मन के तार..!
मन के तार..!
रंगीला रे..तेरे रंग में...रेडियो पर चल रहे इस गाने को सुन शशि साथ साथ गुनगुनाने लगी।जीवन के चालीस बसंत देख चुकी शशि जब भी ये सॉन्ग सुनती तो पूरा होते होते खो जाती थी अतीत की परछाइयों के धुंधलके में।कितना सुनहरे दिन जुड़े है उसकी स्मृतियो में रेडियो के।इतनी रेडियो प्रेमी थी वो कि आकाशवाणी पर आने वाले एक प्रोग्राम आपकी फरमाइश को वो कभी नही छोडती थी।कितनी ही व्यस्त होती लेकिन नौ बजते ही रेडियो पर आकाशवाणी लगा कर सुनने लगती थी कार्यक्रम आपकी फरमाइश।लोगों के अपने पसंदीदा गाने सुनने की मांग कितना बैचेन कर जाती थी उसे।सोचती थी कैसे फरमाइश करते है चिट्ठी लिख कर।क्या लिखना होता है चिट्ठी में।केवल फरमाइश ही लिखनी होती है या फिर और भी बातें लिखनी होती है।जब रेडियो पर कोई अपने प्रिय का नाम सुनता है तो कितना सुखद एहसास होता है।ऐसा भी होता है कहीं।ये सब सोचते हुए कब कार्यक्रम खत्म हो जाता पता ही नही चलता था उसे।फिर जब दादाजी की कड़क आवाज आती अब नौ बजकर पैतालीस मिनट हो रहे है शशि, समाचार का समय हो रहा है समाचार लगा कर दो।तब वो उठकर रेडियो अपने दादाजी को दे वहां से अपने कमरे में चली जाती।यही तो उसका नित्य क्रम था।उन दिनों एक बीते समय की अभिनेत्री साधना जी के बालों की तरह बाल रखने का कुछ ज्यादा क्रेज फिर लौट आया था।सो कॉलेज की अधिकांश युवतियां उसी तरह से बालो की सज्जा कर आती थी।लेकिन वो इस भेड़चाल में शामिल न होकर अपने ही नियमित अंदाज में कॉलेज आती थी और आते ही वो सबसे पहले उस बेंच की ओर देखती थी जो कॉलेज के बाहर खाने पीने की स्टॉल के पास पड़ी होती।उसी बेंच पर तो बैठा हुआ मिलता था वो,'हाथ में किताब और पेन पकड़े।'उसे देखते हुए वो चुपके से निकल जाती थी।वो जो उसके मन के तारो में हलचल मचाये था।
ऐसे ही एक दिन वो कॉलेज जा रही थी।और उस दिन वो बेंच खाली थी।उस बेंच पर मौजूद रहने वाला एक लम्बा पतला सा करीब बीस वर्ष का लड़का मौजूद नही था।तुरंत ख्याल आया,'आज आया क्यों नही वैसे तो हर रोज यहीं बैठा मिलता लेकिन आज नही है।कहीं कोई समस्या कोई परेशानी तो नही है।'सोचते हुए वो वहीं रुक गयी।ज्यादा देर हुई तो चली आई थी।पूरे समय मन उखड़ा सा रहा।कितना पूछा था सहेलियो ने आकर क्या परेशानी है।लेकिन वो चाहकर भी बता नही पाई।कॉलेज से घर चली आई और आकर कार्यो से निवृत्त होकर फिर रेडियो लेकर बैठ गयी।उस दिन चित्रहार,आपकी फरमाइश सदाबहार नग्मे न जाने कितने ही प्रोग्राम सुन ली थी वो।लेकिन मन नही बदला था।कहां समझ पाई थी तब वो उसके साथ हो क्या रहा था।नाइंटीज के समय में इतनी अभिव्यक्ति की आजादी जो नही थी छोरियों को।तब किताबे हाथ में आने लगी थी लेकिन साथ ही बंदिशे भी बहुत थी।इन्ही बंदिशो में जकड़ी वो तो बस एक झलक में ही खुश हो जाया करती।अगले दिन वो कितनी बैचेनी के साथ कॉलेज गयी थी।वो ही जानती थी।सारे गृह कार्य जल्दी जल्दी हाथ चलाते हुए समय से पहले खत्म कर लिए थे उसने।जल्दी जल्दी कॉलेज के लिए तैयार हुई।सलवार सूट के साथ दुपट्टा सादा चप्पल!माथे पर छोटी सी लाल बिंदी।हाथ में कॉलेज का बैग पकड़े वो निकल पड़ी थी घर से अधीर मन से।निकलते हुए भी मां की नसीहत सुनाई दे गयी थी,'छोरी सीधे कॉलेज जाना और कॉलेज से सीधे घर आना,जरा भी इधर उधर ताकाझांकी नही करना' मां की तो रोज की आदत थी।सुनते हुए वो निकल गयी और जल्दी जल्दी चलते हुए कॉलेज पहुंची।नजर सबसे पहले बेंच पर जाकर पड़ी।आज वो वहीं था।चेहरे पर मुस्कुराहट रखे वो वहां हर आने जाने वाले को हाथ में पकड़ी मिठाई के डिब्बे से मिठाई निकाल कर बांटता जा रहा था।कितना खुश था वो उस दिन।उसे भारतीय सीमा सेना में चुन लिया गया था।जिस कारण वो मिठाई बांट कर अपनी खुशी व्यक्त कर रहा था।कितना सुखद एहसास हुआ था जब उसने पहली बार उसका नाम पुकारा था बोला था,'शशि सुनो, ये मिठाई ले जाओ।' लेकिन वो संकोचवश कदम नही बढ़ा पाई।बस दूर से ही चुपके से हाथ जोड़ लिए थे उसने।जिसे देख उसने अपनी गर्दन हिला कर कहा था कोई बात नही शशि।वो कॉलेज के अंदर चली गयी थी लेकिन मन वहीं बाहर था।पता लग गया था अब जल्द ही वो वहां कभी नही दिखेगा।सोचते हुए मन दुख
गया था।लेकिन दुख को जताना भी तो अपराध ही था उस समय।दबा गई मन में।मुलाकातों का ये सिलसिला यूँही बना रहा और एक दिन वो चला गया।कितनी बैचेन हुई थी वो उस दिन।छुप छुप कर कितनाना रोयी थी।नही कह पाई थी वो अपने मन की बात उससे।मन की मन में ही दब कर रह गयी।सब कुछ नीरस लगने लगा था उसे।लेकिन उसने कभी भी रेडियो सुनना बंद नही किया।न जाने क्यों उसे रेडियो से इतना लगाव था।लगता था काश ये रेडियो उसके मन के तार जोड़ दे।जैसे वो मीलो की दूरियां यूँ चुटकियो में मिटा देता है उसके मनमीत से दूरी भी यूँही मिटा दे।अपनी इसी सोच पर वो कितना हंसती थी।नाम पता मालूम नही उसे और मनमीत बना बैठी।फिर खुद से ही तर्क करने लगती प्रेम कहां नाम पता देखता है।जिससे मन जुड़ना होना है जुड़ जाता है।
यूँ ही एक दिन उलझन में बैठी थी खबर लगी उसके मां पापा ने रिश्ता तय कर दिया।अगले दिन गोद भराई के लिए वर पक्ष से सदस्य आ रहे हैं।पूछा न बताई बस सीधे गोद भराई।खबर सुन कर बज्रपात गिर पड़ा था उस पर।तुरंत मोती ढरक आये थे आंखों से।उठ कर कमरे में चली आई थी।कितनी मुश्किल से वो रात कटी थी।अगले दिन बेमन से तैयार हुई और एक सजीव गुड़िया बनकर उन लोगों के सामने बैठा दी गयी।उन दिनो बस घर वालो ने कह दिया रिश्ता पक्का।न लड़का देखने आता न ही बातें मुलाकाते होती।कुछ कपड़े,थोड़े जेवर कुछ फल और उस पर नेग सब मिला कर भावी गृहलक्ष्मी के स्वरूप उसके हाथ में थमा दिया गया था।सारी रस्मे करते समय कितनी पीड़ा हुई थी उसे।सब सह गयी।एक दिन यूँही रेडियो सुन रही थी आपकी फरमाइश!उस दिन फौजी भाइयो की फरमाइशें विषय था।यूँही बैठे हुए सुनने लगी थी।तभी एक रेडियो कार्यकर्ता ने उसका नाम लेते हुए कहा था,'अब अगली फरमाइश की है हमारे सेना के एक जवान उमाशंकर ने अपनी भावी पत्नी शशि के नाम।' इनका कहना है शशि रेडियो की बेहद शौकीन है विशेष तौर पर आकाशवाणी के एक कार्यक्रम आपकी फरमाइश को कभी सुनना नही छोडती है।यूपी के सहारनपुर के एक छोटे से गांव में रहने वाली शशि बेहद शालीन है।'सुनकर चौंक गयी थी वो।ये शशि कहीं वही तो नही।सहारनपुर के एक गांव में वो भी तो रहती थी।विवाह तो उसका भी तय हो चुका था।उड़ती उड़ती खबर कानो में पड़ी थी भावी वर भी सेना में ही है।क्या पता ये वही हो।नाम सुनकर एक पल को तो बढ़ ही गयी थी उसकी धड़कने।गाना पूरा हुआ तो मन आतुर हो गया जानने को कि आखिर ये उमाशंकर कहीं वही तो नही।कैसे पता करे कोई साधन ही नही था उस समय।चिट्ठी पत्री का जमाना था।मोबाइल का तो दूर दूर तक उसके यहां नामोनिशान नही था।सहलियो से पता कराने का एक विकल्प था लेकिन क्या कह कर पता कराती रह गयी बैचेन होकर।सोच में ही पूरा समय गुजर गया।अगले सप्ताह फिर उसके लिए गाने की उमाशंकर ने फरमाइश की थी।इस बार तो उनकी मुलाकातों का छोटा सा जिक्र भी किया था।सुनकर मन को कितना सुकून मिला था। वो पल खुशी से बावली हो गयी थी।जब उसने सबसे आखिर से पहले की लाइन में सुना था कैसे उसने आखिरी बार उसने नौकरी पर जाने से पहले कॉलेज के बाहर देखा था।ये वही है उसका लम्बे से पतले चेहरे वाला पहला प्यार।पहली बार उसे नाम पता चला था उसका उमाशंकर।उसने भी खत का जवाब खत से देने का सोचा और उसने खत लिख डाला था रेडियो आकाशवाणी के आपकी फरमाइश कार्यक्रम के लिये।खतो का सिलसिला चल निकला था।फरमाइशों का दौर चलने लगा था।अपने प्रेम का इजहार भी दोनो ने आकाशवाणी के कार्यक्रम के जरिये ही तो किया था।याद है उसे कैसे विवाह के कुछ दिन पहले जब वो रेडियो सुन रही थी तब एक कार्यक्रम में उसके नाम प्रेम संदेश आया था।बोराई फिरी थी वो उस दिन।खुद को कितना सौभाग्यशाली समझ इतराती फिरी थी सहेलियो के बीच और वो इतराना आज तक बदस्तूर जारी है।उमाशंकर जी आज भी तो सीमा पर तैनात है।आज भी मन के तारो को जोड़ने में रेडियो उसी तरह अहम भूमिका निभा रहा है।कभी फरमाइश के जरिये तो कभी एक खत फौजी भाइयो के नाम कार्यक्रम के जरिये।हालांकि आज कल फोन हाथो में आ गया है लेकिन फिर भी जिसने उन्हें जोड़ने में भूमिका निभाई उसे वो क्यों कर भुला दे।चलता रहेगा फरमाइशों का ये सिलसिला कभी खत्म न होने के लिए।।
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