प्रभात मिश्र

Classics

4.6  

प्रभात मिश्र

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अन्तिम रात

अन्तिम रात

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महाभारत के युद्ध को प्रारंभ हुये सत्रह दिन बीत चुके हैं , महारथी भीष्म, आचार्य द्रोण जैसे महारथी या तो वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं या उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कौरव सेना के प्रधान सेनापति के रुप में दो दिनों से युद्ध कर चुकने के बाद मुझे यह तो स्पष्टतः पता है कि पांडवों की विजय और दुर्योधन की पराजय के बीच यदि कोई बाधा है तो वह मैं ही हूँ। मै यह भी जानता हूँ कि कल का युद्ध अंतिम और निर्णायक होने वाला है, जिसमें श्री कृष्ण पार्थ को विजय दिलाने के लिये कोई कोर कसर बाकी नही रखने वाले। संभवतः यह मेरी अन्तिम रात्रि होने वाली है इस धरा पर , दिन भर के श्रम के बाद भी निद्रा पता नही कहाँ लुप्त हो गयी हैं , जीवन की स्मृतियाँ चल चित्रों की ही भाँति मस्तिष्क में कौंध जा रही हैं।

जैसे कल की ही बात हो जब रंगभूमि में कुल एवम् गोत्र पूछ कर अपमानित हो रहे मुझ अभागे सूतपुत्र को युवराज दुर्योधन ने अंग देश का राजा बना दिया था , चाहे लोग कुछ भी कहे परंतु तिरस्कारपूर्ण उस सभा में यदि मेरे टूटते हुए आत्मबल को बचाने आया तो वह दुर्योधन ही था, उसके इस उपकार के नीचे दबा हुआ मै , अपने ही भाईयों के विरुद्ध लड़ रहा हूँ। वह भाई जिन्होंने जीवन भर कभी मेरा सम्मान नही किया उनके लिये मेरे मन में जो स्नेह आज हैं यह ही मेरे द्वंद का कारण भी है। आज के युद्ध में मै चाहता तो युधिष्ठिर को आसानी से बंदी बना सकता था , भीम, नकुल, सहदेव सब ही तो मेरे वश में आ गये थे , यह युद्ध आज ही समाप्त हो सकता था परंतु ना जाने क्यों मेरे हाथ स्वयमेव रुक गये। जिस पक्षपात का आरोप सदैव दुर्योधन पितामह और आचार्य पर लगाया करता था आज उसका सबसे विश्वसनीय मित्र भी उन्हीं पक्षपातियों की पंक्ति में स्वयं खड़ा हो गया केवल उस माँ को दिये वचन के कारण, जो यदि चाहती तो रंगभूमि में मेरे कुल और गोत्र की घोषणा करके मुझे उस तिरस्कार से बचा सकती थी, जो चाहती तो मुझे दुर्योधन के ॠण से बचा सकती थी। केशव ठीक कह रहे थे संभवतः यदि मै कुरु सेना में सम्मिलित नही होता तो शायद दुर्योधन यह युद्ध करने का साहस नही करता। परंतु वह आयी भी तो कब जब युद्ध प्रारंभ होने वाला था यदि युद्ध की आग राजप्रासादों के द्वारों तक न पँहुची होती तो शायद ही उन्हें मेरा स्मरण भी आता, और उनको दिये वचन के कारण आज मैने अपने ही मित्र से विश्वासघात कर दिया। छीः धिक्कार है मुझ पर , कितना स्नेह करता रहा दुर्योधन जीवन भर मुझसे, जिस सूत पुत्र को लोग पास खड़ा नही होने देते थे उसे उसने अपने पार्श्व में स्थान दिया, राज्य दिया, राज्याधिकार दिया। वास्तव में जिस दानशीलता के मद में चूर मैने देवी कुंती को चार पुत्रों का जीवनदान दिया वह भी तो दुर्योधन के दिये राज्य और वैभव के कारण ही ख्यातिलब्ध कर पायी अन्यथा एक सूत पुत्र के रुप में मेरे पास था ही क्या दान करने हेतु।

मेरे गुरु परशुराम के यहाँ दीक्षित होने पर कितना प्रसन्न था वह, जैसे स्वयं उसने ही दीक्षा प्राप्त कर ली हो। विजय यात्रा के समय भी सदैव कुशलक्षेम पूछने वाला केवल वही भर तो था। स्वार्थ हो या निःस्वार्थ दुर्योधन ने मुझे तब आवलम्ब दिया जब मै केवल एक प्रतिभावान तरुण था कोई प्रतिष्ठित योद्धा भी नही था, और मैने उसके साथ क्या किया ? मैने तो उससे आधार ही छीन लिया , उसकी विजय का स्वर्णिम अवसर , जिसकी प्रतीक्षा वह विगत सोलह दिवसों से कर रहा था। कैसा पतित हूँ मैं ? जिस मित्र ने शोक में , हर्ष में, कभी भी मुझे एकाकी नही छोड़ा , कभी कटु वचन नहीं कहे, जो नेत्र बंद करके मुझ पर विश्वास करता रहा उसके साथ मेरा यह कृत्य , आत्मग्लानि से गड़ा जा रहा हूँ मैं।

इतनी ग्लानि तो मुझे तब भी नही हुयी थी, जब रंगभूमि में हस्तिनापुर की प्रजा के सम्मुख, वृकोदर बारंबार सूत पुत्र कह कर मेरा अपमान कर रहा था और प्रतोद पकड़ने के ताने दे रहा था। ना ही तब हुयी जब स्वयंवर सभा में याज्ञसेनी ने अपमान सूचक शब्द कह कर मुझे लक्ष्य साधने से रोक दिया था। परंतु आज के अपने आचरण से निवृति का कोई मार्ग नही सूझ रहा, मन तो कर रहा कि अभी गंगा में जाकर जल समाधि ले लूँ परंतु क्षत्रिय धर्म आत्महत्या की आज्ञा भी तो नहीं देता। ऐसा प्रतीत हो रहा मानो मेरे जीवित रहते हुए भी मेरा मित्र एकाकी पड़ गया हो। हे ईश्वर ! कवच कुण्डल का दान , गुरु और ब्राह्मण का श्राप क्या कम था जो मेरे बल को क्षीण करने के हेतु तुम मुझे आत्मग्लानि के पंक में धकेल रहे हो। हाय मित्र दुर्योधन ! ये तुम्हारा मित्र राधेय पूर्ण तन्मयता से तुम्हारे पक्ष में युद्ध भी नही कर पाया। तुम जो स्वयं मुझे वृष कहा करते हो मित्र ! तुम जानते हो मै युद्ध नीति के अलावा कोई नीति नही जानता हूँ , तुम्हारा यह अभागा मित्र गहन राजनीतिक षड़यंत्र का भाजक बन गया।

कल क्या होगा यह तो मै नही जानता लेकिन जब तक कर्ण के शरीर में प्राण शेष हैं और तूणीर में बाण हैं कुरु राजधानी में शत्रु प्रवेश नही कर पायेगा| यदि यह मेरी अन्तिम रात्रि भी है और यह मेरा अन्तिम युद्ध भी है तो भी इतिहास में जब वीरों का नाम लिया जायेगा तो इतिहास मुझे आदर सहित याद करेगा, कुंतीपुत्र या ज्येष्ठ पांडव नही लोग मुझे दुर्योधन के मित्र के रुप में स्मरण करेंगे


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