थर्टी परसेंट
थर्टी परसेंट


मैंने देखा सोकर उठा इक प्यारा सा बच्चा
आँखें थीं मासूम सी, लगता बिलकुल सच्चा।
लगा पूछने कहाँ हैं मम्मी, शू शू हमको जाना
मैंने उसकी पुच्ची कर समझाया, वहाँ हो आना।
आकर बोला दुद्धु पीना, मम्मी कहाँ बताओ
कह डाला उससे ही मैंने, तुम ही आवाज लगाओ।
मेरी नक़ल बना वो बोला, 'अजी सुनती हो '
मम्मी आप हमेशा रसोई में ही क्यों मिलती हो।
बस यही बात बच्चे की मेरे मन को थी सुलगाये
आजादी के पच्छ्त्तर साल हमको क्या दे पाये।
आज भी नारी खटती र
हती, पा न सकी पूरा अधिकार
मांगे नारी आरक्षण, पुरुष समाज तुझको धिक्कार।
बना के उसको देवी हमने, खूब है नाटक खेला
पढ़ा लिखा तो दिया उसको, फिर किचन में धकेला।
कहती रही बेचारी नारी, तीस प्रतिशत तो दो सम्मान
समाज सुधारक मौन हो गए, सबने पकड़े अपने कान।
मैं भी बड़ा बनता हूँ कवि, बस इतना ही लिख पाया हूँ
अपने जीवन में मैं भी कुछ ज्यादा नहीं कर पाया हूँ।
सोचा लिख डालूँ मैं ये सब, किसी को जाए कोई सन्देश
थोड़ा सा तो कुछ असर पड़ेगा , शायद बदले मेरा देश।