कुमार अविनाश केसर

Abstract

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कुमार अविनाश केसर

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चिराग़ तले अंधेरा

चिराग़ तले अंधेरा

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प्रशांत नील समंदर के पश्चिम का क्षितिज, सूर्य की हँसी से सिंदूरी हो रहा है। मानो, सूरज खिलखिला कर हँस पड़ा हो! और उसी के मुख से हृदय के भावों का सिंदूरी सौंदर्य, नीलिमा पर छींट पड़ता हो। अब अस्ताचल नवरंगी हो गया! इंद्रधनुष से दो रंग अधिक! दो विचारों के.... दो भावों के.....अलग-अलग दो रंग, मानो, नवरत्न एक-दूसरे पर छींटाकशी कर रहे हों! न जाने पारदर्शिता और प्रशांति में क्या बातें हुईं कि क्षण भर में गर्भ में छिपे मोती का प्रकाश आर-पार होने लगा। मैं ही अकेला यह सब नहीं देख रहा था, ठीक मेरे दो कदम पीछे अपने उदयाचल की सीढ़ियाँ लाँघता चाँद भी कुछ इस तरह गुमसुम, आँखों की ओट से देख रहा था कि उसकी साँसों के आरोह-अवरोह के शब्द सुनाई पड़ते थे! अरे, यह क्या! पश्चिम का मुख पीला पड़ गया!! अच्छा, तो यह बात! पूरब के संभल जाने का भय है। तभी कुछ देर पहले इन्होंने नवरंग बिखेरा था ताकि इनकी चुगली न पकड़ी जाए। पर अब जाकर नंगा हुआ है!

नहीं, अब पूरब धोखा नहीं खा सकता।

.....वह समझ गया है नवरंगी छटाओं का अर्थ!

.....समझ गया है चमकीले रत्नों का धोखा!

.....बस, वह समझ ही गया है कि सोनार ने उसे धोखा दिया है।

.....वह समझ ही गया है कि जहरीले हीरों पर नवरंग की चिकमिकाहट बड़ी कुशलता से चढ़ाई गई है।

.....वह समझ गया है कि उजाले की नाक के नीचे, रोशनी की पेंदी तले, अंधेरा काले नाग की तरह डँसने की पूरी तैयारी में था।

काश, यह बात पूरब के सितारे समझ पाते!!

कम-से-कम चिराग तले अंधेरा तो न होता।



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