Dhairyakant Mishra

Abstract

2.5  

Dhairyakant Mishra

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दिल्ली, हैडफोन्स और तुम

दिल्ली, हैडफोन्स और तुम

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दिल्ली, हैडफोन्स और तुम*

 

2009 में हम दोनों जब दिल्ली आए थे, तब दिल्ली की सरकार, यहाँ का मौसम, यहाँ के लोग और ये मेट्रो, सब हमारे साथ हुआ करते थे। वक़्त के साथ तुम भी बदल गई और ये दिल्ली भी।

ब्लू लाइन बसें जो मेरी चहेती हुआ करती थीं उसको सरकार ने बंद करवा दिया, अब इन हरी लाल बसों में न तो स्पीड का थ्रिल है और न मरने का डर।

ब्लू लाइन की बसों में भीड़ कितना हुआ करती थी, अकसर दूसरों के स्पर्श से बचने के लिए तुम मुझसे लिपट जाया करती थी, और मैं अपना सिर तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में तैरने के लिए छोड़ देता था। लोगों की फब्तियां भी मुझे सुनाई देती थी, लेकिन हैडफ़ोन के कल्चर ने इनसे डील करने का तरीका सिखा दिया था। सरोजनी मार्किट पे जब बस धीमी होती थी, लोगों के धक्कों से बचाने के लिए मैं अपने हाथों से तुम्हारे पीछे LOC बना देता था। चोट लगती थी, लेकिन तुम्हारी हड़बड़ाहट देखकर चुप रहता था।

बसें बंद हो गईं तो मेट्रो में सफर करना शुरू कर दिया। वैसे बात एक ही है। बस फ़र्क एयरकंडीशन और सफाई का था। लोगों की निगाहें उतनी ही तीखी और गन्दी आज भी थी। मैं जानबूझकर अपना हैडफ़ोन डेली भूल जाया करता था, ताकि तुम्हारे हेडफोन का आधा हिस्सा सफ़र  में यूज़ कर सकूँ। कभी कानों से जब एक हैडफ़ोन गिर जाता था, तब पता नहीं शायद ऐसा लगता था की तुम थोड़ी दूर सी हो गई हो। रही सही कसर मेट्रो के महिला कोच ने पूरी कर दी। कंपनियां इतने लम्बे हैडफोन्स भी नहीं बनाती थी की हमारी दूरी को अब वो पाट सके, अब तुमको सामने देखने के लिए ना जाने कितनी निगाहों को पार करना पड़ता था। धीरे-धीरे तुमने दूरियाँ बढ़ानी शुरू कर दी थी , हमारे इश्क़ को उस मेट्रो कोच की नज़र लग गई थी। शायद किसी से सुना था कि सब बराबर है ,लेकिन दिल्ली की मेट्रो का वो पहला कोच हर मर्द को उसके हैवान होने का सर्टिफिकेट दे रही थी।

मैंने कई बार उसको कहा कि दूसरे कोच में चलते है, लेकिन उसके जवाब से पहले उसका डर उसकी आँखों में आ जाया करता था। मेट्रो के उस कोच ने सफर की दूरी और बढ़ा दी थी पर, कुछ दिनों के बाद अब वो मेट्रो पर भी नहीं आई। मैंने बसों में तलाश किया , मूलचंद के फ्लाईओवर से लेकर साकेत के सेलेक्ट सिटी वाक तक, शायद निर्भया ने उसको भी डरा दिया था। लेकिन इन सब में मेरा क्या कसूर ?

सवालों के इस मकड़जाल में मैं पिछले तीन साल से हूँ। दिल्ली ने दिल तोड़ दिया है , फिर भी उम्मीद का मोदी अभी अडवानी नहीं हुआ है।

उसको महसूस करने के लिए मैं अपने हैडफ़ोन का एक तार आज भी कान में नहीं लगता। आशावादी जो ठहरा, तुम्हारे हैडफ़ोन का इंतेज़ार रहेगा।

शायद तुम्हारा,

धैर्यकांत मिश्रा


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