बिनु हरि कृपा
बिनु हरि कृपा


"भाईसाब, अरे भाईसाब", अनायास संकोच के बोझ से दबे हुए स्वर ! ऐसा लग रहा था जैसे उसे कोई सुन ही नहीं रहा था, या कि उसे विश्वास हो चला था कि अब दुनिया बहरी हो चुकी है; केवल उसकी आवाज़ के लिए, उसकी आवाज़ बहुत कोशिशों के बाद भी किसी के कानों तक नहीं पहुँच पा रही थी, या उसे अपने गूंगेपन का आभास हो रहा था, जोकि उसे पहले भी कई बार हो चुका था। वो हर बार ही तो टूटा था, बहुत तोड़ा था उसे वक़्त ने, किंतु जाने किस माटी का बना हुआ था वो, बिखरता नहीं था; इसलिए बार बार टूटता था। किंतु इस बार वो बिखर रहा था, उसकी आत्मा में पड़ी दरारें उसके पूरे अस्तित्व में भयंकर कम्पन पैदा कर रही थीं, ये कम्पन की तरंगें उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में परिलक्षित हो रही थीं। वो अतिशय प्रयत्नों के पश्चात् भी स्वयं को बिखरने से बचा नहीं पा रहा था, अस्तु उसका यह शेष प्रयास था कि वो भीड़ में न बिखरे; बिखरे, किंतु अकेले में !
पूरी शक्ति जुटाकर वह पुनः मिमियाया, "भाईसाब, सुनिए तो, ये मोटरसाइकिल कहाँ से पार्सल होगी ?" "हांय, क्या चीज, मोटरसाइकिल ? "ये कहाँ से पार्सल होगी, बता सकते हैं क्या ?" "उधर पता करो, इधर सामान लोड होता है।" "किधर ?" कोई उत्तर नहीं! उसने "उधर" देखा, पर बाँच न सका, "किधर" ! बहुत देर तक अलग अलग लोगों से वो पूछता रहा, "कैसे, किधर, कहाँ ??", पर उसकी आवाज़ किसी के कानों तक न पहुँचती थी। प्रभात की आँखों के सामने अब अँधेरा छाने लगा; दरारें और गहरी होने लगीं, धीरे धीरे भीतर के बिखराव को बाहर आने से रोकना असंभव सा लगने लगा। उसे इस भीड़ से घिन आने लगी, एक भी आदमी ऐसा नहीं जो सुन सके मुझे, सब बहरे हैं, मेरे लिए, सिर्फ मेरे लिए !
तीन ही महीने तो हुए थे उसे नॉएडा आये हुए ! पूर्व में चंडीगढ़ में बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था, छः अंकों में वेतन कोई कम न था; अल्प शुल्क में ही एक ठीक ठाक मकान मिल गया था, अकेले रहता था, परिवार, गृह जनपद में। परिश्रम एवम् कार्य के प्रति समर्पण के बलबूते शीघ्र ही प्रभात की गणना नवोन्मेषी कर्मचारियों में होने लगी।
अपने नवीन विचारों एवम् बहुआयामी व्यक्तित्व के बल पर संस्थान की चंडीगढ़ इकाई को आठवें पायदान से पहले पायदान तक लाने में उसे अधिक समय न लगा, ये अलग बात है कि मेवा उसके वरिष्ठों ने ही छाना; उसे संताप होता, किंतु संतोषी स्वभाव के कारण वो स्वयं में मस्त रहता। किंतु उसके मूल स्वभाव के अवगुण जो भाग्य को उस पर हंसने का बार बार अवसर प्रदान करते थे - असामयिक ईमानदारी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध त्वरित और तीखी प्रतिक्रियाएं, यहाँ भी उसके मार्ग में काँटे बो रहे थे। स्वभावतः वह अंतर्मुखी था, किंतु भ्रष्टाचार की छाया को देखते ही उसमें ईमानदारी का प्रेत प्रविष्ट हो जाता और वह तुरंत ही युद्ध का शंखनाद कर देता।
राजनीति से अप्रतिम घृणा उसकी कमज़ोरी रही है, जिसका प्रत्यक्ष लाभ लेकर उसके विरोधियों ने सदैव ही उसका अप्रत्यक्ष नुकसान किया। ये उसकी चौथी कंपनी थी, और चौथा रणक्षेत्र भी। वह एक श्रेष्ठ योद्धा रहा है, अन्तिम श्वास तक रणभूमि में डटा रहता है; भीषण मारकाट करता है, और वीरगति को प्राप्त करता है। उसकी यश गाथाएं अमिट रहती हैं; जन में उसका आचरण पूज्य रहा है, उसके प्रसंशकों की कमी नहीं है। किंतु यह यश भोगने हेतु अब वह नहीं रहता। वो एक सैनिक की भांति जीता रहा है, निर्भीक है, मृत्यु से नहीं डरता, इसलिए असामयिक मृत्यु को प्राप्त होता है !
यहाँ भी यही हुआ; वरिष्ठ व्यवस्थापक एक सिख था, उसे प्रभात का चन्दन लगाकर आना बहुत असहज कर देता। यूँ तो उसे हिन्दू रीति रिवाज़ों से विशेष चिढ़ न जान पड़ती थी, इस पर भी चन्दन उसे ब्राह्मणत्व के दंभ का प्रदर्शन प्रतीत होता; कम से कम प्रभात तो इतना ही विश्लेषण कर सका था। सरदार जी ने जब कई बार अनायास तंज और उपहास का प्रदर्शन किया, तो प्रभात ने संयम रखते हुए या कि सरदार जी को उसे यत्र तत्र अपमानित करने का अवसर न देने हेतु कार्यस्थल पर पहुँच कर चन्दन को मस्तक से हटा देना अधिक श्रेयष्कर समझा; प्रातःकालीन पूजा के पश्चात लगाया हुआ चन्दन तर्जनी से रगड़ कर मिटा दिया जाता, कार्यस्थल पहुँचने पर !
तिस पर भी सरदार जी को चन्दन का ' दाग ' असंतोष ही देता; वह मूलतः चन्दन लगाने को ही अपने धर्म का अपमान समझते। उनका मत था कि चंडीगढ़ सिख राज्य है, अतएव यहाँ सभी आत्मा से भी सिख ही लगने चाहिए। प्रभात के लिए यह एक नया अनुभव था, वह अभी तक सिख गुरुओं के बलिदान और सेना में सिख रेजीमेंट के शौर्य को सुनता, मानता, आदर करता ही बड़ा हुआ था। यहाँ उसे पहली बार अल्पसंख्यक होने का आभास हुआ. जो सदा से ही बहुसंख्यक गिना जाता रहा है; आरक्षण का दंश, मनुवादी होने का आरोप, मूर्तिपूजक, ढोंगी, घास खाने वाले और न जाने क्या क्या उपालम्भ उसे बहुसंख्यक होने पर ही तो मिले थे; पर यहाँ तो उसे अल्पसंख्यक होने का दंश भी झेलना था।
वास्तव में वो कब बहुसंख्यकों में गिना जाएगा और कहाँ अल्पसंख्यकों में, उसकी आज तक की समझ उसे इस प्रश्न का उत्तर दे पाने में असमर्थ थी। अस्तु, धैर्य से उसने इस अनुभव को भी आत्मसात किया और असंतोष को तिलांजलि देकर आगे बढ़ गया। कुछ समय ऐसे ही बीत गया, उसे उसकी कार्यकुशलता और सम्प्रेषण क्षमता के लिए प्रशंसा के स्वर भी यदा कदा सुनाये जाते, वो फूल के गुब्बारा हो जाता और चौगुने उत्साह से पुनः नवाचारों में जुट जाता। उसके नवोन्मेषी विचारों तथा दैनिक कार्यावधि के उपरान्त भी कार्य करते रहने की प्रवृत्ति, उपरान्त, गृह से भी आधिकारिक कार्यों का सम्पादन, अवकाश के दिन भी कुछ न कुछ करने की धारणा ने उसे संस्था का एक आवश्यक घटक तो बना दिया था, किंतु संस्था से मिले उपहारों एवम् प्रशास्ति-पत्रों पर उसके वरिष्ठों का ही अधिपत्य होता। होता भी क्यों न, यही तो होता है, सब जगह ही !
धीरे धीरे ये असंतोष असह्य होने लगा, वो इसलिए भी क्योंकि उसके समकक्षों और कनिष्ठों को मिलने वाले त्रैमाषिक प्रशस्ति पत्र भी उसको न मिलते, कारण उसकी समझ से बाहर था; एक कारण जो उसकी समझ में आ रहा था वो ये कि सरदार जी की मानव संसाधन विभाग में ही एक सजातीय महिला से अंतरंगता थी, और प्रभात उत्पादन विभाग ( प्रोडक्शन) का प्रमुख था; विभाग में मानव संसाधन (श्रमिकों) की अनुपलब्धता के चलते प्रायः उक्त महिला से प्रभात की नोक – झोंक हो जाया करती। तिस पर उक्त महिला के तेवर सरदार जी के साथ उसकी घनिष्टता के कारण उसके कनिष्ठ पद पर होने के बाद भी वरिष्ठता का दंभ भरते। महिला का ये अमर्यादित स्वरुप प्रभात ने पहले भी देखा था किंतु उसका इससे पाला न पड़ा था। उसे पुनः पुनः अल्पसंख्यक होने का बोध कराते ये तथाकथित बहुसंख्यक अब उसके धैर्य का बाँध तोड़ने को आतुर थे। उसकी सहनशीलता अब उसे नपुंसकता सी प्रतीत होने लगी।
दूसरा कारण, जो कुछ समय में स्पष्ट हुआ, वो था रख-रखाव विभाग (मेंटेनेंस) में समकक्ष पद पर एक अन्य व्यक्ति की नियुक्ति, जो सरदार जी के पड़ोसी जिले का ही निवासी था, सरदार जी की ही तरह मधुशाला का उपासक भी ! अभी तक अतिरिक्त कार्यभार के रूप में प्रभात ही इस विभाग का उत्तरदायित्व भी वहन कर रहा था, तथापि किसी अतिरिक्त लाभ के; अतिरिक्त की तो छोड़िये, समुचित लाभ से भी सदैव वंचित ही रहा वो। कहते हैं, " मुसीबत कभी अकेली नहीं आती", यहाँ पर भी कुछ ऐसा ही था; ये तीसरा कारण बनने जा रहा था जो आगे चलकर एक बड़े विद्रोह का रूप लेने वाला था। हुआ यूँ कि हरफ़नमौला प्रभात ने अपने परिश्रम और क्षमता का ऐसा प्रदर्शन किया था विगत छः माह में, कि सरदार जी को उसकी क्षमता असीमित और उसका कार्यक्षेत्र कुछ सीमित मालूम देने लगा। उन्होंने अपनी प्रिय सखी जो मानव संसाधन विभाग में कनिष्ठ पद पर थी, और जिसे वो संभवतः अपनी कार्यस्थलीय भार्या भी मानते थे, के विभागीय उत्तरदायित्वों का एक बड़ा भाग प्रभात की असीमित क्षमता के समुद्र में एक बूँद समझ कर समर्पित करते हुए स्वयं को धन्य समझा। तिस पर बड़ी चतुराई से प्रभात को संभावनाओं से युक्त अवसर का आभास भी करा दिया था। ये घटनाक्रम भी विद्रोह के प्रमुख कारकों में अपना स्थान बनाने वाला था।
प्रभात अत्यधिक परिश्रमी होने के साथ साथ स्वाभिमानी भी बहुत था, किसी कार्य को ' ना' कहना उसे अपने स्वाभिमान पर चोट जान पड़ती, सो समुद्र में बूदें गिरती रहीं, समुद्र ने कभी 'उफ़' न की। बूँदें नदियों का रूप लेने लगीं, किंतु समुद्र अब भी विचलित न हुआ; वो समुद्र जो था !
किंतु वातावरण का तापमान तो बढ़ ही रहा था, बढ़ते बढ़ते ये तापमान इतना बढ़ा कि समुद्र में सुनामी के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे। यह एक पिज़्ज़ा कंपनी थी, यहाँ पर मैदे की लोइयों को प्लास्टिक की क्रेट्स में भरकर रेस्तराँ में भेजा जाता था। होली दीपावली के अवसरों पर पिज़्ज़ा की खूब बिक्री होती। इस समय उत्पादन अपने चरम पर होता, सो अतिरिक्त श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती। कंपनी इस व्यय को सहन करने में पूर्ण समर्थ थी किंतु सरदार जी के घर की साज सज्जा का अवसर भी यही होता; तिस पर उनका नियमित मधुशाला पूजन का व्यय ! सरदार जी की ये विवशताएँ उनको अधर्म में भी धर्म का भान करातीं, और वो कंपनी से पैसा उगाह कर भी कम श्रमिकों की ही भर्ती करते।
इसमें उनकी सजातीय, समभाषी, समक्षेत्रीय संगिनी, समर्पण भाव से योगदान देती; वो श्रमिकों की संख्या अधिक दिखाती और उनके कार्य-समय (वर्किंग आवर्स) में समयोपरि भत्ता (ओवरटाइम) भी जोड़ देती। इस प्रकार सरदार जी की गृह सज्जा, उनका मधुशाला पूजन, और सहचरी के लिए नया आइफोन, सब एक ही मौसम में प्राप्त हो जाते। उनका बसंत वर्ष में दो ही बार, चैत्र और कार्तिक में आता हो, ऐसा भी नहीं था; बसंत उनके द्वार पर ऐसे पड़ा रहता जैसे रावण के पैरों के नीचे शनिदेव ! ये तो रहा वो पक्ष, जिसका प्रत्यक्ष कोई लेना देना नहीं जान पड़ता प्रभात नामक समुद्र में सुनामी के आने से; किंतु जो दूसरा पक्ष है उससे इसका सीधा सम्बन्ध है।
उत्पादन प्रमुख होने के कारण श्रमिकों की आवश्यकता, उनकी संख्या का सही आँकलन और समय पर उपलब्धता का सीधा संबध प्रभात से था; कम श्रमिकों के होने से उत्पादन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। उसने सरदार जी से इस सम्बन्ध में चिंता प्रकट की तो यहाँ "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी; सरदार जी ने उसे उनकी सहचरी से संवाद न करने हेतु शक्तिभर उलाहनायें दीं, संप्रेषण क्षमता रहित घोषित किया, सहचरी के प्रति द्वेष की भावना से ग्रषित बताया, कार्य में राजनीति करने का भी आरोप लगाया, असभ्य और यहाँ तक कि अनुभवहीन भी बता डाला !
प्रभात की स्थिति मानो "काटो तो खून नहीं" वाली हो गयी; ये न केवल उसकी क्षमता और दक्षता का उपहास था, अपितु उसकी कर्मठता, समर्पण और निश्छल चरित्र का दमन करने का प्रयास था। उसका स्वाभिमान अब उसे धिक्कारने लगा, क्रोध में लाल हुए उसके नेत्रों में प्रतिशोध और चित्त में विद्रोह की ज्वाला उसके विकंपित शरीर में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे। वह सीधे सरदार जी की सहचरी के पास गया और उससे श्रमिकों की उपलब्धता की जानकारी माँगी।
टाल मटोल की स्थिति ने तुरंत ही आग में घी का काम किया, और प्रभात उस महिला पर बिफर पड़ा; देखते ही देखते एक भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया, यद्यपि प्रभात ने अग्निबाणों की वर्षा में कोई कमी न रखी थी, किंतु उसके साहित्यिक शब्दों का मर्यादित चयन उसे किसी कानूनी पेंच में उलझने से बचा गया। सरदार जी के बीच में पड़ने पर उसने अपने हृदय में धधकती ज्वाला से उन्हें झुलसा ही दिया और अपने अपमान का यथेष्ट प्रतिशोध ले लिया।
रणक्षेत्र में रणभेरी की हुंकार भरी जा चुकी थी, रण से पीछे हटना प्रभात की नियति नहीं थी। सरदार जी कंपनी में विगत पंद्रह वर्षों से जमे हुए थे, शकुनी थे इस खेल के वो; अंदर ही अंदर प्रभात के विरूद्ध मुख्यालय से अभद्र व्यवहार हेतु कारण बताओ नोटिस ज़ारी करवा दिया। उधर सरदार जी द्वारा संस्तुत, रख-रखाव विभाग में नियुक्त नौसिखिये व्यवस्थापक की घोर लापरवाही से मशीनों की दुर्दशा और कलपुर्जों की अनुपलब्धता के फलस्वरूप हो रहे उत्पादन में नुकसान के लिए भी प्रभात को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा था। सब मिली भगत थी।
टालते टालते इन साहब से भी प्रभात की ज़ोरदार भिडंत हो ही गयी; परिणामस्वरुप अभद्र व्यवहार हेतु दूसरा नोटिस ! कंपनी मुख्यालय से बुलावा आया; नहीं गए, बात और बढ़ गयी। प्रभात ने भी अब आर या पार सोच ही लिया था कि जो भी हो स्वाभिमान नहीं झुकने देंगे; नौकरी जाती है तो जाये !
सब घटनाक्रम चल ही रहे थे कि एक दिन प्रभात के बी.टेक/एम.टेक के सहपाठी और अब नोएडा के सरकारी विश्ववविद्यालय में अस्थायी शिक्षक, आशीष का फ़ोन आया। आशीष ने उसे विश्वविद्यालय में एक अस्थायी ( एड-हॉक ) रिक्ति के विषय में अवगत कराया। प्रभात ने तुरंत ही हाँ कर दी, एक तो जिस नरक में वो जल रहा था, उससे बाहर आने के लिए; दूसरा, जो मुख्य कारण था, वह था शिक्षक के रूप नए जीवन की शुरुआत !
तीसरा, पढ़ने के साथ साथ डॉक्टरेट ! एम.टेक करने के बाद से ही प्रभात को पी एच डी करने की धुन सवार थी; नाम के प्रारम्भ में 'डॉ.' की कमी सदैव से ही उसे जीवन में रिक्तता का गहन आभास कराती रही थी। प्रभात बचपन से ही अत्यंत मेधावी छात्र था, द्वितीय श्रेणी तो छोड़िये, द्वितीय स्थान भी कभी उसने स्वीकार नहीं किया। दसवीं, बारहवीं, बी टेक, एम टेक, यहाँ तक कि नौकरी में आने के पश्चात् भी एम बी ए, और सैकड़ों अल्प अवधि के बहुविषयक पाठ्यक्रमों के प्रमाण पत्रों से उसकी कई फाइल्स भरी पड़ी हैं; स्थिति ये है कि यदि वह अपने सभी प्रमाण-पत्रों का मात्र नाम ही अपने बायोडाटा में संदर्भित करना चाहे, तो बीस-पच्चीस पन्ने तो यूं ही भर जायें। बहुत संक्षिप्त बायोडाटा भी चार पन्ने का है उसका ! आशीष तो बहुत पीछे रहा था उससे, सदैव ही। एक अन्य कारण था - सम्मान के साथ की मानसिक शांति; जो उसे कभी भी इस रक्तपिपासु वातावरण में, कभी न पूरी होने वाली महत्वाकांक्षाओं के जंगल में, नहीं मिल सकी थी।
प्रभात के लिए साक्षात्कार उत्तीर्ण करना बच्चों का खेल था। विभागाध्यक्ष महोदया प्रथम अवसर में ही उससे बहुत प्रभावित दिखीं। वह अतीत की सारी पीड़ा विस्मृत करके जीवन के नए पथ पर आशाओं का संसार बुनने निकल पड़ा। सरकारी स्कूटरों की तुलना में प्रभात विमान सा प्रतीत होता। जहाँ बाकी शिक्षक छूही और डस्टर से पढ़ाते, प्रभात लैपटॉप का अभ्यस्त था, हज़ारों प्रशिक्षण कार्यक्रमों को कुशलतापूर्वक संचालित करने का अनुभव संचित किये हुए यज्ञ का अश्व प्रतीत होता। शीघ्र ही छात्र, प्रभात में अभीष्ट गुरु की क्षवि को दृश्यगत करने लगे; और उससे भी कम समय में प्रभात सहकर्मियों की आँखों का काँटा बन गया। सभी शिक्षक संविदा पर भर्ती थे, अनुबंध का नवीनीकरण प्रतिवर्ष होता था जो कतई आवश्यक नहीं था। वो डर गए! इसका आभास प्रभात को तब तक नहीं हुआ जब तक कि एक अवकाश दिवस में जोर जोर से उसका किवाड़ भड़भड़ाये जाने की आवाज़ उसे सुनाई नहीं दी। वह उनींदी त्यागकर भौंचक्का सा उठा और किवाड़ खोलते ही सामने आशीष के साथ प्रयोगशाला सहायक को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ सा देखता ही रह गया।
"तुमने जो मेरे कार्यालय से शोध-पुस्तिकाओं (थीसिस) को चुराया है, वापस कर दो बस। प्रभात को कुछ नहीं समझ आया, "क्या ? कैसी शोध-पुस्तिकाएं ? किसने चुराईं, कब ? क्या कह रहे तुम ? तुम्हें कुछ भ्रम हो रहा है !" "मैं कुछ नहीं जानता, बस वापस करो जो तुमने चुराया है" "तुम चाहो तो कमरे की तलाशी ले लो, किंतु ये आरोप वापस लो नहीं तो अनर्थ हो जाएगा !" कमरे की तलाशी ली गयी, कुछ नहीं मिला, होता तब तो मिलता। प्रभात के मुख से बस यही निकला, "तुम मुझसे सीधे ही बोल देते की मेरा यहाँ रहना तुम्हें असह्य हो चला है, मैं चला जाता, इतना घिनौना आरोप लगाने की क्या आवश्यकता थी ?" इस दोगली दुनिया में मात्र स्वाभिमान जीवित रखने के लिए ही तो असंख्य कष्ट उठाये थे प्रभात ने, उसका पुन: पुन: दमनकारी प्रयत्न ही क्या उसकी परीक्षा है, किंतु कब तक ? यदि शेष लोगों में स्वाभिमान की यत्नपूर्वक रक्षा करने का पुरुषार्थ नहीं है, तो इसमें प्रभात का क्या दोष ? यदि प्रत्येक पुरुष को त्याग की शक्ति नहीं मिली तो क्या वह स्वाभिमान का ही त्याग कर दे ? मिथ्या आरोपों से बिंधी हुई आत्मा को लेकर प्रभात से जिया नहीं जा रहा था। उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला पुन: धधक उठी, किन्तु अभी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। युद्ध लड़ते लड़ते अब वह थक चुका था; क्यों सत्य का पथ इतना कठिन है ? बार बार उसे एक ही चौपाई याद आ रही थी, "बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥"
उसे पछतावा इस बात का था कि क्यों उसने उस नीच मिथ्यावाची की गर्दन उसी क्षण न मरोड़ दी। कदाचित् वह कृतघ्न नहीं था; आरम्भ में कुछ दिवस उसी नीच के घर शयन एवम् भोजन से उसके चित्त में कृतज्ञता का भाव विद्यमान था, जो उसके आत्मसम्मान को आघात पहुँचाने वाले को प्राणदान दे गया था, यथा, "चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग"। प्रभात को वो चन्दन लगाने वाली बात स्मरण हो आई, जो पिछली नौकरी में उसके और सरदार जी के प्रथम मनभेद का कारण बनी थी।अब प्रभात को विश्वास को चला था कि उसका चन्दन होना ही सर्पों को उसकी ओर आकर्षित करता है, उसकी सुगंध उनमें द्वेष उत्पन्न करती है; तो क्या वो चन्दन से बबूल बन जाए ? पूरी रात वह सो न सका, एक गीत बार-बार सुनता जाता,
"कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे, उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे....."
घायल आत्मा की व्यथा आँखों के किनारों से बहती जाती ! रात थी कि कटती ही नहीं थी। उजाला हुआ, किसी तरह शव हुए शरीर को उठाकर नहाया धोया, पानी पिया पर कुछ खाया नहीं गया। "वो छोड़ देगा विश्वविद्यालय, तोड़ देगा आशाओं से बुने हुए स्वप्न", सोचता हुआ कुछ अनिर्णीत सा फिर बैठ गया, पुनः उठा, "छात्रों का क्या होगा ? उनकी तो परीक्षाएं होने वाली हैं, मैं क्या कहूँगा उनसे ?" सोचते सोचते उठा, वस्त्र पहने और विश्वविद्यालय की ओर चल पड़ा। सबसे पहले प्रशासनिक भवन गया ताकि विभागाध्यक्ष महोदया को घटना से अवगत करा सके; किंतु हाय रे भाग्य ! महोदया अवकाश पर चली गयी थीं। प्रभात ने अब सोचने में अधिक समय न लगाया; छात्रों से सीधे मिलकर अपने प्रस्थान की सूचना दी, उन्हें पठन सामग्री भेंट की, और वापस कमरे पर आ गया। सो गया, रात में जगा। मोटरसाइकिल कैसे जायेगी, सामान कैसे जाएगा, अंतरजाल पे ढूंढकर सब पक्का किया। पुनः पूरी रात सो न सका। सुबह होते ही नॉएडा से निजामुद्दीन, मोटरसाइकिल पर ही चल पड़ा। कुछ एक घंटे में ढूंढते हुए स्टेशन पहुँच गया। शरीर से थका हारा, आत्मा से टूटा हुआ, सबसे पूँछता , "कहाँ, किधर ?"
"क्या हुआ भाईसाब, बड़े परेशान दिख रहे हैं, क्या हुआ, कुछ बताइये तो सही ?" बहरों की भीड़ में से एक सुनने वाला निकल आया था। "शिक्षक हूँ, नौकरी नहीं...", प्रभात ने कुछ छुपाते, कुछ बताते सारा किस्सा उन सज्जन को बता दिया। "अरे भाईसाब ! आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं, आइये मेरे साथ..", उन सज्जन ने न केवल प्रभात को गाड़ी भेजने का सारा तरीका बताया अपितु गाड़ी बुक कराकर ही मुक्त हुए। प्रभात की आँखे तरल हो गयीं; बहुत प्रयास करने पर भी छलक ही गयीं। "कोई बात नहीं भाईसाब, भगवान् परीक्षा लेता है, हमें धैर्य रखना चाहिए, आप शिक्षक हैं, मेरे बच्चों को आशीर्वाद दीजिये।" "भाईसाब, कुछ.." प्रभात आगे कुछ बोलता, इससे पहले ही वो सज्जन बोल पड़े, "मैंने कहा न भाईसाब, आप शिक्षक हैं, बस मेरे बच्चों के अच्छे भविष्य का आशीर्वाद दीजिये, मेरी बस यही कामना है।"
तम के घोर अन्धकार में डूबे हुए प्रभात को एक आशा की नयी किरण दिखाई दे रही थी। वह सोच रहा था कि, "कहाँ वो आशीष जिसको मैं सोलह वर्षों से जानता था, जिसकी न जाने कैसे कैसे अवसरों पर सहायता की मैंने; उसे जानने में मुझे सोलह वर्ष लग गए, और कहाँ ये सज्जन जिन्हें जाने हुए मुझे एक घंटा भी न हुआ था !" वह अवाक था, किंतु अब उसके शुष्क रदपुटों पर हलकी संतोष भरी मुस्कान की एक क्षीण ही सही, स्पष्ट रेखा बिम्बित हो रहित थी। आकाश की ओर देखते हुए बार बार दोनों हाथ जोड़े वह मन ही मन जप रहा था,
"अब मोहि भा भरोस हनुमंता,
बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता।
सुनहु विभीषन प्रभु कै रीती,
करहि सदा सेवक पर प्रीती।"
निशान्त मिश्र