Pradeep Kumar Tiwary

Drama Tragedy

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Pradeep Kumar Tiwary

Drama Tragedy

अनमोल रतन

अनमोल रतन

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ठाकुर ईश्वर सिंह के पुरखे जमींदार रहे थे। देश आजाद हुआ, नई-नई व्यवस्थाएं बनी, अब ना जमीन रही ना जमींदारी पर ठाकुर ईश्वर सिंह के अंदर जमींदारों का रौब अब भी था। लंबा चौड़ा डील-डाल सर पे साफा, लंबी घनी मूँछे, कच्चे पक्के बाल...., सफेद धोती कुर्ता पहन के हाथों में छड़ी लिए जब निकलते तो लोग दूर से ही देखकर जान जाते बाबू साहब गाँव में तफरी करने निकले है। जमींदारी भले ही चली गयी हो पर आज भी ठाकुर साहब के पास अच्छी खासी ज़मीन थी , गाय भैंस जुताई के लिए बैल और आम के बागीचे थे, कुल मिलाकर ठाकुर साहब का परिवार संपन्न था। ईश्वर सिंह मृदुल स्वभाव के व्यक्ति थे लोगों के प्रेमी थे गांव गिरांव के लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे कभी कभी चौपाल पे जब बैठ जाते तो घंटो हँसी ठट्ठा चलता.. कल्लू नाई मंगरु केवट हो गाँव के मिसिर जी हो या लल्लन अहीर सब के साथ जो मजमा लगता कि क्या कहें..

आसाढ़ सावन में तो आसपास के गाँव के लोगों को बाकायदा न्यौता भेजा जाता ठाकुर साहब की बगिया से आम तोड़े जाते फिर बगिया में खाट बिछाई जाती लोगों का मज़मा लगता , आम का भरपूर स्वाद लेते हुए देश दुनिया की बतकही भी होती अशरफ़ चाचा बताते कैसे उन्होंने गांधी जी के आंदोलन में भाग लिया अंग्रेजों की लाठियां खाई कितनी कुर्बानी देकर आज़ादी मिली इसकी कदर करनी चाहिए अशरफ चाचा दबी जुबान में ब्रितानिया हुकूमत को सही मानते थे, कहते थे खून देकर आज़ादी मिली लेकिन क्या हासिल हुआ अंग्रेज़ो के गुलामी में जो भाई मिलकर अंग्रेजों से मुकाबला कर थे वो आज़ादी मिलने के साथ ही एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए इससे अच्छी तो वो गुलामी थी जिसने हमें एक साथ बाँध के रखा था...

ठाकुर ईश्वर सिंह के घर में पत्नी और पुत्र रतन के सिवाय कोई ना था ईश्वर सिंह के पिता बरसों पहले चल बसे थे। रतन ने अभी अभी बारहवीं की परीक्षा पास की थी , स्वभाव से मौजी था रतन दिन भर गाँव के लड़कों की मंडली बना कर घूमता रहता , दोपहर को खा पीकर आम के बागीचे में पहुँच जाता वहाँ उसकी मित्र मंडली पहले से जमा रहती गाँव के आठ दस लड़के सब एक साथ बैठते कभी ताश की गड्डियाँ सजती , कभी शतरंज के हाथ आजमाए जाते... साथ साथ बाग की रखवाली भी हो जाती वैसे तो आमों की रखवाली का जिम्मा बाग के बगल झोंपड़ी में रहने वाले मंगत काका की थी फिर भी रतन को तो ठिकाना चाहिए था मौज मस्ती का..

ऐसे ही एक दोपहरी रतन समय से पहले बाग पहुँच गया मित्र मंडली अब तक आई ना थी। रतन बाग में पड़ी चारपाई पे जाकर लेट गया , अचानक से उसकी बगल में आकर एक पत्थर गिरा। रतन चौंक कर उठ बैठा , अपने आसपास देखा कोई नहीं था। रतन जोर से चिल्ला उठा - कौन है रे ? 

अब रतन उठ गया और बाग का मुआयना करने लगा। उसे बागीचे में कोई भी ना दिखा उसने फिर से आवाज़ लगाई - कौन है सामने आओ ? 

इतने में रतन को आम के पेड़ो के पीछे कोई छुपा दिखाई दिया। रतन चुपचाप उस पेड़ के पास गया और उसका हाथ पकड़ कर जोर से खींचा - बाहर निकल कौन है तू ?

और सामने जो आया उसे देखकर रतन की साँसे अटक गई। सामने एक बड़ी ही खूबसूरत सी लड़की खड़ी थी। रतन को मानो साँप सूँघ गया उसने हकलाते हुए पूछा -कौन हो और मेरे बागीचे में क्या कर रही हो ?

लड़की बहुत घबराई हुई थी उसने कहा कि वो पास अहीर टोले के ब्रह्मा यादव की बेटी है और उसे कुछ आम चाहिए थे इसलिए वो आम तोड़ रही थी।

अब रतन ने कहा - अरे.. ठीक है घबराओ मत

तुम्हें आम चाहिए ना मैं मंगत चाचा को बोल देता हूं वो बाग की रखवाली करते है सुबह काफी आम बीन रखे है वो दे देंगे तुम्हें।

रतन ने पूछा -तुम्हारा नाम क्या है ?

लड़की ने जवाब दिया - साँवरी

अब साँवरी ने पूछा - तुमको क्या पत्थर लगा ?

रतन हंसते हुए बोला - नहीं बाल-बाल बच गए वरना तुमने तो मेरा सर ही फोड़ डाला था।

अब साँवरी भी हँस पड़ी।

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रतन साँवरी की उस मासूमियत पे दिल लुटा बैठा। उधर साँवरी का हाल भी कुछ ऐसा ही थी , रतन गबरू जवान था देखने में आकर्षक लंबा चौड़ा शरीर उसकी बातों में एक रुआब झलकता था।

साँवरी बोल पड़ी - बहुत नाम सुने है तुम्हारा गाँव की लड़कियों से।

रतन हंसते हुए बोल पड़ा - अच्छा क्या सुना है ?

साँवरी ने दुपट्टा हाथों में लपेटते हुए कहा- क्यों बताऊँ..तुम्हें क्यों सुनना है कि वो क्या बोल रही थी ?

रतन अब गंभीर होकर बोला - अरे कुछ नही ! मैंने तो बस यूं ही पूछ लिया।

रतन ने मंगत चाचा के झोपड़े की ओर इशारा करके बोला -जाओ वहाँ.. मंगत चाचा से कहना कि मैंने बोला है तुम्हें कुछ आम दे दे।  

साँवरी ने हाँ में सिर हिलाया और जाने लगी।

रतन ने पीछे से साँवरी को आवाज़ दी - साँवरी कल तुम फिर आना इसी वक्त 

साँवरी ने पूछा - क्यों..कल क्यों ?

रतन ने उसकी आँखों मे झाँकते हुए कहा - कुछ नही बस तुम्हें देखना है 

साँवरी का चेहरा शर्म से लाल हो गया वो धत्त बोलकर भाग गई।

रतन उसे जाते हुए देखता रहा।

आज की रात रतन और साँवरी दोनों के लिए बड़ी मुश्किल साबित हो रही थी ..रतन की आँखों से नींद कोसों दूर थी उधर साँवरी भी बेचैन हुए जा रही थी बार- बार रतन का चेहरा उसके सामने आ जाता था।

अगले दिन सुबह से ही रतन बहुत बेचैन हो रहा था। आज तो उसे ऐसा लग रहा था जैसे समय रुक सा गया हो।

किसी तरह उसने वो मुश्किल वक़्त गुज़ारा और दोपहर को अपने नियत समय पे बागीचे पहुँच गया, कल ही उसने अपनी मित्र-मंडली को बता दिया था कि घर पे कुछ काम होने की वजह से वो कल बागीचे में नहीं आएगा तो कल ना ताश की गड्डियाँ बिछेंगी ना ही शतरंज का खेल होगा।

जैसे-जैसे वक़्त गुज़र रहा था रतन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी , डर अलग से लग रहा था कहीं किसी मित्र ने देख लिया तो ताने अलग से मारेंगे कि वाह भाई... तुमने तो हम से कहा कि बागीचे नही आ पाऊंगा और अब यहाँ अकेले धूनी रमाये हो।

समय अपनी गति से गुज़र रहा था साँवरी का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान ना था। रतन का दिल जोरों से धड़क रहा था , अब उस पे उदासी घर करने लगी थी। वो चुपचाप बाग में पड़े खाट पे जाकर लेट गया और आँखे बंद करके साँवरी को याद करने लगा, उसकी आँखों में अनायास ही आँसुओं की कुछ बूँदे छलक आई।

रतन ऐसे ही आँखें बंद किए लेता था कि अचानक से उसके सीने पर किसी ने हाथ रखा वो कुछ समझ पाता उसके पहले ही एक आवाज़ उसके कानों में पड़ी - उठो सो गए क्या ?

रतन चौंक कर उठ गया अब तक वो इतना बेचैन हो उठा था कि साँवरी को सामने देख उसे कुछ समझ नही आया, साँवरी को उसने जोर से गले लगा लिया और सुबकते हुए बोला - आज अगर तुम ना आती तो ठाकुर रतन सिंह की इहलीला यही समाप्त हो जाती साँवरी।

साँवरी कुछ देर तक कुछ सोचती रही फिर रतन को जोर से गले लगाते हुए बोली - ऐसा मैं कभी नहीं होने देती , तुम मेरे हो रतन मैं तुम्हें ऐसे नहीं खो सकती।

काफी देर तक दोनों एक दूसरे का हाथ थामे बैठे रहे।

अब मुलाकातों का ये सिलसिला चल निकला अब रतन और साँवरी हर जगह मिलते कभी नदी किनारे कभी गाँव की पगडंडी पर तो कभी रतन के बागीचे पे।

ऐसे में एक रोज़ रतन साँवरी से मिलने उसके टोले पहुंच गया , ब्रह्मा के घर के पीछे कुछ दूरी पर बाँसों की एक कोठी थी रतन और साँवरी वही मिलते थे अक़्सर। रतन जब भी साँवरी से मिलने उसके टोले में जाता तो उसके साथ पूरी मंडली होती थी , वो सब इधर उधर रहते और जब दोनों की मुलाकात खत्म होती तो सब साथ वापस आ जाते।

पर उस दिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था , हुआ ऐसा की उसदिन ब्रह्म और उसके दोनों बेटे रमेश और जुगनू खेतों की ओर गए थे और उसी रास्ते से लौट रहे थे जहाँ रतन और साँवरी प्रेमालाप में व्यस्त थे , बाँसों के झुरमुट से खुसुर-पुसुर की आती आवाज़ ने बरबस ही ब्रह्मा का ध्यान उस ओर खींच लिया। ब्रह्मा ने जब उस झुरमुट में झाँककर देखा तो सामने साँवरी और रतन थे एक दूसरे के काँधे पे सर रखकर अपनी दुनिया मे मगन।

ब्रह्मा का खून खौल गया उसने जोरदार तमाचा साँवरी के गाल पर रशीद कर दिया। इतने में रमेश और जुगनू भी वहाँ आ गए उन्हें माजरा समझते देर ना लगी , रमेश आगबबूला हो उठा और साँवरी के बाल पकड़ कर घसीटता हुआ बाँसों की ओट से बाहर लाने लगा , साँवरी चीख उठी - भैया... छोड़ दो कहते हुए गिड़गिड़ाने लगी।

साँवरी की ये हालात देख के रतन का पारा सातवें आसमान पे चढ़ गया , रतन खाया पीया नौजवान था शरीर से बलिष्ठ और कुश्ती का शौकीन भी था उसने एक मुक्के में रमेश को जमीन पे लिटा दिया और गरजकर बोला - ख़बरदार अगर किसी ने साँवरी को हाथ भी लगाया तो , यहीं जमीन में गाड़ दूँगा सबको।

गाँव में बवाल मच गया भीड़ इकट्ठा हो गयी , अहीर टोली के नौजवान भी तमतमा गए और सब रतन पे पिल पड़े इतने में रतन की मित्र मंडली भी आ गयी बड़ा बवाल हुआ जबरदस्त हाथापाई हुई वो तो गाँव के बड़े बुजुर्गों ने मामला शांत किया नही तो पता नही क्या होता।

रतन अपनी मंडली के साथ सीधे बागीचे आ गया उधर ब्रह्मा अहीर टोली के दस बीस लोगों के साथ ठाकुर साहब के घर आ धमका।

ईश्वर सिंह अभी खा पी के आराम करने के लिए चारपाई पे लेटे ही थे कि दरवाज़े पे मजमा लग गया।

ब्रह्मा घायल साँप की तरह फुँफकारते हुए बोला- ठाकुर साहब हम आपकी इज़्ज़त करते है लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नही कि आप हमारी इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ करें ये हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे आप अपने बेटे को समझा लीजिए अगर उसने दुबारा हमारी इज़्ज़त से खेलने की कोशिश की तो अंज़ाम बहुत बुरा होगा।

ठाकुर साहब को पहले तो कुछ समझ नही आया , फिर अहीर टोली के कुछ बुजुर्गों ने ठाकुर साहब को सारा वाकया सुनाया , सारा वाक़या जान ठाकुर साहब  सन्न रह गए , उन्होंने तुरंत कल्लू केवट से कहा अभी रतन को बुलाया जाए। कल्लू घबराया हुआ बागीचे की तरफ दौड़ पड़ा जहाँ रतन अपनी मित्र मंडली के साथ बैठा था , वहाँ पहुंचकर उसने रतन से कहा - भैया जल्दी चलिए घर पे बड़ा कोहराम मचा है अहीर टोली से कुछ लोग आए है और बड़े गुस्से में है ठाकुर साहब आपको बुला रहे है।

रतन कल्लू के साथ घर आ गया, घर पहुंचकर क्या देखता है कि ब्रह्मा अपने दोनों बेटे और दस बीस लोगो के साथ द्वार पे खड़ा है।

इससे पहले की वो कुछ बोल पाता ठाकुर साहब का एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पे पड़ा वो चीखते हुए बोले - हरामज़ादे क्या इसी दिन के लिए तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया कि तुम गाँव की बहन बेटियों के साथ कुकर्म करते फिरो ?

इतना हो-हल्ला सुनकर ठकुराइन भी बाहर आ चुकी थी। ठकुराइन ने कहा - अरे आप उसे बोलने का मौका तो दीजिए।

ठाकुर साहब गरज पड़े - तुम चुप रहो ये तुम्हारे प्यार का ही नतीजा है जो ये आज हमारे मुँह पे कालिख पोत आया है।

फिर रतन से मुखातिब होते हुए बोले - तूने तो हमारी बनी बनाई इज़्ज़त को खाक में मिला दिया शर्म आती है तुझे अपना बेटा कहते हुए आज तूने माँ की कोख की लाज भी ना रखी थूक दिया तुमने हम सब के मुँह पे इससे अच्छा होता कि तू कहीं जाके डूब मरता।

     ईश्वर सिंह के मुँह से ये शब्द शब्द सुनकर रतन को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कानों में पिघलता हुआ शीशा डाल दिया हो। उसका दिल रो रहा था उसका दिल चीख चीख़कर कह रहा था -मैं तो साँवरी से अथाह प्रेम करता हूँ क्या यही मेरा गुनाह है। पिताजी ..आपने मेरे प्रेम की पवित्रता पे ही उँगली उठा दी , कुकर्म क्या यही शब्द थे आप के पास ..मैंने तो बस साँवरी से प्रेम किया था ..सच्चा प्रेम वैसा ही जैसा भगवान कृष्ण ने माँ राधा से भगवान राम ने माँ सीता से किया जिन्हें ढूंढने के लिए उन्होंने जमीन आसमान एक कर डाला समन्दर पे पुल बना डाला लंका भस्म कर डाली , उनकी तो आप पूजा करते है तो हमारा प्रेम कैसे कुकर्म हो गया ..एक बार तो पूछ लेते।

रतन खामोश खड़ा था इधर ईश्वर सिंह ब्रह्मा और उसके टोली के लोगों के से हाथ जोड़कर कह रहे थे , ब्रह्मा भाई मेरे बेटे से जो भूल हुई उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ , आपकी बिटिया मेरी बिटिया भी है आपकी इज़्ज़त मेरी इज़्ज़त है ..हो सके तो इस बात को अब यही रफ़ा दफ़ा कर दो , मुझे नही पता था कि मैं साँप को दूध पिला रहा हूँ जो एक दिन मेरी मान मर्यादा इज़्ज़त सम्मान सब को डँस लेगा।

ठाकुर ईश्वर सिंह के एक एक शब्द रतन के सर पे हथौड़े सा प्रहार कर रहे थे, एक पल को उसके मन मे आया कि कहीं जाके डूब मरे।

उधर साँवरी की घर में बहुत पिटाई हुई माँ ने कुलटा कुलक्षणी पता नहीं क्या क्या कहा, भाइयों ने भी बड़ा जलील किया उसे पर वो बस एक ही बात कहती रही - अम्मा हम रतन के बगैर ना जी सकेंगे।

अगली सुबह रतन का कोई अता पता ना था , मुँह अँधेरे ही रतन घर छोड़कर जा चुका था , सारे गाँव में लोग दौड़ाए गए पर रतन का कहीं अता पता ना था।

  अब तक साँवरी तक भी ख़बर पहुँच गयी कि कैसे रतन को अपमानित किया गया पूरे गाँव के सामने और अब रतन का कुछ अता पता नही मिल रहा।

उसकी माँ कह रही थी - अच्छा हुआ नासपीटा कहीं मर मरा गया होगा। माँ के इन शब्दों ने साँवरी को अंदर तक तोड़ दिया वो रात भर रतन की याद में रोती रही और सुबह जब माँ ने देखा कि सूरज देवता सिर पे चढ़ आये है और साँवरी अभी तक सो रही है तो माँ गुस्से में बड़बड़ाती हुई उसके कमरे में गई - अरे कलमुँही कब तक कोपभवन में बैठी रहेगी चल उठ ..

पर साँवरी तो अब चिरनिंद्रा में सो चुकी थी उसने उसी दुपट्टे से लटककर जान दे दी थी जिसे रतन मेले से लाया था और बड़े प्यार से उसके कंधे पे रखते हुए कहा था- साँवरी ई दुप्पटा तो लाज का निशानी है ना अब से तुम रतन सिंह की लाज हो .

धीरे-धीरे सात साल गुजर गए अब ठाकुर ईश्वर सिंह में वो पहले सा रुआब ना था ना अब वो ज्यादा किसी से बाते करते ना अब पहले सा अब चौपाल पे मजमा लगता , बेटे के विक्षोह में टूट से गए थे ठाकुर साहब एक ही बेटा था वो भी अब पता नहीं कहाँ था।

ठकुराइन बामुश्क़िल ही ठाकुर साहब से बात करती रात रात भर बेटे को याद करके रोती रहती और मन ही मन ठाकुर साहब को कोसती रहती।

फिर आया सन 1962 का वो साल जब हिंदुस्तान ने एक चालबाज़ दोस्त चीन के धोखे को देखा। चीनी सेनाएं हिंदुस्तान की सीमाओं के करीब आ चुकी थी।

जम्मू के एक मिलिट्री कैम्प में एक बैठक चल रही थी , चीनी सेना लद्दाख में बॉर्डर के एक दम करीब आ चुकी थी, इस बैठक में उन्हें रोकने का और पीछे खदेड़ने की रणनीति बनाई जा रही थी।

अंततः इस बात पे फैसला हुआ कि एक बटालियन भेजी जाय जो दुश्मनों की स्थिति का मुआयना करे और हेडक्वार्टर को सूचित करे।

इस मुश्किल काम का जिम्मा सौंपा गया "डोगरा रेजिमेंट" को जिसका नेतृत्व था कर रहे थे "सूबेदार रतन सिंह"।

अब वो मनमौजी बेफिक्र "रतन" सूबेदार रतन सिंह हो गया था , बटालियन में बड़ी इज्जत थी रतन सिंह की , साहसी कर्मठ और जुझारू थे रतन सिंह।

घर से भागकर मेरठ आ गए वहां अपने पड़ोस के गांव के एक मित्र के पास रहने लगे जो मेरठ में ही नौकरी करता थी किसी साहूकार के यहां , कभी रतन ने अपने मित्र की रुपए पैसे से बड़ी मदद की थी सो आज मित्र इस मदद का हक अदा कर रहा था , रतन ने उससे गांव की सारी घटना सुनाई और कसम ली कि वो किसी से भी उसके मेरठ में होने का जिक्र नहीं करेगा।

इसी बीच वहां सेना में भरती शुरू हुई रतन ने भी कोशिश की शारीरिक रूप से मजबूत था और पढ़ा लिखा भी , सेना में उसका चयन हो गया फिर उसके बाद रतन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपनी मेहनत और हौसले से रतन सिंह अब सूबेदार रतन सिंह हो गया था।

लद्दाख की पहाड़ियों पे दुश्मन की निगरानी करने पहुंचे रतन सिंह की बटालियन का मुकाबला सीधे सीधे चीनी सेना से हो गया। रतन ने सारी जानकारी सेना मुख्यालय को पहुंचाई कि किस तरह चीनी सैनिक लगभग सीमा पार कर चुके है , उधर से संदेश आया कि उसकी मदद के लिए एक टुकड़ी भेजी जा रही है लेकिन तब तक उसे चीनी सैनिकों को रोकना होगा ताकि वो उनके इलाके पे कब्ज़ा ना कर सके।

रतन सिंह ने अपनी बटालियन के साथ पोजीशन ले ली और सबको आदेश दिया कि एक गोली भी बेकार ना जाने पाए हमें तब तक दुश्मन को रोके रखना है जब तक दूसरी टुकड़ी यहाँ ना पहुंच जाए।

बहुत भयानक युद्ध हुआ रतन अपने आखिरी सांस तक दुश्मनों से लड़ता रहा एक एक सैनिक अपने प्राणों का बलिदान देता रहा मातृभूमि की रक्षा के लिए , मां भारती की लाज बचाने के लिए , रतन सिंह का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था उसके सारे साथी अपना बलिदान दे चुके थे , बंद होती आंखों से रतन ने देखा भारतीय फौज आ चुकी है मोर्चा संभाला जा चुका है कुछ भारतीय फौजी उसकी मदद को भागे आ रहे है , उखड़ती सांसों से रतन ने कहा - बाबू जी आज मैंने मां भारती की लाज रख ली।

रतन सिंह शहीद हो चुके थे उन्होंने वो सम्मान हासिल किया था जिसे पाने को देवता भी आतुर रहते है मातृभूमि की रक्षा में स्वयं को न्योछावर करना।

ठाकुर ईश्वर सिंह घर के बाहर ही बैठे थे सुबह का समय था चारों ओर बस भारत और चीन के युद्ध की ही चर्चा थी , ठाकुर साहब के घर के बाहर भी गांव के दो चार लोग इसी पे चर्चा कर रहे थे कि थाने से पुलिस आई , ठाकुर साहब पुलिसवालों को देखकर किसी अनिष्ट की आशंका से कांप उठे।

वो हकलाते हुए बोले - क्या हुआ दरोगा जी हमारे घर क्या कोई गलती हुई है हमसे ?

दरोगा जी बोल पड़े - ठाकुर रतन सिंह का घर यही है।

एक क्षण के लिए ठाकुर साहब सन्न रह गए फिर बोले - हां दरोगा जी ये उसी का घर है मैं उसका पिता हूं लेकिन उसका तो बरसों से अता पता नहीं है कहां है किस हाल में है क्या आप उसकी कुछ खबर लाए है ?

दरोगा जी बोले - ठाकुर साहब धन्य है आप जो ऐसे पुत्र को जन्म दिया।

ईश्वर सिंह बोले - मैं कुछ समझा नहीं दरोगा जी।

अब तक ठकुराइन भी बाहर आ चुकी थी अपने लाल के बारे में सुनकर बरसों बाद किसी अजनबी के मुंह से रतन का नाम सुना था हृदय खुशी से झूम रहा था।

उनकी आंखों में आंसू आ गया वो दरोगा जी बोली - कहां है मेरा लाल ? कब से उसे नहीं देखा एक बार उसे बुला दीजिए एक बार उसे अपनी छाती से लगा लूं। अब तक गांववालों का मजमा लग चुका था उनको कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है।

दरोगा जी बड़ी मुश्किल से बोले - ठाकुर साहब आपके पुत्र " सुबेदार रतन सिंह " सीमा पर दुश्मनों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए है , आज शाम तक उनका शव विशेष विमान द्वारा यहां लाया जाएगा , धन्य है वो मां धन्य है वो पिता जिसने ऐसे सपूत को जन्म दिया।

इतना सुनते ही ठकुराइन बेहोश हो गई गांव की औरतें दौड़ कर ठकुराइन को संभालने लगी।

ठाकुर ईश्वर सिंह को कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या कहां कैसे ये सब हो गया।

धीरे धीरे आसपास के गांव में ये खबर फैल गई कि ठाकुर ईश्वर सिंह के पुत्र रतन सिंह ने देश की रक्षा करते हुए प्राण त्याग दिए , लोगों में उस अमर बलिदानी के आखिरी दर्शन करने की ललक थी ऐसा था मानो उसके दर्शन मात्र से जीवन कृतार्थ हो जायेगा आसपास के गांव के हजारों लोग ठाकुर ईश्वर सिंह के घर की तरफ दौड़ पड़े क्या पुरुष क्या महिलाएं क्या बच्चे सब के सब।

सब को रतन सिंह के दर्शन करने थे देश के लिए खून का आखिरी कतरा बहा देने वाले वीर ठाकुर रतन सिंह।  

सांझ ढलते ढलते फूलों से सजी एक गाड़ी और उस पर तिरंगे में लिपटा हुआ बलिदानी रतन सिंह का शव ठाकुर ईश्वर सिंह के घर की तरफ बढ़ रहा था पीछे पीछे हजारों की भीड़ में लोग " भरता माता की जय और ठाकुर रतन सिंह अमर रहे " के जयकारों लगाते हुए दौड़ रहे थे।  

ट्रक ईश्वर सिंह के द्वार पे आ चुका था लोग फूल माला चढ़ा रहे थे , पांव रखने की जगह भी नहीं थी बड़े बड़े अधिकारी आकर ठाकुर ईश्वर सिंह को सांत्वना दे रहे थे , उन्हें बता रहे थे कि किस तरह सुबेदार रतन सिंह ने अपने जीवन का बलिदान देकर मां भारती की रक्षा की थी।

ठाकुर साहब जवान बेटे का शव देखकर दहाड़े मार मारकर रोने लगे इस दर्द में आत्मग्लानि और दुःख दोनों ही सम्मिलित थे , दिल रो रहा था हाय मेरे लाल मैंने तुझे पहचानने में गलती कर दी , तुझे भला बुरा कहा उससे तू इतना नाराज हो गया कि हमें छोड़कर इतनी दूर चला गया , अरे अब तक इस उम्मीद में जी रहा था कि तू जहां कहीं भी होगा खुश होगा और एक दिन अपने बाबूजी के पास लौट आएगा पर आज तू इतनी दूर चला गया कि वापस भी ना आएगा।

रोइए मत ठाकुर साहब अब क्यों रो रहे है खुश होइए आज आपके पुत्र ने एक नहीं दो दो मांओं की कोख की लाज रख ली है , आज क्यों रो रहे है आप , आपको रोने का अधिकार नहीं है जिसे आप सिर्फ रतन समझे रहे थे वो तो अनमोल रतन था आपकी आंखें नहीं देख पाई तो वो आपकी गलती है आज आप नहीं रोएंगे - ठकुराइन शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोली उनके क्रोध में दुःख और पीड़ा दोनो साफ साफ देखी जा सकती थी।

रतन सिंह को गुजरे एक महीने हो चुके थे ईश्वर सिंह रात रात भर रोते थे सो नहीं पाते थे ऐसे में एक सुबह ईश्वर सिंह गायब हो गए कहां गए कोई नहीं जानता हर तरफ ढूंढा गया लोग दौड़ाए गए लेकिन उनका कहीं कुछ पता ना चला। कुछ कहते की वो सधुवा गए कोई कहता किसी ताल पोखरा में डूब मरे , ठाकुर ईश्वर सिंह का सच चाहे जो भी हो पर सबसे बड़ा सच यही था कि ठाकुर ईश्वर सिंह को उसके बाद फिर किसी ने नहीं देखा।

  



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