पागल कौन - लघुकथा
पागल कौन - लघुकथा
वह पागल सा था, हमने उसे आगरा की इन गलियों में ताजमहल के पास ठंड में कांपते देखा। रमा ने आगे बढ़ कर अपना शाॅल उसे उढ़ा दिया, उसने जिस दृष्टि से देखा, हम दोनों का मन गीला हो गया।
ताजमहल देखकर वह लौटे तो बाहर चबूतरे पर बैठा ताजमहल की ओर ताक रहा था। तभी रमा ने गाइड से पूछ लिया-
-यह बाबा कौन हैं।
गाइड ने यही बताया कि मैं ही इनका गाइड था। यह अपनी पत्नी के साथ हनीमून के लिए यहां आये थे, दोनों बहुत खुश थे। इनकी पत्नी ने छेड़ते हुए कहा था-
- आप मुझे कितना प्यार करते हैं?
तब इन्होंने उसकी ओर देखते हुए कहा था--यहां लेटे शाहजहां से भी ज्यादा
-तो क्या आप भी मेरे लिए ताजमहल बनवायेगे?
-नहीं, क्योंकि शाहजहां तो मुमताज के बिना जीता रहा था लेकिन मैं नहीं - - हां कोई न कोई हमारे प्रेम का ताजमहल बनवायेगा।
वह तीन दिन रूके थे और जिस दिन जाने वाले थे हिन्दू मुस्लिम दंगा हो गया, मैंने इन्हें टेक्सी में बिठाया था लेकिन - - आतताइयों ने पत्नी का अपहरण कर लिया, तब से यह यहीं बैठा रहता है,यही कहता है ताजमहल में एक दिन मुमताज आयेगी, मुमताज के बिना शाहजहां अकेला दफन नहीं होगा।
घर वाले लेने आये लेकिन नहीं गया, यही कहता है कि एक दिन वह अवश्य आयेगी। कोई कुछ दे देता तो खा लेता है और बुदबुदाता रहता है कि मुमताज के बिना ताज कैसे बनेगा। लोग उसे पागल समझते हैं, वह दिन में ताज के सामने बैठा रहता है और रात में यमुना के किनारे गड्ढा खोदता ताजमहल बनाने के लिए।
हमारी समझ में नहीं आया पागल कौन है यह प्रेम करने वाला या हम या वह जो धर्म के नाम पर यह दुष्कर्म करते हैं।
