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प्रभात मिश्र

Classics Others

4  

प्रभात मिश्र

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सुलोचना

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उत्तर में आर्यावर्त पश्चिम एवम् दक्षिण में विस्तृत समुद्र पूर्व में गरुड़ राज्य से लगती सीमा के बीच चौदह लक्ष योजन में विस्तृत नाग लोक अपनी विपुल वन संपदा एवम् वैभव के लिये विश्व भर में विख्यात था। यद्यपि मेरे पिता सम्राट अनंत के शासन काल में प्रजा सुखी व संपन्न थी तथापि सीमावर्ती गरुड़ राज्य एवम् आर्यावर्त से छुटपुट संघर्ष चलता रहता था। पिता श्री अनंत के नारायण की सेवा में चले जाने और चाचा श्री वासुकी के कैलाश चले जाने के बाद राज्य का भार चाचा श्री तक्षक के कंधों पर आ गया। पिता श्री और तक्षक चाचा जी के स्वभाव मे अत्यधिक अंतर था, पिता श्री सभी पड़ोसियों से सौहार्दपूर्ण संबंध बना कर रखने के पक्षधर थे, वही महाराज तक्षक अत्यधिक क्रोधी स्वभाव के थे जिससे सीमा पर तनाव दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था। उधर गरुड़ राज्य के स्वामी महाराज गरुड़ के भी सन्यास लेकर श्री हरि की सेवा में चले जाने से उनके मदमत्त उत्तराधिकारियों की शह पर गरुड़ों के द्वारा हमारी सीमा के अतिक्रमण की गतिविधियाँ भी बढ़ गयी थी।

सुरक्षा की दृष्टि से पिता श्री मुझे और माता श्री को नाग लोक में ही छोड़ कर चले गये थे। यद्यपि नाग लोक के भव्य राज प्रसादों में हमारी सुख सुविधा की सभी वस्तुयें उपलब्ध थी, महाराज तक्षक स्वयं भी हमारे सुख और आवश्यकताओं का विशेष ध्यान भी रखते थे परंतु मुझे पिता जी की अनुपस्थिति प्रायः ही संतप्त कर देती थी। महाराज मेरी सुरक्षा को लेकर इतने चिंतित रहते थे कि राज महल से निकलना मेरे लिये असंभव सा हो गया था। पिता जी के जाने के उपरान्त से ही मुझे तो स्मरण भी नहीं कि अन्तिम बार मै कब राज उद्यान में गयी थी। माता श्री तो दिन रात पूजा पाठ में ही लगी रहती थी जैसे मंदिर के बाहर कोई संसार हो ही नहीं , उन्हें तो किंञ्चित ज्ञात भी नहीं था कि कब उनकी पुत्री विवाह योग्य हो गयी।

नाग लोक की अवस्था पिता श्री के जाने के बाद से ही परिवर्तित होने लगी थी। महाराज तक्षक के राज्यारोहण के बाद से ही मानव एवम् गरुड़ों से नागों के संघर्ष बहुत बढ़ गये थे जिससे प्रायः ही किसी न किसी के हताहत होने की सूचनायें मेरे कानों तक आती ही रहती थी।

इन सब विवादों के बीच ही राजसभा में प्रायः नागलोक के सुदूर दक्षिण में किसी नयी शक्ति के उभरने की चर्चायें भी सुनने को मिलने लगी थी। महाराज के मंत्री एवम् गुप्तचर उन्हें राक्षस राज रावण के विषय में सूचनायें देते रहते थे। उनके मुख से ही प्रथम बार मैंने उनका नाम सुना था, गुप्तचर बता रहा था कि कैसे देवताओं के साथ युद्ध में महाराज रावण के बंदी बना लिये जाने के बाद उनके पुत्र मेघनाथ ने अपने पराक्रम से न केवल सेना का मनोबल बढ़ाया वरन् उस हारे हुये युद्ध का परिणाम ही बदल दिया। उनकी वीरता से प्रभावित हो कर स्वयं पितामह ब्रह्मा जी ने उन्हें इंद्रजीत की उपाधि प्रदान की तब कही जा कर देवराज के प्राणों की रक्षा हो पायी।

वैसे तो राजसभा में प्रायः ही अलग अलग देशों के राजा और राजकुमारों की चर्चायें होती ही रहती थी परंतु पता नहीं क्यों मैं उनकी चर्चा की ओर आकृष्ट हो गयी। कुलवंती कन्याओं का इस प्रकार किसी अंजान पुरुष की चर्चा की ओर आकृष्ट होना उचित नहीं समझा जाता हैं यह जानते हुये भी मैं अपने आप को रोक नहीं पा रही थी। मैं उनके बारे में और जानना चाहती थी, मेरे मन मस्तिष्क पर केवल उन्हीं का ध्यान रहता था। पहरों मैं सोचती रहती कि कैसा होगा वह नवयुवक जिसने केवल अपनी वीरता से एक युद्ध का परिणाम बदल दिया, कैसा अद्भुत पराक्रम होगा, कितना धैर्यवान होगा वह जो राजा के बंदी हो जाने पर भागती हुयी सेना को संगठित कर सका ? ऐसे कितने ही ज्ञात अज्ञात विचार मेरे मस्तिष्क में घूमते रहते।

मैं दिन रात केवल दक्षिण की ओर से आने वाले गुप्तचरों की प्रतीक्षा करती रहती कि कब वे आये और कब मै उस परम पराक्रमी राजकुमार के विषय में कुछ और जान सँकू। विगत कई माह से लंका की ओर से आने वाले गुप्तचर नहीं आये थे, यह बात मेरी उत्सुकता को और बढ़ा रही थी। अंततः बहुत दिनों की प्रतीक्षा के बाद दक्षिण की ओर से सूचना लेकर कोई चर राज भवन में आया था। वह तत्काल महाराज से मिलने का इच्छुक था अतः सीधा महल में ही आ गया था। मैं भी अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी। चर महाराज को बता रहा था कि लंका ने गरुड़ राज्य पर आक्रमण कर दिया था, यह लंकेश के विश्व विजय अभियान की योजना का एक अंग था। लंका की सेना का नेतृत्व स्वयं मेघनाथ कर रहा था, जो गरुड़ राज्य को विजय कर नागलोक की ओर आ सकता था। नागलोक की सुरक्षा के लिये यही उचित था कि हम लंका से संधि कर ले। चर की बात सुन कर महाराज गंभीर हो गये थे, तत्काल मंत्री परिषद की बैठक आहूत की गयी जिससे की इस आपात स्थिति पर चर्चा की जा सके। मंत्री मंडल ने सर्वसम्मति से यह निर्णय किया कि लंका से संबंध बन जाने से नाग लोक तीन ओर से सुरक्षित हो जायेगा, फिर यदि लंका से पारिवारिक संबंध हो जाये तो कोई भी शत्रु नागलोक की ओर देखने का साहस भी नहीं कर पायेगा। महाराज को यह विचार उत्तम प्रतीत हुआ, मंत्री गणों की सलाह से महाराज तक्षक ने यह निर्णय लिया कि गरुड़ लोक के पतन के बाद वह स्वयं इंद्रजीत को नाग लोक आमंत्रित करेंगे और मेरा उससे विवाह निश्चित कर देंगे।

पुरातन काल से यह प्रथा चली आ रही थी, राजपुत्रियों का प्रयोग संधि एवम् गुप्तचरों के रुप में किया जाता रहा था। लंका की महान सेना के समक्ष गरुड़ लोक बहुत देर तक टिक नहीं पाया। यद्यपि गरुड़ों ने वीरता पूर्वक युद्ध किया परंतु राक्षसी माया के सम्मुख उनकी एक नहीं चली। गरुड़ द्वीप के विजयोत्सव में जाकर स्वयं महाराज तक्षक ने मेघनाथ के समक्ष मेरे विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे उसने बड़ी विनम्रता से स्वीकार कर लिया। इधर नाग लोक में चर्चाओं का वातावरण गरम था, लोग महाराज रावण के चरित्र के विषय में तरह तरह की बातें कर रहे थे। सेविकाओं के मुख से छन छन कर कुछ कुछ बातें मुझ तक भी पहुँच रही थी कि कैसे उन्होंने एक अप्सरा के साथ दुर्व्यवहार किया था ? कैसे उन्होंने अनेक यक्षिणियों गन्धर्व एवम् देव कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने महलों में रख रखा था ? यह सब सुनकर मेरा हृदय बैठा जा रहा था, मुझे पिता जी की अनुपस्थिति बहुत खल रही थी। बारंबार मेरे मस्तिष्क में यह विचार आ रहा था यदि राजकुमार इंद्रजीत का स्वभाव भी ऐसा ही हुआ तो क्या होगा ? यदि पिता श्री यहाँ होते तो क्या वह मेरा विवाह ऐसे कुल में होने देते ? अनेक प्रकार की चिंतायें मेरे मन में घर बना चुकी थी। हर व्यतीत होते दिन के साथ ही मैं अपने भाग्य को कोस रही थी। 

अंततः विवाह का दिन आ ही गया, लंका के समस्त राज परिवार के लोग बारात में सम्मिलित होने लंका से नाग लोक आ चुके थे। बारात हमारे राज प्रसाद के द्वार पर खड़ी थी। अक्षत फेंकने के समय मैने पहली बार उन्हें देखा, श्वेत घोड़े पर आरुढ़, कसे हुये स्नायु, कामदेव को भी लज्जित कर देने वाली अनुपम छवि देख कर एक बार को तो मैं अपनी समस्त चिंतायें भूल ही गयी थी। परंतु पुनः चैतन्य होने पर उनकी रुपराशि ने मेरे भय को कई गुना बढ़ा दिया था। महाराज तक्षक ने बारात का भव्य स्वागत किया, समस्त वैवाहिक कार्यक्रम सकुशल संपन्न हो गये। दो दिवस विश्राम के पश्चात मुझे बारात के साथ लंका के लिए विदा कर दिया गया। महाराज तक्षक ने मेरे साथ सैकड़ों दास दासियाँ व अन्य बहुत से बहुमूल्य उपहार भेंट स्वरुप महाराज रावण को दिये, मुक्त हस्त से राज्य निधि व्यय की गयी परंतु मेरी चिंता अब भी जस की तस बनी हुयी थी। पुष्पक विमान से हम कुछ ही क्षणों में लंका पहुँच गये थे। लंका के स्वर्ण महल मेरे स्वागत के लिये सज्ज थे, महारानी मंदोदरी हाथ में कुमकुम का थाल लिये हमारे ही आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी , प्रथम भेंट पर ही उनके वात्सल्य ने मुझे अभिभूत कर दिया था। सभी रीति रिवाजों को पूर्ण कर मुझे एक पृथक महल में भेज दिया गया। चिंतातुर हृदय से मैं अपने भविष्य के विषय में सोचती हुयी कब निद्रालीन हो गयी मुझे ज्ञात ही नहीं हुआ।

मेरी निद्रा भंग हुयी एक कठोर स्पर्श से, भयभीत सकुचाती हुयी मैं अपने को समेटते हुये शैय्या पर बैठ गयी, यह युवराज थे, हड़बड़ाहट में मैंने पूछा " आप कब आये "

"मैं तो केवल तुम्हारे लिये भोजन लाया था " उनका सौम्य स्वर उभरा 

" आप क्यों लाये दासियाँ कहाँ हैं" मैं भावावेश में कह गयी 

" मुझे ज्ञात हुआ तुम निद्रालीन हो तो मैं स्वयं लेकर चला आया" उन्होंने उत्तर दिया 

मेरे पास कुछ कहने को शेष नहीं था, कक्ष में मौन का साम्राज्य स्थापित हो गया, मैं सिर नीचे कर सकुचायी हुयी सी बैठी रही। वो शायद मेरे मनोभावों को समझ गये थे। मैं कुछ सोच ही रही थी कि एक गंभीर स्वर ने कक्ष की निरवता को भंग किया। यह स्वर युवराज का था, वो कह रहे थे 

" सुलोचने ! माता श्री कह रही थी कि मुझे तुम्हें आज कोई उपहार देना चाहिए परंतु मैं तुम्हारे विषय में कुछ जानता नहीं था, ना ही मुझे स्त्री की रुचियों और अरुचियों के विषय में कोई ज्ञान ही है अतः मैं रिक्त हस्त ही चला आया। मैंने सोचा कि तुम से ही पूछ कर तुम्हें कोई उपहार दूँगा। मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया ना ?" 

 मैं चुपचाप यथास्थिति बैठी रही, उनकी दृष्टि मेरे मुख मंडल पर जमी हुयी थी, ऐसा मैं अनुभव कर सकती थी, संभवतः वो मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करने के साथ ही साथ मेरे मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा कर रहे थे।

कुछ क्षणोंपरांत उनका मेघ सदृश गंभीर स्वर पुनः उभरा " अपने प्रथम मिलन के इस अवसर पर मैं इंद्रजीत तुम्हें वचन देता हूँ कि रक्ष परंपरा के विपरीत मेरे जीवन में तुम्हें छोड़ कर कोई अन्य स्त्री कभी नहीं आयेगी " इतना कह कर वो शांत हो गये और गवाक्ष से बाहर देखने लगे।

इतने पराक्रमी योद्धा का यह कोमल स्वरूप देख कर मेरी सभी चिंतायें निर्मूल हो गयी, वास्तव में वे एक भद्र पुरुष थे, उनकी वीरता पर तो मैं पहले ही आकृष्ट थी पर उनकी सज्जनता ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया था। उनके साहचर्य में मैं शीघ्र ही नाग लोक को विस्मृत कर बैठी। उनके सानिध्य में प्रहर कब दिवस बन गये, दिवस कब वर्ष बने कुछ ज्ञात ही नहीं हुआ। उनके पराक्रम के विषय में तो मैं नागलोक से ही सुनती आ रही थी परंतु जितने दुर्जय वो योद्धा थे उतने ही सुकुमार प्रेमी भी। 

लंकेश रावण किसी मानवी स्त्री का हरण कर ले आये थे, जिसकी खोज में आये हुये एक वानर ने राजकुमार अक्षय की हत्या कर दी थी, आनन फानन में राजसभा बुलायी गयी थी, अपने पराक्रम से उन्होंने उस वानर को बाँध कर सभा में महाराज के सम्मुख उपस्थित कर दिया था। फिर जब वानर ने लंका में अग्नि लगा दी तो वरुणास्त्र के प्रयोग से इन्होंने ही उस धधकती हुयी ज्वाला को शांत किया था।

वस्तुतः युवराज कभी भी राज सभा के कार्यों को लेकर महल में नहीं आते थे परंतु उस दिन वे कुछ अनमने से थे , मेरे बहुत पूछने पर केवल इतना ही बोले कि आज महाराज से बहुत बड़ी राजनीतिक चूक हो गयी थी जो भविष्य में लंका के पतन का कारण बनेगी। दासियों से जानकारी मिली कि इनके विरोध के बाद भी महाराज ने काका श्री विभीषण को लंका से जाने दिया। मैं बस यह प्रार्थना करती रही कि इनकी चिंता निर्मूल हो जाये।

कुछ दिनों बाद समाचार मिला कि काका श्री शत्रु से मिल गये थे एवम् लंका की व्यूह व्यवस्था की जानकारी शत्रुओं को दे दी थी जिसके कारण शत्रु ने लंका को चारों ओर से घेर लिया था। संधि प्रस्ताव के लौट जाने के बाद युद्ध प्रारंभ हो गया, अतिकाय महोदर प्रहस्त नरांतक देवांतक जैसे वीर वीरगति को प्राप्त हो गये। लंका का प्रधान सेनापति होने के कारण युवराज अत्यधिक चिंतित थे, काका श्री के जाने के बाद से ही वे ठीक से विश्राम भी नहीं कर पा रहे थे। अत्यधिक चिंतातुर होने से निद्रा भी पूर्ण नहीं हो रही थी, मुझे उनकी इस स्थिति ने विचलित कर दिया था। काका कुम्भकर्ण के वध ने तो जैसे उन्हें अंदर से झकझोर दिया था, परंतु योद्धा अपना शोक कितनी जल्दी भूल जाता हैं। अगले दिन जब वो युद्ध भूमि से लौटे तो निश्चित होकर सोये थे, जैसे कोई छोटा बालक निश्चित होकर निद्रालीन हो। सम्पूर्ण लंका में यह समाचार फैल गया था कि युवराज ने दोनों प्रमुख शत्रुओं को मृत्योन्मुख कर दिया था परंतु प्रभात के पूर्व ही शत्रु दल के हर्षनाद ने उनकी निद्रा को भंग कर दिया। वे उठकर अगले दिन के युद्ध हेतु अपने अस्त्र शस्त्र सुसज्जित करने लगे थे। अगले दिन पुनः इन्होंने अपने पराक्रम से शत्रुओं के सेनानायक को मूर्छित कर दिया था, युद्ध भूमि इनके विजयघोष से कंपायमान हो गयी थी। शत्रु पर लंका की विजय सुनिश्चित कर जब वे महल आये तब भी उनके मुख मंडल पर चिंता की रेखायें स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।

सम्पूर्ण रात्रि वो इधर ऊधर टहलते रहे मानो सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहे हो। बहुत पूछने पर बोले यदि सूर्योदय हो गया तो लंका की विजय निश्चित हो जायेगी परंतु पुनः किसी चमत्कार से शत्रु जीवित बच गया। इस समाचार ने उन्हें विचलित कर दिया, वो पहरों मेरा हाथ अपने हाथ में थामे चुपचाप बैठे रहे। पूछने पर बोले " सुलोचने ! आज का युद्ध निर्णायक होने वाला है।" देवी निकुम्भला के मंदिर में पूजन की तैयारी में मैं उनकी सहायता करती रही तब मुझे कहाँ पता था कि यह हमारी अंतिम भेट हो जायेगी। 

विभीषण काका ने शत्रु को मंदिर में प्रवेश करा दिया, युवराज पूजन भी सम्पूर्ण नहीं कर सके, युद्ध करते हुये उन्हें वीरगति प्राप्त हो गयी, उनका शीश धड़ से अलग हो गया है एवं शत्रु दल में है लंकेश की आज्ञा से मैं उसे माँगने जा रही हूँ। 

ऐसा अप्रतिम वीर जिसके शौर्य के सम्मुख देवता भी नतमस्तक थे उसकी पत्नी होना सौभाग्य का विषय हैं, युवराज से मेरा प्रेम अखण्ड हैं, उनके बिना इस जीवन का कोई मूल्य नहीं। उनके साथ ही अपने प्राणों का अंत करके भी संभवतः ही मैं उनके ऋण से उऋण हो पाऊँ। यदि मैंने मन वचन और कर्म से केवल युवराज का चिंतन किया हो तो मुझे उनका शीश प्राप्त हो जिसके साथ चिता प्रवेश कर मैं अपने प्रेम को शीर्ष तक ले जा सकूँ।



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