ईश्वर सत्य है
ईश्वर सत्य है




फिर मुक्ता ने हाॅर्लिक्स, उनकी दवाईयां और फल इत्यादि खरीदे और घर लौट आई। घर के कामों में हाथ चलता है इस लड़की का, वे सोच रही थीं। आते
संतोष से राधिका का दिल भर आया .... क्यों इन बच्चों पर शक करके अपना परलोक बिगाड़ना पड़ रहा है ? जिस कसक को सीने में दबाए जिंदगी बिता दी थी, ये बच्चे तो उन्हें वो सुख दे रहे हैं। आजकल पुरानी बातें कुछ इस तरह याद आने लगती हैं जैसे चित्रपट पर कोई पुरानी फिल्म चल रही हो। इसी घर में एक दिन उनकी डोली उतरी थी, उत्साह और ललक के साथ उनकी सास उनकी आरती उतार कर उन्हें अंदर लाई थीं जहाँ थे एक धीर-गंभीर स्नेहिल श्वसुर, दुलारे देवर और हर समय प्यार छलकाते पति धीरज ! दुनिया का हर सुख मिला था उन्हें पर मुठ्ठी में बंद रेत की तरह धीरे-धीरे छीजने भी लगा वह कि छह-सात साल उनकी कोख भरने का इंतजार किया गया फिर शुरू हुआ डाॅक्टरी जाँच परीक्षण, मनौती -मनौवल और थोड़ा बहुत पीर फकीर ज्योतिष पर एकाएक हर कोशिश का पटाक्षेप हो गया कि रिपोर्ट आई कि उनका गर्भाशय पूरी तरह विकसित ही नहीं है अतः बड़े आपरेशन के बाद भी गर्भधारण की संभावना केवल दो-चार प्रतिशत की ही थी।
सास-ससुर के चेहरे उतर गये, उनका अपना आत्मविश्वास भी पूरी तरह डगमगा गया था पर पति धीरज उन क्षणों में अडिग होकर खड़े हो गये थे। दबे स्वरों में फुसफुसाती माँ और आँखों में आँसू भर-भर कर मनुहार करती पत्नी को उन्होंने दृढ़ शब्दों में बता दिया कि वे दूसरी शादी करने को कतई तैयार नहीं हैं। किस्मत में अगर बाल-बच्चे होने थे तो वो एक ही शादी से मिल गये रहते और अगर नहीं है तो उनका पुरुषार्थ किस्मत की बैसाखी का मोहताज नहीं है और किसी औलाद के बिना ही खुश रहने का दम खम है उनके अंदर !
वचन निभाया था उन्होंने कि सारी दुनिया का दबाव सह कर भी झुके नहीं। न दूसरी शादी ही की, न दूसरों के बच्चों को देख कर आह ही भरी। अपनी राधिका को हमेशा रानी-महरानी की तरह रखा बस, जीवन के खालीपन या एक शिशु की कमी की शिकायत को कभी ज़बान तक लाने की इजाजत नहीं दी।
खुद को अपने कामों और समाज सेवा में इतना व्यस्त कर लिया कि किसी और चीज की याद ही नहीं रही। यूँ ही जाने कितने बरस बीत गये .... साठ साल की उम्र हो गई उनकी। फिर एक दिन पता चला कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है। कहाँ कहाँ नहीं फिरीं राधिका उनको लेकर .... दिल्ली बंबई .. फिर वैल्लोर में ऑपरेशन कराया .... जो भी पड़ा, अकेले झेला। कोई साथ देने वाला नहीं मिला तो क्या, अपने प्रियतम की किसी भी आवश्यकता के लिये जान भी दे देने को तैयार थीं वह तो ..... कि शरीर तक अधूरा था पर जीवन के किसी भी सुख से वंचित नहीं रहीं कभी .... कि इस देवतास्वरूप इंसान ने स्वयं अपने आप से भी बढ़कर प्यार और मान दे दिया उनको ! पर इस बार का, अपनी राधिका का ये अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर सके थे धीरज... शायद उनको अपनी अल्पायु का अंदाज था या जो भी हो, पर इस बार बीमारी में उन्हें देखने जो राधिका के बहन बहनोई आए तो उन्हीं के सामने बिखर पड़े थे वो..... जिंदगी में पहली बार अपने अंदर की शून्यता को किसी के सामने स्वीकार किया था....
" कोई तो होना ही चाहिये अपना नामलेवा ! मुझे पता है कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊँगा पर राधिका को मैं अकेली छोड़कर नहीं जाना चाहता। उनके जिस भोलेपन पर मैं फिदा था, अब वह उनकी बहुत बड़ी कमी साबित होने वाला है कि ये दुनिया तो उनको नोचकर खा जायगी ! केवल अपनी जिद की वजह से देर की मैंने..... काश कि उम्र रहते ही कुछ कर लिया होता पर अब तो एक बच्चे को बड़ा करने भर भी उम्र नहीं बची मेरे पास !" उनके दुःख से दुःखी बहन बहनोई ने अगले ही दिन अपना सत्रह वर्षीय बेटा विकास लाकर उन्हें सौंप दिया था। फिर आनन फानन में गोद लेने की सारी रस्में और कानूनी कार्यवाही भी पूरी कर ली गई थी और जब तक राधिका के देवर आए थे, विकास, धीरज और राधिका का कानूनी बेटा बन चुका था।
राधिका की ये बहन और धीरज का ये छोटा भाई, ले-देकर अपना कहने को इस दुनिया में यही दो तो रिश्तेदार हैं राधिका के ! जिंदगी भर धीरज ने इन्हीं दो घरों में जी भर कर प्यार और उपहार बाँटे थे। इन दोनों परिवारों का हर सदस्य उन्हें अपनी जान से ज्यादा प्यारा था फिर भी आज विकास को अपने सीने में भींच कर लगा था कि अपना तो अपना ही होता है। बरसों से अंतर में दबा प्यार किसी उद्दाम बरसाती नदी सा सारे बाँधों को तोड़ उमड़ आने को बेकरार था पर उसी समय देवर ने आकर संबंधों की एक नई ही व्याख्या कर डाली ....
"ये सारी चालाकी केवल आपकी संपत्ति हथियाने के लिये है भैया जी ! सत्रह साल उन लोगों को माँ बाप पुकारने के बाद ये छोकरा भला आपका क्या होगा ? अपने भाँजे के लिये भाभी की कमजोरी मैं समझ सकता हूँ पर आपको क्या हुआ था ? दो-चार साल में सबकुछ समेट कर भाग लेगा तो आपके बुढ़ापे का क्या होगा ? और कुछ नहीं तो कम से कम रुपये पैसों का सहारा तो होता ही है, वह भी नहीं रहा तो कहाँ जाइयेगा आप लोग ?"
"क्यों, तू नहीं है क्या ? तू नहीं सँभालेगा हमें ?" कहने को कह गये थे धीरज पर शक का कोई छोटा सा कीड़ा तो घुस ही गया था उनके अंदर ! जानते थे राधिका हर किसी की हर बात पर तुरंत विश्वास कर बैठती हैं, किसी में कोई बुराई उन्हें जल्दी नजर ही नहीं आती .... परेशान हो उठे थे वह ! उसी दिन से शुरु कर दिया था अपनी समस्त धन संपत्ति का हिसाब किताब .... मकान राधिका के नाम करके पक्की रजिस्ट्री करवा ली थी। बैंक के लाॅकर की चाभी, रजिस्ट्री के कागजात, बैंक जमा रसीद, पासबुक, शेयर .... सारी चीजों को रोज एक बार दिखाकर उनके बारे में बताते-समझाते थे पर राधिका थीं कि कुछ ठीक से देखती ही नहीं थीं।
बस तुनक कर कह देतीं, "देखो जी, मुझे तो तुमसे पहले जाना है सो मैं यह सब सीख कर क्या करूँगी ?" फिर विकास धीरे-धीरे जीवन का हिस्सा बनने लगा। भीगती मसों वाला अजीब सा चुप्पा लड़का ..... सूनी सूनी आँख लिये खिड़की पर बैठा बाहर आसमान निहारता रहता। धीरज उसे पुचकारते, साथ बैठाकर खिलाते-पिलाते, उसका मन समझने का प्रयत्न करते पर उसका वह हँसना-बोलना, शरारतें करना, लौटा नहीं पाए। राधिका समझती थीं कि जड़ से उखाड़ कर एक पौधे को भी दूसरी जगह रोपो तो पनपने में समय लगता है, यह तो फिर भी हाड़ माँस का इन्सान है ! अपने जन्म देने वाले माँ बाप को कोई ऐसे ही तो नहीं भूल जाएगा।
सचमुच, धीरे-धीरे फिर वह बदलने लगा .... उसका बचपना समाप्त हो गया था, अब वह धीर-गंभीर, बेहद मितभाषी पुरुष बन गया था और सबसे बड़ी बात, अपने इन नये माँ बाप को अपना लिया था उसने। धीरज के कितने ही काम सँभाल लिये और राधिका को माँ पुकार कर उसके धधकते कलेजे पर ठंढक के लेप लगा दिये थे। देवर के परिवार से इस बीच कुछ दूरी सी हो गई थी। राधिका ने उसे पाटने में अपने भरसक कोई कमी नहीं उठा रखी थी पर कुछ नहीं कर पा रही थी। अलबत्ता बहन बहनोई का परिवार बेहद सगा हो गया था और अक्सर आने लगा था।
वे राधिका को देवर की नाराजगी का मतलब समझाते, तुम्हारी संपत्ति का वारिस आ गया है, इसी से नाराज होकर उन्होंने आँखें फेर ली हैं। पहले सोचा रहा होगा कि बूढे-बुढ़िया का है ही कौन, दोनों के आँखें बंद करते ही सबकुछ अपने आप उन्हें ही मिल जाना था। अब जो विकास बीच में आ गया तो अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं वह !" पर यह सब राधिका को कभी समझ में नहीं आया। कैसे मान लेतीं कि संबंधो का आधार केवल पैसा होता है ?
वह तो कुछ भी लेकर नहीं आईं थीं इस घर में पर कौन सी कमी रही उन्हें ? उन्हीं धीरज के भाई के लिये ऐसी बातें कैसे मान लें वह ? इसके बाद चार-पाँच वर्ष और जीवित रहे धीरज ! उनके अंतिम समय में विकास ने बहुत सेवा की थी उनकी। अपना सगा बेटा होता तो क्या करता, ये तो नहीं मालूम, पर राधिका महसूस करती थीं कि इससे बढ़कर कोई और क्या करेगा ? अंतिम समय में सँभालने के लिये बहन-बहनोई भी आ गये थे पर किसी के सँभालने से क्या कभी वक्त की गति रुकी है ? अपनी बिलखती राधिका को छोड़कर धीरज निष्ठुरता के साथ चले गये।
फिर तेरह दिनों तक घर में लोगों का आना जाना कुछ इल तरह चलता रहा मानों शोक का भी कोई उत्सव होता हो। आने वाला हर कोई अपने अपने ढंग से राधिका को सांत्वना-दिलासा देता पर लौटने के पहले उनके कानों में यह मंत्र फूँकना न भूलता कि वह अपनी धन संपत्ति अपने ही हाथ में रखें। भूल कर भी विकास या किसी और के हाथ में न सौंप दें वरना भविष्य में भीख माँगने की नौबत आ जाएगी। ..... पर हाय रे राधिका, हर बार की तरह इस बार भी कोई बात उनकी समझ में नहीं आई। देख नहीं रही थीं क्या कि इन कर्म कांडों में कितना खर्च हो रहा है और ये भी पता था कि इस समय ये सारा खर्च विकास की तनख्वाह मे से ही हो रहा है। नई-नई नौकरी है बेचारे की, अभी से क्या क्या करेगा ? इसी से तो लाॅकर की चाभी और बैंक की पासबुक उसे सौंपने गई थीं। वैसे भी ये सारा हिसाब किताब रखना उनके वश के बाहर था और फिर दब बेटा जवान हो तो उन्हें इन चीजों में सर खपाने की भला क्या जरूरत ? पर उसने लौटा दिया था। कहा, अपने पास ही रखिए, जब जरूरत होगी माँग लूँगा।
फिर पता नहीं क्या हुआ, अगले दिन आकर सब माँग भी ले गया, पता नहीं कहाँ कहाँ दस्तखत भी करा लिये थे और राधिका ने सरल मन से सोचा था, शायद आज ही इसकी जरूरत पड़ गई हो। मन में चोर होता उसके तो कल जब देने गई थी, तब मना क्यों करता ? विकास के कमरे में उसके असली माता पिता देर तक पता नहीं क्या क्या बातें कर रहे थे कि राधिका दो बार चाय के लिये बुलाने गईं पर किसी ने दरवाजा ही नहीं खोला।
फिर खुला तो बहन बहनोई का सामान बाँधा जा चुका था। बहुत पूछने पर उखड़े स्वरों में बहन ने बताया कि कुछ जरूरी काम याद आ जाने से उन्हें तुरंत लौटना पड़ रहा है, हो सका तो कुछ समय बाद फिर आने की कोशिश करेंगें। रोकती रह गई थीं राधिका पर कुछ नहीं हुआ .... जाने क्यों लगता था जैसे हाथों से सबकुछ ही छूटा जा रहा हो ! धीरज चले गये, नाते-रिश्तेदार रूठ गए और फिर विकास भी दिन भर के लिये ऑफिस जाने लगा। खाली, निठल्ली सी दिनचर्या और काट खाने को दौड़ता सूना घर.... लगता, अब वह पागल ही हो जाएँगी।
पड़ोस की मुक्ता उन्हें पसंद थी। विकास से ब्याह की बाबत पूछा तो शर्मीली सी मुस्कान मुस्कुरा कर चुप रह गया। फिर उन्हें लगा कि इस विवाह के लिये सबसे पहले बहन बहनोई की सहमति लेने की आवश्यकता है अतः दो तीन पत्र डाले, फोटो भी भेजी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। अब क्या करतीं वह ? मजबूरन सारा काम अकेले ही हाथों से निबटाना पड़ा था उन्हें ! बहन के व्यवहार पर आश्चर्य भी बहुत था कि अपने ही बेटे के विवाह में इस तरह दिलचस्पी न लेने का क्या अर्थ ? पर उन लोगों के किसी भी व्यवहार का मतलब आजकल उनकी समझ में नहीं आता था। फिर एकाएक, शादी का कार्ड मिलते ही, हड़बड़ा कर आ गये वे लोग और बहन उलाहना देने लगी .... "विकास को हमसे एकदम ही पराया कर दिया तूने तो ! सबकुछ भूल भी जाऊँ, पर यह कैसे भूल सकती ह़ूँ कि नौ महीने कोख में रखा है उसे मैंने !"
भला यह सब भी कोई बात है ? राधिका ने विकास को बुलाकर सामने खड़ा कर दिया। "पूछ इससे, सारी चिठ्ठियाँ इसने अपने हाथों से पोस्ट की हैं ! मैं तो खुद हैरान हूँ कि तू आई क्यों नहीं।"
जाने क्या था विकास की आँखों में कि बहन की अचानक बोलती ही बंद हो गई, सिटपिटा कर चुप रह गईं। देवर तो शादी में भी नहीं आए, बहन-बहनोई भी केवल दो दिनों में ही लौट