अंतर्यात्रा
अंतर्यात्रा
मेरी साहित्यिक यात्रा का पहला क़दम निर्मला था जहाँ से पैरों ने चलना सीखा। डगमगाते दूसरे पड़ाव सेवासदन को पार कर नवसिखुए डग प्रतिज्ञा पर आकर कौमा हो गए। दूसरे हुँहकार में एक अजनबी होश के साथ जो उठे तो मैला आँचल के चौराहे से झाँकते हुए प्रेमाश्रम की जमींदारी दीवारों तक पहुँच गए, जहाँ से दलितों की बेबसी मस्ती और खून पसीने की सुगंधित दुर्गंध हटा ले रही थी। अब चलायाआवारा मसीहा बाणभट्ट की आत्मकथा के साथ मानस का हंस देखने, दूर कहीं बाबा बटेसर नाथ झांक रहे थे मुंह उठाए शायद महाकाल की कलंक मुक्ति का उपाय ढूंढ रहे थे। बगल से गुजरते हुए देखा उनकी जड़ों में रागदरबारी लहर रहा था। मुझे याद आया बहुत दिनों पहले इरावती मिली थी, दादा कामरेड मिले थे। अतीत के भूले-बिसरे चित्र बाइस्कोप हो गए। इसी धुन में रक्त मंदिर आ गया। इसके सामने कामायनी गुंबद थे उसके अंतस में जकड़ा गुनाहों का देवता खड़ा था। मैंने उसको प्रणाम किया। देखा, उसके चरणों में बैठी सुरसतिया अपनी वसीयत लिख रही थी। आश्चर्य हुआ, अब तक चरित्रहीन चित्रलेखा भी वहीं थी। दूसरी और किसी गली से प्रचंड हुँकार के साथ रश्मिरथी कुरुक्षेत्र को भागा जा रहा था।
द्रोण का रथ भी बड़ी तेजी से, साथ दौड़ रहा था। मैंने वहाँ रुकना मुनासिब न समझा। सोचा, छोड़ो इन्हें, ये जंगी दुनिया के लोग हैं। आगे बढ़ा- पथ के साथी पथ के साथी मिले। पैर खिल उठे, कुछ दूर के बाद पुण्डरीक मिला, रास्ते कटने लगे। रतिनाथ की चाची रास्ते पर ही मिल गई, वह आँसू से भीगे नयन के साथ नहीं हर जा रही थी। थकने पर वह कुछ समय के लिए भारत-भारती मैं विश्राम करने को ठहरी। हम सब चलते रहे दोपहर हो रहा था सामने त्रिवेणी बह रही थी वहीं हमने स्नान कर अपनी थकान मिठाई कुछ देर के विश्राम के बाद यात्रा पुनः शुरू हुई उसके बाद कई साथ ही मिले मिलते रहे दुआ सलाम होता रहा कितने चौराहे मिले परंतु हम भी अजीब पथिक रहे। न रुके, न मुड़े। चलते रहे। आगे पलटू बाबू रोड पर भारी जुलूस थी। दीर्घ यात्रा के बाद कोणार्क की सीढ़ियों पर समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त, अशोक बैठे मिल गए तीनों अपने काल विचार में लीन थे। उधर सूर्य प्रतिमा के समक्ष पूजा की थाल सजाए ध्रुवस्वामिनी खड़ी थी मैंने देखा भूमिजा पंचवटी की ओर क़दम बढ़ाने लगी थीं। पुराने कंगूरों से गिरता रसीदी टिकट नीचे बढ़ रहा था तो एक ओर बिछी महफ़िल में गालिब बाशायरी गुलजार हुआ चाहते थे।
सांध्यगीत अब जीवंत होकर माटी की मूरतें गढ़ा चाहते थे परंतु बीच में ही उसे पतितों के देश में ठहरना पड़ा। एक क्षण को वह सिर्फ संस्मरण और संस्मरण में खो गया परंतु इस गबन को उसकी आत्मा कैसे स्वीकार करती सो उसने देवदास की मूर्ति गढ़ डाली। इसी दृश्यावलोकन में हम मानसरोवर पहुँच गए। हम संसार के अलग अलग वैतरणी पार कर आए थे। हमने अनुभव किया, सामाजिक कर्मकांडों द्वारा लादे गए भय से छुटकारा और पुष्पी के प्रति किए गए विचित्र प्रेम का उपकार गोदान से भी संभव नहीं। इन कर्मकांडियों को अपनी नाक को राष्ट्रीय नाक घोषित करनी चाहिए थी ताकि प्रेमपंथ सूँघने और अपनी पोथी परंपरा के टूट जाने की ख़बर ज़रा जल्दी लग जाती. ख़ैर......
किनारे से थोड़ी दूर, मझताल में लीला कमल अपना अद्भुत सौंदर्य बिखेर रहा था। उसे उस विचित्र सौंदर्य का वरदान मिला था। मुझे याद है, गोरा इस ताल की छोरों पर बँधी कितनी नावों में कितनी बार बैठ चुका था। उस ताल को देख, कितनों को मधुबन की याद आई होगी। हमने अनुमान किया मधुबाला मधुकलश लिए मधुशाला की चीर मदहोशी में मत्त है। जिसके दरवाजे पर बैठा कालिदास मेघदूत रच रहा था। दूर पानी के किसी प्रतिजात तरंग में विवेक ज्योति की लौ उठती देख, उसके पुंज को साकार देख हमने हाथ जोड़ते हुए कहा अब नाच्यो बहुत गोपाल।