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निशान्त मिश्र

Action Children Inspirational

4.3  

निशान्त मिश्र

Action Children Inspirational

प्रथम पुरस्कार

प्रथम पुरस्कार

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“प्रथम पुरस्कार पाया है”, उद्घोषणा होते ही प्रभात की आँखों में आशा चमक सी कौंधी, “द्वितीय ‘क’ के छात्र भैया.....”, “प्रभात की हृदयगति तेज़ होने लगी, “वैभव शुक्ल जी ने”, एक झटका सा लगा छः वर्ष के बालक को ! एक बहुत गहरी श्वास भरते हुए एक भारी श्वास छोड़ने का स्वर ! अतुल, प्रभात का अभिन्न मित्र अकस्मात् ही चौंका, “क्या हुआ भाई, ठीक तो हो ?”, “ह...हाँ !” प्रभात की निःशब्द सी प्रतिक्रिया !


ठीक एक महीने पहले, “डॉक्टर साहब! कोई चिंता की बात तो नहीं है? सब ठीक है न?”, प्रभात की माता जी का भर्राया हुआ स्वर सुनकर डॉक्टर टंडन उन्हें कुछ ढाढस बंधाते हुए बोले, “हाँ भाभी जी, ठीक है; बुखार बढ़ गया जान पड़ता है”, “नहीं तो कितना है अभी?” प्रभात के पिताजी के माथे पर चिंता की लकीरें और गहरी हो गयीं। “एक सौ चार हो गया है, भाईसाब”, “एक सौ चार?” प्रभात के पिताजी को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, “ऐसा कीजिए एक बार फिर से तो देखिये, मुँह खोलो, सही से”, प्रभात के पिताजी एक ही स्वर में क्रमशः डॉक्टर टंडन और फिर प्रभात से बोले। उनके स्वर में घबराहट और पुत्र के प्रति स्नेह और बढ़ती हुई चिंता को बरबस झुठलाने का असफल प्रयास स्पष्तः दृष्टिगत हो रहा था। बड़ी मुश्किल से प्रभात ने मुँह को पूरा खोला, और डॉक्टर साहब ने पुनः थर्मामीटर उसकी जीभ के नीचे रख दिया, “जीभ से दबा लो बेटा, कोशिश करो, हाँ, ठीक है”, “एक सौ...पांच !”, पांच है भाईसाब। “क्या किया जाए, अस्पताल ले चलें..कि..क्या ठीक रहेगा आप के हिसाब से?” प्रभात के पिताजी अब निर्णायक स्थिति में आने में तनिक भी विलम्ब को किसी अनहोनी की आशंका मान चुके थे। तभी रोने का स्वर सुनाई दिया, “क्या हुआ भैया को, कुछ बाहर का भी तो नहीं खाता, घूमने भी तो नहीं जाता लाल मेरा” “चुप रहो! तुम्हारे रोने से कुछ होगा? धैर्य रखना चाहिए ऐसे समय में, डॉक्टर साहब काहे के लिए आये हैं?”, स्वयं धैर्य खोते हुए पिताजी ने माताजी को जोर से डांटा। सत्य तो ये था कि वो कुछ भी ऐसा सुनना नहीं चाह रहे थे जो उनके विश्वास को तनिक भी अस्थिर कर दे, जबकि अविश्वास का पुट उनकी वाणी से घबराहट के स्वरों में स्पष्ट प्रतिबिंबित हो रहा था। “इनको ये सिरिंज लगवा दीजिये, और ये दवाएं पाउडर के रूप में दे दीजियेगा”, डॉक्टर साहब के वाक्य को पूर्ण करने के लिए अधीरता बढ़ गयी थी प्रभात के पिताजी के मन में, “सुबह तक देख लीजिए एक बार, बताइए मुझे, बुखार कम होना चाहिए, पट्टी बदलते रहिएगा, ग्लूकोस ज़रूर पिलाते रहिये”, डॉक्टर साहब ने अपना वाक्य ज्यों पूर्ण किया, आशा की कुछ किरणों ने भयाक्रांत माता-पिता को कुछ सांत्वना दी। डॉक्टर साहब चले गए। माताजी की रात भर पंखा झलने और पट्टी बदलने में ही बीती। सुबह की प्रतीक्षा हो रही थी, वो कहते हैं न कि दुःख समय काटे नहीं कटता, ऐसी ही प्रभात के परिवार के लिए थी वो रात !


सुबह हुई, “माँ...”, “हाँ मेरे लाल, माँ यहीं है, तुम चिंता न करो बेटा”, हर्ष-शोक, क्या भाव थे, कहना थोड़ा कठिन है। “पानी पियोगे बेटा ? ये लो।” बहुत प्रयासों के पश्चात् प्रभात तखत से थोड़ा उठा, कुछ बूँदें गटकीं, और निढाल सा लेट गया, तेज़ ज्वर ने छः वर्ष के बालक के शरीर में कुछ न छोड़ा था। पुत्र की ये स्थिति देखकर माता को बहुत दुःख हुआ, किंतु बच्चे को ढाढस बंधाना अधिक आवश्यक था, सो वो “ठीक हो जायेगा, ठीक हो जाएगा” दोहराते हुए पंखा झलने लगीं।


संध्याकाळ होते होते प्रभात के शब्दों की संख्या बढ़ने लगी। पिताजी भी कार्यालय से अवकाश लेकर प्रतिदिन की अपेक्षा कुछ नियत समय पर आ गए, “कैसी तबियत है अब ?”, ये उन्होंने माताजी से पूछा। “अब पहले से कुछ ठीक है”, “कुछ खाया पिया ?”, “नहीं, पानी पिया, और दो बूँद ग्लूकोस, बस”, “अरे तो ऐसे कैसे ठीक होंगे....चलो” एक दीर्घ और संतोष की श्वास भरते हुए बोले, “पहले से तो ठीक है, हाँ ?” इन सबके बीच प्रभात कुछ बोलने को हुआ किंतु व्याधि से टूटा शरीर पुनः निढाल हो गया, तथापि बच्चे ने हिम्मत न हारी और पूरा जोर लगाकर एक ही शब्द बोला, “परीक्षा !” और पुनः अचेत सा लेट गया, अनकहे स्वरों की वेदना दृगजल के रूप में कोमल कपोलों पर ढुलक चली।


सभी मासिक, त्रैमासिक, और अर्धवार्षिक परीक्षाओं में वर्ग में सदैव प्रथम स्थान ही प्राप्त किया था प्रभात ने, द्वितीय स्थान की छाया तक उससे कोसों दूर रही थी; इससे कम बालक को कुछ सह्य ही नहीं था। पुस्तकें ही उसका संसार थीं, उसके मित्र, बांधव, और सखियाँ, सब पुस्तकों के ही पात्रों में उसे मिल जाते। पुस्तकों के अतिरिक्त जैसे संसार में कुछ था ही नहीं उसके लिए। न दूध, न भोजन, और न ही टीवी, ये बस उसके लिए उसी प्रकार से थे जैसे घर में रखी हुई अन्य निर्जीव वस्तुएं ! मोहल्ले में खेलते हुए बच्चों, और खिलौने वालों को वो अपने आँगन से ही देख कर खुश हो लेता; उनके पास जाने को वो कभी लालायित न दीख पड़ता। अन्य बालसुलभ हाथ भी उसमें कभी न दीख पड़ते, पुस्तकों से इतर उसे कुछ दिखता ही कहाँ था।


ऐसी उम्र में ही एक योगी सा जीवन उसे अपने माता-पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था, माता एक साधारण सी वेशभूषा में रहतीं, भोर में सूर्योदय से पूर्व जागकर ईश आराधना, सूर्य को जल, गृह शुद्धि, पश्चात् फूलों को चुनकर लाना, और उन्हें धोकर डेल्ची में सजाना, अक्षत-जल इत्यादि लेकर नित्यप्रति पूजा हेतु मंदिर जाना और वापस आकर अपने लाडले के लिए चाय पराठा बनाना, पिताजी के लिए भोजन तैयार करना, उक्त समस्त कार्यों से निवृत्त होकर श्रीरामचरितमानस की चौपाईओं और भजनों में मग्न रहना। पश्चात्, पौधों को पानी देना, गमलों को व्यवस्थित करना, आँगन की साफ़ सफाई, यही उनकी दैनिक व्यस्त्चर्या थी। इसमें उन्हें अपार संतोष होता, तथापि उन्हें कभी थका हुआ नहीं जाना। माँ कभी थकती कहाँ है, वो तो है ही श्रृष्टि की छाया, धरा पर, अन्नपूर्णा उसे ऐसे ही तो नहीं कहते ! किंतु प्रभात के लिए तो उसकी माता ही उसकी अकथनीय शिक्षक थी, विद्यालय गमन से पूर्व वो माताजी की दिनचर्या का किसी चिड़िया के बच्चे जैसा अवलोकन करता, “अक्षत क्या होता है ?”, “इसे डेल्ची कहते हैं क्या ?”, “ये फूल कहाँ से लायी माँ ?”, “कितने सुंदर फूल हैं, इनमें खुशबू भी है !” जैसे बालसुलभ प्रश्नों को बार बार पूछता, और माँ उसके प्रत्येक प्रश्न का बिना खीझे बार बार उत्तर देती, दुलारते हुए, “हाँ बेटा, इसे भगवान जी को चढ़ाना है ना”, “एक फूल मैं ले लूँ ?” उसकी जिज्ञासा उसे दम न लेनी देती। माँ के साथ उसने चिड़ियों को चावल देना सीखा, पौधों को पानी देना, और शिव की आराधना करना भी। वास्तव में, माँ ही मनुष्य की प्रथम शिक्षक होती है। माँ के सानिध्य में ही उसने प्रकृति में व्याप्त अलौकिक सुन्दरता का आभास करना सीखा था।


पिताजी विश्वविद्यालय के कार्यों चलते अत्यधिक व्यस्त रहते। किंतु पढ़ाई लिखाई की प्रगति पूछते रहते। “कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती”, ये उसने पिताजी से ही सीखा था। पिताजी, रामलीला कार्यकारिणी में महामंत्री भी थे, सो रामलीला के आयोजन से सम्बंधित कार्ययोजनाओं में भी वो व्यस्त रहते। प्रभात, रामलीला से सम्बंधित पत्रों का भी अवलोकन करता, कार्यक्रम की दिग्दर्शिका, निमंत्रण पत्र लेखन, व्यय का लेखा - जोखा इत्यादि भी उसकी जिज्ञासा के पात्र होते। मंच संबोधन तथा स्मारिका के प्राक्कथन, नाट्य शैली में लिखे गए शुद्ध हिंदी के वाक्यों को वह पूर्ण रूप से समझ न पाता तो उनको पेन्सिल से अंडरलाइन कर लेता, और पिताजी जब विश्राम की अवस्था में दिख पड़ते तो धीरे से उन सभी शब्दों के अर्थ अपनी स्मरण पुस्तिका में संजो लेता। उसकी २०० पृष्ठों की स्मरण पुस्तिका में विभिन्न पुष्पों की कलियाँ, मोरपंख और समाचार पत्रों में छपी कहानियाँ भी संलग्न रहतीं। यही उसका संसार था।


पुत्र की वेदना को एक माता कैसे न समझती, “तुम ठीक हो जाओ भैया, परीक्षा फिर दे लेना, परीक्षा ही तो ले रहे हैं भगवान !” ये अंतिम पंक्तियाँ उन्होंने बहुत धीमे स्वर में, भरभराई हुई आवाज़ में कहीं। “परीक्षा...भगवान...!”, प्रभात के मस्तिष्क में ये अंतिम शब्द जो बहुत ही धीमे स्वर में कहे गए थे, ही सबसे तेजी से कौंधे; “परीक्षा ही तो ले रहे हैं प्रभु !” उसके चित्त में सत्य का प्रस्फुटन हुआ, एक ही समय में विविध “परीक्षा – प्रंसग” उसके चित्त के दौर्बल्य को हरने लगे; “भगवान् राम का वन गमन” इन प्रसंगों में सर्वाधिक प्रासंगिक लगा उसे। “किंतु वो तो भगवान थे”, बालमन और क्या तर्क करता स्वयं से; तभी प्रभात को एक प्रसंग स्मरण हो आया, जिसे उसने कुछ दिवस पूर्व ही अपनी स्मरण – पुस्तिका में संग्रहीत किया था, इसे उसने कहाँ, किसके मुख से सुना था, या पढ़ा था, उसे स्मरण नहीं हो पा रहा था; संभव है कि उसने स्मरण – पुस्तिका में इसका सन्दर्भ भी लिखा हो जैसी कि उसकी आदत थी; वो प्रंसग को सन्दर्भ के साथ ही लिखता, ये उसने हिंदी के प्रश्न – पत्रों से सीखा था। शिशु – मंदिरों में हिंदी पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वो प्रसंग एक स्वमें तंत्र संग्राम सेनानी से सम्बंधित था, शारीरिक दौर्बल्य से मंद हुई स्मरण शक्ति में उसको उन सेनानी महोदय का नाम विस्मृत हो गया था, तथापि प्रंसंग अक्षरसः स्मरण था, “चिकित्सकों ने उनसे कहा कि आप को तो १०५ बुखार है, आप तो खड़े भी नहीं हो सकते, फिर कैसे लड़ेंगे ?”, उत्तर में उन्होंने कहा, “अभी अंतिम श्वाँस तो बाकी है ना, जब तक ये अंतिम श्वाँस बाकी रहेगी, मैं माँ भारती के सम्मान के लिए लडूँगा, मरना तो एक दिन है ही !” ये शब्द स्मरण होते ही प्रभात एकाएक उठ बैठा, “जय माँ भारती !!”, “मैं अंतिम श्वास तक लडूँगा।”


प्रभात के यूँ एकाएक उठ बैठने से माँ – पिताजी घबरा गए, “क्या हो गया इसे ? कहीं ज्वर ने इसके मस्तिष्क पर तो कोई प्रभाव....नहीं नहीं.. ऐसा नहीं हो सकता !” एक साथ ही ये विचार उनके मन में कौंधे; “क्या हुआ बेटा, लेट जाओ, कुछ नहीं हुआ, कुछ नहीं हुआ”, आशंका मन के विश्वास को हिला देती है, इसी आशंका में प्रभात के माता पिता को प्रभात में आये अकस्मात् परिवर्तन ने भयग्रस्त कर दिया था। “मैं ठीक हूँ, मैं परीक्षा दूँगा पिताजी, मैं परीक्षा दूँगा माँ”, असामान्य उत्साह से प्रभात ने कहा। “मैं ठीक हूँ”, बालक के ज्वर से तपते हुए मुख से निकले हुए शब्द भी उन्हें सांत्वना देने में पूर्ण समर्थ तो नहीं थे, तथापि उनके भयग्रस्त कपाल पे अकस्मात् गहरी होती रेखाओं को कुछ कम तो अवश्य कर गयी थीं।


दो दिन बाद ही वार्षिक परीक्षाएं थीं, प्रभात ने ज्वर से क्षीण हुई काया को उन शक्तिशाली प्रेरक प्रंसंगों से स्फूर्त किया, और विजय के प्रति विश्वस्त होकर रणक्षेत्र की ओर बढ़ चला।


आज उसके अपरिमित साहस के प्रतिफल मिलने का समय था। आज वार्षिक परीक्षा का परिणाम घोषित होना था। सभी छात्र संसद भवन में शिक्षक गणों के साथ उपस्थित थे। आज रणबाँकुरों के शौर्य का विजय – गान गाया जाना था। प्रभात को प्रथम पुरस्कार की अपेक्षा थी; और क्यों न हो, विपरीत परिस्थितियों में उसने अदम्य इक्छाशक्ति का परिचय जो दिया था। जहाँ एक ओर अन्य बालक विद्यालय न जाने के लिए झूठ मूठ बहाने बनाया करते, प्रभात तपते हुए शरीर के साथ ही रणक्षेत्र में उतर गया था। उसकी अपेक्षा निर्मूल नहीं थी।


प्रथम पुरस्कार न मिलने से प्रभात कुछ दुखी तो था, किंतु अभी भी निराशा उसके मन – मस्तिष्क पर अधिपत्य न कर पायी थी। प्रभात द्वितीय पुरस्कार विजेता के नाम की उद्घोषणा हेतु धैर्य जुटा रहा था। “द्वितीय पुरस्कार अर्जित किया है...”, “प्रभात !” आचार्य जी की उद्घोषणा से पूर्व ही अतुल अधीर हो उठा, “भैया आशीष सिंह ने”, आचार्य जी ने वाक्य पूरा किया; अतुल स्तब्ध, और प्रभात निराश ! प्रभात के नयनों से अश्रुधारा फूट पड़ी, बाल्यसुलभ ह्रदय टूट गया, उसके सिसकने के स्वर छिप न सके। अतुल, अपने सर्वप्रिय मित्र की स्थिति से दुखी था, बहुत दुखी ! प्रभात माँ मन किया कि वो संसद भवन से उठ कर बाहर चला जाए, उसे भाग्य का ये अन्याय असह्य हो रहा था। किंतु विद्यालय की गरिमा के विरुद्ध वो तत्काल ही बाहर नहीं जा सकता था, उसे दण्डित भी किया जा सकता था, किंतु विद्यालयी दंड से अधिक पीड़ादायक दंड तो उसे मिल ही चुका था, उसके चित्त ने तो ये मान ही लिया था। सो, प्रभात ने सिर झुकाए अश्रुवेग में लीन हो जाना अधिक उचित जाना। उचित – अनुचित में इस आयु में क्या अंतर करता वो, तथापि संसद की गरिमा को क्षति पहुँचाना उसके संस्कारों “तृतीय पुरस्कार पाया है, कक्षा २ ‘क’ के विद्यार्थी भैया ‘प्रभात मिश्र’ ने !” , “भैया प्रभात मिश्र !” आचार्य जी ने पुन: दोहराया। “भैया प्रभात मिश्र उपस्थित हैं ?” आचार्य जी ने मंच की ओर किसी को न आता देख पुन: संसद सभा में उपस्थित सभी छात्रों को संबोधित करते हुए पूछा। “प्रभात! प्रभात!”, “उठो, जाओ जल्दी, तुम्हारा नाम पुकार रहे हैं आचार्य जी”, अतुल ने आशाविहीन हो चुके प्रभात को झिंझोड़ा; प्रभात तो जैसे निराशा के झंझावातों में बुझ गए एक दिया सा कांतिहीन हो गया था, पूर्णतः आशाविहीन, अब उसे तृतीय पुरस्कार की भी आशा न थी। अतुल द्वारा बारम्बार झिंझोड़े जाने से उसने चौक कर सिर उठाया, “यदि भैया प्रभात मिश्र अनुपस्थित हैं, तो उनका पुरस्कार उनके कक्षाचार्य ग्रहण करें”, आचार्य जी के ये शब्द अब चैतन्य हुए प्रभात के कानों में पड़े। “उपस्थित हैं, आचार्य जी”, प्रभात की देरी को भाँपते हुए अतुल ने शीघ्रता दिखाई; आश्वस्त हुआ प्रभात उठा, आँसू पोंछे और मंच की ओर बढ़ चला। निराशा के चंगुल से अभी अभी छूटा प्रभात मंच की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए लड़खड़ाया, सम्हला, और मंच पर पहुँच कर आचार्य जी के चरण – स्पर्श किये, पुरस्कार स्वरुप “ॐ” की एक प्रतिकृति उसने अपने नन्हे हाथों में थाम ली। यह उसका प्रथम पुरस्कार था, प्रथम रणक्षेत्र में ! वो हारा नहीं था, माँ सरस्वती की प्रतिमा जो प्रथम स्थान आने पर मिलती, उससे वो इस बार चूक गया था, हर बार भाग्य उसके साथ ये अन्याय न कर सकेगा, वो ठान चुका है। उसने “ॐ” को आशीर्वाद स्वरुप पाया है, जिसकी दैवीय छवि उसके ह्रदय में सदैव अंकित रहती है !!


निशान्त मिश्र






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