सुदूर तक फैले समुंदर तथा पास में ही स्थित क्रिकेट ग्राउंड दिखाई देता है। दिन में जहां समुद्र की अठखेलियां करती लहरें दिल को लुभाती है वहीं रात्रि के समय मैरीन ड्राइव पर लगी लाइटें धनुषाकार रूप में अत्यंत मनमोहक पैदा दृश्य करती हैं। कुछ ऐसा ही दृश्य यहां नियाग्रा फॉल पर पडती लाइटें तथा शहर को रोशन करती लाइटें पैदा करे थीं । गलत रास्ते पर चले जाने के कारण उस दिन हमें बहुत चलना पड़ा पर नियाग्रा शहर का काफी भाग देखने को मिल गया। इतना चलने के पश्चात हम सभी बहुत थक गए थे। अब सोने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था।
4-नियाग्रा फॉल
दूसरे दिन हम गोट आइसलैंड गए। अगस्टस पार्टर ने सन 1800 सेंचुरी के प्रारम्भ में अपने दूरंदेशी विजन के द्वारा इन झरने के महत्व को पहचान कर इस आइसलैंड को न केवल खरीदा वरन इसे प्रिजर्व भी किया। सन 1817 में उसने टोल ब्रिज का निर्माण कराया पर वह बह गया फिर उसने दूसरा ब्रिज बनवाया जो 700 फीट लंबा था जिसके बारे में बेसिल हॉल में कहा था कि यह ब्रिज विश्व में इंजीनियरिंग का बेजोड़ नमूना है।
जॉन स्पीडमैन नामक व्यक्ति ने इस आइसलैंड में गोट रखी थी पर वह सभी गोट सन 1780 के जाड़ों में मर गईं तबसे इस आइसलैंड का नाम वोट आइसलैंड पड़ गया। सन 1879 में एक वनस्पति शास्त्री फ्रेडरिक लॉ ओल्म्सटेड ने लिखा है नकि उन्होंने 4000 माइल इस कॉन्टिनेंट का भ्रमण किया पर इस तरह के पेड़ तथा शर्ब ( छोटे कोमल पेड़) कहीं नहीं मिले। शायद प्रकृति की इन अनमोल धरोहरों को फॉल (झरने) की बौछारों ने जीवित रखा है। गोट आइसलैंड नियाग्रा रिवर के चैनल को दो भागों में बांटा है जो दो फॉल का निर्माण करते हैं। एक अमेरिकन साइड का सीधा फॉल तथा दूसरा कनाडा का घोड़े के नाल के आकार का फॉल...। सन 1959-60 में इसके पूर्वी भाग को 8.5 एकड़ में बढ़ाया गया जिससे पार्किंग की सुविधा तथा हेलीपैड बनाया जा सके।
करीब एक घंटा यहां व्यतीत करने के पश्चात हम 'केव ऑफ विंड' देखने चल दिए। केव ऑफ विंड का ट्रिप हमें नियाग्रा फॉल के पानी के अत्यधिक समीप तक ले जाता है। मुख्य ओरिजिनल केव जो ब्राइडल वेल फॉल के पीछे हैं वह 130 फीट ऊंची, 100 फीट चौड़ी तथा 30 फीट गहरी है जिसको सन 1834 में खोजा गया तथा जिसका नाम ग्रीक गॉड ऑफ विंड ' के नाम पर 'एओलिस केव ' दिया गया। इसके लिए गाइडेड टूर सन 1841 में प्रारंभ हुआ तथा सन् 1920 तक चलता रहा पर अचानक एक शिला (चट्टान) के गिर जाने के कारण इसे बंद किया गया। टूर को सन 1924 में फिर प्रारम्भ किया गया पर इस बार पर्यटकों को ब्राइडल वेल फॉल के पिछले भाग की बजाय सामने।के भाग द्वारा कई पैदल रास्तों के द्वारा घुमाया जाता है।
केव ऑफ विंड के ट्रिप के लिए एलिवेटर के द्वारा हम 175 फीट डीप नियाग्रा गोर्ज अर्थात पर्वत के बीच के संकुचित मार्ग तक पहुंचे। वहां हमें पहनने के लिए ब्राइट यलो पोचो तथा विशेष रूप के जूते पहनने के लिए दिए गए। तथा गाइडेड टूर ओपरेटर की सहायता से हमें लकड़ी के बने रास्तों से गुजरना पड़ा जिसमें हरिकेन डेक भी शामिल था । जब हम रेलिंग के सहारे खड़े हुए थे तब हम ब्राइडल वेल फॉल से मात्र 20 फीट दूर थे। पानी की तेज बौछारों के साथ फॉल की तेज आवाज हमारे मन मस्तिष्क में गूंज कर कंपन पैदा करने लगी। फॉल से 150 फीट दूर फॉल के बेस पर डेक बनाई गई है जिसे मुख्यतः अपंग, बुड्ढे तथा छोटे बच्चों के लिए बनाया गया है ।
नियाग्रा सीनिक ट्रॉली जो तीन मील का गाइडेड टूर उपलब्ध कराती है, के द्वारा हमने नियाग्रा पार्क के कुछ आकर्षक स्थल देखे।
नियाग्रा फॉल ग्रेट गार्ज पास 13 वर्ष से अधिक के लिए $ 42.71 , 12 वर्ष तक के लिए $26. 68 डॉलर तथा 5 वर्ष से कम के लिए टिकट की आवश्यकता नहीं है। यह पास किसी भी टिकट विंडो से लिए जा सकते हैं। अमेरिका में नियाग्रा फॉल तथा अन्य दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए पासपोर्ट टू द फॉल नामक टिकट मिलती है जिसके द्वारा हर दर्शनीय स्थान की टिकट पर 30 परसेंट की छूट मिलती है। यह टिकट नियाग्रा फॉल स्टेट पार्क विजिटर सेंटर तथा अमेरिकन ऑटोमोबाइल एसोसिएशन ऑफिस (बफेलो) से प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त info@niyagrafallslive.com पर मेल कर जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं।
हर स्थान की हर जगह देख पाना तो किसी के लिए भी संभव नहीं है। समय हो गया था हम नियाग्रा फॉल की खूबसूरती को आंखों में कैद कर अपने कमरे में लौट आए अगले दिन हमें वापस लौटना था।
सुबह नाश्ता करके हम शिकागो के लिए चल दिए। जाते समय वीजा को लेकर मन में तनाव था अब वह नहीं था...साथ ही खूबसूरत फॉल को देखने की इच्छा पूर्ण होने से मन में शांति थी। खूबसूरत एहसासों को दिल में समेटे आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को देखते हुए तथा बातचीत करते हुए रास्ता आराम से कट रहा था। एक बार फिर यही एहसास मन में जगा कि धरती तो हर जगह एक जैसी ही है। सूर्य जहां अपने किरणें बिखेरकर, प्रकाश फैलाकर धरा को जीवन देता है वहीं चंद्रमा थके हारे जीवन को अपनी शीतलता के आगोश में छुपाकर उसे विश्राम देकर, पुनः जीवन संग्राम में उतरने की संजीवनी देता है।
4 घंटे की यात्रा के पश्चात कुछ खाने के इरादे से एग्जिट से बाहर निकलकर एक रेस्टोरेंट के सामने पंकज जी ने गाड़ी रोकी। हम वही बने वॉशरूम में जाने लगे तो एक महिला नाक पर हाथ रखते हुए वॉशरूम से बाहर निकली तथा बोली, ' वेरी डर्टी नो टॉयलेट पेपर।'
सचमुच वॉशरूम बहुत ही गंदा था। मजबूरी में हमें भी वॉशरूम यूज करना पड़ा। विकसित देश में हम पहली बार इस तरह की गंदगी से रूबरू हुए। अब स्टेरिंग प्रभा के हाथ में था। अभी कुछ दूर ही आ पाए थे कि बरसात होने लगी पानी की बौछारें के बीच गाड़ी ड्राइव करना किसी चुनौती से कम नहीं है पर फिर भी उसने कुशलता से गाड़ी चलाई। जब बरसात और तेज होने लगी, तब उसने पंकज जी से कहा, ' अब आप गाड़ी चलाइए।'
आखिर सीटें फिर बदल गईं। उस दिन घर लौटने में रात हो गई थी। खाना रास्ते में ही खा लिया था अतः चाय के साथ कुछ खा-पीकर अब हमें आराम करना ही श्रेयस्कर लगा।
विदा के पल
अब हमारे पास सिर्फ 1 दिन बाकी था। पैकिंग भी करनी थी अतः इस दिन को हम घर में रहकर सब के साथ बातें करते हुए, रिलैक्स मूड में बिताना चाहते थे। रात्रि को प्रभा ने डोसा का कार्यक्रम रखा था क्योंकि उसे लगता था कि मैं अच्छा डोसा बनाती हूँ। पूरा दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला आखिर वह दिन आ गया जिस दिन हमें लौटना था।
14 अगस्त को आइ.ए 126 फ्लाइट से शिकागो के ओ. हेरे एयरपोर्ट से, जो शाम को वहां के समय के अनुसार शाम 4:00 बजे चलती है, हमें चलना था। एक तरफ घर लौटने की खुशी थी तथा दूसरी तरफ प्रभा, पंकजजी तथा प्यारे प्रियंका एवं पार्थ से बिछड़ने का दुख नहीं था। दोपहर का खाना खाकर हम एयरपोर्ट के लिए चल दिए। प्रभा, पंकजजी ने हमें एयरपोर्ट छोड़ा। सारी औपचारिकताएं पूरी करके आखिर हम ट्रेन में बैठ गए। हमारा विमान रनवे पर जाने के लिए चला पर कुछ ही देर बाद रुक गया। सामने स्क्रीन पर देखा तो पाया हमारे प्लेन के आगे कई प्लेन खड़े हैं... जैसे एक आगे बढ़ता, दूसरे के लिए स्थान खाली हो जाता। एयरपोर्ट पर ट्रैफिक जाम वाली स्थिति थी। आखिर हमारे प्लेन नंबर आ ही गया। रनवे पर आते ही उसने अपनी स्पीड पकड़ी और धरती को छोड़ कर आकाश की ओर उड़ चला।
इस बार भी हमें विंडो सीट नहीं मिली थी। मेरे बगल में एक सरदार जी बैठे थे। मन मारकर टी.वी. देखते या खाते पीते ही समय व्यतीत किया। लगभग 8 घंटे , 15 मिनट के पश्चात हमारा विमान फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर, वहां के समयानुसार सुबह के 7:00 बजे उतरा। हमें वहां से बस के द्वारा एक लाउंज के समीप उतारा। सभी यात्री बस से उतरकर लाउंज में गए। लगभग 1 घंटे पश्चात फिर हम बस द्वारा अपने विमान तक पहुंचे तथा अपनी अपनी सीट पर बैठ गए। पुनः विमान ने उड़ान भरी... इस बार कोई भी सीट खाली न होने के कारण हमें बैठे-बैठे ही आना पड़ा। थकान भी होने लगी थी। सीट पर बैठे- बैठे ही सोने का प्रयत्न किया पर सफलता नहीं मिली। आखिर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस वाले दिन रात्रि 9:05 पर हमारा विमान दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल विमानपत्तनम पर उत्तर गया। मेरी छोटी ननद आभा अपने पुत्र चंको के साथ हमें लेने एयरपोर्ट पहुंचे। अपनी धरती पर पैर रखते ही अजीब सा सुकून महसूस हुआ लगा किसी ने सच ही कहा है जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी ...।
दूसरे दिन हमें गाजियाबाद अपनी बड़ी ननद आशा जीजी एवं राजेन्द्र जीजा जी से मिलने जाना था। यद्यपि राखी का त्यौहार बीत चुका था पर दोनों बहनें अपने हाथों से अपने भाई को राखी बांधना चाहती थीं। हमें उनकी इच्छा का मान रखना था। राखी का त्यौहार मनाकर हमें अपने अंतिम डेस्टिनेशन के लिए निकलना था ... आखिर हमारी यात्रा एक सुखद अहसास के साथ समाप्त हुई।
इस यात्रा में कुछ घटनाओं को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगी…
पहला हमारे भाई बंधु जो स्वेच्छा या मजबूरी में विदेश गए हैं वह हमारे राजनीतिक दूत की तरह हैं जो दूर देश में भी अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़े रहकर उनका प्रचार और प्रसार कर रहे हैं।
दूसरा वाशिंगटन में मिला वह टैक्सी ड्राइवर जो हमें अपना देशवासी जानकर हमसे टैक्सी के किराए के पैसे ही नहीं ले रहा था। सच देश प्रेम की भावना इंसानों को सदा प्रेम के धागे में जोड़े रखती है यह बात उस अनजान टैक्सी ड्राइवर के व्यवहार से इंगित हो रही थी।
तीसरा न्यूयॉर्क का वह मुस्लिम टैक्सी ड्राइवर जो दोनों देशों के व्यक्तियों के बीच पलते प्यार और सद्भाव के मनोभावों का प्रदर्शन करते हुए हिंदू मुस्लिम एकता का परिचय करवा रहा था।
चौथा एलिस आइसलैंड के रिसेप्शन काउंटर पर बैठा वह रिसेप्शनिस्ट , जिसने हमें न्यूयॉर्क टूर बुक देते हुए मुस्कुराकर कहा था 'इंजॉय योर जर्नी '। वास्तव में इस टूर बुक की सहायता से हमें न्यूयॉर्क को घूमने में अत्यंत की सहायता मिली थी।
पांचवा न्यूयॉर्क का वह टैक्सी ड्राइवर जिसने हमें हमारे होटल के नजदीक यह कहते हुए थोड़ा था कि यहां से आपका होटल पास है अतः आप यहीं उतर जाइए वरना वन वे ट्रैफिक होने के कारण आपको काफी घूमकर जाना पड़ेगा, जिसकी वजह से किराया काफी बढ़ जाएगा। हमें उसकी स्पष्टवादिता बेहद पसंद आई थी।
छठा एयरपोर्ट में मिला भोपाल का रहने वाला वह कर्मचारी जिसने जान पहचान न होने पर भी हमारी चिंता करते हुए 'मिशन स्पेस' वाली राइड लेने के लिए हमें मना किया था।
कहते हैं डाल का पंछी डाल पर लौट कर ही सुख और सुकून पाता है... यह बात सोलह आने सच है पर दुनिया के हर रंग रूप से परिचित होने के लिए जगह जगह घूमना भी आवश्यक है वरना इंसान अपनी कूपमंडूकता के साथ अपने विचारों में भी कूपमंडूक ही बना रह जाता है। अतः जब समय मिले घूमने निकल पड़िए ...इससे आपके तन -मन को न केवल संजीवनी मिलेगी वरन विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का तुलनात्मक विवेचन कर आप अच्छाइयों को ग्रहण कर समाज के नवनिर्माण में सहयोग भी दे पाएंगे।
कहते हैं जीवन की यात्रा कभी समाप्त नहीं होती। घर पहुंचने के एक हफ्ते पश्चात ही मुझे अपने नवासे को गोद में खिलाने के लिए बैंगलोर जाना था …।
जीवन की यात्रा चलती रहती है… चलती रहेगी...।