उसका प्रेमपत्र

उसका प्रेमपत्र

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खेलों में मेरी दिलचस्पी नहीं के बराबर है और वह कालेज का जाना माना स्पोर्ट्समैन ! इसी से तो मेरी सारी सहेलियों भले ही उसके नाम की माला जपती हों पर मुझे उसके प्रति कोई कमज़ोरी नहीं है। आज जब अपनी एक सहेली के माध्यम से, उसका ये प्रेम पत्र मुझे मिला है, मैं सोंच में पड़ गई हूँ। उसकी उपलब्धियाँ मुझे लुभाती हैं, सुगठित शरीर और विकसित माँसपेशियाँ आकर्षित करती हैं और स्वभाव की विनम्रता और शालीनता प्रभावित भी करती हैं पर फिर भी, बिल्कुल भिन्न अभिरुचियों के दो लोग आखिर कितने दिन साथ रह सकेंगें? बाद में कहीं ऐसा न हो कि साथ रहना जरूरत के स्थान पर मजबूरी ही बन जाय ? मेरी गोल-मटोल काया और अपनी साहित्य की दुनिया में डूबा हुआ कुछ अंतर्मुखी सा व्यक्तित्व, जिसकी ओर आकर्षित होकर उसने ये पत्र लिखा है, भला कितने दिन उसे बाँध सकेगा जब उसके जीवन की प्राथमिकताएँ बिल्कुल ही अलग हैं ? जब वह मित्र मंडली के साथ बैठकर ठहाके लगाता है, मैं लाइब्रेरी की निस्तब्धता में किताबें चुन रही होती हूँ। जब वह जलती हुई धूप में हाॅकी की छोटी सी गेंद के पीछे जी जान लगा कर दौड़ रहा होता है मैं वातानुकूलित कमरे में कम्प्यूटर के सामने आराम से बैठी मिलती हूँ। वह लड़का होकर भी खूबसूरत और स्टाइलिश कपड़े पहनने का शौकीन है और मैं कोई भी, साधारण सा सलवार सूट पहन कर कालेज चली आती हूँ। 

कितनी बार, कितनी ही तरह से, उसने मुझसे बात करने की कोशिश की है पर न जाने कौन सा संकोच मुझपर हावी हो जाता रहा है कि मैं कभी उससे कोई बात नहीं कर सकी। वह इतना हिम्मती कि चैरिटी प्रोग्राम का टिकट बेचने के बहाने मेरे घर तक आ पँहुचा और मैं ऐसी दब्बू कि अपने कमरे के बाहर भी न निकली और वह मम्मी पापा से बातें कर, अपनी खास स्टाइल में उन्हें भी अपना प्रशंसक बना गया। उसके चेहरे पर हमेशा खिली हुई उस मोहक मुस्कान के समक्ष मेरे चेहरे की वो नीरस गंभीरता कितनी बदसूरत लगती होगी न ?

आखिर क्यों इस पत्र को लिख कर उसने मेरे जीवन की सहज शांति से बहती हुई सरिता में भँवर पैदा कर दिये हैं, क्या हमारे स्वभावों का अंतर उसे नजर नहीं आता ? क्या उसे नहीं पता कि अगर हम एक हो गए तो जल्दी ही यह भिन्नता हमारे मध्य खाई खोदना प्रारंभ कर देगी ? क्यों वह ऐसे संबंध की ओर आकर्षित है जहाँ सामंजस्य का अभाव हो सकता है? अगर दोनों पहिये अलग-अलग दिशा में अग्रसरित हों तो रथ आगे कैसे बढ़ेगा ? 

अब मैं क्या करूँ ? बड़ी आजमाईश में डाल दिया है उसने तो मुझको! साफ शब्दों में मना कर देना चाहिए, या डाँट लगाऊँ कि ऐसी हिम्मत उसने की भी तो कैसे ? पर उसके बाद क्या होगा? क्या मेरी ओर से निराश होकर वह किसी और को ढूँढ लेगा? पर नहीं, शायद ऐसा नहीं होगा क्योंकि इतने लंबे समय से हम सहपाठी हैं पर मैंने अपने अतिरिक्त और किसी के लिए उसकी नजर में वह आकर्षण तो बिल्कुल नहीं देखा है ! जहाँ तक मैं जानती हूँ, वह एक दृढ़चरित्र, अच्छा लड़का है। वैसे भावुक भी बहुत है वो ... कहीं मेरे इनकार से दिल तो नहीं टूट जाएगा उसका।ओह ! मैं कुछ भी बर्दाश्त कर सकती हूँ पर उसे टूटता हुआ तो नहीं देख सकती न? उसे तो जीवनपर्यन्त ऐसा ही रहना है... ज़िंदादिल, हँसमुख और सबका चहेता ! फिर उसे मना कर देने का एक और अर्थ है, कि मैं.... उसे हमेशा के लिये खो दूँगी... पर क्या इसके लिए तैयार हूँ मैं ? अपने मन में उसका स्थान किसी और को दे पाना संभव हो सकेगा क्या? उससे मुझे प्यार भले न हो, पर उसे बेइन्तहा पसंद तो करती ही हूँ मैं ! उसे खोना कहीं मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती न बन जाए !

अजीब स्थिति में हूँ मैं कि यही नहीं पता कि उसे पाना चाहती हूँ या भूलना! सहपाठी होने के नाते पसंद करती हूँ उसे, या प्यार करने लगी हूँ? जब उसके साथ जीवन नहीं बिताना है तब किसी और को चुनना वश के बाहर की बात क्यों लगती है? या शायद मुझे मालूम ही नहीं कि प्यार होता क्या है और मैं दिग्भ्रमित सी पसंद और प्यार की सीमारेखा पर थमी बैठी हूँ।

अच्छा, कहीं कुछ समानताएँ भी तो होंगीं हममें, कि ऐसा तो नहीं हो सकता कि केवल भिन्नता ही हो ? हमारे क्षेत्र भले अलग-अलग हों पर पर हम दोनों ही तो अपने क्षेत्रों में सदैव अग्रणी रहते रहे हैं। कालेज के वार्षिकोत्सव में मुझे मेरे विषयों में विशेष योग्यता के लिए मेडल मिलते हैं तो उसे स्पोर्ट्स के क्षेत्र में कालेज का नाम रोशन करने के लिए! फिर हम दोनों के मन में एक-दूसरे की उपलब्धियों के लिए इतना सम्मान भी तो है! अगर हममें परस्पर सम्मान की भावना है, एक दूसरे का व्यक्तित्व पसंद है हमें, तो फिर भिन्नता कहाँ है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि बिल्कुल समान अभिरुचियों वाला कोई मुझे मिले और सदैव एक से माहौल से हम ऊब ही जाएँ? एक ही दिशा में संघर्षरत हम एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी ही बन गए तो ? और इसके विपरीत, विभिन्नता जीवन को एक नवीनता के रस से आप्लावित और ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा से दूर भी तो रख सकती है? कोई तो कारण होगा न, कि मीठा और नमकीन, दोनों ही स्वादिष्ट हैं, आवश्यक हैं और उनकी अपनी अलग-अलग अहमियत है।

नहीं-नहीं, उसे पाने के लिए तो मैं ये सारी बातें नहीं ही कर रही हूँ मैं.... पर चाहती क्या हूँ आखिर? ऐसी दिग्भ्रमित सी क्यों हूँ ? 

इंसान के स्वभाव की एक खास बात है कि वह जो चाहता है, उसके पक्ष में तर्क जुटा ही लेता है... तभी तो अभिरुचियों की भिन्नता पर विचार करते-करते मैं समानताएँ गिनने बैठ गई हूँ! उसे खोने से शायद डर भी लगने लगा है मुझे! मेरा अपना अंतःकरण ही मेरे सारे तर्कों को निरस्त करने में लगा हुआ है! मन, स्वयं से ज्यादा एक पराए की ओर खिंच रहा है....  कहीं इसी भावना को तो प्यार नहीं कहते हैं? किससे पूछूँ, क्या करूँ ?

दिल कहता है, जिससे भी पूछूँगी, उसी का पक्ष लेगा! तो क्या स्वीकार कर लूँ उसका रिश्ता ?

ये क्या हुआ ? स्वीकृति की कल्पना मात्र से ये दुनिया इतनी खूबसूरत कैसे हो गई है ? धरती गगन का संगम हो या पहली किरण पड़ते ही कलियों का मदमा कर फूटना हो.... सबकुछ का मानों अर्थ ही बदल गया है। दर्पण मुझे संसार की सबसे खूबसूरत लड़की बता रहा है और मैं अपने आप से ही शर्माने लगी हूँ। अब मैं जान गई हूँ कि मुझे प्यार हो गया है !


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