प्रभात मिश्र

Classics

4.7  

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विद्योतमा

विद्योतमा

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वृषभ का पालन एक बैल चालक ने किया था, लोग कहते थे कि वह उसे गंगा के तट पर परित्यक्त मिला था, उसकी इस अवस्था से द्रवित होकर बैल चालक ने उसे अपना लिया और अपने पुत्र के समान पालित किया। बिना किसी औपचारिक शिक्षा के वृषभ युवावस्था को प्राप्त हुआ, वह देह दृष्टि से एक पूर्ण वृष के समान ही दिखायी पड़ता था इस कारण लोग उसे वृषभ के नाम से पुकारने लगे थे। भरे हुये चौड़े स्कंध, चौड़ा मस्तक, माँसल शरीर, बड़े बड़े सुन्दर नयन उसे एक आकर्षक युवा बनाते थे| परंतु केवल शरीर से ही नही बुद्धि से भी वृषभ एक वृष ही था, औपचारिक शिक्षा के अभाव एवम् लोकाचार की अनभिज्ञता उसे मूर्खों की श्रेणी में रखने के लिये पर्याप्त थी। फिर भी पालक की स्नेहमयी छाया में उसका जीवन सानन्द व्यतीत हो रहा था। उसकी सरलता या यह कहे कि मूर्खता के किस्से उसकी ख्याति बन कर आस पास के क्षेत्रों में फैल रही थी। ऐसी ही एक घटना जो उसके मूर्खता का उद्धरण बन कर सर्वत्र फैल गयी वह बहुत रोचक थी। एक बार घर के लिए लकड़ियाँ लाने के लिये वृषभ के पालक पिता की अनुपस्थिति में वृषभ को वन जाना पड़ा, संयोगवश वन में सूखी लकड़ियों का वर्षा के कारण उस दिन अभाव था अतः वृषभ ने वृक्ष पर चढ़ कर वृक्ष की शाखायें काटने का निश्चय किया और एक चढ़ने योग्य सरल वृक्ष पर सुगमता पूर्वक ऊपर चढ़ गया परंतु लोकाचार के ज्ञान से शून्य वृषभ जिस डाल पर बैठा था उसी को काटने लगा। दैववशात् उसी समय कुछ विद्वान उस स्थान से गुजर रहे थे, उनके समझाने से किसी तरह वृषभ की जान बच सकी| उस दिन के उपरान्त यह समाचार जनपद की हर दिशा में प्रसारित हो गया और वृषभ शब्द मूर्खता का एक पर्याय बन गया। परंतु वृषभ के जीवन में इसका कोई विशेष प्रभाव तब तक नहीं पड़ा जब तक की महाराज शारदानन्द ने अपनी पुत्री के स्वयंवर की घोषणा नही कर दी।

महाराज शारदानन्द की पुत्री विद्योतमा न केवल एक रुप वैभव से सम्पन्न युवती थी अपितु एक विदुषी भी थी। उसके रुप लावण्य से अधिक उसकी विद्वता के चर्चे थे, ऐसी सुलक्षणा स्त्री को प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण आर्यावर्त के पुरुष आकांक्षित थे, परंतु रुप एवम् ज्ञान का ऐसा विग्रह सरलता से किसे प्राप्त हुआ हैं। विद्योतमा के स्वयंवर की एक मात्र अनुबंध यह ही था कि वर वह ही हो सकता था जो उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर दे। सम्पूर्ण भारत वर्ष से विद्वान शास्त्रार्थ हेतु महाराज शारदानन्द के राजप्रासाद में एकत्रित होने लगे और एक एक करके विद्योतमा से शास्त्रार्थ कर उसे परास्त हो लज्जित होने लगे। पुरुषप्रधान तात्कालिक समाज में एक स्त्री से शास्त्रार्थ में पराजित होने से विद्वानों के अहंकार को बहुत चोट पहुँची। कामना का नकार क्रोध का कारण बनता हैं, क्रोध विवेक को नष्ट कर देता हैं, विवेकहीन व्यक्ति उचित एवम् अनुचित का निर्णय करने की योग्यता सहज ही खो देता हैं। विद्योतमा की प्राप्ति की कामना के अपूर्ण रह जाने से, विद्वानों का एक समूह उसके प्रति अमर्ष से भर गया, इस अमर्ष ने उनके विवेक को नष्ट कर दिया जिसके कारण वह विद्योतमा से प्रतिशोध की भावना से भर गये। उस विद्वानों के समूह में किसी ने वृषभ की मूर्खता की ख्याति सुन रखी थी, उसने अन्य लोगों के सम्मुख विद्योतमा का विवाह उस महामूर्ख वृषभ से करवा कर अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का सुझाव रखा। अपमान के हलाहल से ग्रसित वे विद्वान सहज ही इस प्रस्ताव पर सहमत हो गये, अपनी योजना को मूर्तरुप देने के लिये वे सभी वृषभ की निवास स्थली की ओर चल पड़े।

वृषभ विद्वानों की योजना से अनभिज्ञ अपने दैनिक कार्यों में संलग्न था जब वे उसके द्वार पर पहुँचे, विद्वानों ने वृषभ के पालक माता पिता को विद्योतमा का चित्र दिखाया और उससे वृषभ के विवाह की वार्ता की। विद्योतमा का मनोहारी चित्र देखकर उसके पालक सहज ही इस संबंध के लिये तैयार हो गये, वे भोले भाले मनुष्य विद्वानों के छल को समझ नही सके। अपनी योजना के प्रथम चरण के सफलता पूर्वक सम्पूर्ण हो जाने के उपरांत विद्वानों को स्वयंवर के अनुबंध की चिंता हुयी। तब सबने मिल कर यह योजना बनायी कि वे वृषभ को अपने मौन व्रत धारी गुरु के रुप में प्रस्तुत करेंगे क्योंकि यदि वृषभ ने स्वयंवर में कोई संवाद बोला तो उसका भेद विद्योतमा जैसी विदुषी पर तत्काल प्रकट हो जायेगा। अतः विद्वानों ने वृषभ को विवाह तक मौन रहने के लिये तैयार कर लिया। दीन वृषभ विद्योतमा के तैल चित्र को देखकर ही उस पर मोहित हो गया था अतः उसे प्राप्त करने के निमित्त वह भी सहर्ष मौन रहने को तैयार हो गया यद्यपि उसे विद्वानों के षड़यंत्र की कोई जानकारी नही थी तदापि वह उस महाषड़यत्र का मूल बना जो विद्योतमा के विरुद्ध रचा गया था. अपनी योजना को साकार करने हेतु विद्वानों ने वृषभ को आचार्यो की वेशभूषा से अलंकत कर अपने साथ ले महाराज शारदानन्द के राजप्रासाद में जा पहुँचे। विद्वानों ने महाराज को सूचित करवाया कि उनके गुरु जिन्होंने मौन व्रत रखा हुआ है वह स्वयं शास्त्रार्थ के लिये आये हुये हैं, जो विद्योतमा से सांकेतिक शास्त्रार्थ करेंगे, गुरु जी के संकेतों को समझ कर शिष्य विद्योतमा को उनकी व्याख्या करेंगे। शास्त्रार्थ का समय निर्धारित कर वे विद्वान शास्त्रार्थ मंडप के अपने निर्धारित स्थान पर वृषभ के साथ बैठ गये। इधर विद्योतमा ने देखा एक सुन्दर तरुण विद्वानो के बीच इस प्रकार सुशोभित हो रहा था जैसे सहस्त्रों नक्षत्रों के मध्य चंद्रमा सुशोभित होता हैं। विद्योतमा वृषभ के आकर्षक देह दृष्टि से प्रभावित हुये बिना न रह सकी।


शास्त्रार्थ का समय आ पहुँचा विद्योतमा और वृषभ एक दूसरे के सम्मुख आसनों पर अवस्थित हुये। वृषभ को घेर कर विद्वानों की टोली भी उसके संकेतों की व्याख्या करने हेतु बैठ गयी। शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ 

विद्योतमा ने वृषभ की तरफ एक अंगुली का संकेत किया जिससे उसका तात्पर्य था कि ब्रम्ह एक है ं। परंतु महामूढ़ वृषभ ने सोचा कि विद्योतमा उसकी एक आँख फोड़ने के लिये संकेत कर रही थी अतः उसने उसकी ओर दो अंगुलियों से संकेत किया जिससे उसका मंतव्य था कि यदि विद्योतमा उसका एक नेत्र फोड़ देगी तो वह उसके दोनो नेत्र फोड़ देगा परंतु विद्वानो ने उसकी व्याख्या की कि उनके गुरु कहना चाहते थे कि ब्रह्म और माया दो हैं जिनके बिना ईश्वर को नही समझा जा सकता।

विद्योतमा ने दूसरे प्रश्न के निमित्त वृषभ की ओर हाथ की हथेली से संकेत किया जिससे उसका तात्पर्य पंच महाभूतो से था परंतु मूढमति वृषभ ने समझा कि वह उसे थप्पड़ मारने की ओर संकेत कर रही थी अतः वृषभ ने उसकी तरफ मुठ्ठी बांध कर किया जिससे वृषभ का तात्पर्य मुक्का मारने से था परंतु विद्वानों ने उसकी व्याख्या पंचमहाभूतो के मिलने से होने वाली शरीर रचना के रुप में कर दी। 

विदुषी विद्योतमा शास्त्रार्थ में महामूढ़ वृषभ से पराजित हो गयी शास्त्रार्थ मंडप वृषभ की जय जयकार से गूँजने लगा। स्वयंवर के अनुबंधानुसार वृषभ ने विद्योतमा का पाणिग्रहण किया और उसे संग लेकर अपने निवास की ओर चल पड़ा। विवाह की प्रथम निशा और विद्योतमा जैसी अनुपम सुंदरी को पाकर वृषभ आनन्दित अनुभव कर रहा था कि तभी कही से ऊट के बोलने का स्वर उसके कानों में पड़ा। विद्योतमा ने वृषभ से पूछा कि यह क्या था ?

वृषभ ने ऊष्ट्र को ऊँट कह दिया।

विद्योतमा, जिसे अभी तक स्वयं के एक विद्वान की पत्नी होने का गर्व था, एक ही क्षण में समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ था, उसका पति एक मूर्ख था। विद्योतमा के दुःख का पारावार नही रहा, वह फूट फूट कर रोने लगी। इधर मधुयामिनी में अपनी रुपवान पत्नी के सानिध्य का स्वप्न देख रहा वृषभ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। वह विद्योतमा को ढा़ढस देने के लिये आगे बढ़ा परंतु विद्योतमा ने उसे किसी स्वान की भाँति झिड़क दिया। शोक और क्रोध में डूबी हुयी विद्योतमा ने अपने वाक् बाणों से वृषभ के मर्मस्थलों को विदीर्ण कर दिया। प्रेयसी पत्नी के इस निर्मम आघात से वृषभ का कोमल हृदय इस तरह आहत हुआ कि उसे संसार निःसार लगने लगा। विद्योतमा ने वृषभ को उसी के घर से लज्जित करते हुये यह कह कर निकाल दिया कि या तो वह विद्वान बन कर आये या कभी उसे अपना चेहरा नही दिखाये। पत्नी की इस निष्ठुरता ने वृषभ के कोमल हृदय को छिन्न भिन्न कर दिया, शोक के अथाह समुद्र में डूबते हुये वृषभ को कोई आवलंब नही सूझ रहा था। जिसका कोई आवलंब नही होता उसका आवलंब केवल ईश्वर होता हैं। जब वृषभ को इस विपत्ति से निकलने का कोई मार्ग नही सूझा तो वह स्वचालित यंत्रवत समीप के काली मंदिर की ओर चल पड़ा। वृषभ के लिये संसार शून्य हो चुका था, विद्योतमा के शब्द उसके कर्णपट को आन्दोलित कर रहे थे, साहचर्य के माधुर्य के स्थान पर उसे अपमान का विष एवम् निर्वासन मिला था। उसे प्रथम बार अपना जीवन अर्थहीन और भार लगने लगा था, शोकसंतप्त रोता बिलखता वह जाकर माँ काली के चरणों पर लेट गया, एक प्रहर तक वह इसी भाँति वहाँ पड़ा रहा। उस मूढमति को लग रहा था कि उसकी जिह्वा ही वह कारक थी जिसके कारण उसे अपनी प्रियतमा पत्नी से इस प्रकार अपमानित होना पड़ा, यदि वह मौन रह गया होता तो संभवतः उसकी यह अवस्था नही होती। यह विचार बारंबार उसके मस्तिष्क में कौंध रहा था, अंततः उसने अपने अपमान का कारण अपनी जिह्वा को मानकर उसे काट डालने के निश्चय से माँ काली की प्रतिमा के पास पड़ी कटार को अपने हाथों में उठा लिया। क्रोध और शोक में डूबे महामूढ़ वृषभ ने जैसे ही अपनी जिह्वा पर कृपाण से वार किया, तत्क्षण सम्पूर्ण मंदिर प्रकाश से परिपूर्ण हो गया, माँ जगतजननी काली ने स्वयं प्रकट होकर उसके हाथ को पकड़ लिया। माँ को सम्मुख देख वृषभ ने तत्क्षण कृपाण छोड़ दी और माँ के चरणों में लेट कर भीषण स्वर में रोने लगा, जैसे कोई शिशु अपनी माँ से चिपट जाता हैं वैसे ही वृषभ जगतजननी के पैरों से लिपट गया। उसके निर्मल हृदय से मातेश्वरी प्रसन्न हो गयी उन्होंने उसे सभी प्रकार की विद्याओं के ज्ञान का वरदान दिया। यह वृषभ का नवीन जन्म था चूँकि मातेश्वरी जगतजननी माँ काली के आशीर्वाद से उसका यह नूतन जन्म हुआ था उसने अपना नवीन नाम कालीदास रखा। 

कालीदास के रुप में नव जन्म लेकर वह पुनः अपनी प्रियतमा पत्नी से मिलने घर की ओर चल पड़ा। घर के दरवाजे पर उसने अपनी पत्नी से किवाड़ खोलने के लिये कहा तब उसकी परिष्कृत भाषा से अंजान विद्योतमा ने उससे पूछा "अस्ति किश्चित् वाग्विशेषः". कालीदास ने अपनी पत्नी विद्योतमा द्वारा कहे गये इन तीन शब्दों से अपने तीन महाकाव्यों को प्रारंभ किया। विद्योतमा ने एक महामूढ़ को एक मूर्धन्य विद्वान में रुपांतरित कर दिया। कालीदास भी सदैव विद्योतमा को अपना प्रथम गुरु मानते रहे।



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