Rajeev Rawat

Tragedy Inspirational

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Rajeev Rawat

Tragedy Inspirational

साले चोट्टे कहीं के

साले चोट्टे कहीं के

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आकाश पर काले काले बादल छाये हुए थे। बिजली जोर जोर से कड़क रही थी, कभी भी बारिश हो सकती थी। उसने झुककर अपने पैर से कांटा निकाला, मुंह से कराह के साथ खून भी निकल आया - जल्दी पास में पड़ा एक गंदा सा कपड़े का टुकड़ा पैर में बांध कर उठ खड़ी हुई। लकड़ी का गठ्ठर अपने सिर पर रख कर शहर की और भागने लगी। पैर दर्द से फटा जा रहा था। आखिर बबूल का कांटा था। मन में डर था कि यदि लकड़ी भींग गयी तो हलवाई पैसे भी नहीं देगा--


         अम्मा ने जब से खटिया पकड़ी है तब से वह दस बरस में ही जवान हो गयी। घर के बर्तन, झाड़ू--खाना सब उसी को करना पड़ता है। लकड़ी बेचकर ही गुजारा होता है। कई बार तो लोग उसे ऊपर से नीचे ऐसे घूर कर देखते हैं कि जैसे लकड़ी का नहीं उसका मोल भाव कर रहे हों। 

         वैद्य ने साफ साफ कह दिया कि इलाज नहीं कराया तो तेरी अम्मा--- यहां से वैद्य के यहां जाकर काम करना पड़ेगा तभी वह दवाई की पुड़िया देगा--


        बादलों के कारण अंधेरा सा छाने लगा, उसने पैर के दर्द को भूल कर तेजी चलना शुरू कर दिया। बस एक कोस की दूरी पर ही हलवाई कक्का की दुकान है। आज तो पच्चीस रूपये तो मिल ही जायेंगे। संतरे की गोली बहुत दिनों से नहीं खाई थी। सोच सोच के लार सी भर आयी मुंह में। 

        उसने हिसाब लगाया कि अम्मा को चौबीस दूं तो एक रूपये में संतरे की दस गोली आ जायेंगी। वह एक खायेगी बाकी छिपाकर रख देगी, दस दिन तक मजे करेगी--सोचकर हंसने लगी--


        सामने दुकान आ गयी थी। बारिश की हल्की सी बूंदें आनी शुरू हो गयीं थीं। उसने हलवाई कक्का से कहा - 

 - देखो कक्का आज कितनी सारी लकड़ी लाई हूं, पूरे पच्चीस लगेंगे

 

हलवाई कक्का भी धूर्त थे, उन्हें मालूम था कि बारिश होने लगी है, इसलिए आज तो अपनी मर्जी चलेगी। इस बरसात में कहां कहां गट्ठर लेकर जायेगी। वह बोले--


--देखो, आज मुझे लकड़ी की जरूरत नहीं है फिर भी तू ले आयी तो बीस से ज्यादा नहीं दूंगा-


-वह वैसे तो बच्ची थी लेकिन कुछ दिनों में समझदारी आ गयी थी, वह समझ गयी कि हलवाई कक्का उसकी मजबूरी का फायदा उठा रहे है। लेकिन वह भी क्या करती, उसने हां कर दी। हलवाई कक्का ने एक और दो रूपये देने के घालमेल में उन्नीस रूपये ही बीस गिनकर दे दिये। वह बेचारी सिक्कों का जोड़ नहीं जानती थी। 


    उसके जाने पर हलवाई कक्का एक रूपये का सौदे में और फ़ायदा देखकर बहुत खुश थे। उसे अपने लाभ से मतलब था, उस बेचारी की मेहनत के प्रतिफल से क्या लेना देना था। 


     पानी जोर से गिरने लगा, अब ग्राहक आने की उम्मीद कम थी, जल्दी जल्दी दुकान बंद करने लगे। गुल्लक से सारे रुपये बैठकी पर डालकर गिनने लगे। आज पूजा होने के कारण बिक्री अच्छी हो गयी थी। रुपये की गड्डी लगाते समय सौ का एक नोट कुछ अजीब सा लगा, गौर से देखा। अरे यह तो नकली था। आज दिन भर की कमाई मिट्टी में मिल गयी थी। बैठे बैठे गाली देने लगे-

 -सालो मेरी मेहनत की कमाई लूटने वालों ऊपर वाला तुम्हें भी माफ नहीं करेगा -साले चोट्टे कहीं के---

             


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