एक और कबीर
एक और कबीर


जीवन के असमतल रास्तों का परिचय देते हुए तथा आसानी से उस पर चल सकने लायक नुस्खे बताते हुए मेरे साहित्यिक गुरु (श्री शशि रंजन 'शशि') जी ने कुछ दूर बाद झगड़ू बाबा के बारे में बताना शुरु
किया -
मीनापुर पुल!
"जानते हो, बाबा यहीं मरे थे। इसी पुल पर, रेलिंग के बगल में। रास्ते पर।"
मैंने आश्चर्यसहित पूछा - "पुल पर? उनका अपना कोई आश्रम ना था?"
"पुल पर ही सोया करते थे, मृत देह पहले पाए से सटा पाया गया।"
"तो क्या वह डूब मरे थे?"
"नहीं, वे जीवन भर उन्मुक्त रहे। मुक्त दूसरी चीज है। उन्मुक्त रहे। जहाँ कहीं घूमते, सोते, बैठते, चलते भूख लगी, किसी से माँगा, भोजन मिला तो उदर-पूर्ति हो गई। नहीं तो स्वयं ही में मस्त हैं, उसके बाद तो, हाँ, उनके मरने पर उनके कफन पर जो हिंदू-मुस्लिम ने रुपए चढ़ाए। उन्हीं से उनका श्राद्ध भी अच्छे ढंग से हो गया।
बाबा कहते थे -" मरते समय तक तुम सब की थोड़ी सी मदद भी न लूँगा। "
"और पानी भी नहीं माँगा! वह पाया देख रहे हो न, वहीं था उनका मृत शरीर! पानी तो न था नहर में, सूख चुका था। ठीक वही स्थिति, जिसमें वे सोया करते थे दिन काफी चढ आने पर लोगों ने ध्यान दिया तो पाया कि झगड़ू बाबा अब नहीं रहे।"
"बाबा के बारे में कुछ बातें जैसे उनके कार्यों में चमत्कार इत्यादि कुछ जानना चाहता हूँ।"
"मत पूछो, ग़जब थे, कमाल ही थे! प्रायः उनकी और संत गुरु दास जी की बनती नहीं दिखती थी। और सच्चाई यही थी कि जो सचमुच दिखती थी वही नहीं दिख रही थी। मीनापुर से दौड़ते हुए फुलवरिया स्थित एक शिवलिंग स्थापित मंदिर में पहुँचते थे जहाँ संत गुरुदास जी रहा करते थे। संत गुरुदास अद्वैतवाद के पंडित, संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। मंदिर के सामने एक विशाल पीपल, जिसकी जड़ें मजबूती का पर्याय थीं । वह आज भी है। बाबा उसी पर उछलकर आसन लगा बैठ जाते। नीचे संत जी...... ऊपर झगड़ु बाबा! अद्भुत दृश्य होता! कभी-कभी बाबा सड़क पर मस्ती से बैठ जाते और मंदिर परिसर में संत गुरु दास जी अपने आसन पर। शास्त्रार्थ चल रहा है, घंटों। कभी-कभी झगडू बाबा बड़े प्यार से खिसियानी बिल्ली होकर संत जी को डाँट देते - " ई तू का पोथी-पात्रा लेकर बैठ जाते हो! तुम्हारे पोथिया में वही है, जो हम जानते हैं।" आश्चर्य कि बाबा पढ़े - लिखे न थे।
एक बार कुछ लफंगों ने उन्हें फुलवरिया बाजार पर घेर कर पीट दिया। गश्ती पुलिस आई, पूछा -"बाबा क्या हुआ? क्यों रो रहे हैं?" रोते रहे। किसी ने मारपीट की बातें बताई। पुलिस ने कहा-" बाबा! नाम बताइए, किसने मारा है? अभी पकड़कर हवालात भेजता हूँ। आप सिर्फ नाम बताइये।" "एक नाम जानता हूँ। रामवा ने मारा है। बहुत.....बहुत मारा है।" चोट दिखाते हुए बोले - "हमरा रामवा ने बहुत मारा है। जाओ, पकड़ा जाए तो पकड़ो।" पुलिस अछताते - पछताते लौट गई। 14 वर्ष पहले कभी किशोर सिद्ध पुरुष मीनापुर आया तो लिबास पागल, चेहरा पागल, कर्म पागल, बात पागल, बाल पागल परंतु आँखों में उन्मुक्त गगन हमेशा लहराता रहता था। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया वरना स्वयं में आनंदित!!
एक बार गर्मी के मौसम में कटहल के पेड़ पर चढ़कर एक किशोर छोटा बच्चा कटहल के फलों को काटकर बड़ी जतन से नीचे छोड़े जा रहा है। इतने में पेड़ वाले को खबर लग गई बेचारा परेशान बेतहाशा दौड़ा चिल्लाता चला आ रहा है। और..... वह पेड़ पर चढ़ा किशोर....... बड़े आराम से निर्विकार और निरीह भाव से फलियों को ढाहता जा रहा है। बड़ी मुश्किल से उसे पेड़ पर से उतारा जाता है। गुस्से में आकर पेड़ का मालिक उसे रस्सी से बाँध देता है। का रे! झगड़ू, बता, कच्ची फलियाँ क्यों ढाहता जा रहा है रे, तेरे बाप का क्या जाता है! बर्बाद तो मैं हुआ। अब तेरी एक भी हड्डी-पसली न छोडूँगा। किशोर के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। उस पर तो कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा - न विषाद न भय न पश्चाताप, न क्रोध, न हँसी, न क्रंदन! बस, एक तृप्त निर्विकार भाव!!
"आपके घर में परसों सत्यनारायण पूजा है, अभी तक प्रसाद की व्यवस्था नहीं कर पाए हैं आप और न आप से होगा। मैं यह भी जानता हूँ। तो सोचा कि क्यों न एक अच्छा काम कर दिया जाए, सो इनको काटा है। ई सबको भूसा में ढँक दीजिएगा, पक जाएगा।"
उपस्थित लोगों ने कपार पीट लिया। अंततः उसे खोल दिया गया।.......और सचमुच वे छोटे, कच्चे कटहल तीसरे दिन पककर गमकने लगे थे!!!