Sudha Adesh

Drama Tragedy

4.5  

Sudha Adesh

Drama Tragedy

मैं रोबोट नहीं

मैं रोबोट नहीं

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माँ एक हफ्ते से आई.सी.यू. में भर्ती हैं। उन्हें सीवियर हार्ट अटैक हुआ था। इलाज चल रहा है पर अभी भी वे खतरे से बाहर नहीं हैं। उन्हें झपकी लेते देखकर विशाल ने स्टूल को दीवार से लगाया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद कोसों दूर थी।। 

उसने अपना मोबाइल ऑन किया। टाइम पास का आजकल यह सबसे अच्छा और सुलभ साधन है। वाट्सअप पर फैमिली ग्रुप में एक पोस्ट पर निगाह ठहर गई।अगर लड़कियों को माता-पिता को अपने पास रखने का अधिकार मिला होता तो कोई भी माता-पिता वृद्धाश्रम में नहीं जाते। 

सुषमा दीदी की पोस्ट पढ़कर मन वितृष्णा से भर उठा। माँ को हार्ट अटैक आने के पश्चात् उसने सुषमा दीदी के साथ सुनीता, रीता और दिव्या को भी फोन किया था कि अगर वे आ सकें तो उसे हेल्प हो जायेगी पर सबने कोई न कोई बहाना बनाकर आने से मना कर दिया और आज यह पोस्ट।आखिर किसने लड़कियों को उनके अधिकार से वंचित किया है ? अगर इच्छाशक्ति है तो अधिकार छीने भी जा सकते हैं। जब बहू पति की माँ की सेवा कर सकती है तो बेटी क्यों नहीं ? अनायास अतीत के पृष्ठ चलचित्र की भांति खुलने लगे। 

वह एम.बी.ए. के अंतिम वर्ष में था, उसका प्लेसमेंट भी एक मल्टीनेशनल कंपनी में हो गया था। उसके सपने उड़ान भरने को आतुर थे के अचानक उसके पिता की एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। चार बहनों और विधवा माँ की खातिर उसने अपने स्वप्नों को रोंदकर पिता की किराने की दुकान संभाल ली। 

माँ उस पर विवाह के लिये दबाव बनाने लगीं पर पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बोझ तले दबे, उसके मन ने सोच लिया था कि अपनी चारों बहनों के विवाह के पश्चात् ही वह अपना विवाह करेगा। उसने न केवल चारों बहनों को उचित शिक्षा दिलवाई वरन् उचित समय पर योग्य वर देखकर उनके विवाह भी यथाशक्ति किये। उसकी परिवार के प्रति निष्ठा देखकर उसके पिता के मित्र ने अपनी पुत्री निशा का हाथ उसके हाथ में देने की पेशकश की। माँ ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसका विवाह होते ही अचानक परिस्थितियाँ ही बदल गई, माँ का आदर्श बेटा तथा बहनों का आदर्श भाई अचानक नालायक बन गया।

निशा ने सदा माँ की सेवा अपनी माँ समझकर की। माँ को भी उससे ज्यादा शिकायत नहीं थी पर जब भी बहनें आतीं, वे माँ को उसके और निशा के विरूद्ध भड़का देतीं। ऐसे समय माँ भी अपना संयम खो बैठतीं। निज पर आरोप लगते देखकर निशा उनसे तो कुछ नहीं कह पाती थी पर उससे झगड़ा कर बैठती। दोष उसका भी नहीं है। करे भी वह सुने भी वह, वाली मनःस्थिति उसे असहज बनाने लगी थी ।और वह उन सबके मध्य सामंजस्य बिठाता हुआ भी माँ बहनों की नजरों में जोरू गुलाम बनकर अपना आत्मविश्वास खोने लगा है। सबसे ज्यादा दुख उसे तब होता जब बहनों को माँ की इच्छानुसार विदाई देने में जरा सी कमी होने पर माँ कहती, ‘ अपना सारा कुछ तो मैंने तुम्हें सौंप दिया और अब तुम मुझे ही आँख दिखलाने लगे हो।’

वह उन्हें कैसे समझाता कि विरासत संभाली तो दायित्व भी तो निभाये। विरासत के साथ मिले उत्तरदायित्वों के बोझ तले दबे, सुकुमार मन के स्वप्नों को भी उसे न जाने कितनी बार रोंदना पड़ा है। मेहनत की तभी उस छोटी सी किराने की दुकान को अपनी मेहनत और अनुभव के बल पर शहर के एकमात्र सुपर मार्केट में बदल पाया है। बदली आर्थिक स्तिथि के कारण ही वह न केवल अपनी बहनों की शिक्षा पूरी करवा पाया वरन् उनका विवाह भी अच्छी जगह कर पाया। यहाँ तक कि समय-समय पर उनकी छोटी बड़ी माँगें पूरी करने में भी उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नहीं निभा पाया तो निशा और बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य।बच्चे और निशा उससे नाराज रहते क्योंकि पहले अपने कर्तव्यों के बोझ तथा अब माँ की बीमारी की वजह से वह उन्हें बाहर घुमाने नहीं ले जा पाता है। दूसरों के ऊपर तो वह खर्च कर देता पर स्वयं के ऊपर खर्चा करते हुये सौ बार सोचना पड़ता है। कभी-कभी निशा भी टोक देती है कि लगता ही नहीं कि आप सुपर मार्केट के मालिक हो। शादी विवाह हो या कोई सामान्य पार्टी सबमें आप अपना वही एकलौता सूट पहनकर चल देते हो। अब वह क्या कहता।अपने ऊपर खर्च करूँ या पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाऊँ !! 

‘ गों।गों।’ की आवाज सुनकर वह विचारों के भंवर से बाहर निकला।देखा माँ तेज-तेज सांस ले रहीं हैं। उनकी दशा देखकर वह आई.सी.यू. के इमर्जेन्सी रूम में गया। डाक्टर तुरंत उसके साथ आया।डाक्टर जब तक कुछ समझ पाता माँ ने अंतिम सांस ले ली।

‘ आई एम सॉरी।’ 

डाक्टर की बात सुनकर वह फूट-फूटकर रो पड़ा…

‘ न।बेटा।न।रोते नहीं हैं। तू लड़का है, रोती तो लड़कियाँ हैं।’कहीं दूर से माँ की आवाज आती प्रतीत हुई।।

उसने आँसू पोंछे। सच माँ की सींची इसी मानसिकता के कारण वह तब भी नहीं रो पाया था जब उसके पिता गुजरे थे तथा तब भी नहीं जब उसका बड़ा बेटा असमय कालकवलित हो गया था। आज भी उसके पास रोने का समय कहाँ है ? उसे अभी अस्पताल की सारी फॉरमेल्टीज पूरी करनी है। सबको फोन करने थे। फिर अंतिम संस्कार की तैयारी करनी थी।

सबसे पहले विशाल ने निशा को फोन किया फिर बहनों को। सबको आने में समय लगना था अतः माँ को हॉस्पीटल की मरच्यूरी में रखवाकर वह घर गया। अंतिम क्रिया के सारे इंतजाम करवाने के लिये उसके मित्र ने उसे एक फोन नम्बर दिया। उस नम्बर पर उसने बात की तो उस आदमी ने कहा कि अंतिम संस्कार करवाने के पैकेज है जितने का भी लो। वही घर से घाट तक का पूरा अरेंन्जमेंट करेगा। अगर आदमी चाहिये तो वह भी भाड़े के ले आयेगा। सुनकर वह अवाक् रह गया था पर जब ठंडे मन से सोचा तो लगा ठीक ही तो है, जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे एकल परिवार में आज किसी के पास समय ही कहाँ है ? 

दूसरे दिन वह दोपहर तक माँ के शव को ले आया। बुआ, मौसी आ गई थीं। चारों बहनें आ भी आ गई।। वे माँ से लिपट कर रो उठीं। निशा जैसे घर के बड़े कहते जा रहे थे, करती जा रही थी पर फिर भी जितने मुँह उतनी बातें।!! अंतिम संस्कार वाले अपने पूरे सामान के साथ आ चुके थे। अंतिम यात्रा से पूर्व पंडितजी के कहने पर निशा ने माँ के मुँह में तुलसी दल डालकर गंगाजल छिड़का ही था कि सुनीता ने कहा,‘ भाभी अब तुलसी दल माँ के मुँह में डालने से क्या फायदा।? जब माँ ने अंतिम सांस ली थी तब डालना चाहिये था पर तब तो आप वहाँ होंगी नहीं और भइया आपको भी याद नहीं रहा होगा।’ कहकर वह सुबकने लगी।

जितना मैं कर सकता था उतना मैंने परिवार के लिये किया। कम से कम आज तो मुझे दोष न दे सुनीता।। वह चाहकर उसे कुछ नहीं कह पाया जबकि सुनीता के शब्दों ने वर्षो से संचित उसके दिल के ज्वालामुखी को भड़का दिया था। माँ की अर्थी को कंधे पर रखते वक्त वह फूट-फूटकर रो पड़ा। मन से एक ही आवाज निकल रही थी…

‘ क्षमा करना माँ। आज मुझे रो लेने दे। तेरा बेटा कमजोर हो़ गया है। जिन अपनों के लिए मैंने अपने स्वप्नों को रौंद दिया, आधी-अधूरी जिंदगी जीता रहा, जब वे ही मेरे दर्द को नहीं समझ पाए तो और कौन समझेगा ? अब मेरी सहनशीलता जबाव दे चुकी है माँ।मुझमें भी भावनायें हैं, संवेदनायें हैं। करूँ भी मैं और सुनूँ भी मैं।अब और नहीं।मैं कोई रोबोट नहीं एक इंसान हूँ।!! '

लोग सोच रहे थे कि विशाल माँ के जाने से दुखी होकर रो रहा है पर सच तो यह था कि माँ के जाने तथा अपनों के व्यवहार के कारण उसका दिल ऐसा टूटा कि उसकी किरचों ने चुभ-चुभकर खून के रिश्तों को भी कटघरे में खड़ा कर दिया था।


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