चाय
चाय


चाय
अब तो उसकी याद भी दशहरे के त्यौहार की तरह आती है। याद आते ही सुगंध और उमंग की लहरें सुनामी को भी मात दे जाती हैं। सोचिये, जब याद इतनी खुशबूदार है, तो वो कितनी महकती होगी – चाय!
बड़ा सा बरामदा, संयुक्त रसोई का वह मिट्टी का खूबसूरत चूल्हा ! साफ़, स्वच्छ, एक उजियाली सी आभा लिए हुए यज्ञशाला के सामान प्रदीप्त और आभामंडित वह चूल्हा ! शायद ये सारा कमाल उस चूल्हे का ही था नहीं तो दूध का कम्पोजीशन इतना तो भिन्न नहीं होता कि एक गाँव में इतनी अलौकिक खुशबू फैले, और दूसरे में नहीं। यह चाय की पत्ती का कमाल भी नहीं मालूम देता क्योंकि हम आज उस समय की गुणवत्ता के स्तर से कमतर की चाय (पत्ती) इस्तेमाल नहीं करते। कोई जड़ी – बूटी तो डालते नहीं थे, इतनी समझ तो मुझमें थी ही; और ये संभव भी न था क्योंकि भोजन का महत्व चाय से अधिक था तथा उस महत्व को चाय के समक्ष गौण समझा जाना किसी को भी स्वीकार्य न था।
बहुत विचार – विमर्श और तर्क के आधार पर मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जो भी जादू था, उसका एक बहुत बड़ा स्रोत वह स्वर्ण आभा लिए हुए चूल्हा ही था।
बाबा बहुत जल्दी जग जाते थे।दादी तथा अन्य गृहिणियां उनसे भी पहले। संयुक्त परिवार था; मुखिया ही परिवार की धुरी था। बाबा के अनुसार ही पूरे परिवार की दिनचर्या का नीतिगत निर्धारण था। फिर भी कहीं कठोरता का वातावरण न था, बस अनुशासन की डोर प्रत्येक आचरण की गाँठ बनी रही थी। ताई की अगुवाई में ही दिनचर्या का पहला पाठ पढ़ा जाता। सबसे पहले चूल्हे के आस – पास की सफाई की जाती ताकि किसी प्रकार की अखाद्य या अवांछित सामग्री भोजन के समय वहाँ न दिखे जैसे कि धूल इत्यादि। तत्पश्चात्, चूल्हे को बड़ी लगन से लीपा – पोता जाता। यह प्रक्रिया प्रतिदिन होती थी। सूखने में विशेष समय न लगता था; पश्चात, सूखी लकड़ियाँ चूल्हे में रखकर जलाई जातीं। पहले से ही सुलगाया हुआ उपला इसमें विशेष सहायता करता। केवल लकड़ियों तथा उपलों से प्रज्ज्वलित अग्नि उस चूल्हे के आभामंडल को स्वर्ण के सामान दैदीप्य बना देती थी।
मैं वहीँ बैठकर यह प्रक्रिया देखा करता था। मेरे लिए गाँव की प्रत्येक सुबह एक स्वतंत्रता का आभास कराने वाली होती थी। मैं और अन्य भ्रातागण वहीँ बैठकर उस ऊर्जादायिनी के जागने की प्रतीक्षा किया करते। जैसे – जैसे चूल्हा पहले से अधिक दैदीप्यमान होता जाता, हमारी उत्सुकता तथा अधीरता बढती जाती। कानपुर में प्रतिदिन की चाय पीने के अनुभव को मैं याद न रख पाता या कि अन्य भ्रातागणों की अधीरता का मुझ पर उनसे अधिक प्रभाव पड़ता, इसमें तार्किक अंतर कर पाने की क्षमता मुझमें नहीं है; मुझे तो बस इतना याद है कि उस समय वातावरण सुबह की स्वच्छता से पहले ही महकता रहता था, उसमें उस चाय की कल्पना अद्भुत सुगंध भर देती थी। पीने मात्र से मुझे वो आनंद मिलता था, इसमें मुझे अपार संदेह है। मैं उसके स्वाद का नहीं, उसकी अलौकिक सुगंध का दीवाना था। प्रभात की किरणें उस वातावरण में कोई सुगंध तत्व घोल देती थीं जिसके फलस्वरूप आस – पास का वातावरण भी उसी सुगंध का वाहक हो जाता था।
चाय बनने की प्रक्रिया शुरू होती और हमारी उत्सुकता हिलोरें मारने लगती। जैसे – जैसे चाय में उबाल आता, हम निश्चित हो जाते कि चाय अब पकी, तब पकी ! चाय के उबलने की तुलना और उससे उत्पन्न सुगंध के मृगजाल की तुलना किसी भी अन्य प्रक्रिया से करना मेल नहीं खाता; हाँ यह ज़रूर है कि जिस प्रकार यज्ञ या हवन के सामने बैठने पर धुआँ तो बहुत लगता है, पर उस धुएं की अलौकिक कांति मन को पवित्र और प्रफुल्लित कर देती है, ठीक उसी प्रकार चूल्हे का तीक्ष्ण धुआँ लगने पर भी उस सुगंध की कामना से विमुख होना मनुष्य ह्रदय के वश में मालूम नहीं देता था।
आखिरकार अधीरता का वेग मंद पड़ता; चाय छनने हेतु तैयार दिखती। सभी भ्रातागणों के हाथ प्रायः गिलास, कटोरी या अन्य सुलभ पात्रों से सुसज्जित दिखाई देने लगते। 'अमृत' की चाह और उसे सामने देखकर हुई प्रतिक्रिया कैसी रही होगी, उसका आँकलन इस दृश्य से सहज ही हो जाता था।
चाय मिलते ही उत्साह ठंडा हो गया हो, ऐसा कभी दिखाई नहीं दिया, बल्कि उसको तन्मयता के साथ होठों पर लगा लेने की आतुरता तथा सुगंध के प्रत्येक “क्षण” को मधुमक्खी सदृश कैद कर लेने की चेष्टा प्रत्येक बालक में दीख पड़ती। अनुभव के चित्र सिर्फ देखने और महसूस करने वाले की आँखों और मन में अंकित होते हैं; दूसरों को मात्र कथ्य या कपोल कल्पित ही लगते हैं, ऐसा सामान्यतः देखा गया है। आज भी उस चाय की चर्चा मैं सभी परिवारीजनों से करता हूँ, तथा उसके अद्भुत रहस्य को तार्किक परिमाण देने का प्रयास करता हूँ, परन्तु वो अहसास बहुत प्रयत्न करने पर भी जागृत नहीं कर पाता। गाँव में भी चूल्हे का स्थान गैस ने ले लिया है, इसलिए एकमात्र आशा की किरण भी अब प्रदीप्त न हो सकेगी। शायद अन्य विधाओं की तरह रसायन की भी एक नयी विधा, “इमोशनग्राफी” का प्रादुर्भाव हो जिसमें भावों, अनुभवों को निचोड़ कर द्रव्य का रूप दिया जा सके और भावों के सुगंधतत्व को परखनली में निष्कर्षित करके संरक्षित किया जाना संभव बने। शेष जीवन की इस असंभव सी आशा के साथ वर्तमान में लौटने का कष्ट उठाते हुए मन तथा अतीत की सुगंधमयी वायु में जी भर तैरकर वापस आये हुए मन में किसको प्राथमिकता और स्वीकृति दूं, इसी पशोपेश में फिर उलझ गया हूँ !
निशान्त मिश्र