Haripal Singh Rawat (पथिक)

Drama horror thriller

5.0  

Haripal Singh Rawat (पथिक)

Drama horror thriller

भ्रम: रहस्य या वहम ?

भ्रम: रहस्य या वहम ?

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देखो आज मौसम कितना साफ है। आज तो शनिवार है। और वैसे भी पाँचवीं घंटी के बाद किसी भी विषय के अध्यापक विद्यालय में नहीं हैं। ऐसा करते हैं कि घर चलते हैं। आज दिन में आम लाने बग्वान (बगीचे) चलेंगे। धूप के कारण पेड़ के तनो पर से बारिश का पानी और सतह की चिकनाहट सूख चुकी होगी। जिससे पेड़ पर चढनें में कोई परेशानी नहीं होगी।

तुम्हे पता है? इस बार पूरे बग्वान में आम ही आम है। लाल-लाल, मीठे-मीठे आम। अभी पिछले हफ्ते ही मैं वहां से एक बड़ी बोरी भरकर पके हुए आम लेकर आया था। दीपक (दीपू) ने बड़ी ही उत्सुकता के साथ मुझे व पिंटू को यह सब बताया। मुझे आम बेहद पसंद हैं। हाँ समय के साथ उस पंसद में कमी जरूर आयी है; लेकिन विद्यार्थी जीवन में आम मेरी कमजोरी थे। कच्चे आमोें को सिलबट्टे में पिसी‌ हुई चटनी के साथ खाने में जो मजा है,‌शायद ही वह स्वाद अब कहीं और मिल सके।

मैं उत्सुकता से बोल उठा; दीपू ! क्या आम के छोटे पेड़ भी हैं वहाँ?

और भाई!ये तो बताओ कि आम के पेड़ पर चढ़ेगा कौन ? मुझे पंड़ित ने इस साल ऊँचाई से बचने को कहा है। ये देख मैंने गले में काला धागा भी बाँधा है जो उन्होने दिया था।

हाँ -हाँ भाई ! छोटे पेड़ बहुत है वहाँ।

तुम चिन्ता मत करो तुम दोनो बस आम जमा करना, पेड़ पर मैं चढ जाऊँगा। दीपू तपाक से बोला।

पिंटू ने उसकी बात काटते हुए कहा, अबे भाई! मैं चढूँगा पेड़ पर।

मुझे अचार के लिये कच्चे आम लाने हैं।

दीपू ने हँसते हुए हामी भरी, और कहा चलो-चलो जल्दी से दोनों अपने-अपने‌ बस्ते लैब से ले कर आ जाओ। मैं तुम्हे दुकान के पास मिलूँगा। इतना कहकर वह कक्षा की ओर चल दिया पिंटू ओैर मैं भी लैब की ओर चल पड़े।

पिंटू अपना बस्ता लेकर विद्यालय के मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार करने लगा।

और मैं बिष्ट गुरुजी (जो कि हमें रसायन विज्ञान पढ़ाते थे ) से आधे दिन का अवकाश लेकर घर के लिये निकल पड़ा।

पिंटू और दीपू दोनो मुझे दुकान के ऊपर वाले रास्ते पर मिले।

मैंने कहा चलो-चलो जल्दी चलते हैं। धूप देखकर लगता है 11 बजने वाले हैं।

पिंटू ने मेरी बात काटते हुए कहा अभी 10 ही बजे होंगें। हम पहले गदेरे (नदी) में नहाने चलते हैं।

हम सब गदेरे की ओर भागने लगे, हम अक्सर ऐसा ही किया करते थे। भागने से शरीर में गर्मी आ जाती थी जिससे नहाने का मजा दो गुना हो जाता था।

आज हम तीनों ही गदेरे में नहा रहे थे। शनिवार होने की वजह से उस दिन कम ही लड़के विद्यालय आये थे।

दीपू आज करतब करते हुए पानी में कूद रहा था।

अचानक उसका संतुलन बिगडा और उसका सिर नीचे पत्थर पर टकरा गया। वह रोता हुआ गदेरे से बाहर निकला और पत्थर पर रखे कपड़ो के पास जाकर हँसने लगा। जो भी कहो लेकिन उसका चेहरा था देखने लायक। उसकी आह भरी हँसी ने मुझे और पिंटू को हँसा -हँसा कर लोट-पोट कर दिया था।

खैर हम घर की और निकल पड़े, रास्ते में यह योजना बनी कि हम सड़क के रास्ते बग्वान चलेंगे।

घर पहुँच कर मैंने भाभी से कहा कि मैं दीपू-और पिंटू के साथ बग्वान जा रहा हूँ और इसके बारे में आप पापा-मम्मी को मत बताना। मैं जल्दी आ जाऊँगा।

भाभी को लगा कि मैं गदेरे से सटे आम के छोटे बगीचे की बात कर रहा हूँ। और हकीकत में मुझे भी यही लगा था कि हम गदेरे से सटे बगीचे में ही जा रहे हैं। भाभी ने मुझे जल्दी घर लौटने को कहा और जाने की आज्ञा दे दी। जुलाई -अगस्त में खेती का काम न के बराबर होता है, जिस कारण सभी लोग दिन के समय सो जाया करते थे। हम दिन में सबके सोते ही गाँव से बग्वान के लिये निकल पड़े। चलते-चलते जब गदेरे‌ वाले बाग का रास्ता पीछे छूटने लगा, तो मैंने दीपू से कहा; दीपू! दीपू! रुक!

रास्ता तो पीछे छूट गया। उधर कहाँ जा रहा है?

यह सुनकर वह दोनों जोर-जोर से हँसने लगे।

दीपू बोला भाई ये बग्वान नहीं। असली वाला जो थल्द (पड़ोसी गाँव) के पास है।

मुझे घर जल्दी लौटना था। इसलिये मैंने आगे जाने से मना कर दिया। वो दोनो‌ मुझे मनाने लगे।

चल न यार मैंने भी कहाँ घर पर बताया है। सब सो रहे थे घर पर। मैंने खाना खाया थैला,उठाया और आ गया। यह कहकर पिंटू ने मुझे बहलाने की कोशिश की।

दीपू भी कहाँ पीछे रहता, बोला आम लेकर जब हम घर पहुँचेगें तो सब खुश हो जायेंगे । और वैसे भी हमारे घरवाले जब तक सोकर उठेंगे तब तक हम घर पर होंगे।

अब तीनों बुद्धिजीवियों ने मिलकर एक नई योजना बनाई। सबसे पहले परछाई को देखकर यह अंदाजा लगाया गया कि अभी दिन के एक या डे़ढ़ बज रहे होगें। यहाँ से आधा घंटा बगीचे तक जाने के लिये, आधा घंटा घर वापस आने के लिये। और एक घंटा बगीचे में आम तोड़ने के लिये। यानि कि हम चार या साढे़ चार बजे तक घर पर पहुँच ही जायेंगे ।

मुझे योजना पर पूर्ण संकोच था, लेकिन आम खाने के लालच और उनके सामने खुद को बहादुर सिद्ध करने की लालसा ने मुझे योजना में शामिल होने को बाध्य कर दिया।

हमने अपने कदमों की रफ्तार तेज कर दी और अंदाजतन हम बगीचे में आधे घंटे में पहुँच गये।


मैंने दीपू को आवाज लगाते हुये कहा।

अब हमें जितना जल्दी हो सके आम तोड़कर घर लौटना है।

दीपू‌ ने हाँ कहते हुये सिर हिलाया।

अरे यार! तू चिंता मत कर हम योजना के अनुसार घर सही समय पर पहुँच जायेंगे। पिंटू ने भी दीपू का साथ देते हुये कहा।

हम ढ़लान से उतरकर सीढ़ीनुमा खेतों में बसे उस घने बगीचे में पहुँच गये, जिसके बारे में गाँव के बड़े बुजुर्गों से कई बार सुना था।

सच में बेहद विशाल, शान्त, सुन्दर-सघन,गगनचुम्बी वृक्षों का वन या उपवन। हरे-पीले, लाल-चटक आमों से टिमटिमाता‌ आसमान। काली-गीली मिट्टी पर हरी घास के बीच आसमान से गिरे स्वर्णिम फल। अहा! भला‌ किसका मन न करे उन्हे खाने का?

सुबह से भूखे इंसान को अगर मीठे रसीले आम खाने को मिल जाये तो इससे बेहतर भोजन स्वरुपी उपहार भला क्या हो सकता है? मैं खुद को रोक नहीं पाया और पेट फटने तक आम खाता रहा। अभी मन तो नहीं भरा था लेकिन दांतो पर ज्यादा आम खाने से सिलजड़ी लग गयी (झनझनाहट होने लगी) थी। पेट फटने को था। अब घर के लिये आम इकट्ठे करने की बारी थी।

मन सघन फलदार वन की सुन्दरता से मन्त्रमुग्ध हो कहीं शून्य में विचर रहा था। कि इतने में एक कच्चा आम मेरे सिर पर आकर लगा। वह दीपू की हरकत थी।

वह हँसते हुए पेड़ से चिल्लाया। कहाँ खोया है जोगी ? मजा आया सिर पर आम खाकर?

पिंटू भी उसका साथ देने लगा। वे दोनों अलग-अलग पेड़ो पर थे। मुझे गुस्सा आया और मैंने दीपू की ओर जमीन से उठाकर एक कच्चा आम निशाना लगाकर फेंका, आम टहनी से सटे दीपू के पैर के तलवे पर जाकर लगा।

पिंटू ने दीपू को पेड़ हिलाने को कहा। यह सुनकर दीपू दूसरी टहनी पर चढ़ गया जो, आमों से लदी हुई थी। उसने जोर-जोर से टहनी हिलाना शुरू कर दिया। जिससे कारण आम मेरे सिर पर गिरने लगे। मैं बचता-बचाता ऊपर की ओर भागा।

मैं उन दोनों से बेहद नाराज था। इसलिये मैंने उन्हे खुद आकर जमीन पर गिरे आम इकट्ठे करने को कहा। लड़ते झगडंते ही हम सब ने अपनी-अपनी बोरियाें में आम भरे और घर के लिये निकलने‌ लगे। फिर अचानक महसूस हुआ कि बगीचे में घुप्प अंधेरा छा चुका है। तिलचट्टों की करकस ध्वनि रात्रि आगमन का संकेत देने लगी हेै। यह देख मेरे हाथ पैर पापा के गुस्से और मां द्वारा मेरे लिये चिंतित होने का विचार करते ही शिथिल हो गये। आँखो के आगे अंधेरा छा गया। मैं समझ गया कि आज तो जो मार पड़ने वाली है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सच में क्या दौर था वो.... आजकल के बच्चे जहाँ दूसरी तीसरी कक्षा में जाते ही माँ-बाप को गाली देना, अपशब्द कहना, मारना शुरु कर देते हैं, वहीं उस समय 11वीं कक्षा का बालक मार पड़ने और माँ-बाप के‌ गुस्से और नाराज होने की बात सोचकर चिंतित था।

खैर दीपू ने मेरेऔर पिंटू के कंधे पर आम की बोरियां रखी और खुद पेड़ के तने का सहारा ले कर अपने कंधे पर भी बोरा लाद दिया अब हम घर की ओर चलने लगे।

कुछ ही देर में हम बगीचे से खड़ी‌ चढ़ाई वाले रास्ते से होकर मुख्य सड़क पर पंहुच चुके गये।

मैंने जो आम खाये थे, उनसे मेरा पेट भारी हो गया था। मेरे शरीर की सारी ऊर्जा जैसे खत्म सी हो गयी थी।

और मैं शिथिल कदमों से चलता हुआ खुद से बातें करने लगा।

लगता है कि शरीर में कोई रिएक्शन हुआ है। जिसने मेरी सारी ताकत खत्म कर दी ।

जरुर आम के सिट्रिक ऐसिड ने पेट में स्थित हाइड्रोक्लोरिक एसिड़ से मिलकर H3O+ बनाया होगा। जिसकी वजह से बॉडी मे इलेक्ट्रोड ज्यादा हो गये होंगे या‌ फिर खून का PH कम हो गया होगा।

नहीं तो इससे भारी-भारी बोरे तो मैं यूँ ही उठाना तो मेरे लिये आम बात है। आज‌ जब भी उस वाकिये के बारे में सोचता हूँ तो हँसी नहीं रुकती। पर भला एक विज्ञान विषय का विद्यार्थी इसके अलावा सोच भी क्या सकता था?

मैं सोच में इतना ड़ूब गया कि मुझे महसूस ही नहीं हुआ कि कब पिंटू और दीपू दोनों मुझे अकेला छोड़ दौड़ते हुए इतने आगे निकल गये कि उनको आवाज दे‌ने पर भी उनसे सम्पर्क नहीं किया जा सकता था। मैं दौड़ नहीं सकता था, एक तो पेट में होने‌ वाली रासायनिक अभिक्रिया की वजह से मेरा बुरा हाल था, ऊपर से पंचमी की चाँदनी भी रास्ते को रोशन करने में सक्षम न थी। घने जंगल के बीच से गुजरती सड़क जिसके ऊपर की ओर से पत्थरों के लुड़कने का ड़र, तो कहीं ठोकर लगने से नीचे गहरी खाई से होते हुए नदी में गिरने की चिंता।

वहीं जंगली जानवरों की भयावह करती आवाजों ने, या फिर भ्रम या हकीकत में नदी से सटे शमसान घाट में जलती-टिमटिमाती मशालों को देख ड़र और भी प्रबल हो गया।

अब चिन्ता थी तो खुद की जान बचाने की, जिन्दा रहने की। भला उस माहौैल में माता-पिता के गुस्से और चिन्ता का विचार मन में विचरता भी कैसे? श्री हनुमान चालीसा के दोहे, भयावह करती आवाजों के स्वरों से मिलते और, फिर और बुलंद हो जाते।

गले मे धारण काले धागे को मैं चूम-चूम माथे पर लगाता तो कभी दुहाई मांगता, आज बचाले भगवान। आज के बाद कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा।

आवाजें धीरे-धीरे और तेज होने लगी मेरा रक्त धमनियों में तेज वेग से प्रवाहित होने लगा जिसके कारण मेरे कान भी हृदय गति के अनुरुप ही खुलने व बंद होने लगे। पैरों के तलवों में एक अजीब सा एहसास होने लगा। हथेलियाँ और तलवों पर पसीने के झरने फूट गये। मैं बार-बार चप्पल निकाल कर मिट्टी पर पैर घिसता फिर दस-बारह कदम चल यही क्रम दोहराता। अचानक ही मेरी आँखों के आगे अंधेरा सा छा गया। शरीर बेंजान सा हो गया। और मैं पके आम के जैसा ही जमीन पर जा गिरा। आम का थैला मेरे कंधे से गिरकर सड़क के नीचे की ओर लुढ़कता हुआ शागोन के पेड़ पर अटके एक पत्थर के ऊपर जाकर रुक गया। मैं उस सुनसान कच्ची सड़क पर न जाने कितनी देर अचेत अवस्था में लेटा रहा। और शायद अगले दिन तक उसी अवस्था में लेटा रहता, अगर मुझे किसी ने जोर-जोर से आवाज न दी होती। मुझे लगा कि शायद दीपू मुझे आवाज दे रहा है। और आँखे खुली तो खुद को सड़क के बीचों बीच धूल में लेटा हुआ पाया। आस पास देखा तो धुप्प अंधेरा था।

दीपू और पिंटू को आवाज देने पर भी कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर मैं ड़र गया। लेकिन‌ सोचता हूँ वह आवाज चाहे किसी ने भी दी होगी किन्तु उस क्षण वह मेरे लिये आवाज मात्र नहीं था, अपितु संजीवनी थी।

जिसने मेरे मुर्छित शरीर में जान ड़ाल दी थी। मैंने रोते-रोते‌ दीपू को उसके दादाजी काम नाम लेकर बुलाने लगा। हड़बड़ाहट में तेजी से आम का थैला जो खाई के ठीक ऊपर पेड़ के तने से अटके पत्थर के सहारे अब तक रुका हुआ था। उसे उठाकर तेजी से सड़क पर चलने लगा।

आज जब कभी आते जाते उस पेड़ को देखता हूँ, जहाँ पर आम का बोरा उस रात जाकर‌ अटका था तो ड़र से थर्रा जाता हूँ । भला यह कैसे मुमकिन है जिस पेड़ के पास जाना भी संभव नहीं है, मैंने उस दिन वो बोरा वहाँ से निकाला था? पर भला कैसे?

किसी को यकींन दिलाने की कोशिश भी करता हूँ तो लोगों को यही लगता है कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

पर सच तो ये है कि जिस बात पर यकींन करना खुद मेरे लिये मुश्किल है, भला उस पर दूसरे लोग कैसे यकींन करेंगें।

खैर में उस अजनबी आवाज के सहारे अब काफी आगे तक आ गया था। अब गाँव में घरों से आती टिमटिमाती हुई रोशनी से देख मन प्रसन्न था। लेकिन अभी भी गांव पहुंचने के लिये लगभग छ: किलोमीटर की पैदल यात्रा बाकी थी। और मैं चलने की स्थिति में नहीं था।

जानवरों और भूतों का ड़र मुझे सता रहा था कुछ देर चलते-चलते मैं आखिर उस जगह पहुंच चुका था जो बेहद भयानक थी।जहाँ लोग दिन में जाने से भी ड़रते थे। क्योकि उनका यह मानना‌ था‌ कि बाघ उस जगह पर खूँटे से बंधा होता है अर्थात वहाँ पर बाघ के मिलने की संभावना शत प्रतिशत होती है। मुझे बाघ के दहाड़ने और उसके शरीर की बू (बघ्याण ) महसूस होने लगी थी। मेरे अनुमान से वह मुझसे बामुश्किल सौ-दो सौ मीटर की दूरी पर ही रहा होगा। मैने यह सोच लिया था कि शरीर में इतनी जान तो है नहीं कि मैं बाघ का सामना कर पाऊं न ही मुझमे दौड़ने की ताकत बची थी। तो हारे हुए सैनिक की तरह मैने हथियार ड़ालने का मन बना लिया।

घर वालों, दोस्तों तथा सभी चाहने वालों की अच्छी-अच्छी यादें चक्षु पटल पर विचरने लगी। मैं थैले को जमीन पर रखने‌ ही वाला था कि सामने मोड़ पर मुझे कोई व्यक्ति बीड़ी पीता हुआ दिखाई दिया। वह बीड़ी पी रहा था इस बात का अंदाजा मैंने बीड़ी पीते समय उसके चेहरे पर पड़ने वाली लाल रौशनी से लगाया। उसे देख कुछ हिम्मत तो बंधी लेकिन डर भी लगा। अकसर बड़े- बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि भूत रात में बीड़ी पीते हैं और इंसानो से माचिस माँगा करते हैं। जिसने उनसे बीड़ी ले कर पीने की कोशिश की या जिसने उन्हें माचिस दी वह उसे जान से मार देते हैं।

मैं डरा हुआ था। मन में बस यही विचार था, कि एक तरफ भूत तो दूसरी तरफ बाघ। आज मरना तो तय है। लेकिन इस बात का विचार बार बार मन में आ रहा था कि किसी को मरने के बाद भी इस राज का पता नहीं चलेगा कि इसकी मौत कैसे हुयी थी। मन में भगवान का स्मरण कर मैंने सब उनके ऊपर छोड़ दिया। सड़क पर उभरे एक पत्थर से सिर सटा कर मैं लेट गया।

वह अजनबी मुँह में सुलगती बीड़ी लिए, बड़बड़ाता हुआ मेरी और बढ़ने लगा। उसके कदम बढ़ते कदम मानों मौत को करीब ला रहे थे।

मैंने अंतिम बार भगवान को याद किया और अपनी आँखे जोर से बंद कर ली। उसके पैरों की आहट धीरे- धीरे और तेज होने लगी मेरा शरीर शिथिल हो चुका था। हृदय गति अब मेरे वश में न थी। तन मन सब शून्य हो चुका था। अब देरी थी तो बस प्राण निकलने की।

में शून्य हो चुका था कि अचानक उस अजनबी ने मेरे हाथ को छुआ, उसके हाथों का स्पर्श पाते ही मैं काँपने लगा।उसने फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरा और जोर-जोर से कुछ बड़बड़ाने लगा। शायद वह कोई मंत्र पढ़ रहा था।

सिर पर उसके हाथों के स्पर्श से मेरे शरीर में ऊर्जा का संचरण होने लगा। हृदय गति सामान्य होने लगी, हाथ पैरों में जैसे जान सी आ गयी।

में शून्य से सामान्य हो गया।

मुझे बेटा कहके सम्बोधित करते हुए उस अजनबी ने मेरे सिर के ऊपर से कुछ छोटे-छोटे पत्थरों को अलग-अलग दिशाओं में उछाला। फिर मेरा नाम पूछते हुए बोला......

क्या करने आया था यहाँ ?

कहाँ से आ रहा है ?

कहाँ जा रहा है ?

तुझे डर नहीं लगता ?

और न जाने क्या क्या ?

बीड़ी को बिना मुँह से निकाले वह एक के बाद के प्रश्न मुझ से पूछ रहा था और मुझे उनकी अधिकतर बातें समझ तक नहीं आ रही थी।

खैर उनको अपनी आपबीती बताई तो वो खुद ही कहने लगे तेरे दो मित्र कुछ देर पहले यहाँ से गए। मैं यही पर बैठा था उनको बात करते सुना की उधर बाघ के दहाड़ने की आवाज आ रही है और तुम पीछे छूट गए हो।

तब से मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा हूँ चलो थैला अपना थैला उठाओ.... हम गाँव की ओर चलते है।

मैंने आम का थैला कंधे पर उठा लिया। आम का‌ बोरा भी अब हल्का प्रतीत होने लगा था। हम दोनों कदमताल करते हुये गाँव की और बढ़ने लगे। अब मैं धीरे- धीरे उससे बातें करने लगा।

आपको कहाँ जाना है? मैंने हिचकिचाते हुए पूछा।

जहाँ तुम जा रहे हो !

आपको किसके घर जाना है ? आपका कोई रिश्ता है यहाँ? मैंने आपको कभी भी अपने गाँव मैं आते जाते नहीं देखा।

अजनबी ने मुझे टोकते हुए कहा...

बस करो भाई सब बताता हूँ।

तुमने मुझे पहले नहीं देखा होगा यह तो मैं भी दावे के साथ कह सकता हूँ।

हाँ तुम्हारे गांव के सारे बुजुर्ग मुझे जानते है। हम्म्म्म ! हाँ... लगभग सभी जानते होंगे।

बचपन गाँव मैं ही तो बीता था मेरा।

मैं नीलम का दादा हूँ।

तुम्हारे साथ ही तो पढ़ती है मेरी पोती।

मैंने उत्सुकता से हाँ कहते हुए गर्दन हिलायी।

वो मेरे छोटे भाई के लड़के की बेटी है। बड़ी प्यारी है, बस जब मन करता है उसे देखने चला आता हूँ।

आप कहाँ रहते हैं दिल्ली ? मैंने फिर प्रश्न किया।

दिल्ली.....! दिल्ली तो नहीं पर हाँ दिल्ली से भी दूर रहता हूँ। सभी सेगे संबधी तो कब का भूल चुके हैं मुझे।

बस एक पोती है जिसे देखने आ जाया करता हूँ बस।

ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानते हुये कब गाँव के ठीक नीचे वाले पानी के श्रोते के पास पहुंच गए पता ही नहीं चला।वहाँ से गाँव जाने के लिए दो रास्ते हैं। एक बिलकुल खड़ी चढ़ाई व श्रोते के साथ-साथ चलता रास्ता तो दूसरा सड़क वाला रास्ता। जो आगे चलकर पुनः दो राहों में बाँट जाता है।

मैं उन्हें सड़क वाले रास्ते से चलने के लिए आग्रह कर ही रहा था कि अचानक दीपू ने मुझे पीछे से आवाज लगाई। मैंने जवाब में हाँ कहते हुए उसे श्रोते के पास आने को कहा।

अब तो तुम्हारे मित्र भी तुम्हे मिल गए हैं। अब तुम ऐसा करो कि सड़क के रास्ते से जाओ मुझे इस रास्ते से जाना है। यह छोटा रास्ता है, फिर मुझे पोती को देख कर वापस भी तो आना है।

वापस ? इतनी रात को ?

आपके पास तो टॉर्च भी नहीं है?

और आपने तो कहा था कि आप दिल्ली से भी दूर से आये है। तो आपको इतनी रात को वापस जाने के लिए गाडी मिल जाएगी क्या ? मैंने उनसे बड़ी उत्सुकता के साथ पूछा।

उत्तर में वह हँसते हुए बोले। रोज का आना-जाना है इस राह पर... सवारी भी अपनी और सवारी भी खुद।

मैंने फिर प्रश्न किया...... आपके पास तो टॉर्च नहीं है, फिर इन झाड़ियों के बीच कैसे जायेंगे?

तुम चिंता मत करो। घर जाओ मेरा इन रास्तों से बेहद पुराना रिश्ता है। पूरा बचपन इन्ही रास्तों पर बीता है।

और न जाने कितने सालों से इन्ही रास्तों पर रोज आता जाता रहा हूँ।

तुम्हें भी देर हो गयी है जाओ।

इतने में दीपू ने मेरे पीठ पर जोर से घूँसा मारा। और चिल्लाते हुये बोला अकेले-अकेले किससे बात कर रहा है पागल?

मैंने भी उसकी पीठ पर धूँसा मारते हुए कहा। अँधा है। दिखाई नहीं दे रहा ये दादाजी खड़े हैं सामने।

दादाजी ? कौन से दादाजी ? उसने बड़ी गहनता के साथ पूछा।

मैंने पीछे देखा तो.... वहाँ पर कोई नहीं था।

दीपू ने फिर पूछा.... बता न कौन से दादाजी थे ?

नीलम के कोई दूर के दादाजी। उन्हें जल्दी थी गांव पहुँचने की, इसलिए शायद चले गए होंगे। चल हम भी घर चलें।

फिर हम दोनों गांव की और निकल पड़े।

गांव से कुछ आधा कोस नीचे जहाँ पर अक्सर पैदल यात्री आराम किया करते थे। दीपू की छोटी बहन, पिंटू की दीदी और हाथ में छड़ी लिए गालियों से स्वागत करती, रोती हुई मेरी माँ हमारा इंतजार कर रही थी।

छड़ी से मुझे पीटते व गालियां देते हुए मेरी माँ गाँव के बीच से मुझे हांकते हुए घर तक ले आयी।

गाँव में लोग घरों से झांक झांक कर‌ मुझे मेरी माँ से मार खाता देख रहे थे।जैसे ही अपने घर के पास पहुंचा पुनः पापा की डांट व मार का डर मुझ पर हावी हो गया।

पापा ने मेरी वजह से उस दिन खाना भी नहीं खाया था। और उनके खाना न खाने की वजह से माँ ओैर भाभी दोनों भूखे थे।भतीजी को माँ ने गोदी में उठाते हुये मुझे बरामदे वाले कमरे (जहाँ कि पापा बैठे हुए थे) की ओर धक्का देते हुए माफ़ी मांगने का इशारा किया।

मैं पापा के पैरों में गिर गया। रोते हुए माफ़ी मांगने लगा पर पापा एक दम मौन थे। उन्होने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मैं पश्चाताप की आग में जल रहा था। काफी देर तक उन्हे मनाने के बाद आखिरकार माँ और भाभी के कहने पर उन्होंने मुझसे बात की और यह वचन लेते हुये किभविष्य में पुनः ऐसी गलती नहीं करूंगा। मेरे सिर पर हाथ रखते हुये माँ से कहा इसे खाना दे दो। पूरे दिन से भूखा है आज।

मैं माँ के पास जाकर बैठ गया। माँ भी मुझसे नाराज थी। लेकिन माँ ही तो है दुनिया में जिन्हे मनाना सबसे आसान होता है। थोड़ा सा अपना दुःख बता दो माँ अपने आप पिघल जाती हैं।

मैं रोता हुआ माँ से लिपट गया फिर।

मैंने माँ को पूरी बात बताना शुरु किया ही था, कि इतने में चाची जी (नीलम की माँ।) वहां पर आ गयी।

चाची को देख मैं तपाक से बोल पड़ा........ दादाजी पहुँच गए घर ? वो पानी के श्रोते से बिना कहे ही आ गए थे। आपको पता है कि आज उनकी वजह से ही मैं घर तक सही सलामत पहुँच पाया हूँ।

मेरी तरफ से उन्हें धन्यवाद बोलना।

चाची ने चौंक कर मुझसे पूछा, कौन से दादाजी ? किसकी बात कर रहा है?

चाची ....वही जो आपके घर आये हैं?

अभी मेरे साथ ही तो आये, घाटी के पास वाली सड़क से।

हमारे यहाँ तो कोई नहीं आया। किसी और के घर आये होंगे। कुछ नाम पता बताया उन्होंने अपना? चाची ने फिर गहनता से पूछा।

नाम ??? नाम तो नहीं बताया पर ये कहा कि मैं नीलम का बड़ा दादा हूँ, वह मेरे छोटे भाई के बेटे की बेटी है।

मैं सभी को जानता हूँ गाँव में और गाँव के सारे बड़े बुजुर्ग मुझे भली तरह से जानते हैं ।

चाची बोल पड़ी उनके हाथ में छड़ी थी कोई ? या फिर पीठ पर छाता तो नहीं टांग रखा था उन्होंने?

हाँ...... ! उन्ही की तो बात कर रहा हूँ मैं। पर बीड़ी बहुत पीते है दादाजी।

जहाँ से मिले वहां पर जली बीड़ी गदेरे तक नहीं बुझने दी उन्होंने।

इतना सुनते ही चाची जी थोड़ा सा घबराते हुए पीछे की और खिसकने लगी। वह बहुत घबरा गयी थी। माँ के कई बार पुकारने पर भी जब वह सामान्य नहीं हुयी तो माँ ने उन्हें जोर से हिलाना शुरू कर दिया। सामान्य होने पर चाची ने माँ के कान में धीरे से कुछ कहा।

जिसे सुनकर माँ भी घबरा गयी उन्होंने मुझे कसकर गले से लगा लिया। चाची को घर जाने के लिए कहकर माँ मुझे खाना खिलाने लगी। खाना खाते-खाते ही मुझे नींद आ गयी। जब मैं उठा तो मम्मी चाची द्वारा बताई गयी बात के बारे में भाभी व पड़ोस की ताई जी से बात कर रही थीं। जिसे सुनकर मैं सन्न रह गया। चाची ने माँ को यह बताया था की जिस दादाजी की बात में कर रहा था, वे और कोई नहीं उनके ससुर के बड़े भाई थे। जो बचपन में ही बारिश के मौसम में उसी घाटी के पास कहीं पत्थर के नीचे दबकर मर गए थे।

उनके ससुर चाची को अक्सर यह बताते थे, कि उनके भाई को बचपन में ही बीड़ी पीने की आदत लग गयी थी।उनको चलने में दिक्कत आती थी तो छड़ी के सहारे चलते थे और हमेशा बारिश के मौसम में पीठ पर छाता टांगकर रखते थे।

दीपू और पिंटू से पूछने पर पता चला की वो दोनों गांव के नीचे वाले श्रोते के पास बहुत पहले ही पहुँच गए थे और न तो उन दोनों में से किसी ने मुझे आवाज दी थी और न ही किसी को घाटी के पास देखा था।

कई सालों तक में उस स्रोते से जब भी गुजरता था तो ड़र से सहम जाता था। पर अब वह घटना यादों के पन्नों पर धुंधली जरुर हो गयी है लेकिन आज तक मैं इस नतीजे पर नहीं पहुँच पाया कि वह सच में एक रूह थी या मात्र मेरा भ्रम।


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