निशान्त मिश्र

Abstract

4.5  

निशान्त मिश्र

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कागज़ की कश्ती, बारिश का पानी

कागज़ की कश्ती, बारिश का पानी

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" मुझे बहुत डर लगता है नाव पर बैठने से"

" अरे सर, ये कोई कागज़ की नाव थोड़े ही है, जो डूब जाएगी"

" लेकिन..."

" अरे आप बहुत डरते हैं, पहले कभी नहीं बैठे क्या नाव पर?"

"बैठा तो हूं, लेकिन हर बार जाने क्यों लगता है कि नाव पलट गई तो..."

" गंगाजल लेना है कि नहीं आपको?"

"गंगाजल किनारे भी तो मिल सकता है, तो बीच मझदार में क्यों जाएं?"

"अरे आप देख नहीं रहे हैं कितना गंदा पानी है किनारे पर!"

"लेकिन....सही कह रहे हो, किनारे बहुत गंदा पानी है, उस तरफ पानी साफ है, चलो...बैठते हैं नाव पर!"

"आप भी ना..."

हम दोनों नाव पर बैठ गए। चढ़ते समय डर तो लगा, फिर सोचा, "किनारे पानी गंदा है, उस पार थोड़ा साफ है" और नाव चल पड़ी।

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इस बार लगभग १ साल बाद ये संयोग बना था; अब मनीष भी दूसरी कंपनी में नौकरी करने लगा था, कानपुर से बहुत दूर इंदौर में। मैं तो पहले ही कानपुर छोड़ गया था। एक समय हम दोनों हर हफ्ते आनंदेश्वर के दर्शन को आया करते थे, प्रत्येक रविवार। कारण, एक ही कंपनी में थे, और निवास भी कानपुर। अब तो दुर्लभ हो चला है ये संयोग कि दोनों को एक साथ अवकाश मिल सके; हां, होली - दीवाली पर ये संयोग बनने की संभावना दीख पड़ती है।

बीच धारा में पहुंच कर जाने क्यों मेरा डर बढ़ जाता है। किंतु, यहां से किनारे खड़ी नावों को देखने का अपना आनंद है।

"अरे...बूंदाबादी होने लगी, बारिश होगी!"

"बारिश..." "नाव तो नहीं डूब जाएगी?"

"अरे साहब, ये कागज़ की नाव थोड़े है कि डूब जाएगी!"

"भाई, कागज़ की नाव नहीं डूबती, बहुत दूर तक जाती है!"

"अरे आप भी ना; बात बात पर बचपन में पहुंच जाते हो!" मनीष ने हंसते हुए कहा।

"हां यार, बचपन की बारिश और कागज़ की नाव....कितना आनंद आता था ना!" "अब तो कोई बच्चा नाव चलाते दिखता ही नहीं, न कोई बारिश में भीगता है।"

"अरे साब, अब किसे फुरसत है, आजकल के बच्चों को डोरेमॉन, और यू-ट्यूब में ही मज़ा आता है।"

"सच है.....", कहते कहते मैं अतीत की स्मृतियों में अपना खोया हुआ बचपन ढूंढने लगा।

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ज़ोरदार बारिश हो रही थी। छत से बहकर पनालियों से गिरती पतली पतली धारों ने फर्श पर एक छोटी सी गड्ढेेनुमा आकृति को जन्म दिया था; ये कंचे खेलने के लिए बारिश का उपहार था मुझे! तड़ - तड़ गिरती बारिश की बूंदों को एक छोटे तालाब में बदल देना कोई मामूली बात न थी; किंतु मैं हार कहां मानता था। गर्मियों में कॉलोनी का ऊपर का मकान हमेशा ही नीचे वाले मकान से ज्यादा गरम रहता है, तो बारिश का आनंद भी उसी मकान के हिस्से आता है। "एक हाथ दे, और एक हाथ ले" यही तो प्रकृति का नियम है; बिना कष्ट, सुख नहीं मिलता। इस तरह के छोटे छोटे नियम, प्रकृति बचपन से हमें सिखाती चलती है ताकि बड़े होने पर हम दुखों में छुपे सुख की परिकल्पना को दृष्यगत कर सकें।

लकड़ी का दरवाज़ा सालों साल बारिश का आनंद लेने के एवज में कुछ गल सा गया था, नीचे से टूट भी गया था। बारिश में भीगने के आनंद का इतना 'कर' तो बनता ही था।

मैं उस टूटे हुए भाग में जूट की बोरी, कपड़े जो संभव होता, भर देता, बारिश के पानी को रोकने के लिए। मेरी यह मेहनत व्यर्थ न जाती। आंगन शीघ्र ही एक छोटे से तालाब का रूप ले लेता। हां, ये सब इस पर निर्भर करता कि बारिश देर तक हो। एक बार आंगन में पानी भर जाता तो मैं अपनी कागज़ की छोटी बड़ी नौकाओं को उस समुद्र में उतार देता। हिचकोले खाती नौकाएं बहती हुई आंगन के ढलान की ओर भागतीं, जैसे नदियां समुद्र में मिल जाने को आतुर जान पड़ती हैं। तभी, नौकाओं के लिए समुद्र बन गए उस तालाब में एक बड़ा जीव प्रविष्ट होता है, इधर उधर तैरता है; नौकाएं भय से इधर उधर भागती हैं। वह बड़ा जीव मैं होता। मैं नौकाओं को डूबने से बचाता और उन्हें आश्वस्त करता कि मैं राक्षस नहीं हूं, मैं तो पवनपुत्र हनुमान हूं जो श्री राम के आदेश से तुम्हें समुद्र पार कराने आया हूं।

"जय श्री राम, जय श्री राम" के उद्घोषों से पूरा समुद्र हिल जाता। अब बारिश थमने लगी है, और नौकाएं स्थिर होने लगी हैं; पवनपुत्र को धन्यवाद् दे रही हैं। किंतु, पवनपुत्र को ये नहीं रूचता। तत्क्षण ही पवनपुत्र उठ खड़े होते हैं, और बालरूप में आ जाते हैं; इस बालरूप में उन्हें अपनी शक्तियों की स्मृति नहीं रहती। वो मकान के मुंडेर से नीचे झांकते हैं, और नीचे थम गई बारिश में बहती हुई नालियों में तैरती नावों को देखकर बालसुलभ क्रीड़ाओं के वशीभूत हो मकान का दरवाज़ा खोलकर समुद्र को अभयदान देते हैं, तत्पश्चात् अपनी सभी नौकाओं को लेकर वट वृक्ष के समीप क्रीड़ा करते बालसमूह की ओर दौड़ पड़ते हैं। मां अंजनी रुकने को कहती हैं, वो नहीं रुकते; उन्हें नदियों की धाराओं से लड़ती नावों को पार जो लगाना है।

बरगद के इर्द गिर्द कच्ची मिट्टी में बारिश के पानी से बनी हुई नदियों में नावें तैर रही हैं; कोई नाव नदी में हिचकोले खा रही है, तो कोई तेज बहती नदी में द्रुत गति से बढ़ी जा रही है। पवनपुत्र के आशीर्वाद से कोई नाव डूबती नहीं। जय श्री राम के उद्घोषों से आकाश कंपायमान हो उठता है। पूरी की पूरी सेना है यहां तो, कैसे कोई नाव डूब सकती है।

कुछ नावों पर चींटे बिठा दिए गए हैं, मानो लंका से गुप्तचर बन कर आए हुए राक्षस हों, जिन्हें वानरों के द्वारा यथाचेष्ट दंड की घोषणा की गई हो। चींटे नाव के चारों ओर भागते हैं, किंतु छोटी छोटी नालियां उन्हें समुद्र सी प्रतीत होती हैं। वानर समूह उल्लसित हो श्री राम के उद्घोषों से उन राक्षसों के हृदय में उत्पन्न भय को और बढ़ा देते हैं। अतीव भय से कंपित कुछ राक्षस समुद्र में कूद जाते हैं, पर ज्वार के अतिरेक से बच नहीं पाते। एक राक्षस किसी तरह श्री राम के चरणों तक पहुंचने में सफल हो जाता है, अभयदान हेतु विनय करता है। शरणागत को प्रभु सदैव अपनाते हैं; तुरंत ही वानरों को राक्षसों पर अत्याचार रोक देने हेतु आदेश देते हैं। अब मैं श्री राम के रूप में हूं। "जय श्री राम" के उद्घोषों से पुनः चहूं दिशाएं गूंज उठती हैं।

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"सर, अरे सर...कहां खो गए? बारिश तेज़ हो रही है, जल्दी से गंगाजल भर लीजिए।" मनीष के स्वरों से जैसे मैं नींद से जागा।

"हां, बारिश तेज़ हो रही है" कहकर मैं साथ लाई कैन में गंगाजल भरने लगा। विशाल गंगा में हाथ डालते मेरे हाथ कांपते हैं। किंतु मां गंगा पर विश्वास मुझे साहस देता है। बहुत प्रयास करने पर, एक बार में थोड़ा ही गंगाजल कैन में भर पाता; कैन को फिर से बाहर निकालकर पुनः गंगा की धार में डुबोना पड़ता।

इसी तरह तो स्वयं को बार बार डुबोना पड़ता है, थोड़े से गंगाजल के लिए! मैं फिर से अतीत की उन गलियों में जा पहुंचा; कागज़ की नाव और बचपन की बारिश में!

कोई कहता, "कागज़ की नाव बहुत दूर तक नहीं जाएगी!"

"कैसे नहीं जाएगी, क्यों नहीं जाएगी??"

"बारिश बंद हो चुकी है, अब नाव आगे नहीं जाएगी!"

बालसुलभ मन ये मानने को कतई तैयार न होता कि नाव आगे नहीं जाएगी। उसकी बातों पर बड़े हंसते, किंतु उस कोई फर्क न पड़ता। उसने बाबा जी के मुख से सुन रखा था, "धीरज धरे सो उतरे पारा", और उसे श्री राम पर पूर्ण विश्वास था।

उसका ये विश्वास मिथ्या नहीं था, बस कागज़ की नाव के रूप बदलते गए। जैसे जैसे वो बड़ा होता गया, कागज़ की नाव अपने रूप बदलती गई। पहले पहल हाईस्कूल, फिर इंटरमीडिएट, फिर इंजीनियरिंग के प्रमाण पत्रों के रूप में कागज़ की नाव उसे जीवन रूपी नदी में बार बार आगे बढ़ने को प्रेरित करती। किंतु बार बार रूप बदलती है। अबकी बार नोटों के रूप में है, कागज़ की नाव! बिना इस कागज़ की नाव के वो मझधार में ही डूब जाता। किंतु कागज़ की नाव रूप बदलना नहीं छोड़ती। अब प्रशस्ति पत्रों, प्रोन्नति का संदेश लिए लिफ़ाफे के रूप में कागज़ की नाव उसे मझधार से पार ले जाने का आश्वासन देती है। वह ये लोभ संवरण नहीं कर पाता है। किंतु, बीच नदी में बारिश होने लगती है; वह भयग्रस्त हो जाता है। तभी उसे कागज़ की नाव में रखे चींटों की स्मृति हो आती है। वह श्री राम से गुहार करता है, बचाने के लिए। वानर समूह उस पर ज़ोर ज़ोर से हंसता है। श्री राम भी उससे कुछ रूठे हुए प्रतीत होते हैं, कभी कभी। आखिर वो क्यों इन नावों के बदलते रूपों को समझ नहीं पाता, क्यों बार बार वो चढ़ जाता है इन नावों पर, जिनकी यात्रा कभी ख़त्म ही नहीं होती!

वो श्री राम से विनय करता है, उनकी शपथ लेता है कि वह अपने मन से इन नावों पर नहीं चढ़ता! ये तो उनकी ही सेना के वानर उसे उठा कर इन नावों पर रख देते हैं। भक्तवत्सल पिघल जाते हैं, मुस्कराते हुए स्वयं ही नाव समेत उसे बाहर निकाल लेते हैं। जय श्री राम के उद्घोष के साथ ही वो उनके पद्म चरणों पर निढाल हो लेट जाता है। किंतु कुछ समय बीतते ही बारिश फिर शुरू हो जाती है। फिर से वो स्वयं को एक अन्य कागज़ की नाव में पाता है। वो सोचता है, किसने बिठा दिया उसे इस कागज़ की नाव में? सच्चाई तो ये है कि चारों ओर बारिश देखकर वो स्वयं ही कागज़ की नाव में कूद जाता है; नाव को डूबता देख श्री राम से गुहार लगाता है, शपथ देता है कि वह स्वयं नाव में नहीं बैठा....!

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"सर...अरे सर, किनारा आ गया है। गंगाजल नहीं भरा क्या अब तक?"

"हैं..??" मैं चौंककर अतीत की स्मृतियों से बाहर आया।

"किनारा आ गया है? बड़ी जल्दी!"

"अरे आप न जाने कहां खो जाते हैं!"

मैं मुस्करा दिया; किंतु इस मुस्कान में हृदय की पीड़ा को छुपा न सका। हां, बारिश की बूंदों ने मेरे दृगजलों को एक क्षद्म आवरण से ढक दिया था।

"मैं चींटा ही तो हूं, उस कागज़ की नाव में; जो पुनः पुनः अपना रूप बदलती रहती है। न जाने कौन मुझे हर बार उस नाव में बैठा देता है, या कि मैं स्वयं ही...?? और विकल्प भी क्या है? जीवन की इस नदी को पार करने के और साधन भी क्या हैं??"

मां गंगा और भोलेनाथ को पुनः प्रणाम करके हमने गृह को प्रस्थान किया। रास्ते में, बगल से निकलती हुई एक कार में गीत सुनाई दिया,

"मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी.."

मैं फिर से मुस्करा दिया; आंखें फिर छलछला आईं, मैं फिर से अतीत की उन स्मृतियों में डूब गया था।

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