हैप्पी फादर्स डे
हैप्पी फादर्स डे
अरे मोहन कैसा है, कितने साल बाद हम मिले हैं, बता कैसा चल रहा है जिंदगी ?
एक साथ सुरेश प्रश्न पर प्रश्न करने लगा।
मोहन और सुरेश इंदौर के कॉलेज में सहपाठी रहे हैं और एक ही कॉलोनी में रहते थे। दोनों के पिता बैंक में नौकरी करते थे इसलिए बैंक कॉलोनी में ही उनका घर था।
"ठीक है यार जिंदगी फर्स्ट क्लास गुजर रही है"
"तू बता यहां कैसें" मोहन ने पूछा
"मैं तो महीने भर से यहीं पर हूं और मां भी साथ में ही है। पापा की तबियत खराब हो गई थी और वहां के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था पर एक दोस्त के कहने पर उन्हें यहां मुंबई ले कर आया हूं" सुरेश बोला।
"और तू बता अंकल आंटी कैसे हैं"
दो साल हो गए हैं मम्मी को गुजरे और पापा भी ठीक हैं, मैं उनसे टच में रहता हूं हर महीने फोन करता हूं। अभी अभी परसों की ही बात है मैंने उनको वॉट्सएप में "हैपी फादर्स डे" की बधाई दी।
सुरेश को कुछ समझ नहीं आया और पूछा 'वॉट्सएप में बधाई मतलब' !
"कुछ नहीं यार, पापा को हमारे साथ रहना पसंद नहीं था और हम दोनों के पास इतना समय भी नहीं है कि उनका देख रेख कर सकें, तू तो जनता है तेरी भाभी बैंक में नौकरी करती है। फिर हम दोनों ने अच्छे से सोच समझ कर पापा को यहां के एक अच्छे वृद्धाश्रम में रहने की व्यवस्था कर दी, वो मस्त हैं वहां उनके कई दोस्त बन गए हैं और उनको तो हमसे बात करने का समय ही नहीं मिलता"
सुरेश मोहन की नजरों के तरफ देखा तो मोहन नजर चुराने लगा और उसके चेहरे पर स्पष्ट भाव दिख रहे थे जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो।
"ठीक है एक काम कर मुझे उस वृद्धाश्रम का पता वॉट्सएप कर देना, मैं एक बार अंकल से मिलना चाहता हूं, काफी दिन हो गए उनसे मिले हुए"
"ठीक है, मेरे ऑफिस का वक़्त हो रहा है मैं निकलता हूं" कह कर मोहन चला गया।
सुरेश मुख्य सड़क पर खड़े खड़े उस वृद्धाश्रम का पता लगाने की कोशिश कर रहा था जो पता मोहन ने दिया था। अचानक देखा कि सड़क के दूसरी तरफ एक बोर्ड लगा है और उस पर एक तीर का निशान बना हुआ है जिस पर लिखा था "संजीवनी ओल्ड एज होम"
सुरेश उसी दिशा की तरफ बढ़ गया। कुछ दूर जाने के बाद ठीक सामने एक बड़ा सा साइन बोर्ड दिखा जिस पर "संजीवनी ओल्ड होम" लिखा था।
आगे बढ़ कर मुख्य गेट खोल कर अंदर गया, आश्रम बहुत बड़े एरिया में बना हुआ था, सामने विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे, पेड़ पौधों के बीच अच्छा खास स्थान था जिसमें कुछ बुजुर्ग बैठे थे, कुछ कैरम खेल रहे थे। कुछ वृद्ध महिलाएं फिल्मों पर गॉसिप कर रही थी, कुछ बुजुर्ग एक किनारे योगा में मस्त थे, कुछ लोग धूप का आनंद उठा रहे थे, कुछ बुजुर्ग चाय का आनंद ले रहे थे। सुरेश जैसे ही अंदर गया सभी बुजुर्ग एक साथ उसकी तरफ देखने लगे।
"किससे मिलना है" एक आवाज कानों तक पहुंची।
"जी, त्रिभुवन नाथ जी से मिलना है"
"वो तो बैठे हैं सामने, कैरम खेल रहे हैं"
सफेद बाल बिखरे हुए, सफेद मूंछें, सफेद पायजामा कुर्ता, पैरों में हवाई चप्पल, एक व्यक्ति कैरम खेलना छोड़कर स्ट्राइकर हाथ में ले कर मेरी ही तरफ घूर रहा था।
मैं भी उनको बड़े ध्यान से देखा तब पहचाना कि यही त्रिभुवन अंकल हैं। मैंने आगे बढ़ कर उनका चरण स्पर्श किया।
वो अभी भी मुझे ही देख रहे थे, शायद उन्होंने अभी तक मुझे नहीं पहचाना।
अपने चश्मे को निकाल कर अपने कुर्ते से पोंछ वो बोले
"कौन हो बेटा"
"अंकल मैं सुरेश"
"कौन सुरेश"
"अंकल मैं बंटी, दयाल अंकल का बेटा" मुझे घर पर इसी नाम से पुकारा जाता था।
"अरे बंटी, माफ करना बेटा पहचान नहीं पाया, इतने सालों बाद जो देखा है, चल कमरे में बैठ कर बाते करते हैं"
अंकल उठे और लड़खड़ाते हुए किनारे दीवार के सहारे रखी हुई लाठी उठाया और चलने की कोशिश में थोड़ा लड़खड़ाए।
मैंने ज्यों ही उन्हें सम्हालने की कोशिश की तो बोले
"अरे नहीं बंटी, यूं लड़खड़ाना, गिरना उठना आदत सी हो गई है। जब से न्यूरो प्रॉब्लम चालू हुआ तब से यूं ही हाथों और पैरों में कम्पन होने लगता है"
"डॉक्टर के पास..............."
उन्होंने मेरी बात को बीच में काटते हुए कहा
"डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिए और घोषणा कर दी कि अब यूं ही लड़खड़ाते हुए जीना पड़ेगा"
वो मुझे एक कमरे में ले गए। छोटा सा कमरा, कमरे में एक खाट, सामने टेबल फैन, खाट के नीचे एक संदूक, स्विच बोर्ड पर एक आल आउट, बगल में एक कुर्सी पड़ी हुई थी।
"बेटा बैठ" उन्होंने मुझे कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा और वो खुद खाट पर बैठ गए।
"और अंकल कैसे कट रही है जिंदगी"
"बस बंटी बिंदास, तू तो बचपन से मुझे देख रहा है, अपन ऐसी है। बीच बीच में तेरा दोस्त मिलने अा जाता है बहु व बच्चों के साथ। वो लोग मेरा बहुत खयाल रखते हैं"
"अभी हाल में मोहन आप से कब मिला"
"यही कोई.............." आगे कुछ नहीं बोल पाए।
मैं बड़े ध्यान से अंकल की तरफ देखने लगा। वो मुझे उनकी तरफ घूरता हुआ देख अपनी नजरें इधर उधर घुमाने लगे। उनके लाख छि
पाने की कोशिश के बावजूद एक आंसू आंख के एक कोने से बाहर बहने को व्याकुल सा दिखा।
फिर मेरी नजर उनसे मिली और उसी वक़्त वो आंसू जो अभी तक पलकों की ओट से झांक रहे थे लुढ़क कर गालों पर बहने लगे।
मैं तुरन्त कुर्सी से उठ कर अंकल के बगल में बैठ गया और उनको ढाढस बंधाया। उन्होंने आंसू पोंछा और कहने लगे
"यही तो जिंदगी है बंटी सबको सब कुछ नहीं मिलता, ऊपर वाले ने सब कुछ दिया है, पर साथ ही एक बेटा भी दिया है, फिर उम्मीद तो रहेगी न बंटी कि एक बार आए, मिले, हाल चाल पूछे"
"हां अंकल, ये तो उसका फ़र्ज़ है"
"कैसा फ़र्ज़, अगर फ़र्ज़ के प्रति तुम्हारा दोस्त इतना होता तो आज मैं यहां इस वृद्धाश्रम में नहीं होता और कुकुर मुत्ते की तरह यूं वृद्धाश्रम नहीं उगते"
तभी दूर कहीं से एक गाने की आवाज अा रही थी
"संसार है एक नदिया दुख सुख दो किनारे हैं न जाने कहां जाए हम बहते धारे हैं"
मुझे ऐसा लगा कि ये प्रकृति भी जिंदगी की इसी सच्चाई को बयां कर रही है।
"यहां कैसे, तुम तो इंदौर में ही हो न" अंकल की आवाज सुन कर मैं वापस वर्तमान में अा गया।
"जी हां, पापा की तबियत ठीक नहीं है तो उनको मुंबई इलाज के लिए लाया हूं, महीना भर हो रहा है मैं और मम्मी यहीं हैं"
"ठीक है बेटा, तू आज ही मुझे अपने साथ उस हॉस्पिटल लेे चल, अपने दोस्त से मिले एक जमाना गुजर गया है"
"और सुन, तुझे मालूम है कि अपना मोहन भी इसी शहर में है और अगर उसको मालूम होगा कि तुम लोग यहां हो तो वो दौड़ा चला आएगा"
".........."
मेरे पास उनको जवाब देने हेतु कोई शब्द नहीं मिल रहे थे, मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"क्या हुआ"
"कुछ नहीं"
"अच्छा ये बता कि तुझे मेरा यहां का पता किसने दिया"
"मोहन ने"
"मिला था"
"हां"
"फिर"
"वो ऑफिस जाने की जल्दी में था, चला गया"
"ठीक है चल मैं कपड़े बदलता हूं फिर हॉस्पिटल चलते हैं" अंकल लड़खड़ाते हुए उठे, मैंने भी उनकी मदद की और तैयार हो कर हम दोनों हॉस्पिटल चल पड़े।
हम ऑटो रिक्शा से उतर कर वार्ड के तरफ बढ़ गए और ज्यों ही पापा की नजर अंकल पर पड़ी तो पापा ने उठने की एक नाकाम कोशिश की, पर उठ नहीं पाए। मम्मी ने आगे बढ़ कर त्रिभुवन अंकल को प्रणाम कर बैठने को कहा।
मैंने बेड के पास जा कर पापा को सहारा दे कर उठाया और तकिए के सहारे उनको बिठाया और एक कुर्सी बेड के पास लगा कर अंकल को बिठाया।
"त्रिभुवन तू कब से लाठी का सहारा लेने लगा"
पापा ने पूछा
"यही कोई दो तीन साल हो गए, तेरी भाभी के गुजरने के बाद............"
भाभी कब गुजर गई ? पापा ने त्रिभुवन अंकल को बीच में ही टोका।
"दो तीन साल हो गए उसे गुजरे और उसके बाद से ही मैं यूं लाचार सा हो गया हूं"
"मोहन और बहू बच्चे सब ठीक हैं ना"
".........."
कोई जवाब नहीं दे पाए अंकल, मैंने इशारा कर अपने पापा को चुप रहने को कहा। फिर मैं मम्मी को लेकर ये कहते हुए बाहर निकल गया कि आप लोग बहुत लंबे समय के बाद मिले हैं आराम से बात कीजिए मैं कैंटीन से चाय भेजवाता हूं।
"दयाल वक़्त हमेशा एक सा नहीं रहता, तेरे भाभी के गुजरने के बाद मैं लाचार सा हो गया था और मेरे हाथ पैर भी मेरा साथ नहीं देते। इसी लाचारी के चलते मैं ठीक से बच्चों के साथ डायनिंग पर भोजन नहीं कर पाता था और कई बार लड़खड़ा कर गिर पड़ता था और फिर डाक्टर के पास ले जाओ और दवाई कराओ बस यही चलता रहा। ये सब बहु को पसंद नहीं था और वो अपने स्वभाव अनुसार मुझे खरी खोटी सुनाती थी। मोहन 'किंकर्तव्यविमूढ़' सा किसी को कुछ नहीं कह पाता था"
"फिर एक दिन मैंने ही मोहन से कह कर वृद्धाश्रम शिफ्ट हो गया अब वहीं रहता हूं"
"मोहन मिलने आता है"
"पहले पहले हर हफ़्ते आता था, फिर हर महीने आने लगा पर अब तो महीनों बीत जाते हैं न कोई फोन और न खुद आता है"
"खैर ये सब छोड़ ये बता तू कैसा है" त्रिभुवन अंकल ने पापा से पूछा।
"मैं शायद पिछले जन्म में कोई अच्छा काम किया होगा जो इतना अच्छा बेटा मिला और ठीक उसी तरह सेवा करने वाली बहु। और ये भी किस्मत की ही बात है कि आज भी जीवन साथी का साथ है"
"त्रिभुवन एक बात तो है कि यहां तुझे बोरियत नहीं महसूस होती होगी क्योंकि इतने लोग यहां हैं उनमें से किसी से तो तेरी नजदीकियां बढ़ेंगी, और जहां तक घर पर बच्चों के साथ रहने की बात है तो उनके पास वाकई में वक़्त नहीं होता, ये उनकी मज़बूरी है इसलिए चाह कर भी समय दे नहीं पाते। अगर भाभी जीवित होती तो बात और थी तुझे बच्चों के साथ की इतनी जरूरत नहीं होती पर इस एकाकी जीवन में तो यही जगह मेरे खयाल से अति उत्तम है"
"वो तो ठीक है दयाल, मैं तेरी इस बात से सहमत हूं पर यार कभी कभी बच्चों से मिलने की इच्छा तो होती है ना"
"हां वो तो है, इसमें मोहन की गलती है"
पापा व त्रिभुवन अंकल का वार्तालाप यूं ही चल रहा था और मैं अभी भी ये सोच नहीं पाया कि बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजना सही है या गलत है।