V. Aaradhyaa

Inspirational

4.5  

V. Aaradhyaa

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खुद को हाशिए पर कब तक रखोगी?

खुद को हाशिए पर कब तक रखोगी?

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छत की धूप अब मुंडेर तक आ गई थी।नीचे ओसारे पर सुस्ताती अम्मा को तेल मालिश करके ज़ब वह ऊपर आई तो पड़ोसन बोले बिना ना रह पाई.


" आज फिर तुम ग्यारह बजे नहाकर आई हो ? जाहिर है , अब तक तुमने कुछ खाया नहीं होगा ?


तिथि जब छत पर अपने बच्चों के कपड़े सुखाने गई तो सामने के छत पर नीता खड़ी हुई अपने बाल झटक रही थी।

तिथि की बात पर नीता ने मुस्कुराकर सिर्फ इतना ही कहा ...


" अरे ... मुझे तो सुबह-सुबह भूख लग जाती है। लेकिन मेरी सासू मां का सख्त आदेश है कि ... घर की बहू बिना नहाए नाश्ता नहीं कर सकती !

नीता की इस बात पर तिथि ने मुस्कुराते हुए कहा ...


" हाँ ... ऐसा हो सकता है । पहले मेरी सास भी ऐसा ही कहती थी । लेकिन ... मैंने तो साफ-साफ कह दिया था कि मुझसे देर तक भूखा नहीं रहा जाएगा ।


और ...


तुम्हें अगर सुबह सुबह भूख लग जाती है तो ...सुबह उठकर सबसे पहले नहा लिया करो ना। कोई जरूरी है कि इतनी देर से नहाया जाए और देर से नाश्ता किया जाए ! "


तिथि की बात सही थी और तर्कसंगत भी। इसलिए नीता ध्यान से सुनती रही । फिर उसने भी अपनी सफाई में सिर्फ इतना कहा कि ...


" शुरू शुरू में दो-तीन दिन तक मैंने ऐसा किया था । लेकिन काम इतना होता था कि फिर मुझे लगने लगा कि यह काम निपटा लूं तब नहा लेती हूँ , जरा वह काम निपटा लूँ तब नहा लेती हूँ । बस ....ऐसे करते-करते देर हो जाती है ! "


" और ... तुम्हारी सास ... ? वो तो जल्दी नाश्ता कर लेती हैं ना ...? या वह भी देर से नहाती हैं ? तब क्या वह भी भूखी रहती हैं ...? "


पता नहीं आज तिथि इतना खुलकर नीता से कैसे बात कर रही थी ?


शायद पिछले तीन महीनों की बातचीत में ही दोनों में एक तरह से सहेलियों जैसा बहनापा हो गया था। और एक दूसरे की फिक्र भी होने लगी थी।


तिथि के सवाल के जवाब में नीता ने बड़ी दबी जुबान से कहा ...


" उनकी तो उमर हो गई है। इसलिए वह सुबह नाश्ता कर लेती हैं और फिर ठाकुर जी की पूजा और पूजाघर की सफाई का पूरा भार मुझ पर दे दिया है। पहले पूजा घर साफ करना होता है, पूजा के बर्तन साफ करने होते हैं । यह सब करने के बाद ही मैं नहाने जा सकती हूं। फिर वृहद पूजा और फिर जाकर मुँह में कुछ डाल पाती हूँ!"


अब तिथि थोड़ा मुंडेर पर आकर नीता से बोली,


" देखो ... नीता ! मैं जानती हूं कि ... तुम अभी नई बहू हो। इसलिए तुम पर इतना काम लाद दिया जा रहा है और तुम अपनी अच्छाई दिखाने के चक्कर में कुछ नहीं बोल पा रही हो!"


"सही कह रही हो आप!"


नीता ने कहा तो तिथि ने अपना समझाना जारी रखते हुए कहा ,


" मुझे लगता है कि तुम सही सही समझ नहीं पा रही हो कि तुम्हें कहां "ना" बोलना है और कहाँ "हाँ " बोलना है। और किसके लिए कितना कितना काम करना है? क्योंकि ... ज़ब मेरी नई नई शादी हुई थी। तब मैं भी ऐसी ही थी अब मैं अपने अनुभव से तुम्हें समझाती हूं। ध्यान से सुनना और इसे अमल में लाना। फिर देखना ... तुम्हारी जिंदगी में बहुत फर्क आ जाएगा!"


"अच्छा.... तो आपके साथ भी हुआ था ऐसा क्या?"


नीता ने आश्चर्य से अपनी आँखें बड़ी करके पूछा तो तिथि को उसकी मासूमियत पर प्यार आ गया। वैसे भी दोनों पड़ोस में ही तो रहती थीं और ए हमउम्र और होने के नाते एक दूसरे से मन की बातें बतिया लेती थीं तिथि की शादी तीन साल पहले हुई थी। वह भी अपने साथ ससुर और देवर के साथ रहती थी।


 अब तो उसकी गोद में एक प्यारा सा बेटा भी था। नीता के प्रति वह एक सहेली और छोटी बहन का भाव रखती थी । इसलिए जब तब उसे समझाया करती थी।अब जबकि तिथि ने समझाया कि...


"जब तक तुम नहीं बोलोगी...कोई नहीं समझेगा। तुम जितना करती जाओगी लोग तुमसे उतना ही काम करवाएंगे।क्योंकि हमें ही अपने लिए बोलना होता है वरना सामने वाले को हमारे दर्द का नहीं पता होता है!"


इस पर नीता ने कहा..." हुम्म्म...!"


"ओह नीता ! ये सिर्फ हम्म कहने से नहीं काम चलेगा। तुम्हें देखना पड़ेगा कि तुम्हें लोग जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल ना करें। तुमसे इतना काम ना ले लें कि तुम अपने बारे में सोच ही ना पाओ!"


तिथि की बात सुनकर नीता को भी अपनी हालत पर कुछ तरस सा आने लगा।इधर ... कुछ दिनों से वह भी यही सब सोच रही थी कि ... उसके साथ कुछ अन्याय हो रहा है।लेकिन बोल नहीं पा रही थी।


अब उसे लगा कि धीरे-धीरे करके वह अपना कंडीशन रखेगी और अपनी बात भी सबके सामने रखेगी। तभी वह भी खुश रह पाएगी और घरवालों को भी खुश रख पाएगी।अब धीरे-धीरे नीता सुबह चाय के बाद नहाने लगी और उसके बाद नाश्ता कर लेती फिर बाकी काम करती थी।शुरू में कुछ दिन उसकी सास को नागवार गुजरा। फिर जब नीता ने उसको आदत बना लिया तब सब इस बात के साथ खुद को एडजस्ट करने लगे कि ..नीता सुबह नाश्ता करेगी उसके बाद घर के बाकी काम करेगी। और वह भी अपने स्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान देगीउस दिन की तिथि की कही हुई बात से नीता को बहुत फायदा हुआ।और उसने समझ लिया कि अपने लिए जब तक आवाज ना उठाओ कोई नहीं समझता।अब नीता की दिनचर्या भी नियमित हो गई थी, और घरवालों की नज़र में उसका मान भी कुछ बढ़ गया था।


ज़ब हममें काबिलियत होती है और हम जिंदगी जीने की अपनी शर्त रखने लगते हैं तो शुरुआत में कुछ विरोध के स्वर उठते ज़रूर हैं पर ... कालांतर में लोग इस बदलाव को आत्मसात कर लेते हैं।और ..... संबंधित व्यक्ति ज़ब अपने आपको इम्पोर्टेन्स देने लगता है तो फिर उसके लिए सामनेवाले के मन में भी एक खास जगह बनने लगती है।और ..... अगर खास जगह ना भी बने तो भी


खुद के लिए जीना सीखना बहुत आवश्यक है, तभी आंतरिक ख़ुशी मिलती है। वरना कुढ़ कुढ़कर दूसरों के लिए त्याग करते रहने से धीरे धीरे मन भी मरने लगता है और कार्य क्षमता भी क्षीण होती है।अब तिथि यह बात समझ चुकी थी... तभी तो खुद को हाशिए पर नहीं रख कर सबसे सामने रखने लगी थी।



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