ज़िन्दगी मुख्तसर सी...
ज़िन्दगी मुख्तसर सी...
”तुम पेंटिंग भी करती हो! कुछ भी छोड़ा है जिसमे अव्वल ना हो तुम।”
”पेंटिंग मुझे अच्छे से नहीं आती। अभी हाथ कच्चा है। सीख रही हूँ।”
”ये रंगों का चयन तुम ख़ुद करती हो?”
”हाँ। उसमें कौन सी बड़ी बात है, रोहन।”
”कौन सा रंग कहाँ भरना है,तुम कैसे समझ पाती हो? मैं तो मैकेनिकल इंजीनियर ही ठीक हूँ। शायद कार का मोटर ठीक करना मुझे रंग भरने से कहीं आसान लगता है।”
”सब समझ आ जाता है।बहुत आसान है। जिस रंग से शुरू करो उसी पे ख़त्म भी करो। केंद्र और छोर का रंग एक भरो। बस।”
”शिवि ये क्या है? क्या क्या है? कोई भी,कोई भी चित्र पूरा नहीं है! कहीं कुछ ना कुछ छूट हुआ ज़रूर है।अगर तस्वीर है तो भौं की रेखाएँ या बालों के लटऔर अगर रंगकरी है तो एक पत्ती या एक कोना,एक छोर छूटा ज़रूर है।”
”ये कैसा सवाल है? छोड़ो, तसनीम आंटी का पार्सल आया है।ले लो ज़रा।”
”अधूरा क्यों छोड़ रखा है सब,शिवि?मैं कला से अनभिज्ञ ज़रूर हूँ पर आँखें मेरी चील की हैं, कुछ भी बचता नहीं है।”
”मुझे कहानियाँ पूरी करना अच्छा नहीं लगता।”
”मतलब?”
”मुझे अधूरी चीज़ें ज़्यादा खूबसूरत लगतीं है। उसके कुछ नया करने,नया बनाने ,नये रंग भरने का अवसर हमेशा रहता है। हम हमेशा उसपे काम करते रहते है। कभी अधूरी पेंटिंग को मिटाने में दुख नहीं होता। पर एक संपूर्ण चित्रकला को मिटाने में,ठीक करने में हाथ काँपते हैं। मुझे पूरी चीज़ों से डर लगता है।ज़िंदगी भी अधूरी ही अच्छी लगती है। अधूरी प्रेम कहानियाँ, कही अनकही बातें, अधूरे झगड़े, अधूरा आलिंगन, अधूरा समर्पण। अधूरेपन में जीवन का मोक्ष है। किसी को भी पूरे मन से बहुत चाह लो वो कभी नहीं मिलता।अधूरे लफ़्ज़ों में बहुत कुछ समझ आता है।”
”अधूरा…. शिवि वो पार्सल तो कैश ऑन डिलीवरी है।”
”तुम कहाँ थे?”
”अरे अभी तुमने ही तो कहा जाओ पार्सल लेके आओ। बार बार घंटी बज रही थी।वहीं लेने गया था।क्या हुआ?
कुछ नहीं।बुद्धू।”
”हाँ तो बताओ अधूरेपन का अपना घनघोर राज़।”
”उफ़। हाहा।कुछ नहीं । छूट गया था। पूरा कर दूँगी।”
”बस रहने दो अधूरा...!!”
