वापसी टिकट

वापसी टिकट

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   गाड़ी जैसे ही प्लेटफोर्म पर रुकी, विचारों के जाल में उलझे मनोज ने तेज़ी से अपना बैग उठाकर कंधे पर टांगा और हाथ में एक पीले रंग की कपड़े की पोटली में बंधा हुआ मृत पिता का अस्थि-कलश सावधानी पूर्वक उठाकर तेज़ी से कदम बढ़ाए। उसके साथ उसका हम उमर ममेरा भाई भानु भी था। वो निकट के शहर से अपने माँ-पिता के साथ ही गमी में शामिल होने चला आया था ताकि पिता की अचानक मृत्यु से दुखी मनोज के साथ रहकर उसे सांत्वना देकर अवसादग्रस्त होने से बचा सके। कृषि-कर्मी माँ पिता का इकलौता पुत्र मनोज एक सीधा- सादा कम पढ़ा लिखा युवक था और अपने पिता के साथ खेतों पर काम करता था, जबकि भानु शहर के कोलेज में अध्ययन-रत द्वितीय वर्ष का छात्र था। उन्हें हरिद्वार पहुँचकर गंगा में अस्थि-विसर्जन करके अगली गाड़ी से वापस लौटना था । बड़ी धक्का मुक्की के बाद वे आखिर स्लीपर कोच की अपनी आरक्षित सीट तक पहुँच ही गये। भानु ने विंडो सीट पर मनोज को बिठाया फिर स्वयं ऊपरी सीट पर चला गया।


मनोज ने सीट पर बिस्तर फैला लिया फिर अस्थि-कलश को सावधानी से सिरहाने कोने में रख दिया और सीट पर लेटकर पिछले दिनों घटी अचानक घटना के दंश से अपने दिमाग को मुक्त करने का प्रयास करने लगा। उसके पिता को खेतों में कार्य करते समय अचानक एक विषैले सर्प ने डस लिया था और बदकिस्मती से उस समय वहाँ आसपास कोई नहीं था। भर दोपहर को ही यह घटना घटी थी जब मनोज भोजन करने घर गया था। उसे वापस आकर पिता को घर भेजकर स्वयं शाम तक वहाँ देखरेख करनी थी ताकि पिता को भोजन बाद कुछ आराम भी मिले। लेकिन अब स्वयं को कोसने से क्या होगा सोचकर उसने अपना ध्यान दूसरी तरफ मोड़ना चाहा। उसने अपने आसपास नज़रें दौड़ाईं तो सामने की विंडो-सीट पर एक वृद्धा बैठी हुई नज़र आई। वृद्धा का चेहरा ज़रूर ओजपूर्ण था मगर वो जीर्ण-शीर्ण काया पर पुराने, कटे-फटे, मैले चीकट वस्त्र धारण किये हुए थी। मनोज ने एक बात पर और गौर किया कि वृद्धा के शरीर का जो भी हिस्सा नज़र आ रहा था वहाँ घावों के ताजा निशान नज़र आ रहे थे। वृद्धा ने करुण मगर आशा भरी नज़रों से उसे निहारते हुए पूछ “बेटे तुम कहाँ जा रहे हो?”  


“मैं हरिद्वार जा रहा हूँ माँ जी, आप कहाँ जा रही हैं और साथ में कौन है, और आपके बदन पर ये घाव कैसे हैं?” उसके आसपास किसी को न देखकर मनोज ने पूछ लिया।


“मैं भी हरिद्वार की ही निवासिनी हूँ।मेरे साथ कोई नहीं है बेटे।ये घाव मुझे अपनी ही संतान ने सौंपे हैं जिन्हें ढोते रहना मेरी नियति बन गई है। मगर पुत्र तुम हरिद्वार किस प्रयोजन से जा रहे हो?” वृद्धा की आँखों में तैरते सवाल के साथ ही कुछ उम्मीद की चमक भी दृष्टिगोचर हो रही थी।


मनोज ने सोचा कहीं यह माई उससे कुछ आस तो नहीं लगाए बैठी है।उसे तो हरिद्वार पहुँचकर अपना कार्य करके तुरंत वापस होना है। अतः सोच समझकर उत्तर दिया-


“माँ जी, मेरे पिता की असमय मृत्यु हो गई है आज तीसरा दिन है।मोक्षदायिनी, माँ गंगा के पावन जल में उनका अस्थिकलश विसर्जित करके तुरंत वापस गाँव लौटना है।” मनोज ने निकट ही रखे हुए अस्थि-कलश की ओर इशारा करते हुए कहा।


“पावन जल??यह तुम किस युग की बात कर रहे हो पुत्र? उसके आज के विद्रूप रूप से क्या तुम परिचित नहीं?”


“नहीं माँ जी, मैं तो पहली बार ही हरिद्वार जा रहा हूँ। उसका दिव्य रूप तो केवल चित्रों में ही देखा है।”


“और अब आने वाली पीढ़ियाँ भी चित्रों में ही देखा करेंगी। लगता है इस बार भी उसकी आस पूरी नहीं होगी।”

“हम पीड़ित इंसानों से पीड़ाहरणी माँ गंगा की कैसी आस माई?” “वो हर बार हर इंसान से एक ही आस रखती हुई अपनी मृत हो चली साँसों को संभाले हुए है पुत्र, कि कभी उसका कोई सच्चा लाल संजीवनी लेकर आएगा और वो पुनः जीवित होकर अपना वही रूप धारण कर सकेगी जिसे लेकर वो स्वर्ग से भूलोक पर आई थी। मगर जो भी आता है, मोक्ष की कामना के साथ अपने पाप-दोष उसे अर्पित करके उसका जल प्रदूषित करके वापस हो लेता है।"


“लेकिन माँ जी, यह अस्थि-विसर्जन की परंपरा तो युगों से चली आ रही है, इसके बिना मृतात्मा को मोक्ष कैसे मिलेगा?”


 "यह कोरा अंधविश्वास है पुत्र, तुम जानते होगे कि मरते हुए अथवा मृत व्यक्ति के मुँह में कुछ बूँदें गंगाजल की मोक्ष के लिए ही डाली जाती हैं फिर अस्थि-विसर्जन किसलिए? "अस्थियों को मिटटी में भी गाड़ने का विधान है। ऐसा करने पर पर्यावरण भी दूषित नहीं होगा। लगते तो तुम पढ़े लिखे हो।मैं कैसे मान लूँ कि तुम इन बातों से अनभिज्ञ हो। और माँ गंगा को वही सौंपने आए हो जो अब तक हर मानस-पुत्र सौंपता आया है। मानते तो उसे माँ हो फिर यह कैसे भूल बैठे हो कि उसके प्रति तुम्हारा कोई फ़र्ज़ भी है। माँ गंगा को अपनी नहीं भावी संतान की चिंता है कि दूषित जल और विषैले पर्यावरण में वो कैसे साँस ले सकेगी?"


मनोज आश्चर्य से उस वृद्धा को किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ताकते हुए सोच रहा था यह कौन है जो इतना ज्ञान रखती है। आखिर हारकर पूछ बैठा-

“सच बताइये माँ जी, आप कौन हैं? हरिद्वार में कहाँ रहती हैं?”


फिर कोई जवाब न पाकर उसने जैसे ही सामने देखा तो उस वृद्धा के स्थान पर कल-कल बहती नदी के स्वच्छ जल के बीचों-बीच एक अलौकिक रूपसी खड़ी उसे निहार रही थी और उसे अपने पीछे आने का इशारा करके आगे बढ़ने लगी। मनोज यंत्रवत किनारे किनारे उसके पीछे चलने लगा। जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते गए, टूटे हुए घाट, पशुओं के बहते हुए शव, चौड़े होते हुए पाटों के आसपास कटे हुए पेड़, साथ बहती हुई मिट्टी, अपशिष्ट बहाते हुए लोग।मनोज को सारा दृश्य स्पष्ट नज़र आ रहा था ।देखते ही देखते वो नदी क्षत-विक्षत अवस्था में कचरे के ढेर में बदल गई और उसमें से विषैला धुआँ उठने लगा। वो रूपसी खाँसती हुई पुनः उस वृद्ध महिला में बदल गई।


तभी मनोज को एक झटका सा लगा और गाड़ी के रुकते ही आँखें मलते हुए वो नींद से जाग गया। देखा तो हरिद्वार स्टेशन ही था और भानु उसे झिंझोड़कर जगा रहा था। मनोज समझ गया कि वो सपना देख रहा था मगर सारी बातें उसे अच्छी तरह याद थीं।नीचे उतरकर वो अनिर्णय की स्थिति में सामने ही रखी हुई एक बेंच पर बैठने लगा तो भानु ने टोका-


“यह क्या यार, हमें अपना कार्य शीघ्रातिशीघ्र करना चाहिए ताकि शाम की गाड़ी से वापस निकल सकें।”

“तनिक बैठो भानु, मुझे तुमसे कुछ कहना है।”


मनोज को चिंतातुर देख भानु बैठ गया और प्रश्नसूचक नज़रों से मनोज को देखने लगा।

मनोज ने सपने वाली बात उसे विस्तारपूर्वक कह सुनाई तो भानु बोल पड़ा-

“यह तो वाकई हैरतंगेज़ है मनोज, कोई अज्ञात शक्ति तुम्हारा पथ-प्रदर्शन कर रही है। ठीक यही अंधविश्वास वाली बात मैंने भी तुमसे कहना चाही थी मगर तुम्हें कहीं मानसिक कष्ट न पहुँचे, इसलिए चुप रह गया था।”

“मगर भानु इस समय क्या किया जाए।मैं माँ गंगा की सेवा किस तरह कर सकता हूँ।अस्थि-कलश विसर्जित करके उसे अधिक कष्ट देने का भागी नहीं बनना चाहता। और अस्थि कलश??”


“माँ गंगा का इशारा समस्त नदियों की दुर्दशा की तरफ है मनु, इसके लिए तुम सामाजिक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे “नदियाँ बचाओ” जागरूकता अभियान में शामिल होकर यथासंभव श्रमदान करके गाँव वालों को पर्यावरण के प्रति सचेत करते हुए नदियों के आसपास पौधारोपण के लिए प्रेरित कर सकते हो। इस क्षेत्र में तुम्हारा छोटा सा योगदान भी अनमोल कहा जाएगा। इस तरह तुम परोक्ष रूप से माँ गंगा की सेवा का पुण्य प्राप्त कर सकोगे।"


यह अस्थिकलश तुम अपने खेत के किनारे माँ-धरती की गोद में गाड़कर वहाँ एक पौधा रोप देना। यह कर्म भी शास्त्र-सम्मत है, यह संकेत तुम्हें सपने में भी मिल चुका है। इस तरह तुम्हारे पिता की आत्मा को निश्चित ही मोक्ष प्राप्ति होगी और वो सदैव तुम्हारे साथ रहकर अज्ञात की ओट से तुम्हारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। और तुम्हारी यह पहल गाँव-वालों का अंधविश्वास दूर करने में भी सहायक होगी। हम यह कार्य गाँव पहुँचकर घर जाने से पहले सम्पन्न कर देंगे।”


“यही उचित रहेगा मित्र, उस स्वप्न ने मुझे कर्म-मार्ग दिखा दिया है।।। देखो वो खिड़की खुल चुकी है, चलो, हमें वापसी टिकट लेकर तुरंत निकलना चाहिए।”


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