रामतत्व की महिमा
रामतत्व की महिमा
विगत दिवस, रामायण के पुनर्प्रसारण की अंतिम कड़ी के साथ संपन्न हुआ। भाव विह्वल हृदयों की भक्ति दृगजल के रूप में कपोलों पर परिलक्षित हुई होगी। तीन दशक पश्चात् रामायण के पुनर्प्रसारण की कल्पना किसी ने भी न की होगी; तथापि मन में ९० के दशक में चित्रपट की उन भक्तिमय स्मृतियों के पुनर्जीवित होने की आकांक्षा एक टीस सी हृदय में सदैव अंकित रही होगी।
किंतु यह एक पक्ष है! यदि रामायण का पुनर्प्रसारण किसी सामान्य वातावरण में होता, तो बहुत संभव है कि आप दूरदर्शन की ओर अपना रिमोट घुमाते ही नहीं; व्यक्तिगत कारण भिन्न भिन्न हो सकते हैं, मूल तो समयाभाव और उससे भी अधिक, भक्ति - भाव का उत्पन्न ही न होना! आधुनिक समय में वह वातावरण ही नहीं मिलता; वातावरण से तात्पर्य उस सामाजिक व्यवस्था से है जो इस प्रकार के मृदुल मनोभावों से हमें मीलों दूर ले गई है। सरकारी, गैर सरकारी निकायों में चाकरी करते अथवा लाभांश की गणना में हमारी अपेक्षाएं नित नवीन रूप लेती रहती हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान की चाह में हम आध्यात्मिक रूप को तिरोहित करते करते मौद्रिक हो चुके हैं; आंशिक हुए या पूर्ण रूप से, यह विवाद माथे पर उभरती, सिमटती - फैलती रेखाओं में सन्निहित है।
इस विकट समय में भक्ति पूर्ण मनोभावों का जागृत होना कदापि संभव न था; अस्तु प्रकृति हमें तीन दशक पीछे ले गई, जहां इन मनोभावों की संकल्पना हेतु वातावरण उपस्थित था। अन्य तथ्यों पर विचार करें, तो रामायण की विचारधारा के मूल विरोधी तत्व अब भी उपस्थित अवश्य थे, किंतु जैसे तब रामायण अबाध बही, वैसे आज भी!!
किंतु श्री रामचरित की भक्ति में नहाए लोगों के हृदय में रामायण की रिक्तता कभी न थी, न होगी; तथापि वो लोग भी, रामायण का संचार आधुनिक परिवेश में मेट्रो - संतति में कर सकते, इसमें अपार संदेह है।
तीन दशक पूर्व, बाल्यकाल में श्रीराम - चरित में अपने बालमन की छवि और युवामन में पुरुषोत्तम की संकल्पनाएं अब अपना स्वरूप परिवर्तित कर चुकी हैं। वर्तमान की प्रसन्नता, भविष्य की चिंता का रूप ले चुकी है। सुख - साधन की लिप्सा में मनुष्य का विवेक, रामायण को एक दंतकथा; बहुत हुआ तो युगातीत विस्मृत पृष्ठ मान, उसे दैनिक पूजा पाठ तक सीमित कर चुका है।
बटोर लेना चाहता है; अपने लिए नहीं तो अगली पीढ़ियों के लिए, यश से न मिले तो अपयश के साथ ही, स्वाभिमान से न सही तो अपमान से ही सही, बस मिलना चाहिए! फलाने को देखो, ढिकाने ने क्या क्या उखाड़ दिया, हम तो वहीं रह गए!!! ऐसे में कोई रामायनी रहे तो कैसे ? जो कभी नहीं थे, वो किसी ऐसे को देखना भी नहीं चाहते; जो हैं, अपने दुर्भाग्य पे रोते रहते हैं।
कोरोना जाए तो एक बार..........!!
राम (श्रीराम) का अर्थ है, "(मेरे)हृदय का प्रकाश", और रामायण का "राम की यात्रा (राम+अयन)", इस प्रकार रामायण का अर्थ है, "(मेरे) हृदय (भीतर) के प्रकाश की यात्रा" !!
"रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते”
राम नाम के अर्थों में 'स्व' का प्रतिबिंब सभी संदर्भों में मिलेगा, किंतु यह 'स्व', प्रकाशित 'स्व' है; रामायण, 'स्व' को प्रकाशित करने का यंत्र है, यात्रा है। आधुनिक 'स्व' से प्रकाशित 'स्व' की यात्रा ही रामायण है; जहां कण कण में राम ही राम हैं, प्रकाश ही प्रकाश !!
"रमते कणे कणे इति रामः"
वही राम घट-घट में बोले ।
वही राम दशरथ घर डोले ।
उसी राम का सकल पसारा ।
वही राम है सबसे न्यारा ।।
" राम " के अर्थ सरल - गूढ़, इन सीमाओं में नहीं बंधे हैं।
यह विचार आज बहुतेरे हृदयों में प्रकाश कर रहे होंगे, किंतु समय - यात्रा के किस पड़ाव पर यह विचार पुनः तिमिर की भेंट चढ़ जाएं, कहा नहीं जा सकता। विचारों का पुष्ट होना अभ्यास और ध्यान का विषय है, और यह ध्यान आधुनिकता में भटकते हुए नहीं लगेगा; एक ही मार्ग है, नित्य मानस अध्ययन की परंपरा का निर्वहन! प्रकाश के पश्चात् तिमिर का नियम है, स्थायी कुछ भी नहीं, किन्तु हृदय के प्रकाश को बनाए रखना अभ्यास से संभव है।
कुछ भी अकल्पनीय नहीं, कल्पनीय भी घटित होता है! पूर्वाग्रहों को किनारे रखकर, अंधकार से प्रकाश की यात्रा में रामायण हमें पुनः ले आती है।
"तमसो मा ज्योतिर्गमय"