अधूरापन
अधूरापन


अच्छा बच्चा बनने की तमन्ना लिये,
बूढ़ा हो रहा हूँ मैं।
बिना हुए ही पूरा, अब कुछ कम,
कुछ अधूरा हो रहा हूँ मैं।।
अनोखा करने की चाहत लिये,
इकसार सी चलती रही ज़िन्दगी।
घटती तो रहीं बातें नई पर,
अखबार सी छपती रही ज़िन्दगी।।
गढ़ी थी जो परिभाषाएं ख़ुशी की बचपन में,
अब लगती हैं अजीब।
शायद चीज़ है ये, वो जो पूरी कभी मिलती नहीं,
बस रहती है करीब।।
मुसाफिर की तरह लगता है,
सफ़र में है कुछ मजा कुछ सजा।
समय की रफ़्तार क
हाँ पकड़ आती है किसी को,
अभी इतना, तो अब उतना है बजा।।
यश अपयश के बीच चुनना हो तो,
लोग चुन लेते हैं अमीरी।
इसी उधेड़बुन में सदा लगा रहता है
मेरे जैसा आदमी जमीरी।
खूब सोचता हूँ तो दिमाग की सीमायें,
तोड़ने लगती है अपनी ही सोच।
तुम्हारी कुछ बेहतर होगी शायद,
मुझसे न मेल खाने वाली सोच।।
अब इस नाटक में अपने मन से,
डायलॉग बोलने का करता है मन।
पूरे लोगों से कुछ ज्यादा, कुछ अलग
साबित हो जायेगा एक दिन, मेरा अधूरापन।।