Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Abstract

2.5  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

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चमत्कारी ताबीज

चमत्कारी ताबीज

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बड़ी बुआ मिठाई का बड़ा थाल लिए घर में घुसीं तो सब ऑंखें मल -मल कर उन्हें देखने लगे। उनकी कंजूसी के किस्से पूरी बिरादरी में मशहूर थे। इससे पहले वो कभी चार टुकड़ा मिठाई भी नहीं लाईं थीं।

"अरे बबुआ। हमारा बबुआ। अरे सबसे पहले तेरा ही मुंह मीठा करूंगी " कहते हुए बुआ ने काजू की बर्फी भरा थाल सबसे पहले मेरे आगे किया तो सब भौंचक्के रह गए।

"खुशखबरी तो बता दो, ननद जी " माँ ने पूछ ही लिया।

"अरे अपने गोपाल की सरकारी नौकरी लग गयी है। तीन सालों से परीक्षा दे रहा था.. पर हर बार वही ढाक के तीन पात निकलते थे ... फेल हो जाता था। पिछले साल दिसम्बर में बबुआ बड़े मंदिर जा रहा था तो हमने इससे ताबीज मंगवाया था। सब देवी माँ की कृपा ठहरी ... बबुआ ताबीज लाया हमने गोपाल के हाथ में बाँध दिया ..... बस पांच महीने में चमत्कार हो गया। जिस दिन से नतीजा निकला है सब पास -पड़ोसी बधाई देने आ रहे हैं। बीसियों तो रिश्ते ही आ गए हैं। पचास लाख नकद और बड़ी गाड़ी -क्या कुछ नहीं देने को तैयार खड़े हैं, लड़की वाले !"

बुआ जी तो सरकारी नौकरी मिलने का राज बता और मिठाई का थाल माँ -बाबूजी के हाथ थमा कर जल्दी में होने का बहाना बना चल पड़ीं पर मेरे लिए बड़ी मुसीबत कर गईं।

" ऐसी मूर्ख संतान भगवान् दुश्मन को भी न दे। अरे, एक ताबीज अपने लिए भी ले आता। खुद भी तो चार सालों से सरकारी नौकरी के पीछे भागा -भागा फिर रहा है। तुझे भी नौकरी मिल जाती और हम भी गंगा नहा लेते। " माँ मुझे कोसने लगीं।

"अरे सब गृह -नक्षत्रों का खेल होता है। देवी माँ की इच्छा होती तो ये भी ताबीज बाँधता। " हमेशा की तरह पिताजी माँ को शांत करने लगे।

"चलो जी अपनी फ़िक्र नहीं है तो कोई बात नहीं पर अपनी बहन का भला तो सोचता। उसके लिए ताबीज लाता तो उसका रिश्ता तो पक्का हो जाता। बेचारी कुम्हला सी गई है, साथ की सब लड़कियों का ब्याह हो गया और ये पच्चीस पूरे कर भी अभी तक यहीं टिकी हुयी है। " माँ की शिकायत जारी थी।

बहन चुपचाप एक किनारे खड़ी अपने पैरों के अंगूठे से सीमेंट के पक्के फर्श पर गड्ढा खोदने की नाकाम कोशिश में लगी है।

अचानक मुझे कुछ याद आया।

मैं दौड़ कर अपनी अलमारी में रखे दूसरे ताबीज को ले आया और बहन के हाथ में थमा दिया।

"ये उसी ताबीज के साथ लिया था, बाँध ले। " मैंने प्यार से बहन से कहा तो उसने कुछ देर उस ताबीज को उल्टा -पुल्टा किया और फिर वो ताबीज वापस मेरे हाथ में रख दिया।

"भैया आप ही बांध लो न। आपकी नौकरी ज्यादा जरूरी है। मेरी शादी तो कहीं न कहीं हो ही जाएगी " बहन के प्यार की मिठास से कमरे में घुली कड़वाहट गायब हो गयी।

"नहीं ये तुझे ही बांधनी पडेगी।" कह कर मैंने जिद करके बहन के हाथ में ताबीज बाँध दिया।

वैसे भी सब विश्वास का खेल ही तो था। बहन को विश्वास रहेगा ताबीज पर तो शायद सच में वो ताबीज उसकी जिंदगी में भी चमत्कार कर देगा।

मुझे तो सच पता है कि मैं बड़े मंदिर से ताबीज लाना भूल गया था और फिर बुआ के डर से पड़ोस की दुकान से ही ताबीज खरीद लिया था।

एक के साथ एक -मुफ्त ।


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