आस्था की शक्ति
आस्था की शक्ति


(हनुमान जी की कृपा – मोटरसाइकिल प्रसंग)
माह: सितम्बर; वर्ष: २०१८
स्थान: फिल्लौर, जालंधर
आज दैनिक पूजा करते समय महावीर हनुमान जी के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव प्रकट हुआ, जो अतीव विश्वास के रूप में मन में प्रकाशित हुआ। पूजा – वंदन के उपरान्त, मैं गृह से फैक्ट्री जाने के लिए मोटरसाइकिल से निकल पड़ा। मार्ग में हनुमान जी का स्मरण बारम्बार मन में प्रकाशित हो रहा था। हनुमान जी की कृपा के प्रसंग मन में चलचित्रों की भाँति चल रहे थे की अकस्मात् मोटरसाइकिल की ध्वनि में अनायास परिवर्तन होने का आभास हुआ। स्पष्ट था कि ईंधन (पेट्रोल) चुक रहा था। धड़ – धड़ की ध्वनि के साथ मोटरसाइकिल हिचकोले खाने लगी। तभी मन में पुनः हनुमान जी की कृपा – शक्ति का अतीव प्रकाश हुआ।
“मैं हनुमान जी की शक्ति और कृपा में विश्वास रखता हूँ, तो मेरी सहायता होगी, और होकर रहेगी”, ऐसा विश्वास दृढ़ से दृढ़तर, और फिर दृढ़तम हो गया; यहाँ तक कि मुझ में ये विश्वास दृढ़ हो चला कि हनुमान जी की शक्ति से, मोटरसाइकिल ईंधन चुक जाने पर भी चल सकेगी।
“हनुमान जी पवन – पुत्र है; मोटरसाइकिल वायु की शक्ति से भी चल सकती है, और चलेगी ही”, यह विश्वास अब पूर्णतः मन में बैठ गया। ऐसा विश्वास – भाव मन में प्रकट होते ही मोटरसाइकिल से आने वाली धड़ – धड़ की ध्वनि एकाएक समाप्त हो गयी, और मोटरसाइकिल ऐसे चलने लगी मानो उसमें ईंधन घटा ही न हो अथवा ईंधन भर दिया गया हो। मन में विश्वास की संकल्पना दृढ़ होती जा रही थी कि मोटरसाइकिल वायु रुपी ईंधन, जोकि पवन-पुत्र की कृपा से प्रकट हुआ था, से ही संचालित हो रही थी। मन में अगाध प्रसन्नता एवं भगवान हनुमान जी के आशीर्वाद का पात्र बनने की सुखद अनुभूति हो रही थी।
अकस्मात्, धड़ – धड़ की ध्वनि के साथ मोटरसाइकिल रुक गयी। ऐसे में अविश्वास जन्म ले सकता था, किंतु आस्था ने किंचित भी अविश्वास का भाव उत्पन्न न होने दिया, अपितु घटना का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकला कि विश्वास को बनाए रखने के लिए प्रभु ने मोटरसाइकिल को उस समय बंद नहीं होने दिया, ताकि मैं स्वयं को प्रभु की कृपा से वंचित न समझूं। परन्तु प्राकृतिक नियमों में विघ्न न पड़े, इसलिए प्रभु ने बिना ईंधन की मोटरसाइकिल को विराम दिया।
मन में नकारात्मकता श्लेष मात्र न थी, किंतु स्वयं को अतीव कृपापात्र मानने का भ्रम कम हो रहा था। लग रहा था कि यह कालांतर में प्रभु के प्रति समर्पण में कमी का द्योतक है। तभी फैक्ट्री के पास का दुकानदार सोनू वहाँ से स्कूटी पर निकला। लगा कि कुछ सहायता मिल सकती है; डूबते को तिनके का सहारा ! परन्तु संकोचवश उससे पेट्रोल लाने के लिए स्कूटी न मांग सका। एक अन्य कारण कि मोटरसाइकिल को बीच सड़क में छोड़ना भी उचित न जान पड़ा।
मैं पैदल ही मोटरसाइकिल घसीटते बढ़ चला। तभी पीछे से एक सरदार जी स्कूटी पर सपरिवार आते दिखे, पास आकर रुके और मुझसे यूँ मोटरसाइकिल घसियाने का कारण पूछा। मैंने स्पष्ट किया, तो वो बोले, “पेट्रोल दे दूँ क्या ?” मैंने कहा कि मेरे पास कोई बोतल नहीं है। यह कहकर मैंने उनका सहृदय धन्यवाद किया और पुन: अपनी द्रुतगामिनी सहचरी जोकि अब असहाय अवस्था में मेरी सेवा सुश्रुता की अभीष्ट अभिलाषा पाले हुए थी, को सप्रेम ले आगे बढ़ चला। “अंकल !”, “अंकल ??”, मैंने पीछे पलट कर देखा; यह स्वर एक युवती का था, वह युवती उन्हीं सरदार जी के परिवार से ही थी। संभवतः, वह उनकी पुत्री प्रतीत होती थी। उस सहृदय युवती ने आग्रह किया, “हमारे पास बोतल में पेट्रोल है, आप ले लीजिए।” मैंने पुनः अनुरोध किया, “फैक्ट्री यहाँ से अब थोड़ी दूर ही है, आप को आगे जाना है, आपको इसकी अधिक आवश्यकता है।” परन्तु सरदार जी ने पेट्रोल मुझे दिया और हँसते हुए कहा कि, “हम कुछ पेट्रोल पास में हमेशा रखते है, आप चिंता न करें, स्कूटी में पर्याप्त ईंधन है।”
जब तक मैंने पेट्रोल मोटरसाइकिल में भर नहीं लिया, सरदार जी सपत्नीक वहीँ रहे। यद्यपि यह सहायता अमूल्य थी, अपितु “पेट्रोल तो मुफ्त नहीं आता”, ऐसा सोचकर मैंने उन्हें पचास रुपये देना चाहा तो देखता हूँ कि मेरे पास तो पांच सौ का ही एक मात्र नोट पड़ा है। मेरी असमंजसता को देखते ही सरदार जी ने मुझे सांत्वना दी, और बताया कि वो मेरी ही फैक्ट्री में ठेकेदारी पर जिल्दसाज़ी का काम करने आया करते है। मैंने उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद दिया, और प्रसन्नता के साथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ चला।
पश्चात्, मैंने पूरी घटना का विश्लेषण किया और पाया कि प्रभु (हनुमान जी) ने मुझे निम्नलिखित बातों की शिक्षा दी:-
१. “मोटरसाइकिल प्रभु की कृपा से चलेगी”, इस पर मेरे विश्वास की दृढ़ता को देखते मोटरसाइकिल रुकने नहीं दी।
२. मोटरसाइकिल ईंधन से चलनी चाहिए, एवं ऐसी वस्तुओं के सञ्चालन में दैवीय शक्ति का उपयोग अनुचित है; प्रकृति (मृत्युलोक) के नियमों के सञ्चालन में व्यवधान न हो, मोटरसाइकिल कुछ दूर चलने के पश्चात् रुक गयी।
३. भक्त अपने को अपात्र न समझे, इसलिए ऐसे समय में सरदार जी के रूप में सहायता उपलब्ध कराई, नहीं तो मार्ग में विरले ही कोई किसी की सहायता हेतु रुकता है, वो भी जब सपरिवार हो।
४. “तुम भी लोगों की सहायता करते रहना, पुन्य कर्मों का प्रतिफल अवश्य मिलता है।”
उपरोक्त घटना से प्रभु की कृपा और उस कृपा के पात्र होने में कोई संशय न रहा; विश्वास और भी दृढ़ हो गया है।
कल एक वृद्ध स्त्री और आज दो विद्यालयी छात्रों को अपनी मोटरसाइकिल से उनके गंतव्य तक उसी मार्ग से जाते हुए पहुंचाया, असीम प्रसन्नता एवँ संतुष्टि का भाव प्राप्त हुआ। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में ठीक ही लिखा है,
“अब मोहि भा भरोस हनुमंता, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता”
“श्री हनुमते नमः”