अर्थ
अर्थ
‘बचपन’ को पतंग उड़ाते हुए देख ‘अनुभव’ ने पूछा, “इसमें क्या मिला, इससे क्या मिला?”
‘बचपन’ ने उत्तर दिया, “मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैं ‘पवन’ से सबंध स्थापित करते हुए ‘गगन’ से सम्पर्क कर रहा हूँ.
‘अनुभव’ ने कहा, “क्षणिक!”, ‘बचपन’ ने कहा, “अलौकिक!”
‘अनुभव’ ने पुन: ‘बचपन’ से पूछा, “क्या आनन्द मिला?”
‘बचपन’ ने कहा, “परमानन्द!”
‘अनुभव’ – “कैसे?”
‘बचपन’ – “मन ही उड़ता है, उड़ता जाता है, इधर होता है, उधर होता है, भटकता है, संभलता है, शांत रहता है, उछल पड़ता है, क्रियाओं का स्वामी भी है, और सेवक भी, आगामी है तो अनुचर भी; ये मन ह
ी है, जो हर्ष और विषाद की स्थितियों में स्वयं ही जाता है, और सुख या दुःख की परिकल्पना के रेखाचित्रों को रूप भी देता है! ये मन ही तो है, जो ‘इतिहास’ को ‘अनुभव’ और ‘अनुभव’ को ‘इतिहास’ बनाता है! अर्थ ये है कि ‘मन’ ही ‘स्रोत’ है, ‘मन’ ही ‘द्वार’ है, मन ही ‘माध्यम’ है; ‘रूप’ भी ‘मन’ ही है, और जिसे ‘लक्ष्य’ कहते है, ‘मन’ की ही एक ‘दशा’ है, जो परिष्कृत तथा परिमार्जित होकर परिलक्षित होती है!”
‘अनुभव’ – “तो ‘मन’ ही ‘आनंद’ है?”
‘बचपन’ – ‘मन’, ‘आनंद’ भी है, और ‘आनंद’ के अनुभव का माध्यम भी है, ‘मन’ ही ‘आनंद’ का ‘अनुभव’ कराता है, ‘मन’ ही ‘आनंद’ को जन्म देता है; अर्थात्, ‘मन’ ही ‘उत्पन्न’ करता है, और ‘मन’ का अंतिम और प्रामाणिक रूप है – ‘अनुभव!’, ‘मन’ ही ‘अनुभव’ करता है, और ‘मन’ ही ‘अनुभव’ कराता है!”
‘अनुभव’ – “तो यही है, ‘बाल्यानुभव’?”
‘बचपन’ – “नहीं! ये है, बाल्यानुभवार्थ!”