कल्पना रामानी

Drama Inspirational

3.9  

कल्पना रामानी

Drama Inspirational

संकल्पिता

संकल्पिता

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“माँ, देखो न! जीतू ने फिर से गुलाब का फूल तोड़ लिया, आप उसे मना क्यों नहीं करतीं”

“अरे बेटी, वो भगवान् को ही तो चढ़ाता है न...फिर घर में भी कितनी सुगंध बनी रहती है”!

“मगर माँ, जब चमेली और मोगरे में ढेर सारे फूल लगे हैं तो गुलाब के फूल क्यों तोड़ना...?उसमें तो फूल बहुत कम आते हैं वैसे भी मुझे तो सारे फूल पौधों पर ही लगे हुए अच्छे लगते हैं. कितने दिन तक खिले-खिले रहते हैं माँ! मगर तोड़ते ही एक दिन में ही मुरझा जाते हैं और उन्हें कूड़े में फेंक दिया जाता है. यह तो उन्हें समय से पहले ही मृत्युदंड देना ही हुआ न! भगवान तो अगरबत्ती से भी राज़ी हो जाते हैं...भला अपनी ही रचना का यह अंत देखकर कैसे प्रसन्न होंगे?”

"इतना मोह मत रखो बेटी, अब तुम कुछ ही दिनों में ससुराल चली जाओगी तो इनकी देखरेख कौन करेगा?

अब अपने घर जाकर ही बगिया सजाना..."

"अच्छा! तो यह घर अभी से मेरे लिए पराया हो गया?"

"नहीं बेटी, मगर तुम इतनी मेहनत करती हो तो सोचती हूँ, तुम्हारे जाने के बाद यह सब कौन करेगा? न जाने कैसी लड़की इस घर में बहू बनकर आए..."

ससुराल और अपने घर की कल्पना से जयति के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. माँ सच ही तो कहती है...विवाह में अब दिन ही कितने रह गए हैं...और वो भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गई.

उस दिन के बाद उसने भाई को टोकना छोड़ दिया.

जयति अपने माँ-पिता और छोटे भाई के साथ पुणे शहर की एक कॉलोनी में रहती थी. उसके पिता एक सरकारी विद्यालय में अध्यापन कार्य करते थे. घर की माली हालत कमज़ोर होने से वो नौकरी लगने के बाद ही शादी करना चाहती थी. अब तो नौकरी करते हुए भी ३-४ साल हो गए. देवराज और वो एक ही कम्पनी में कार्यरत हैं और यह विवाह उनके प्रेम का परिणाम ही है. अब वो विवाह के बाद ही अपने घर को खुशबुओं से सजाएगी...सोचते सोचते उसके होठों पर स्वतः सहज मुस्कराहट उभर आई.

कुछ ही समय बाद विवाह हो गया और जयति ससुराल यानी अपने घर आ गई. देवराज का घर उसका ही तो हुआ न!...दो बेडरूम, हाल, किचन वाले फ़्लैट में सास-ससुर के अलावा कालेज में पढ़ने वाली दो ननदें थीं. छोटी बी.ए प्रथम और बड़ी अंतिम वर्ष की छात्रा थी. घर की आर्थिक स्थिति कैसी भी हो, मगरआजकल बेटियाँ दहेज रूपी दानव से निपटने के लिए शिक्षा पूर्ण होने पर नौकरी करके आत्मनिर्भर होकर ही शादी करना पसंद करती हैं और माँ-पिता का भी उन्हें पूर्ण सहयोग तथा प्रोत्साहन मिलता है.

जयति को ससुराल में सब बहुत प्यार और सम्मान के साथ रखते थे. विजातीय होने के बावजूद सास-ससुर ने बेटे की पसंद को महत्व देते हुए बिना किसी दान दहेज के विवाह की स्वीकृति इसलिए दी थी कि चलो लड़की सुन्दर, शिक्षित और कमाऊ है और बेटे को पसंद है.सास लगभग ५५ वर्ष की थी मगर स्वस्थ और चुस्त थी. उसे बेटी... बेटी... कहते न थकती और घर के सारे काम महरी की सहायता से स्वयं ही निपटाती. वो बस छोटे मोटे काम करके अपने कार्यालय चली जाती थी. ससुर जी ने हाल ही में नौकरी से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर मिले हुए पैसों से यह दो बेडरूम का फ़्लैट खरीद लिया था. अब घर खर्च की सारी ज़िम्मेदारी देवराज पर थी. उसके कमरे की बालकनी काफी बड़ी और चौड़ी थी. यह देखकर जयति ख़ुशी से फूली नहीं समाई. एक दिन अवसर देखकर उसने पति से उस परिसर को फूलों की सुगंध बिखेरते गमलों से सजाने की अनुमति माँगी. लेकिन उन्होंने गंभीर मुद्रा बनाकर कहा-

“देखो जयति, इस कार्य में व्यर्थ ही काफी खर्च हो जाएगा, एक बार सजावट तो ठीक है लेकिन देखरेख के लिए माली भी लगाना पड़ेगा...घर खर्च ही खींचतान कर चल रहा है और अभी दो बहनों के विवाह भी करने हैं.

अभी कुछ समय के लिए यह विचार छोड़ दो.”

“लेकिन देव, मैं इस कार्य के लिए किसी से पैसे नहीं लूँगी. बगिया की देखरेख की सारी जवाबदारी मेरी होगी.” जयति ने आशा भरी निगाहों से उसे निहारते हुए कहा.

“तुम अब पराई तो नहीं जयति, अपना पैसा अभी बैंक में ही रखो, समय पर काम आएगा.”

देव की तंगदिली पर जयति सोच में पड़ गई. इस काम के लिए इतना भारी खर्च तो होता नहीं, फिर क्यों अपनी कमाई का पैसा वो अपनी इच्छा से खर्च नहीं कर सकती? उसका मन एक बारगी बुझ सा गया मगर अभी वो नई थी, अतः अपनी इच्छा को फिलहाल मन में ही दफ़न कर दिया.

दो वर्ष हँसी-खुशी बीत गए. बड़ी ननद अब पढ़ाई पूरी करके प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गई थी, तभी उसके लिए एक संपन्न घर से रिश्ता आया. पहले तो उसने अपना कैरियर बनाने से पहले विवाह से इनकार कर दिया मगर फिर माँ-पिता के दबाव और विवाह के बाद यह सब करने की छूट के आश्वासन पर अपनी स्वीकृति दे दी.

बड़ी धूमधाम से सगाई की रस्म पूरी हुई और शीघ्र ही वर पक्ष की माँग के कारण विवाह की तैयारियाँ भी शुरू हो गईं.

आज रविवार यानी छुट्टी का दिन था. सबकी दिनचर्या भी छुट्टी के दिन देर से शुरू होती है, मगर पकृति-प्रेमी जयति इस दिन जल्दी उठकर नीचे सोसायटी के ही भ्रमण पथ पर सैर के लिए निकल जाती है. सुनहरी सुबह, खिली धूप, सुगन्धित शीतल हवा, इठलाते-लहराते पेड़ पौधे, फूल-कलियाँ, भ्रमर तितलियाँ उसका मुस्कुराकर स्वागत करते हैं. घूम फिर कर जैसे ही ऊपर आई, उसे सास-ससुर और पति को बैठक में देखकर आश्चर्य हुआ. कुछ शब्द कानों में पड़े तो लगा ननद के विवाह की ही चर्चा चल रही है. सास ने उसे प्यार से चाय नाश्ता तैयार करने के लिए कहा तो वो किचन में चली गई. छुट्टी के दिन वैसे तो शाम कोअक्सर वो देव के साथ कभी मूवी देखने तो कभी लम्बी सैर पर बाहर चली जाती है तो रात्रि-भोजन भी बाहर हो जाता है और उसे थकान उतारने का समय मिल जाता है. आज भी वे बाहर तो गए मगर देव की गंभीर मुद्रा देखकर जयति परेशान सी हो रही थी. घर आते ही जयति ने कारण पूछा-

“क्या बात है देव, आज इतने गंभीर क्यों हो? कोई समस्या हो तो मुझे भी बताओ, शायद कुछ सहायता कर सकूँ.”

“जयति, तुम तो जानती ही हो कि बहन के विवाह की तैयारियाँ चल रही हैं... आज सुबह उसी सिलसिले में माँ-पिता से चर्चा हुई. बड़े घर से रिश्ता जोड़ा है तो विवाह के लिए भी खासी रकम जुटानी होगी. पिताजी ने अपना सारा पैसा यह घर खरीदने में लगा दिया. अब गृहस्थी मेरी कमाई से किसी तरह चल रही है. इस समय हमें तुमसे आर्थिक सहयोग की अपेक्षा है.”

“मगर देव, मैं क्या सहायता कर सकती हूँ भला? तुम तो जानते ही हो कि खाते की सारी जमा रकम जो विवाह के लिए जोड़ी थी, मैं हनीमून के समय तुम्हें सौंप चुकी हूँ.”

“जयति, तुम अपनी नौकरी के आधार पर बैंक से लोन ले सकती हो. अगर मैं लोन लूँगा तो किश्तें चुकाने के लिए घर के खर्चों में कटौती करनी पड़ेगी जो संभव नहीं है.”

“यह तुम क्या कह रहे हो देव, मैं नौकरी आत्म-निर्भरता के लिए कर रही हूँ, लोन लेने के बाद तो लम्बे समय तक किश्तें चुकानी पड़ेंगी...फिर जब हमारा परिवार बढ़ेगा...तो मैं नौकरी छोड़ भी सकती हूँ, अतः मैं यह रिस्क नहीं ले सकती...बहनों का विवाह उनकी नौकरी लगने के बाद भी किया जा सकता है.”

“मगर जयति,तुम्हारा भविष्य मुझसे जुड़ा हुआ है न...और मैं जब तक अपनी पारिवारिक जवाबदारियों से मुक्त नहीं हो जाता, परिवार बढ़ाने के पक्ष में नहीं हूँ. क्या तुम्हें मुझपर विश्वास नहीं है?”

“विश्वास न होता तो तुमसे विवाह ही क्यों करती देव, मगर कल किसने देखा है...”

“कल की चिंता मुझपर छोड़ दो जयति प्लीज़! मैंने तुम्हारे भरोसे पर ही माँ-पिता को बेफिक्र रहने का आश्वासन दिया है.मेरे माँ-पिता ने अंतरजातीय विवाह होते हुए भी बिना दहेज अपनी सहमति दी तो तुम्हें भी सहयोग करके उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए.”

जयति समझ गई कि सुबह की बैठक में उससे रकम हथियाने के लिए भावनात्मक जाल बुना गया है, मगर वो भी आजकल की हवा का रुख खूब पहचानती थी, उसने दो टूक उत्तर दिया-

“देखो देव, तुम अपनी पूरी कमाई घर खर्च के लिए दे देते हो, इसमें मुझे कोई ऐतराज नहीं और मैं अपने निजी खर्च के अलावा घर की छोटी-मोटी आवश्यकताओं के लिए भी यथासंभव सहयोग के लिए पीछे नहीं हटूँगी मगर लाखों का लोन लेकर मैं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकती...

मुझे अपनी कमाई अपनी इच्छा से खर्च करने का पूरा अधिकार है और मैं इस अधिकार में किसी को सेंध नहीं लगाने दूँगी...विवाह से पहले तुमने ऐसी कोई शर्त भी नहीं रखी थी कि मेरी कमाई पर मेरा हक़ नहीं रहेगा. अगर मैं समझ सकती कि मुझसे दहेज इस रूप में वसूला जाएगा तो मैं हरगिज़ तुमसे विवाह नहीं करती. नाक को सीधे पकड़ो या हाथ घुमाकर, एक ही बात है. मेरे माँ-पिता में मेरे लिए दहेज जुटाने की क्षमता नहीं थी, मगर उनके ही प्रोत्साहन और सहयोग से मैं इस मुकाम तक पहुँची हूँ.”

“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी जयति, अगर तुम्हारा यही फैसला है तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं...” कहते हुए देव कमरे से बाहर निकल गया.

देव का जवाब सुनकर जयति जड़वत रह गई. अगर देव का प्यार और जीवन भर साथ निभाने की कसमें स्वार्थ सेतु पर ही टिकी हुई थीं तो वो भी हार नहीं मानेगी और ऐसे दहेज-लोभी को सबक सिखाकर रहेगी.यह सोचकर उसने हिम्मत से काम लेते हुए तुरंत टैक्सी के लिए फोन करके अपने गहने-कपड़े पैक किये और घर छोड़कर निकल पड़ी. सास-ससुर उसे जाते हुए देखते रहे मगर उसे रोकने का प्रयास किसी ने नहीं किया. शायद वे सारा मामला भाँप गए थे. आखिर यह सब उनकी मिली भगत का ही तो परिणाम था.

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जयति को सामान के साथ टैक्सी से अकेले उतरते देखकर माँ-पिता एक-दूसरे को सवालिया नज़रों से देखने लगे.

जयति ने अन्दर आकर उनको प्रणाम किया और सब एक साथ बैठक में आ गए. माँ-पिता के पूछने पर उसने भरे गले से सारी दास्तान कहकर सुनाई. उन्होंने उसे तुरंत सांत्वना देते हुए कहा-

"बेटी दुःख न करो, हम तुम्हारे साथ हैं. यह घर तुम्हारा भी है."

मगर जयति समझ गई थी कि बेटियों का कोई घर नहीं होता, चाहे इस बात को माँ-पिता को मजबूरी में ही कहना पड़ता होगा कि यह घर उनके लिए पराया है, क्योंकि उन्हें पति के घर जाना होता है...और पति का घर? वो भी सारे त्याग-तपस्या के बावजूद उनका नहीं हो सकता, जब चाहे उन्हें प्रताड़ित और अपमानित करके बाहर कर दिया जाता है.

इन दो वर्षों में भाई का विवाह हो चुका था. वो भाई के विवाह में सिर्फ चार दिन के लिए देवराज के साथ आई थी और उसके बाद पहली बार ही मायके आई थी. भाभी सुन्दर और नम्र व्यवहार वाली थी. जयति अपने पुराने दिनों को ढूँढती हुई घर के कोने कोने को अपनी व्यथा सुनाने लगी. आँगन में उसके पसीने से पाली-पोसी हुई बगिया का नामोनिशान तक नहीं था, जबकि पिछली बार सब कुछ यथावत था. जयति को दुःख तो हुआ मगर उसने लापरवाही से सिर झटक दिया. जब यह घर उसका है ही नहीं तो कैसा संताप! उसका कमरा अब भाई-भाभी का था. उसे विवाह से पहले, हाल में भाई के लिए नियत स्थान रहने-सोने के लिए दे दिया गया. उसने नियति को स्वीकार करते हुए मन-ही-मन सबसे पहले किसी सोसायटी में अपना घर खरीदने का संकल्प किया. अपना घर...जहाँ सुनहरी सुबह और सुरमई शाम का एक टुकड़ा सिर्फ उसका होगा. बालकनी में बैठकर वो सुगंध बिखेरते हुए फूल, उगता-डूबता सूरज, चमकते सितारे, चाँद की चाँदनी और रात की रागिनी महसूस कर सकेगी.

अगले ही दिन जयति ने अपने कार्यालय में फोन करके अपरिहार्य कार्य होने की बात बताकर कुछ दिन की छुट्टी के साथ ही उसी कंपनी की शहर की किसी अन्य शाखा में स्थानांतरण के लिए आवेदन भेज दिया. यह सब इतना आसान नहीं था मगर काफी जद्दोजहद और औपचारिकताओं के बाद उसे अपने मौजूदा कार्यालय से कुछ दूर उसी पद पर स्थानांतरित कर दिया गया. यह स्थान उसके माँ-पिता के घर से काफी दूर होने के कारण उसने उसी इलाके की एक सोसायटी में किराये का फ़्लैट लेकर रहना शुरू कर दिया. कार्यालय जाना शुरू करते ही वो आसपास ही एक निर्माणाधीन सोसायटी में अपना फ़्लैट बुक करने के लिए बैक से लोन लेने की कवायद में जुट गई और अच्छी नौकरी के आधार पर उसका लोन शीघ्र ही स्वीकृत भी हो गया और उसने एक बेडरूम हाल किचन वाला फ़्लैट बुक करने के बाद ही चैन की साँस ली.

लगभग दो वर्षों में फ़्लैट पूरा हो गया और कुछ समय साज सज्जा में गुज़र गया. अकेली यह सब करते-करते जयति शारीरिक और मानसिक रूप से थक चुकी थी मगर संतुष्ट थी कि उसका अपने घर का एक संकल्प पूरा हो चुका है. गृह प्रवेश की तिथि निर्धारित करके इस शुभ-अवसर पर उसने अपने परिजनों और नए कार्यालय के कुछ सहकर्मियों और अधिकारियों के अलावा स्थानीय फेसबुक मित्रों को आमंत्रित करने का मन बनाया. अपना फेसबुक खाता वो विवाह के बाद ही निष्क्रिय कर चुकी थी, अतः उसे फिर से सक्रिय करके उसने अपने विशेष मित्रों की सूची बनानी शुरू की. इस प्रक्रिया में उसे अपने कालेज में साथ पढ़ने वाली प्रिय सखी विभारानी, जो उससे ६ महीने पहले ही विवाह करके पति के साथ अमेरिका चली गई थी, ऑनलाइन दिखाई दी.जयति ने तुरंत उसे मैसेज भेजा तो तत्काल उत्तर भी आ गया. हाय! हेलो! के साथ ही चैट पर बातें शुरू हो गईं.

“रानी, काफी लम्बे अरसे से हमारी बातचीत नहीं हुई, बताओ सखी, कैसी गुज़र रही है अमेरिका में...पतिदेव कैसे हैं और बाल बच्चे...?” जयति ने एक साथ प्रश्न दागते हुए पूछा.

“जयति, मेरा विनय से तलाक हो चुका है और मैं १५ दिन पहले ही भारत वापस आ गई हूँ...मुझे वहाँ की सभ्यता और संस्कृति बिल्कुल रास नहीं आई. विनय का नित्य नई औरतों के साथ खुलेआम घूमना-फिरना मुझे चैन से जीने नहीं दे रहा था. अभी तक कोई बच्चा भी नहीं हुआ था, अतः काफी मानसिक यंत्रणा झेलने के बाद यह निर्णय लेना पड़ा. मैं इस समय पुणे में ही माँ-पिता के साथ हूँ.”

“ओह! सुनकर बहुत दुःख हुआ जयति, अब क्या करने का इरादा है?”

“कुछ दिन पहले पुणे के ही एक फेसबुक मित्र ने मेरी व्यथा-कथा सुनकर मेरे साथ विवाह की इच्छा प्रकट की और साथ ही अपनी कम्पनी के एक रिक्त पद पर नियुक्ति करवाने का वादा भी किया. उसकी पत्नी अमीर घराने से थी. कुछ समय पहले राजा की सीमित आय के कारण उसे छोड़कर चली गई थी. मैंने उससे अपने और उसके परिजनों के सामने ही मिलकर बातचीत की और सबकी साझा सहमति से हमारी सगाई हो गई. १५ दिन बाद हमारी शादी भी होने वाली है. तुम तो ऐसी गुम हुई कि फिर ढूँढे नहीं मिली. फोन से भी संपर्क नहीं हो पाया.”

“वो क्या है रानी कि विवाह के बाद कुछ समय निजी ज़िन्दगी जीने की इच्छा से मैंने अपना मोबाईल नंबर बदलने के अलावा फेसबुक खाता भी निष्क्रिय कर दिया था. पर अब फिर वापस आ गई हूँ अपने मित्रों के बीच...”

“तो क्या अब निजी ज़िन्दगी से ऊब गई हो?” विभारानी ने परिहास के स्वर में पूछा.

“मेरी कहानी बहुत लम्बी है रानी, सामने मिलने पर सब विस्तार से बताऊँगी. मैंने नया फ़्लैट खरीदा है और अगले सप्ताह ही गृह-प्रवेश के अवसर पर कुछ पुराने विशेष स्थानीय मित्रों को आमंत्रित करने के लिए ही मैं फेसबुक पर सक्रिय हुई हूँ. अब तुम पुणे में ही हो तो तुम्हें इस अवसर पर आवश्यक रूप से आना है साथ ही अपने राजा को भी ले आना तो उनसे भी परिचय हो जाएगा.” जयति ने गंभीर स्वर में अपनी बात कही.

“अवश्य सखी, मुझे तुम्हें फिर से पाकर इतनी प्रसन्नता हो रही है कि शब्दों में बयान नहीं कर सकती और तुम्हारी कहानी सुनने के लिए भी उत्सुक हूँ.”

जयति ने उसे अपने फ़्लैट का पता और नया मोबाइल नंबर नोट करवाया और आने का वादा लेकर विदा ली.

नियत दिन-वार पर विभारानी जयति के बताए पते पर पहुँच गई. फ़्लैट का मुख्य द्वार वंदनवार से सजा हुआ था. उसपर सुन्दर सा नामपट्ट लगा हुआ था मगर उसकी इबारत पढ़ते ही विभारानी की आँखों में अनेक प्रश्न तैरने लगे. नामपट्ट पर ऊपर पतले शब्दों में लिखा था- “यह घर मेरा है” और नीचे मोटे अक्षरों में लिखा था “संकल्पिता”. सोच में डूबी विभारानी ने घंटी का बटन दबा दिया. तुरंत द्वार खोलकर जयति उसके गले से लिपट गई और प्यार से हाथ थामकर अन्दर आमंत्रित मेहमानों के साथ बिठाया. उसने विभारानी से अकेली आने का कारण पूछा तो उसने कहा- राजा को कुछ निजी काम है, कार्यक्रम के बाद मैं उसे फोन करूँगी तो वो मुझे लेने आ जाएगा.

हाल में ही हवन कुण्ड सजा हुआ था और पंडितजी भी आ चुके थे लेकिन पूजा के समय जब जयति अकेली बैठी तो विभारानी को आशंकाओं ने घेर लिया. वो सबके सामने कुछ पूछ भी नहीं सकती थी अतः अभी चुप रहना ही ठीक समझा. हवन-पूजन के बाद मेहमानों के लिए भोजन की व्यवस्था थी. धीरे-धीरे सभी मेहमान फिर कुछ देर में परिजन भी उसे उपहारों के साथ सौ हिदायतें और शुभकामनाएँ देते हुए विदा हुए. अब घर में केवल दोनों सखियाँ ही थीं.

एकांत पाते ही विभारानी जयति से मुखातिब हुई-

“जयति, तुम अकेली क्यों और घर के नाम-पट पर –“यह घर मेरा है-

“संकल्पिता”...??"

जयति ने विभारानी की जिज्ञासा को शांत करने के लिए अपनी सारी बीती हुई दास्तान विस्तार से कह सुनाई. सुनकर विभारानी के तो रोंगटे ही खड़े हो गए. फिर कुछ संयत होकर पूछा-

“मगर जयति,अब यह पहाड़ सी ज़िन्दगी क्या अकेले काट सकोगी?”

“अकेले क्यों रानी, क्या यह धरती मानव रहित हो गई है? मैं एक दानव के पीछे अपनी ज़िन्दगी के सुखों का उत्सर्ग नहीं करने वाली...ऐसा करना तो इस सुन्दर सृष्टि और सृष्टिकर्ता का अपमान ही होगा बहन...मगर मेरा साथी एक संवेदन शील इंसान होगा.मेरी जंग मानवों में छुपी हुई दानवी प्रवृत्ति से है.आज जब बेटियों को आत्मनिर्भर होने और दहेज के दानव से बचाने के लिए उनके माँ-पिता उसे बेटों के सामान सुविधाएँ देकर पढ़ाते-लिखाते हैं तो इसलिए नहीं कि उनकी अर्जित कमाई पर ही भावनात्मक रूप से विवश करके डाका डाला जाए...यानी वही दहेज का दानव अपना रूप बदलकर बेटियों को निगलने के लिए जबड़े खोलकर बैठा है और रानी,मैं ऐसा हरगिज़ नहीं होने दूँगी. जो पुरुष, नारी का सम्मान करना नहीं जानते, उन्हें चुन-चुनकर सजा देने के लिए मैं हर जनम में बेटी बनकर आना चाहूँगी. मेरा घर बनाने का संकल्प पूर्ण हो चुका है,अब अगला संकल्प उस धन-लोलुप नर पशु का चेहरा सार्वजनिक करने का है, इसी कारण नामपट पर “संकल्पिता” लिखवाया है. अब फुर्सत मिलते ही फेसबुक पर अपने स्टेटस में सार्वजनिक रूप से उसकी असलियत का चिट्ठा खोलकर रख दूँगी और सभी बहन-बेटियों से आह्वान करूँगी कि ऐसे दुष्टों को पहचानें और अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में उन्हें एक जुट होकर धिक्कृत करें ताकि फिर कभी वे किसी नारी का किसी भी रूप में शोषण अथवा अपमान करने की हिम्मत न कर सकें. देखती हूँ कि मेरे अभियान में कौन-कौन मेरा साथ देता है...”

"मैं तुम्हारी हिम्मत की दाद देती हूँ सखी.. मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ.”

विभारानी ने कह तो दिया मगर सोच में डूब गई. क्या उसके साथ भी ऐसा हो सकता है? राजा ने उसे अपने ही कार्यालय में एक खाली पद पर नौकरी दिलाने का वादा किया है, कहीं यह भी उसी दहेज वसूली का हिस्सा तो नहीं? वो आज ही राजा से स्पष्ट बात करेगी ताकि आगे मनमुटाव न हो.

तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी और राजा का नाम देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई. राजा उसे लेने आ गया था और बिल्डिंग के बाहर उसका इंतजार कर रहा था. विभारानी ने जयति से कहा वो नीचे से राजा को लेकर आ रही है. उसके जाते ही जयति किचन में नाश्ते की व्यवस्था करने चली गई.

घंटी बजी और द्वार खुलते ही राजा का हाथ थामे हुए विभारानी ने मुस्कुराते हुए अन्दर प्रवेश किया. मगर जयति पर नज़र पड़ते ही राजा की दशा ऐसी हो गई जैसे सैकड़ों बिच्छुओं ने उसे एक साथ डस लिया हो. उसके पसीने छूटने लगे और वो विभारानी से अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास करने लगा. विभारानी दोनों के चेहरों के बदलते हावभाव देखकर हक्की बक्की मामला समझने का प्रयास करने लगी. उसे लगा कि वे दोनों शायद पूर्व परिचित हैं. फिर भी पूरी स्थिति को समझने के लिए राजा का हाथ लगभग खींचती हुई उसके साथ चलकर सोफे पर बैठ गई. अब तक जयति कुछ सँभल चुकी थी. वो भी सामने ही बैठ गई.

विभारानी ने जयति का परिचय करवाते हुए कहा-

“राजा, यह है मेरी प्रिय सखी जयति उर्फ़ “संकल्पिता” और जयति...”

“रुको रानी, मैं इनका परिचय करवाती हूँ...ये हैं मिस्टर देवराज उर्फ़ ‘देव’, मेरे पूर्व पति और तुम्हारे मंगेतर उर्फ़ रानी के ‘राजा’...” जयति ने आग उगलती हुई नज़रों से देवराज को घूरते हुए कहा.

“सुनकर विभा को सारा ब्रह्माण्ड घूमता हुआ नज़र आने लगा...अवसाद में डूबकर बुदबुदाने लगी- हा रे लोभी पुरुष! तुम्हारी स्वार्थी सोच के आगे सारे महिला विमर्श, कहानी-कविताएँ सब व्यर्थ हैं... फिर सहसा चीख पड़ी- नहीं... जयति मंगेतर नहीं...पूर्व मंगेतर...मैं तुम्हारे साथ हूँ सखी...” कहकर विभा ने बहते हुए आँसुओं को रोकने का प्रयास करते हुए अपनी अँगुली से सगाई की अँगूठी उतारकर देवराज की अँगुली में फँसा दी.


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