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ऊँच-नीच

ऊँच-नीच

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सोने से महल को,

मिट्टी की कुटिया बताते हो,

भरी महफ़िल में पूछ गया,

कोई की कितना कमाते हो।


दीपक की तरह इस,

अँधेरे में चमक रहे थे हम,

तुम ख़ामख़ा ही क्यों,

अपने हाथ जलाते हो।


मेरा खुशियों का महल,

इस मिट्टी के दीये जैसा है,

तुम क्यों इस दीये में,

पानी मिलाते हो।


ज़िंदगी का फलसफ़ा,

चंद दिनों का है,

तुम इतनी-सी बात को,

कितना बताते हो।


हमने सिखाया था,

बोलने का लहजा तुमको,

तुम आज हमें ही,

बोलना सिखाते हो।


रहने दो इस दुनिया को,

उसके हाल पे नेमा,

तुम क्यों बात-बात पे,

अपना दिमाग लगाते हो।


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