गुप्त दान
गुप्त दान
मैं हर हफ़्ते किसी एक मन्दिर, दिन के हिसाब से, दर्शन करने जाता हूं जैसे मंगल को बजरंग बली, गुरुवार को साई मन्दिर।
अक्सर मुझे एक बुजुर्ग दिख जाता था जो दर्शन करने आता था। पर वह वहां पर बैठे किसी भी भिखारी को कुछ नहीं देता था जबकि सारे के सारे भिखारी उसे घेर लेते थे और कुछ देने की याचना करते थे।
यूं ही कुछ हफ्ते बीत गए और एक दिन मैंने देखा कि वही बुजुर्ग मन्दिर से दर्शन कर निकलने के बाद मन्दिर के सामने दूर एक किनारे पर किसी व्यक्ति से बातें कर रहा था और फिर उसे कुछ दिया फिर वह व्यक्ति जिसे उस बुजुर्ग ने कुछ दिया था, वापस आ कर मन्दिर के सामने भिखारियों की पंक्ति में बैठ गया।
दो हफ़्तों बाद मैंने ऐसा ही नजारा देखा तो मुझसे रहा न गया और मैं उस बुजुर्ग का पीछा किया तब जा कर उनसे पूछा
आप मन्दिर के सामने किसी भिखारी को मांगने पर भी कुछ नहीं देते पर दूर जा कर उस एक भिखारी को कुछ देते हो?
वह बोला मैं एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति हूं और अकेला हूं तथा जो भी एक छोटी सी आमदनी पेंशन के रूप में मिलती है उसी से अपना गुजारा करता हूं। मेरी भी इच्छा होती है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को दान करूं पर मेरी स्थिति ऐसी नहीं है।
मैंने पूछा, पर आप तो दूर जा कर एक भिखारी को कुछ देते तो हो
इस पर उसने कहा, सर मैं इतने झुंड भिखारियों में अगर एक को दूंगा तो बाकी लोगों को निराश करूंगा और मैं ऐसा नहीं कर सकता इसलिए दूर जा कर किसी एक भिखारी को खोज कर जो कुछ मेरा सामर्थ्य है उसे दे देता हूं, बस इतनी सी बात है।
मैं सोचने लगा कि लोग इस तरह भी सोचते हैं कि उनका दान की इच्छा भी पूरी हो जाए और किसी का दिल भी न टूटे।
धन्य हैं ऐसे लोग, मैं मन ही मन प्रणाम करने लगा।
